रविवार, 15 जून 2008

गवाक्ष- जून 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले पाँच अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा की कविताएं तथा रचना श्रीवास्तव की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली चार किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – लंदन निवासी कथाकार-कवयित्री दिव्या माथुर की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की पांचवी किस्त का हिंदी अनुवाद…

दस कविताएं
दिव्या माथुर (लंदन)
चित्र : अवधेश मिश्र

पहला झूठ
नई बत्ती को जलाए रखने के लिये
देर तक आग दिखानी होती है
जली हुई रुई की बत्ती
बडी आसानी से जल जाती है
पहला झूठ भी बडी मुश्किल से फूटता है।


अँधेरा

सच को न तो
ओढ़नी चाहिये
न ही कोई बिछौना
झूठ ही ढूँढता है
एक काली चादर
और छिपने के लिए
एक अँधेरा कोना।

अकेलापन

सोचती हूँ
सच बोलना छोड़ दूँ
कम से कम
अकेलापन तो जाएगा भर
अंतर में सुलगती रहे
चाहे अँगीठी
आत्मा की जली कुटी
सुनने से
कहीं बेहतर होंगी
दुनिया की बातें
मीठी मीठी।

मेरी ख़ामोशी

मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ
एक दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ कि
तुम सा नकार जाओगे
इससे अपना रिश्ता
यदि मुकर न भी पाये तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर बरी कर देगा
पर तुम
भूल के भी न इतराना
क्यूंकि मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ।


विसर्प

अपने बदन से
उतार तो दिया
उस विसर्प को
जो पला किया
मेरे खून पर
किंतु उसके छोड़े
निशानों का क्या करूं
जो जब तब
उभर आते हैं
और रिसने लगते हैं
छूतहे खून से।

सती हो गया सच

तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हें
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गये
तुम मेरी ओट लिये
साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच।

बासी-बासी

हर रात मैं
मैं अपने पलंग की चादर
और तकिऐ के गिलाफ
बदलती हूं
हर रात तुम लौटते हो
बासी-बासी।

अपेक्षा


अन्दर से टूटी फूटी थी स्वयं
पर जोड़ती रही
सबको, सब चीज़ो को
दूसरो से सच की अपेक्षा करती रही
अपने मन मे झूठ छिपाये।

सुनामी सच

तुम्हारे एक झूठ पर
टिकी थी
मेरी गृहस्थी
मेरे सपने
मेरी खुशियाँ
तुम्हारा एक सुनामी सच
बहा ले गया
मेरा सब कुछ।

सहारा

एक सच की तलाश मे
तलवों के रिस रहे है घाव
और हथेलियों मे उग आए है कांटे
कौन ग़म बांटे
एक झूठ का सहारा था
लो वो भी छूट गया!
(उपर्युक्त दस कविताओं का चयन कवयित्री द्वारा “झूठ” पर लिखी गईं सीरीज़ कविताओं में से किया गया है)

शिक्षा : एमए (अंग्रेजी) के अतिरिक्त दिल्ली एवं ग्लास्गो से पत्रकारिता में डिप्लोमा। आइ टी आई दिल्ली में सेक्रेटेरियल प्रैक्टिस में डिप्लोमा एवं चिकित्सा आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन।
कार्यक्षेत्र : रॉयल सोसायटी आफ आर्टस की फेलो दिव्या का नेत्रहीनता से सम्बंधित कई संस्थाओं में योगदान रहा हैं। वे यू के हिंदी समिति की उपाध्यक्ष कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष भी रही हैं। आपकी कहानियां और कविताएं भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण के अतिरिक्त इनकी कविताओं कहानियों व नाटकों का मंचन प्रसारण व ब्रेल लिपि में प्रकाशन हो चुका है। दिव्या जी को पदमानंद साहित्य एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है।

प्रकाशित रचनाएं : ‘अंत:सलिला’ ‘रेत का लिखा’ ‘ख्याल तेरा’ ‘आक्रोश’ ‘सपनों की राख तले’ एवं ‘जीवन ही मृत्यु’।
संप्रति : नेहरू केन्द्र (लंदन में भारतीय उच्चायोग का सांस्कृतिक विभाग) में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी।

संपर्क : 3-A Deacon Road,
London NW2 5NN
E-mail : divyamathur@aol.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 5)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। आठ ।।

