रविवार, 1 जुलाई 2012

गवाक्ष – जुलाई 2012



जनवरी 2008 गवाक्ष ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू--रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। गवाक्ष में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस..), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस..), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा), देविंदर कौर (यू के), नीरू असीम(कैनेडा), इला प्रसाद(अमेरिका), डा. अनिल प्रभा कुमार(अमेरिका) और डॉ. शैलजा सक्सेना (टोरंटो,कैनेडा), समीर लाल (टोरंटो, कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास सवारी के हिंदी अनुवाद की अड़तालीसवीं किस्त आप पढ़ चुके हैं।
0
बीबीसी हिन्दी सेवा के पूर्व प्रसारक और ब्रिटेन स्थित हिन्दी साहित्यकार डॉक्टर गौतम सचदेव अब हमारे बीच नहीं रहे। गवाक्ष के इस अंक में श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी दो ग़ज़लें प्रस्तुत हैं। साथ हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास सवारी की उनचासवीं किस्त का हिंदी अनुवाद


ब्रिटेन से
गौतम सचदेव की दो ग़ज़लें


नाम गंगा का बदल दो यह नदी बदली हुई है
पाप धो-धो कर सभी के यह बड़ी गंदली हुई है

भूल जाओ थी कभी यह साफ़ सुथरी-सी सुनीरा
शहरियों के पान की अब पीक-सी उगली हुई है

बहुत मुर्दे खा चुकी है मरघटों की यह सहेली
रोज़ गन्दी नालियां पीकर इसे मतली हुई है

अब धारा या तटों की गंदगी में फर्क कोई
अंग पहले ही गले अब कोढ़ में खुजली हुई है

पूजते क्या ख़ाक सब जो डालते कचरा नदी में
कह रहे देवी जिसे पैरों तले कुचली हुई है

पास शहरों के गुज़रते ही हमेशा सूख जाती
इस कदर आबादियों से यह डरी दहली हुई है

संग रहकर आदमी के रोग सब 'गौतम' लगे हैं
होश में रहती भटकी रास्ता पगली हुई है



ग़ैर को अपना बनाकर देख लो
कुछ हमें भी आज़माकर देख लो

तुम बसाओगे आँखों में हमें
पर ज़रा दिल में बसाकर देख लो

दिन ख़यालों में बिताते हो सदा
रात आँखों में बिताकर देख लो

तर हुई आँखें ख़ुशी में किस लिए
फूल से शबनम उठाकर देख लो

राज़ चेहरे से प्रकट हो जायेगा
यों छुपाने को छुपाकर देख लो

कल भले घुत कर तुम्हें मरना पड़े
आज थोड़ा गुनगुनाकर देख लो

ज़िंदगी के साथ क्या-क्या दफ़्न है
वक़्त के पत्थर हटाकर देख लो
0
 जन्म :   8 जून 1939 , मंडी वारबर्टन (पंजाब का वह भाग, जो अब पाकिस्तान में हैं)
शिक्षा : एम. ., पीएच डी (दिल्ली विश्वविद्यालय)
कार्यक्षेत्र : बीबीसी हिन्दी सेवा लंदन में 18 वर्षों से प्रसारक। दिल्ली विश्वविद्यालय में 21 वर्षों से अधिक समय तक हिन्दी साहित्य का अध्यापन और शोध निर्देशन किया। कुछ समय केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी हिन्दी साहित्य का अध्यापन किया।
प्रकाशित रचनाएँ : 
1 सिन्दूर की कसौटी पर (समीक्षा, पहली पुस्तक), 2 गीत भरे खिलौने (बालगीत संग्रह), 3 प्रेमचंद : कहानी शिल्प (शोधप्रबंध), 4 अधर का पुल (कविता संग्रह), 5 एक और आत्म-समर्पण (कविता संग्रह), 6 बूँद-बूँद आकाश (ग़ज़ल और गीत संग्रह), 7 सच्चा झूठ (व्यंग्य संग्रह), 8 साढ़े सात दर्जन पिंजरे (कहानी संग्रह), 9 अटका हुआ पानी (कहानी संग्रह), 10 त्रिवेणी(ईश, केन और कठ उपनिषदों का काव्य रूपांतर), 11 सूरज की पंखुड़ियाँ (कविता संग्रह), 12 गद्यपथ के दीप (गद्य रचनाओं का संग्रह), 13 नवयुग हिन्दी व्याकरण (सहलेखन)
14 गबन:समीक्षा (सहलेखन)
सम्मान : 
1 कहानी तितलीपर हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कार।
2 गीतों भरे खिलौनेपर भारत सरकार की ओर से बालसाहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार।
3 भारत सरकार के लंदन स्थित उच्चायोग की ओर से यू॰के॰ के उत्कृष्ट लेखक का डॉ॰ हरिवंशराय बच्चन सम्मान।
4 अभिव्यक्तिइंटरनेट पत्रिका के कथा-महोत्सव में जीरेवाला गुड़कहानी पर 5000/-रुपए का पुरस्कार।
5 कथा यू॰ के॰ संस्था की ओर से साढ़े सात दर्जन पिंजरेपर पद्मानंद साहित्य सम्मान।
6 बी॰बी॰सी॰ वर्ल्ड सर्विस की ओर से हमसे पूछिएकार्यक्रम की अन्तर्राष्ट्रीय रेडियो पर निरन्तर उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए विशेष पुरस्कार।
एवं अन्य अनेक।
निधन : 29 जून 2012

