tag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post6159092680266580945..comments2023-09-18T21:46:52.029+05:30Comments on गवाक्ष: गवाक्ष – जुलाई 2010सुभाष नीरवhttp://www.blogger.com/profile/03126575478140833321noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post-28624592885895961882010-07-27T04:11:26.100+05:302010-07-27T04:11:26.100+05:30प्रेम मान की कविताएँ अच्छी लगी --
बेघर लोगों का
सच...प्रेम मान की कविताएँ अच्छी लगी --<br />बेघर लोगों का<br />सचमुच कोई भी<br />पता नहीं होता।<br />सच कहा प्रेम जी ने..<br />हम प्रवासियों की यही नियति है..Dr. Sudha Om Dhingrahttps://www.blogger.com/profile/10916293722568766521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post-75074758668614078092010-07-14T21:20:01.288+05:302010-07-14T21:20:01.288+05:30हरकीरत जी, आपकी इस टिप्पणी के लिए शुक्रिया। अच्छा ...हरकीरत जी, आपकी इस टिप्पणी के लिए शुक्रिया। अच्छा लगता है जब आप मेरे किसी ब्लॉग पर आकर अपनी राय देती हैं। आपने जो अपना मेल आई डी दिया है, उसे मैंने नोट कर लिया है और भविष्य में उसी का प्रयोग करूंगा। आपने मान साहिब की कविता में जिस शाब्दिक गलती की ओर इशारा किया है, उसके लिए भी धन्यवाद। दर असल बहुत सावधानी बरतने पर भी टंकण की गलती चली जाती है। मैंने गलती को सुधार दिया है। <br />भाई चन्देल, तुमने "धूपों" शब्द के बारे में प्रश्न उठाया, वह सही है। यह शब्द धूप से ही संबंधित है लेकिन बहुवचन के रूप में धूप से धूपों हो गया है, जो हिंदी व्याकरण से गलत लगता है। पर पंजाबी भाषा की अपनी एक टोन है। वह 'सोच' शब्द का जब प्रयोग करते हैं तो "सोचां"(सोचों) के रूप में करते हैं जैसे "उह गहरी सोचां विच डुब गिया सी" अर्थात "वह गहरी सोच में डूब गया था"। इसी प्रकार 'धूप' का धुप्प की जगह 'धुप्पां' हुआ है जिसका अनुवाद करते समय मैंने जान-बूझकर "धूपों" रहने दिया हैं। कई बार पंजाबी भाषा के लहजे की खुशबू को बनाये रखने के लिए मैं ऐसी छूट अनुवाद में ले लेता हूँ, हो सकता है कइयों को यह गलत लगे। तुम्हारा भी धन्यवाद कि तुमने प्रेम मान की कविताओं को इतनी गहराई से इंजाय किया जब कि तुम जैसा कि खुद कहा करते हो कि कविता की फील्ड के व्यक्ति नहीं हो।सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/03126575478140833321noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post-59525685280953988542010-07-14T09:37:21.685+05:302010-07-14T09:37:21.685+05:30प्रेम मान की तीनों कविताएं सहज होने के साथ ही गंभी...प्रेम मान की तीनों कविताएं सहज होने के साथ ही गंभीर अर्थ देती हैं. लेकिन नीचे के शब्दप्रयोग समझ नहीं पाया.<br /><br />मुझे धूपों से<br /><br />एक और बहुबचन दोनों में ’धूप’ ही पढ़ता आया हूं. यहां ’धूपों’ का कुछ और अर्थ तो नहीं---<br /><br />नीरव तुम बताना. अनुवाद तुम्हारा तो सदैव उम्दा ही होता है.<br /><br />चन्देलरूपसिंह चन्देलhttps://www.blogger.com/profile/01812169387124195725noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post-54279577031769238872010-07-13T22:55:01.761+05:302010-07-13T22:55:01.761+05:30सुभाष जी ,
बड़े दिनों से इधर आ नहीं पाई थी ........सुभाष जी ,<br /><br /> बड़े दिनों से इधर आ नहीं पाई थी ......पहले आपके मेल मेरे याहू मेल पर मिल जाया करते थे ...पर इधर दो तीन महीने से मेरा याहू मेल नहीं खुल रहा तो मैंने स्थाई तौर पे उसे बंद ही कर दिया .....कृपया अब ' harkirathaqeer @mail .कॉम पर ही मेल भेजें .....<br /><br />प्रेम मान जी का परिचय जान गर्व हुआ .....रचनायें भी बहुत अच्छी लगीं ......<br /><br />मेरे दोस्त कहते हैं<br />मैं दूसरों से<br />बहुत भिन्न हूँ<br /><br />भिन्न तो हैं ही ....<br />सघश्मय जीवन रहा इनका ......<br /><br />मुझे मूसलाधार बारिश<br />तेज बहती हवायें<br />और आँधियों से<br />बहुत मोह है<br /><br />ऐसे इंसान अपना परिचय यूँ ही देते हैं .......<br /><br />कुछ बिगड़ने पर<br />मैं किस्मत से अधिक<br />अपने आप का इल्ज़ाम देना<br />अधिक पसन्द करता हूँ<br /><br />बहुत खूब .......<br />(यहाँ तीसरी पंक्ति में 'को' की जगह 'का' शायद टंकण की गलती से रह गया सुधार लें )<br /><br />आज अपने पुराने देश में<br />जाते समय सोचता हूँ-<br />बेघर लोगों का<br />सचमुच कोई भी<br />पता नहीं होता।<br /><br />बहुत सुंदर.......<br /><br />आपकी पारखी नज़रों का कोई सानी नहीं ......आभार .....!!हरकीरत ' हीर'https://www.blogger.com/profile/09462263786489609976noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3373418343297232067.post-45051668312238087722010-07-12T21:09:52.292+05:302010-07-12T21:09:52.292+05:30अपनी मिट्टी अपनी ही होती है। अपनों से मिलते हैं तो...अपनी मिट्टी अपनी ही होती है। अपनों से मिलते हैं तो अपनेपन की बात होती है। रिश्तों की महक होती है, यादों की चहक होती है। और ये सब क्या किसी घर से कम होता है? मुझे तो लगता है आपके भावों में, आपके शब्दों में आपका पता होता है!उमेश महादोषीhttps://www.blogger.com/profile/17022330427080722584noreply@blogger.com