शौन का मन काम में लगने लगा। उसे अब लंदन में बस जाना ही अच्छा लगता। उस दिन जब उसने ऐलिसन को उसके साथ वापस आयरलैंड लौट चलने के लिए कहा था तो उसके मन में कुछ हुआ था कि वह स्वयं तो वापस लौटने का कोई इरादा नहीं रखता था। आयरलैंड जाने के बारे में सोचते ही उसके मन को कुछ होने लगता। वह सोचता कि यदि कभी आयरलैंड जाना भी पड़ा तो वाटरफोर्ड या कौर्क में जा बसेगा। वैलज़ी तो वह तभी जाएगा जब उसमें उतना ही बड़ा फॉर्म हाउस खरीदने की ताकत आ जाएगी।
काम पर उसका भिन्न-भिन्न लोगों के साथ वास्ता पड़ता था। भिन्न-भिन्न देशों के लोगों से। सियासत में रुचि रखने के कारण वह हर समय अपनी जेब में टाइम्ज़ अखबार रखा करता था। दुनियाभर की ख़बरें पढ़ता और फिर उसके बारे में बात करने के लिए किसी न किसी की तलाश में रहता। रोडेशिया जिम्बावे बनकर दुनिया के सामने आया तो उसे गैरी फ्लिंट बातें करने के लिए मिल गया। जब भी ब्रेक होती या कहीं मिल बैठते तो इसी विषय पर बहस करने लगते। गैरी इंग्लिस था। यह बात शौन को लंदन में आकर समझ में आ गई थी कि इंग्लिस लोग आयरश लोगों के प्रति अच्छा नज़रिया नहीं रखते। उत्तरी आयरलैंड में चल रहे आतंकवाद ने समूचे आयरलैंड का अक्स बदल कर रख दिया था। अंग्रेजों को इस बात से सरोकार नहीं था कि कौन-सा आयरस उत्तरी आयरलैंड की लहर से सहमत था और कौन-सा नहीं। वे सभी आयरशों को नफ़रत की निगाह से देखते। अंग्रेजों के मुकाबले एशियन और अफ्रीकन लोगों का व्यवहार बहुत दोस्ताना था।
शौन की मेजर सिंह के साथ निकटता बढ़ने लगी थी। उसे भारत की राजनीति की अधिक समझ नहीं थी। केन्द्र सरकार में तो एक ही पार्टी थी, पर प्रांतों में कई-कई पार्टियां थीं। जल्दी-जल्दी गिरती-बनती सरकारों की ख़बरें उसकी पकड़ में नहीं आ रही थीं। पंजाब में हुई हलचल के बारे में भी उसे अधिक जानकारी नहीं थी। मेजर सिंह इस मामले में उसके बहुत काम आया। मेजर सिंह से ही उसे सिक्ख धर्म की विशालता के बारे में पता चला। मेजर सिंह उसे पंजाब में सिक्खों के संग हो रहे बर्ताव के बारे में विस्तार से बताता।
मेजर सिंह से दोस्ती बढ़ी तो उसने उसके घर भी जाना प्रारंभ कर दिया। उसे मेजर सिंह का सिक्खी मर्यादा में रहना अच्छा लगता था। उसका घर बहुत अच्छी तरह सजा हुआ होता। उसकी पत्नी घर में ही रहती और बच्चों व घर की देखभाल करती। शौन को यह बात बहुत अच्छी लगती। वह मेजर सिंह को बताने लगता–
“मिस्टर सिंह, यही फिलोसफी क्रिश्चियन धर्म की है, पति काम करेगा, पत्नी घर संभालेगी। असल में, ईश्वर ने मनुष्य को बनाया ही इस तरह है कि आदमी बाहर का काम करे और औरत अंदर का।”
“पर शौन, आज की दुनिया ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। औरत को ज़रूरत से ज्यादा हक दे दिए हैं। ये जो स्त्रियाँ आदमी के बराबर काम करने लग पड़ी हैं, इसने बहुत काम खराब किया है।”