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 49)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चौवन ॥

बलदेव ने अपने काम के लिए दूसरी जगह की तलाश प्रारंभ कर दी थी, जो कि ग्राहकों को सहजता-सुलभता से मिल सके। राह से गुज़रते लोगों की निगाह में भी चढ़े। इस बार उसे एक काम कर्मचारी की भी तलाश करनी थी। वह सोचता था कि यदि कोई ड्राइवर मिल जाए तो अधिक ठीक रहेगा। इस तरह वह स्वयं दिन भर यार्ड में रह सकेगा। यार्ड को खोजने में एक दिक्कत यह थी कि इसे किसी दूसरे सेंट्रगैस के एजेंट से एक मील दूर होना चाहिए था। कई सप्ताह घूमते हुए उसने कई जगहें देखीं। अन्त में पार्क रोड पर एक दुकान मिली, जिसके पिछवाड़े में यार्ड था। यह यार्ड उसके वर्तमान यार्ड से कुछ छोटा था, पर ठिकाना बहुत बढ़िया था। कोने की दुकान होने के कारण वैन आसानी से अन्दर जा सकती थी। बड़ी लॉरी अब वाले यार्ड की तरह अन्दर नहीं जा सकती थी। परन्तु लोगों के ढूँढ़ने के लिए बहुत आसान थी। पार्क रोड पर एक ही परेड थी, इसलिए ग्राहक शीघ्र समझ सकता था कि दुकान कहाँ पर है।
      इस दुकान की खराब बात यह थी कि यह किराये पर थी। आठ हज़ार सालाना किराया। बिल्डिंग की हालत भी बहुत बढ़िया नहीं थी। दुकान के ऊपर फ्लैट था। फ्लैट में भी कुछ काम होने वाला था। इसका फायदा यह था कि यह बग़ैर किसी पगड़ी के मिल रही थी। बलदेव ने एजेंट से बात करके फ्री-होल्ड के सौदे के लिए बात चलाई। उसका विचार था कि वह अपना फ्लैट बेचकर यह दुकान खरीद ले। यहाँ ऊपर ही रहेगा तो वक्त बहुत बच सकेगा। एजेंट ने दुकान के मालिक से बात की। दुकान काफी समय से बन्द रहने के कारण मालिक भी ऊबा पड़ा था। वह फ्री-होल्ड बेचने के लिए तैयार हो गया। उसने एक लाख और पचास हज़ार पौंड मांगा। एक चालीस में बात तय हो गई। उसका फ्लैट एक लाख में बिक गया। साठ हज़ार पौंड की उसकी मोर्टगेज़ थी और चालीस हज़ार नगद बीच में से निकला। उसके बैंक ने एक लाख कर्ज़ा दे दिया। किस्त भी उतनी ही बनी जितना मालिक किराया मांग रहा था।
      दुकान की चाबी मिल गई। जो पैसे उसके पास थे, उनसे उसने यार्ड में फर्श डलवा लिया और फ्लैट को रहने योग्य कर लिया। यहाँ एक ही मुश्किल थी कि यह जगह थेम्ज़ से हटकर थी। लेकिन अब उसको अपना कारोबार थेम्ज़ से अधिक ज़रूरी लगने लगा था। और कभी जाना भी पड़े, तो गाड़ी में करीब पाँच मिनट ही लगते थे। पिछले पूरे सीज़न में वह शायद एक बार ही थेम्ज़ की ओर गया होगा। काम में फँसे व्यक्ति को ऐसी बातें सूझती भी नहीं।
      वह अपने सारे सिलेंडर पुराने यार्ड में से उठा लाया। इस यार्ड को गेट वगैरह लगवा कर पूरी तरह सुरक्षित कर लिया। अब उसको प्रतीक्षा थी तो सिर्फ़ सर्दियों की। अभी अगस्त ही था। गरमी जारी थी। अक्तूबर तक ठंड होने की आस होती थी। अभी कु देर उसके हाथ में फुर्सत थी।
      अपनी बेटियों से मिलने वह एक सप्ताह छोड़कर जाता। दोनों बेटियाँ अब उसके साथ खुल गई थीं। जो भी उन्हें चाहिए होता, वे खुद ही मांग कर ले लेतीं। वह दुबारा कार नहीं ले पाया था। यदि कार इस्तेमाल करनी होती तो सिमरन की ले लेता। अपनी पिकअप वहाँ खड़ी करता और कार ले आता। उसको कार की ज़रूरत सिर्फ़ बेटियों को लाने के समय ही पड़ती थी। उसका कई बार दिल करता कि बेटियों को गुरां से मिला लाए। वह कितना खुश होगी उन्हें देखकर। उसके भाई भी खुश होंगे, पर वह जा नहीं पाया। सिमरन ने कई बार गुरां का हाल पूछा। बलदेव को लगता कि शायद वह व्यंग्य में पूछ रही है।
