बुधवार, 18 जनवरी 2012

गवाक्ष – जनवरी 2012




जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू।एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा) और देविंदर कौर (यू के) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की इकतालीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जनवरी अंक में प्रस्तुत हैं – नीरू असीम(कैनेडा) की पंजाबी कविता तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की बयालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


कैनेडा से
नीरू असीम की कविता
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

लड़की

उसने लड़की को कहा
तू चिड़िया, तू हवा
लड़की उड़ती रही
और समझती रही
वह चिड़िया, वह हवा

उसने लड़की से कहा
तू तो अबला बहुत
लड़की हैरान थी
फिर भी चुप ही रही
मान गई सहज भाव से
लगी प्रतीक्षा करने
सुर्ख उजाले के राह

उसने लड़की से कहा
जाग ऐ दुर्गा माँ
लड़की ने ज़िन्दगी को
मोर्चा बना लिया
कदम कदम पर
युद्ध का
बिगुल बजा लिया
और लड़की लड़ती रही
खत्म होती रही
मरती रही

फिर लड़की ने कहा
मैं सहज रूह हूँ
मैं सहज प्राण हूँ
मैं कुछ और नहीं

न मेरे लिए
कोई अलग निज़ाम
न मेरे अन्य नाम
न न्यारे पैगाम
मैं वही हूँ जो हूँ

मैं युगों से युगों तक
एक सिलसिला

मैं सहज रूह हूँ
मैं सहज प्राण हूँ
फिर लड़की ने कहा
मैं कोई और नहीं...
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(यह कविता पंजाबी कवयित्री सुरजीत के ब्लॉग 'सृजनहारी' में पंजाबी में प्रकाशित हुई है)

कवयित्री का ई मेलjindal_neeru@yahoo.ca

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 43)


सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ अड़तालीस ॥
बलदेव सुबह उठा तो लिज़ ज़ागी बैठी थी। उसने टेक लगाकर सिर पीछे की ओर किया हुआ था। बलदेव ने पूछा-
''तू ठीक है ?''
''हाँ, सिगरेट की तलब हो रही है, पर सिगरेट है नहीं।''
बलदेव भी उठकर बैठ गया। उसने लिज़ क़ी ओर देखा। उसकी लम्बी गर्दन जानी-पहचानी लगी। उसने आगे बढ़कर उसकी गर्दन पर चुम्बन दिया। एक पल के लिए उसको लगा कि मानो यह गर्दन गुरां की हो। फिर उसको याद आया कि गुरां उस दिन इसी जगह पर बैठी गा रही थी, पर उसने तो उसकी गर्दन को चूमा ही नहीं था। उसने गुरां को छुआ तक नहीं था। वह पूरी रात एलीसन के साथ जागकर लौटा जो था। उसको अपने गुनाह का एकदम अहसास हो गया। वह समझ गया कि गुरां उस दिन गीत बीच में क्यों छोड़ गई थी। लिज़ ने उसको हिला कर कहा-
''डेव, तू कहाँ गुम हो गया ?''
''कहीं नहीं।''
''फिर मेरी बात का जवाब क्यों नहीं देता ?''
''कौन सी बात ?''
''तूने मेरे साथ सोने की गलती क्यों की ?''
''लिज़, यह तेरी ही इच्छा थी, मैंने तो बस पूछा था।''
''फिर कंडोम क्यों नहीं इस्तेमाल किया ?''
''मैं कभी रखता नहीं ऐसी चीज़ें।''
''वहाँ डिस्को की टॉयलट में मशीन थी।''
''डार्लिंग, डोंट वरी, कोई गोली खा ले।''
''यह बात नहीं डेव, मैं कभी उस मर्द के साथ नहीं सोती जिसको जानती न होऊँ, कल तेरे साथ डिस्को पर गई तो...।''
बलदेव उसकी बात से ध्यान हटाकर गुरां के विषय में सोचने लगा। लिज़ उठकर बाथरूम में चली गई। कल शाम लिज़ ने ही कहा था कि चल, डिस्को चलें और बलदेव तैयार हो गया था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। लिज़ क़ी सोच से अपने आप को मुक्त करके वह गुरां को फोन लगाने या किसी तरह से मिलने जाने की योजना बनाने लगा।
जब काम के लिए आदमी रखने का सवाल आया तो उसके मन में शिन्दे का नाम उभरा। क्यों न उसको ले आए। सौ पौंड में सातों दिन काम करेगा। पर लाएगा कैसे, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। अजमेर के वह सामने नहीं पड़ना चाहता था। फिर उसके मन में आया कि सीज़न खत्म होने के बाद शिन्दे को तनख्वाह कहाँ से देगा। शिन्दे के बाद गैरथ का नाम उसके पास था। उसने गैरथ से जाकर बात की लेकिन वह अपनी बिल्ली को लेकर बहुत चिंतित था। बैटरसी फर्नपार्क से इतनी दूर पड़ता था कि आने में ही दो घंटे लग जाने थे। गैरथ खाली रहने का अभ्यस्त हो गया था। उसका काम के लिए मन कहाँ करना था।
जिस दिन गैरथ को मिलने गया तो उसने सतनाम की दुकान का चक्कर काटा। सतनाम वर्क-टेबल पर झुका मीट काट रहा था। बलदेव दूर से देखकर आगे बढ़ गया। फिर उसने स्टेयरिंग हाईबरी की ओर घुमा लिया। इस पिकअप में पहचाने जाने का डर भी कम था। हाईबरी जाकर उसका दिल गुरां से मिलने को उतावला पड़ने लगा। शिन्दा गल्ले पर खड़ा था, टोनी साथ था। इसका अर्थ था कि अजमेर और गुरां ऊपर होंगे। उसने राउंड अबाउट के दो चक्कर लगाए। दूसरे चक्कर में अजमेर की पगड़ी पब की खिड़की में दिखाई पड़ी। गुरां ऊपर अकेली ही होगी, बच्चों के साथ। यदि वह फोन करे तो गुरां ही उठाएगी। उसको पता था कि फोन बच्चे या शिन्दा नहीं उठाते। यह उसके घर का एक सिस्टम था। बलदेव ने गाड़ी एक तरफ खड़ी की। सामने ही फोन बॉक्स था। फोन बॉक्स में से गुरां की खिड़की दिखती थी। उसने फोन किया। गुरां की आवाज़ सुनकर उसका मन भर आया। उसने बहुत मुश्किल से 'हैलो' कहा। उधर से गुरां बोली-
''तू कहाँ है ? तू नाराज तो अपनी भाजी से था, पर हमें किस बात की सज़ा। शैरन कितनी बार तेरे बारे में पूछ चुकी है।''