“ज़िन्दगी नार्मल नहीं रही, ज़िन्दगी का मज़ा पहले जैसा नहीं रहा। यह अप्राकृतिक ज़िन्दगी है, पर करें भी क्या।”
“तू विवाह कैसी लड़की से करवायेगा ?”
“घरेलू लड़की से। मैं चाहता हूँ कि लड़की मेरी बात सुने, मेरा कहना माने।”
“यह तो फिर इंडियन लड़की ही ऐसा कर सकती है। कोई इंडियन लड़की ढूँढ़ ले।”
“अभी कोई प्रोग्राम नहीं है, अगर विवाह का इरादा हुआ तो सोचूंगा।”
मेजर सिंह के घर जाते हुए उसने नोट किया कि उसकी पत्नी उसकी हर बात मानती थी। एक दिन उसने उससे पूछा–
“मिसेज सिंह, तुम्हारा दिल नहीं करता कि तू काम पर जाए ?”
“यह तो इनकी मर्जी है। अगर इन्हें पसंद है तो मुझे भी पसंद है। नहीं तो नहीं। मेरे साथ की कई स्त्रियाँ काम करती भी हैं, पर यह नहीं चाहते।”
शौन कहता कि भारतीय पत्नी को वोट तो पति से पूछकर ही डालनी है, पर वह टॉयलट भी पूछकर जाती है। कहने को तो किसी भी लहजे में कह जाता, पर दिल से उसे यह बात पसंद थी। आहिस्ता-आहिस्ता वह सोचने लगा था कि क्यों न किसी भारतीय लड़की से दोस्ती की जाए। उसने मेजर सिंह से पूछा–
“मिस्टर सिंह, यहाँ इंडियन पब कहाँ है ?”
“ये साऊथाल में बहुत से पब इंडियन ही हैं, हम कई बार गए हैं।”
“पर इनमें इंडियन लड़कियाँ तो होती नहीं।”
“इंडियन लड़की तुझे इस तरह पब में नहीं मिलेगी, ज़रा और मेहनत करनी पड़ेगी। अगर पब में आई लड़की मिल गई तो शायद वो वैसी न हो, जैसी तुझे चाहिए। पब में आने वाली लड़की इंडियन नहीं होती।”
शौन ने कई बार कोशिश की, पर किसी भी भारतीय लड़की से उसका सम्पर्क न हो सका। उसे भारतीय लोग बहुत ही कट्टर दिखाई देते। कई बार उसे मेजर सिंह की बातें भी संकीर्ण लगने लगतीं।
इन्हीं दिनों में ही बलदेव काम पर आ लगा। शौन वाले टेबल पर ही वह ट्रेनिंग पर आया था। लम्बा कद, महीन मूंछें और नाक पर ऐनक वाला यह भारतीय शौन को पहली नज़र में ही अच्छा लगा था, पर जब उसने सियासत के बारे में बातें शुरू कीं तो वह और अधिक दिलचस्प प्रतीत हुआ। मेजर सिंह से उसके विचार बिलकुल भिन्न थे। उसे सिक्खों की कोई समस्या नहीं दिख रही थी। दुनिया की राजनीति के बारे में भी उसके विचार मेजर सिंह से बहुत अलग थे। मेजर सिंह के उलट उसको ब्रितानवी सियायत में भी गहरी दिलचस्पी थी। अब उसकी दोस्ती बलदेव के साथ बढ़ने लगी। उसमें एक ही नुक्स था कि वह धार्मिक नहीं था।