      बलदेव को थोड़ा हैरानी हुई थी जब उसने अपना कमरा देखा था। इस कमरे में वह और सिमरन सोया करते थे। सिमरन के अनुसार बलदेव के चले जाने के बाद इस कमरे में कोई नहीं सोया था। कमरे की सफ़ाई करके उसका सारा सामान वैसे ही अल्मारियों में रखा हुआ था। एक टेप जो उसने शुरू-शुरू में खरीदी थी और वह छोटा-सा टेलीविज़न भी, जिसे वह बैडरूम के लिए स्पेशल लेकर आया था। सिमरन ने बैड को झाड़कर बिछाया और बोली -
      ''डेव, यह तेरा ही बैड है। जब चाहे सो सकता है, घर की चाबी तो तेरे पास होगी।''
      बलदेव ने अपनी चाबियों को गुच्छा देखा। वाकई घर की चाबी उसके पास थी। सिमरन ने ताले बदलवाए नहीं थे। अब भी घंटी बजाने की बजाय चाबी से ही दरवाज़ा खोलता था। घर जाते उसे महसूस होने लगा था कि यह घर कानूनी तौर पर उसका अपना था और नैतिक तौर पर भी। वह बेटियों को लेने जाता तो सिमरन उसको चाय और नाश्ता बना देती। कई बार सिमरन भी उनके साथ ही चली जाती, बाहर घूमने या फिल्म आदि देखने। वापस बच्चियों को छोड़ने आता तो कई बार सिमरन उसको खाने के लिए रोक लेती। वह दो पैग व्हिस्की के लेता और सिमरन वाइन का गिलास भर लेती। बलदेव की ज्यादातर बातें बेटियों के संग ही होतीं। सिमरन के साथ वह गिनी-चुनी बातें ही करता। एक दिन बलदेव एक पैग अधिक पी गया। सिमरन ने कहा-
      ''डेव, तू ऑवर लिमिट है, गाड़ी चलाना ठीक नहीं। यहीं पड़ जा, सवेरे चले जाना।''
      बलदेव को भी लगा कि अब वह गाड़ी नहीं चला सकेगा। वहीं सोने के कारण एक पैग का लालच उसने और कर लिया। सोते समय सिमरन उसको गुड-नाइट करने आई तो वह सिमरन की तरफ़ देखने लगा और कितनी ही देर तक देखता रहा। फिर उसने उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सिमरन उसका हाथ पकड़कर उसके पास आ गई। उसके ऊपर झुक गई। बलदेव ने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया और बहुत ध्यान से देखने लगा। मानो कुछ खोया हुआ ढूँढ़ रहा हो।
      उसके बाद बलदेव वहाँ प्राय: ही रुक जाया करता। सिमरन उसके साथ आकर सो जाती, पर जो एक दूरी उनके मध्य बनी हुई थी, वह वैसे ही रहती। वो फासला उनके बीच से न हटता जैसे यह फासला उनके साथ ही सोता और जागता हो। वह कितनी बार थीन पार्कों में भी गए, जहाँ तेज़-तेज़ रोलर स्केट्स दौड़ रहे होते। और भी कितनी सारी राइड्स होतीं जो आदमी के जिस्म और मन को हिलाकर रख देतीं। इस तरह हिलातीं कि आदमी अन्दर से खाली हो जाए और सब कुछ अन्दर से निकल जाने पर व्यक्ति फिर से तरो-ताज़ा हो जाए, पर बलदेव के साथ ऐसा कुछ घटित न हुआ। वो फ़ासला ज्यों-का-त्यों रहा।
      सितम्बर के महीने में ठंड की शुरूआत-सी हो गई थी। बरसात होती तो एकदम ठंड हो जाती और गैस बिकने लगती। धूप निकलती तो गरमी हो जाती। काम रुक जाता। शनिवार उसका अधिक बिजी हो जाता। उसने ग्रीनविच जाने का दिन इतवार का कर लिया था। शनिवार को कई बार सिमरन ही उसके पास आ जाती। सिमरन बच्चियों को लेकर फुल्हम वाले फ्लैट में भी जाया करती थी। अब सिमरन के लिए भी बलदेव के बग़ैर सप्ताहांत काटना कठिन प्रतीत होता था।