''आइ एम सॉरी गुरां, मैं अपने कारोबार के चक्कर में था।''
''क्या हाल है तेरा ?''
''मैं ठीक हूँ, तू मेरे फ्लैट में आकर वहाँ से ठीक नहीं लौटी थी। मुझे चिंता था। दुबारा इस बारे में बात भी नहीं हुई। उस दिन मुझसे जल्दबाजी में गलती हो गई। मैं अब समझ गया। मैं उस दिन तुझे ठीक से ट्रीट नहीं कर सका...।''
''नहीं बलदेव, तेरे से कोई गलती नहीं हुई, सब ठीक था, मैं ही कुछ...।''
''गुरां, मैं जानता हूँ, मैं पूरी तरह इन्वोल्व नहीं हो सका था। मेरा माइंड पता नहीं कहाँ चला गया था।''
''छोड़ इस बात को, तू हमें मिलने कब आ रहा है ?''
''तू एक बार फोन रखकर विंडो मे आ जरा, एक नज़र मैं तुझे देखना चाहता हूँ।''
''कहाँ है तू ?''
''कहीं भी, विंडो में आ।''
गुरां खिड़की में आई। बलदेव ने दूर से हाथ हिलाया। गुरां ने भी। दोनों कितनी देर तक ज्यों के त्यों खड़े रहे। फिर बलदेव जल्दी से अपनी गाड़ी में आ बैठा।
अगले दिन फिर लिज़ क़ी गर्दन को देखते हुए गुरां को याद करता रहा था। डिस्को जाने के बाद लिज़ से उसकी निकटता बढ़ गई थी। लिज़ टी.वी. के चैनल फोर पर रिर्सच स्कॉलर थी। उसने आगे चलकर किसी न्यूज़ टीम का हिस्सा बनना था अथवा डाक्यूमेंटरी तैयार करने वाले विभाग का। सारा दिन वह इधर-उधर घूमती रहती। शाम को उसकी क्लासें लगती थीं। वह क्या करती थी या कहाँ जाती थी, बलदेव ने कभी जानने का यत्न नहीं किया था। एक दिन लिज़ क़हने लगी-
''कैसा शहर है यह लंदन, जब चाहो तो काम नहीं मिलता। वैसे कहते हैं कि यहाँ काम की कमी नहीं।''
''तू काम तलाशती फिरती है ?''
''हाँ ?''
''तूने बताया क्यों नहीं ? मेरे साथ आ जा, सौ पौंड दूँगा हफ्ते के।''
''सौ पौंड ! इतना तो मैं तुझे किराया ही देती हूँ।''
बलदेव को अहसास हुआ कि वह गलत कह गया था। वह शिन्दे वाले रेट पर ही टिका हुआ था। लिज़ क़े साथ डेढ़ सौ पौंड पर बात तय हो गई। अगली सुबह ही वह उसके साथ काम पर जाने लग पड़ी।
लिज़ को खुशी थी कि इसका काम बहुत सरल था। आम तौर पर फोन सुनना ही या फिर आए हुए ग्राहक को सिलेंडर देना। ग्राहक खाली सिलेंडर एक तरफ रखता और भरा हुआ सिलेंडर दूसरी तरफ से उठा लेता। सिलेंडरों के दो हिस्सों में बंटे थे - एक हिस्से में खाली सिलेंडर थे और दूसरे में भरे हुए सिलेंडर। सिलेंडर भारी थी और उन्हें छेड़ना तक भी उसके बूते से बाहर था। अधिकतर ग्राहक मर्द ही होते थे। कभी कभार कोई औरत आ जाती। लिज़ को उसकी मदद करनी पड़ती और उसे बहुत परेशानी होती। उसको बलदेव की या किसी मर्द ग्राहक की प्रतीक्षा करनी पड़ती। ठंड बढ़ जाने से काम भी बढ़ गया था।
लिज़ शीघ्र ही बोर होने लगी। वह इतनी देर तक खाली बैठ नहीं सकती थी। रेडियो और टेलीविज़न उसको जल्दी ही फिज़ूल प्रतीत होने लग पड़े। लिज़ के यार्ड में रहने से बलदेव का काम बहुत आसान हो गया था। वह बाहर डिलीवरी का काम करता रहता। लिज़ का रुख देखकर उसे रिझाकर रखने के तरीके ढूँढ़ता रहता। वह चाहता था कि किसी तरह लिज़ उसके साथ पूरा सीज़न काम करे। उसने लिज़ के सभी ऊपरी खर्च उठा लिए थे। शनिवार की रात उसको डिस्को लेकर जाता, बेशक वह कितना ही थका हुआ क्यों न होता।
कई बार उसके मन में एलीसन का नाम भी आता। एलीसन जिस कैफ़े में काम करती थी, वहाँ उसको कई सुविधाएँ थीं। बलदेव को पता था कि वह वहाँ से काम नहीं छोड़ेगी। उसको याद आया कि उसने एलीसन को फोन भी नहीं किया था। कितने ही हफ्ते हो गए थे, न तो वह एलीसन की तरफ गया था और न ही फोन कर सका था। शाम को उसने एलीसन का फोन घुमाया। ‘हैलो’ कहते हुए वह बोली -
''डेव क्या हाल है ? शौन का फोन आया कोई ?''