बलदेव शौन का हमउम्र भी था, जबकि मेजर सिंह बड़ी उम्र का था। अब वे दोनों ही इकट्ठे घूमा करते। बलदेव कईबार शौन के फ्लैट में चला जाता। शौन को अब कांउसल की ओर से रहने के लिए फ्लैट मिला हुआ था। शौन भी बलदेव के घर जाता रहता था। यही नहीं, उसके रिश्तेदारों के घर भी चला जाता। उसके घर का माहौल भी मेजर सिंह वाले घर से अलग था। उसकी पत्नी सिमरन बैंक में काम करती थी। यहाँ की जन्मी भारतीय लड़की में और गोरी(अंग्रेज लड़की) में कोई फ़र्क दिखाई नहीं देता था। वह सोचने लगता कि अगर वह यहाँ की जन्मी इंडियन लड़की से विवाह करवाएगा तो मसले वही रहेंगे। इससे तो बेहतर है कि वह किसी आयरश लड़की के साथ ही ज़िन्दगी गुजारे। रंग का मसला भी नहीं होगा और न ही धर्म का। आगे बच्चों के लिए भी कोई कठिनाई पैदा नहीं होगी।
क्रिकलवुड ब्रोड-वे पर नेशनल नाईट क्लब था। बहुत बड़ा हाल था इस क्लब का। हर वीक-एंड पर यहाँ डिस्को होता। इस क्लब का मालिक आयरश था। यहाँ आयरश संगीत चलता और अधिकतर आयरश लोग ही हुआ करते। शौन यहाँ नियमित रूप से जाता था। कोई अस्थायी लड़की मिल भी जाती, पर ऐसी नहीं मिली थी जिसके साथ लम्बे समय के लिए संबंध बना सके। कभी-कभार बलदेव भी उसके संग चला जाता लेकिन वह रहता बहुत दूर था। ग्रीनविच, दरिया के दूसरी तरफ। उसके लिए वापस लौटना कठिन हो जाता।
एक दिन शौन क्लब गया तो उसे एक इंडियन लड़की दिखलाई दी। वह हैरान होता हुआ उसकी तरफ लपका। उसे वह बहुत सुंदर लगी। उसके करीब जाकर शौन कहने लगा–
“मैंने तुझे पहले भी कहीं देखा है, कहाँ...।”
“नहीं, मैं इस इलाके में नहीं रहती। मैं तो छुट्टियाँ बिताने आई हूँ।”
“हाँ, तू अलिज़बब टेलर-सी दिखती है, इसलिए... तू बहुत खूबसूरत है। किस देश से आई है ?... इंडिया से ?”
“शुक्रिया। नहीं, इंडिया से नहीं, मारीशस से हूँ, वैसे ओरिजिन इंडिया का है।”
“अकेली हो ?”
“नहीं, मेरा ब्वाय-फ्रेण्ड साथ है।”
ब्वाय-फ्रेण्ड के नाम पर शौन की फूक निकल गई। उसने उस लड़की की ओर गौर से देखते हुए सोचा कि यह लड़की तो छीनकर ली जाने वाली है। उसने फिर कहा–
“क्या नाम है तेरा ? कितनी देर ठहरोगी ?”
“कैरन... तेरा ?”
“मेरा शौन...। मेरे साथ बैठकर बियर पीना और बातें करना पसंद करेगी ?”
“मैं बियर नहीं पीती।”
“जूस ही ले लेना।”
शौन ने उसे कंधे से पकड़कर अपने संग ले लिया। शौन ने कहा–
“कहाँ है तेरा ब्वाय-फ्रेण्ड ? और तूने बताया नहीं कि कितनी देर रुकेगी ?”
“यहीं कहीं होगा। मैं महीना भर ठहरूंगी, फिर चली जाऊँगी।”
तभी एक सुकड़ा-सा एशियन उनके पास आ धमका। शौन उसकी तरफ देखकर मन ही मन हँसा। बातें करते हुए उसने कैरन से फोन नंबर भी ले लिया। उसके बारे में और बहुत सी बातें पूछ लीं। ब्वाय-फ्रेण्ड का नाम राजा था। वह असल में ब्वाय- फ्रेण्ड नहीं था। जहाँ वह ठहरी थी, उन्हीं का लड़का था। शौन ने उसके संग डांस भी किया और उसके दोनों हाथ पकड़कर दबाये भी। उसने कान में कहा–
“मैं तेरे साथ और अधिक समय बिताना चाहता हूँ।”
“कल फोन करना।”