      बलदेव को काम करने के लिए कोई कर्मचारी नहीं मिल रहा था। ड्राइवर तनख्वाह बहुत मांगते थे। उसको लिज़ जैसी कोई लड़की चाहिए थी या फिर अन्य कोई व्यक्ति जिस पर भरोसा किया जा सके। इस वर्ष उसको अधिक बिजनेस करने की उम्मीद थी क्योंकि उसकी दुकान का ठिकाना इस कारोबार के लिए बिल्कुल सही था। गैस के रैप आदि आते तो तारीफ़ करने लगते। दुकान उसकी खाली ही पड़ी थी, वहाँ उसने गैस के एप्लाइंस रखने शुरू कर दिए। हीटर भी मंगवा लिए। पहले कोई हीटर का ग्राहक आता था तो वापस कर देता था। इस साल वह नहीं करेगा। फिर इस वर्ष तो सेंट्रल गैस वाले इन हीटरों पर स्पेशल ऑफर लगा रहे थे। उसका पूरा लाभ उठाना चाहिए था। उसने गैस की रेंज भी बढ़ा ली थी। अब उसने कैपिंग गैस, फोर्क लिफ्ट गैस, प्रोपेन गैस भी रख ली थीं।
      इन्हीं दिनों मोबाइल फोन निकले थे। उसने झिझकते-झिझकते ले ही लिया, क्योंकि ये खरीदने में मंहगे थे और प्रयोग में भी। इतने पैसे खर्च करके बातचीत फिर भी अच्छी तरह न सुनाई देती थी। मोबाइल फोन का नाम सुनते ही उसके अन्दर एक हसरत-सी उठी और उसने मोटरोला कम्पनी का फोन खरीद लिया।
      जैरी स्टोन उसको बहुत कम मिला करता था। बलदेव को उसको मिलना होता तो स्पेशल फुल्हम जाता। जैरी उसको देखकर बहुत खुश होता। वह प्रसन्न था कि बलदेव ने दुकान खरीद ली थी हालांकि उसको बलदेव का इस इलाके में से चले जाने का दु:ख भी था।
      अक्तूबर भी आ गया, पर ठंड न आई। सितम्बर में तो कुछ गैस बिकी ही होगी, पर अक्तूबर में काम ठंडा पड़ गया। सिमरन का फोन आता तो सबसे पहले वह उसके काम के विषय में पूछती। एक दिन वह कहने लगी-
      ''डेव, तेरा बर्थ-डे आ रहा है, कैसे सैलीब्रेट करना है ?''
      ''मैंने तो कभी बादर ही नहीं किया, बर्थ-डे तो बच्चों के होते हैं।''
      ''मैं नहीं, तेरी बेटियाँ ही तेरा बर्थ-डे सैलीब्रेट करना चाहती हैं।''
      ''ठीक है, उन्हें कहीं ले जाऊँगा।''
      ''वो तो सदा ही ले जाता है, इस बार आना, उनके साथ मिलकर केक काटना।''
      ''ठीक है, देखूँगा, पर प्रॉमिस नहीं कर सकता।''
      अपने बर्थ-डे वाले दिन वह ग्रीनविच चला गया। चलते हफ्ते का दिन होने के कारण उसको सबकुछ कुछ अजीब लग रहा था। सड़कों पर ट्रैफिक भी अधिक था, वह स्वयं भी छुट्टी के मूड में नहीं था। घर पहुँचा तो ड्राईव-वे में फॉर्ड की नई-सी कार खड़ी थी। वह वहीं का वहीं रुक गया यह सोचकर कि घर में कोई आया हुआ न हो। सिमरन की कार भी बराबर में खड़ी थी, इसका अर्थ सिमरन भी घर में ही होगी। वह पहले तो लौटने लगा, पर उसने सोचा कि यह उसका अपना घर था, यदि कोई आया भी होगा तो देखा जाएगा। वह अन्दर गया। लॉन्ज़ में जा कर इधर-उधर देखने लगा। वहाँ सिमरन और बच्चों के सिवाय दूसरा कोई नहीं था। सिमरन ने पूछा-
      ''क्या बात है ?''
      ''कुछ नहीं, यह कार किसकी है ?''
      सिमरन ने एनेबल को इशारा किया और उसने बलदेव के हाथ में बर्थ-डे कार्ड और एक अन्य लिफाफा थमा दिया। बलदेव ने कार्ड पढ़कर उनका धन्यवाद किया और फिर दूसरा लिफाफा खोलने लगा और पूछा-
      ''यह क्या है ?''
      ''चाबियाँ, तेरी कार की।''
(जारी…)
00




लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)