''हाँ, शौन का फोन आता रहता है। एलीसन, तू सुना, तू कैसी है ?''
''मैं ठीक हूँ।''
''सॉरी, मैं इतने दिन हो गए, आ नहीं सका।''
''डेव, कोई बात नहीं। मुझे पता है, तू बहुत व्यस्त है। जब फुरसत मिले, आ जाना।''
''आज आ जाऊँ ?... एक-दो बातें करना चाहता हूँ।''
''डेव, आज तो मेरे ब्वॉय फ्रेंड ने आना है।''
''कोई नया है ?''
''हाँ, तेरी मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती।''
बलदेव का एकबार तो दिल बैठ गया, पर फिर ठीक होकर वह नील का हालचाल पूछने लगा।
बलदेव को किसी न किसी तरह लिज़ के साथ ही अपना काम चलाना पड़ा। वे दोनों ही एक दूसरे के साथ में खुश होने की कोशिश करते, जब कि दोनों के बीच कुछ भी साझा नहीं था। लिज़ तनख्वाह के कारण उसके साथ जुड़ती थी और वह काम करवाने की खातिर, नहीं तो दोनों का स्वभाव एक दूसरे से उलट था। लिज़ को डिस्को जाना पसंद था और बलदेव को पब में बैठकर रिलैक्स होना अच्छा लगता। बलदेव रेस्ट्रोरेंट में या घर में बैठकर आराम से खाना खाना चाहता तो लिज़ चलते चलते चिप्स खाने को तरजीह देती। लिज़ को राजनीति से कोई वास्ता नहीं था। जो कुछ भी हो, दोनों ही एक दूसरे को दिलों के किसी कोने से पसंद भी करते थे।
लिज़ कई बार अपने पढ़ाई की बातें बलदेव के साथ करने लगती। उन दिनों में भारतीय विवाहों पर तैयार हो रही डोक्युमेंटरी पर उसका काम चल रहा था। वह बलदेव से पूछने लगी -
''मैं तुम्हारे विवाहों के बारे में आजकल बहुत कुछ देख रही हूँ। क्या सचमुच ही इतनी बुरी हालत है तुम्हारे समाज में लड़के-लड़कियों की ?''
''क्या मतलब ?''
''यही कि विवाह में उनकी कोई मर्ज़ी नहीं होती, जिसके साथ तुम विवाह करते हो, उसको जानते तक नहीं होते, तुम्हारे माँ-पिता तुम्हारा विवाह अनजान व्यक्ति से करके कह देते हैं कि चल, सो उसके साथ। क्या यह सच है ?''
''हाँ, यह सच है, पर इसको समझने के लिए भारतीय सामाजिक ढांचे को समझने की ज़रूरत पड़ेगी। पूरे समाज में से सिर्फ़ एक अंग को निकालकर मेज़ पर रखकर उसका निरीक्षण नहीं कर सकते।''
''मैं विवाह की संस्था के बारे में बात कर रही हूँ। यह एक अंग नहीं एक सिस्टम है जो कि गलत है।''
''नहीं, इतना गलत नहीं शायद, तुम्हारे सामने रखा ही गलत तरीके से जाता है।''
''चल, तू ही बता, तेरा विवाह कैसे हुआ ?''
''इसी तरह, मैं उसको पहले नहीं जानता था।''
''तुझे नहीं लगता कि यह जुर्म है...मेरे साथ एक स्टुडेंट हैं - आशा। कहती है कि उसके भाई के पास गर्ल फ्रेंड है, परन्तु उसके घरवाले उसको ब्वॉय फ्रेंड रखने की इजाज़त नहीं देते। तू बता, यह हिपोक्रेसी है कि नहीं ?''
''भारतीय समाज भारत में बखूबी चल रहा है। यहाँ से बढ़िया चल रहा है। ये आशा जैसे थोड़े से अपवाद तो हर समाज में हुआ करते हैं।''
''ठीक है, तू बता कि कल को तेरी बेटी ब्वॉय फ्रेंड रख सकेगी ?''
''क्यों नहीं ? वह अब इंडियन नहीं ब्रिटिश है।''
''कितने इंडियन तेरी तरह सोचते होंगे ?''
बलदेव को इस सारी बातचीत से तकलीफ़ हो रही थी। उसने बहुत कठिनाई से लिज़ का ध्यान इन सवालों से हटाया।
मार्च में आकर ठंड कम हो गई और सीज़न खत्म हो गया। लिज़ ने एक हेयर-ड्रैसर की दुकान पर काम खोज लिया। बलदेव से उसका साथ छूट गया। दिन में वह काम करती और शाम को कालेज चली जाती। कभी बलदेव के जागते ही लौट आती और कभी वह सो चुका होता। एक शाम लिज़ आई। उसके साथ एक सूटेड-बूटेड व्यक्ति था। बलदेव से उसको मिलवाते हुए वह कहने लगी -
''डेव, यह मेरा ब्वॉय फ्रेंड है, डौमनिक चिज़नी।''
(जारी…)
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