फिर उनकी मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया। कैरन उसके फ्लैट में जाने लग पड़ी। कैरन वहाँ के किसी मिनिस्टर की बेटी थी। उसने अभी हाल ही में अपनी पढ़ाई खत्म की थी और वापस लौटकर पिता का कारोबार संभालना था। शौन को कैरन पसंद थी, वह उसके साथ विवाह भी करवाना चाहता था, पर कहीं कुछ रड़क रहा था। फादर जॉय से कैरन के धर्म के बारे में बात की। कैरन हिंदू थी पर क्रिश्चियनिटी के अनुसार विवाह के लिए धर्म कोई रोड़ा नहीं था। चुभने वाली बात के बारे में अधिक सोचने पर पता चला कि कैरन में अंहकार बहुत था। इतने अंहकार वाली लड़की उसके लिए ठीक नहीं थी। उसे तो मेजर सिंह की पत्नी जैसी लड़की की तलाश थी। फिर भी असमंजस की स्थिति में उसने कैरन से विवाह के बारे में पूछ लिया। कैरन उससे विवाह करवाने के लिए तैयार हो गई। उसने बड़ी मुश्किल से अपने पिता को राजी किया। कैरन की बड़ी बहन जो इसी प्रकार यहाँ सैर करने आने आई थी, ने भी यहीं विवाह करवा लिया था। उसने विवाह तो किसी मारीशियन के साथ ही करवाया था लेकिन वह रुतबे में कैरन के पिता से बहुत छोटा था। कैरन के पिता को इसका बहुत दुख लगा था। इससे उसके अंहकार को गहरी चोट पहुँची थी। बाद में यह विवाह तलाक में बदल गया। पिता को हार्ट-अटैक हो गया था। इस बार कैरन के पिता को इतनी भर तसल्ली थी कि अपने से छोटे आदमी से विवाह नहीं हो रहा था। कैरन को या उसके पिता को भी आयरश और अंग्रेजों के बीच के फर्क के बारे में जानकारी नहीं थी। उसे गोरा रंग ही दिखलाई दे रहा था। उसने वापस अपने देश जाना स्थगित कर दिया।
एक दिन बलदेव शौन से कहने लगा–
“मेरा इंडिया का प्रोग्राम बन रहा है, चल चलें।”
शौन तैयार हो गया। वह सोच रहा था कि शायद वहाँ विवाह के लिए कोई अच्छी लड़की मिल जाए। अगर ढंग की लड़की मिल गई तो फिर कैरन से उसने क्या लेना था। वह इंडिया घूम आया, पर कहीं कोई बात नहीं बनी। इन दिनों में विवाह के बारे में उसने इतना सोचा कि अब वह विवाह करवाने को बहुत उतावला था। यूँ भी ज़िन्दगी के बहुत सारे फैसले वह उतावलेपन में ही करता था। वह सोच रहा था कि इस वर्ष विवाह करवा लिया तो करवा लिया, नहीं तो उम्रभर विवाह नहीं करवाएगा। आयरलैंड में विवाह न करवाना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक उम्र के बाद बहुत सारे मर्द विवाह का ख़याल छोड़ देते थे।
इंडिया वह कैरन को बताकर ही गया था। वापस लौटते ही उसके अंदर कैरन के लिए बेतहाशा मोह जागने लगा। वह इंडिया से उसके लिए कई प्रकार के तोहफे लेकर आया था। वह उससे मिलकर जल्दी ही विवाह के बारे में निर्णय पक्का करना चाहता था। उसने कैरन के ठिकाने पर फोन किया। फोन उसी लड़के ने उठाया जिसे शौन ने नेशनल में देखा था। उसने बताया– “कैरन तो हमेशा के लिए वापस चली गई है।”

।। नौ ।।

तड़के ही एक बड़ी-सी लॉरी ‘बैंस मीट मार्किट’ के बाहर आ खड़ी हुई। लॉरी का ड्राइवर बिग जॉन छलांग लगाकर नीचे उतरा। लम्बे-चौड़े जिस्म के कारण उसे सभी बिग जॉन कहते थे। लॉरी की फ्रिज़ चल रही होने के कारण शोर हो रहा था। तड़के के चुप्पी में यह शोर कुछ अधिक ही महसूस हो रहा था।
बैंस मीट मार्किट का दरवाजा खुला और सतनाम ओवरआल पहनते हुए बाहर निकल आया। उसके पीछे-पीछे ही मगील था। उन्हें देखते हुए जॉन ने कहा–
“मार्निंग सैम, मार्निंग सनिओर।”
“मार्निंग जॉन, लगता है आज दिन बहुत गरम होगा।”
“हाँ, कहते तो हैं पैंतीस प्लस। मैं भी इसीलिए जल्दी काम खत्म कर लेना चाहता हूँ। फिर पब में बैठकर बियर पिऊँगा।”
“तू बहुत लक्की है जॉन।”
बियर का नाम सुनकर मगील बोला। सतनाम ने कहा–
“लौरेल, तू फिजूल की ना सोच। आ काम खत्म करें।”
उसे पता था कि अगर बियर के बारे में और बातें कीं तो मगील का अभी मूड बन जाएगा। यह डिलीवरी उतारनी ज्यादा ज़रूरी थी। फिर सोमवार होने के कारण सामने बिजी दिन खड़ा था। सतनाम उसे लौरेल कहा करता। लौरेल-हार्डी वाली प्रसिद्ध हास्य जोड़ी वाले लौरेल के कारण।
यह लॉरी ‘कंटीनेंटल मीट’ वालों की थी जो कि गाय और सूअर के मीट में स्पेशियलिस्ट माने जाते थे। इनकी कीमतें अन्य होलसेलरों की बनस्बित ठीक होती थी और सर्विस भी बढि़या होती। उधार भी पूरे दो महीने का कर लेते थे। बिग जॉन लॉरी में चढ़कर मांस के बड़े-बड़े पीस सतनाम और मगील को पकड़ाने लगा। वे उन्हें दुकान के पीछे बने कोल्ड-रूम में रख आते। कोल्ड रूम में साइज के हिसाब से हैंगर बने हुए थे। अंग्रेजी के अक्षर ‘एस’ की शक्ल के। तेज सूए वाले। वे मीट के पीस उनमें फंसा आते। गाय की पूरी टांग या फिर पूरा सूअर काफी भारे हो जाते। उठाने वाले की हिम्मत जवाब दे जाती। मगील की बारी आती तो वह कहता–
“जॉन, हल्के वाला देना।”
“क्या सनिओर... तनख्वाह कम मिलती है ?”
“तनख्वाह को तू कम कहता है। ये तो बहुत ही कम देते हैं। काम देख ले कितना हार्ड है, इसे कह– मेरे पैसे बढ़ाये।”
“सैम, तू सनिओर की तनख्वाह बढ़ा। देख, कैसे टांगे टेढ़ी करके चल रहा है।”
“जॉन, यह सनिओर हमारा लौरेल है। यह यहाँ काम करने कहाँ आता है, यह तो कामेडी करने आता है। अगर यह थोड़ी-बहुत कामेडी न करे तो इसे इतने भी न मिलें। काम के वक्त तो यह टॉयलेट में जा घुसता है।”
हँसते हुए सतनाम ने कहा तो मगील बोला–
“जितनी तनख्वाह तू देता है, उससे तो बंदा टॉयलेट में ही घुस सकता है।”
कहते हुए मगील एक ओर होकर हांफने लगा। जॉन ने कहा–
“सनिओर, इस हिसाब से तू शुक्रिया अदा किया कर कि तुझे तनख्वाह मिलती है। अगर कोई और होता तो दुकान में खड़े होने के तेरे से पैसे लेता।”
“तू भी जॉन लॉरी चलाने के सिवा कुछ नहीं जानता। तू क्या जाने मेरी स्किल को। मैं लंदन का बहुत बढि़या बूचड़ हूँ। चालीस साल का तजु‍र्बा है मेरा, पूरे चालीस साल का। स्पेनिश मीट काटने में मेरा कोई सानी नहीं।”
“तेरा चालीस साल का तुजु़‍र्बा है, पैदा होते ही छुरी पकड़ कर खड़ा हो गया था ?”
“बावन साल की उम्र है मेरी, देखने में ही मैं जवान लगता हूँ।”
कहते हुए मगील नखरे से चलने लगा। आर्डर पूरा उतर गया था। जॉन ने डिलीवरी नोट सतनाम के हाथ में थमाकर कहा–
“कुछ फालतू पीस हैं, अगर कैश चाहिए तो...।”
अर्थात वह चोरी का कुछ मीट बेचना चाहता था जिसे वह सस्ता दे दिया करता था। डिलीवरी करते हुए हेरा-फेरी करके या फिर पीछे फैक्टरी में से ही अधिक मीट लॉरी में रखवा लाता और सतनाम को या किसी अन्य विश्वासपात्र को बेच देता। अधिकतर ड्राइवर ऐसा ही करते थे। सतनाम ने नकद पैसे देकर वह मीट भी उतरवा लिया।
बिग जॉन लॉरी लेकर चला गया। मगील का सांस अभी भी सम पर नहीं आया था। उसने कहा–
“मैं यूं ही भारी काम को हाथ लगा लेता हूँ, मेरे वश का नहीं।”
“तुझे तो मैंने कहा था कि तू ऐंजला के साथ लिपटकर सोया रह, मैं खुद ही मायको को बुला लाता।”
मगील मायको के नाम पर कुछ न बोला। यह ओवर टाइम वह स्वयं ही करना चाहता था। इस तरह कुछ पैसे वह ऐंजला से चुराकर रख सकता था। कुछ देर बाद भी सांस सम पर न आया तो बोला–
“यहाँ बियर पड़ी थी, कहाँ गई ?”
“दूसरे कोल्ड रूम में पड़ी है। पर अगर तू अभी ही पीने लग पड़ा तो दिन कैसे गुजरेगा?”
“सैम, मैं इतना थक गया हूँ कि एक डिब्बा पीकर ही काम कर सकता हूँ। चिंता न कर, बस एक डिब्बा ही पिऊँगा।”
“देख मगील, कितना काम है, डिलीवरी संभालनी है, रेस्ट्रोरेंटों का आर्डर मुझे लेकर जाना है, मेरा वक्त तो वहीं बीत जाएगा।”
“तू फिक्र न कर, पैट्रो को आ लेने दे, देखना काम कैसे खत्म होता है।” कहकर वह अंदर से बियर लेने चला गया। सतनाम ने घड़ी देखी। अभी छ: ही बजे थे। पैट्रो ने आठ बजे आना था। दो घंटों में काफी काम किया जा सकता था। वह नये आए मीट को हिसाब से काटने लगा। मगील भी बियर खत्म करके आ गया। आठ बजे तक वे बगै़र कोई बात किए काम में लगे रहे। आठ बजे पैट्रो आ गया। पैट्रो ग्रीक बूढ़ा था। काम में तो अब वह ढीला पड़ चुका था पर था तजु़बे‍र्कार बुच्चड़। सतनाम को उसी ने ट्रेंड किया था। पैट्रो ने ओवरआल पहना और उनके साथ काम में जुट गया।
मगील और पेट्रो के अलावा माइको भी काम करता था। लेकिन शायद वह मूडी-सा आदमी था। उस पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता था। काम पर भी आ गया तो आ गया, नहीं तो अधिकतर छुट्टी मार जाता था। इसी तरह पैसों के मामले में भी था। घोड़े लगाने का शौकीन था। इस दुकान के पहले मालिक निक्की के ज़माने में उसने बहुत ऐश की हुई थी, सारा हिसाब उसी के पास हुआ करता था। कई फालतू के शौक पाल बैठा था। अब तंग हो रहा था। सतनाम को उसकी ज़रूरत रहती थी, इसलिए कई बार माइको के अनुसार ढल जाता था। लेकिन उसे टिल्ल(गल्ले) पर नहीं जाने देता था। वह जानता था कि अगर माइको का मूड सही हो तो काम में वो बहुत तगड़ा था। सतनाम सोचता था कि इसकी जगह कोई रैगुलर आदमी मिल जाए तो वह इसे हटा देगा। वह नये बुच्चड़ की तलाश में था। बुच्चड़ तो मिलते थे पर तनख्वाह पूरी मांगते थे।
पैट्रो के ठीक बाद माइको भी आ गया। सतनाम को कुछ तसल्ली हुई। वह मगील को संग लेकर रेस्तरांओं के आर्डर वैन में रखने लगा। बहुत सारे भारतीय और ग्रीक रेस्तरांओं को वह मीट की सप्लाई करता था। दुकान की परचून की ग्राहकी से डिलवरी का काम कहीं अधिक आसान था।
तीनेक साल होने को थे सतनाम को इस दुकान में। हौलोवे स्टेशन के सामने ही होर्नजी रोड पर स्थित परेड में थी यह दुकान। इसके पहले मालिक निक्की की अचानक मौत हो गई थी। उसकी पत्नी मारिया काम को चलाने में असमर्थ थी। ये पैट्रो और माइको ही काम करते थे उसके साथ। सबकुछ माइको ही था जो मारियो के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ने देता था। उसे दुकान का किराया चुकाना भी कठिन हो गया। उसने दुकान को सेल पर लगा दिया। सतनाम ने थोड़ी-सी पगड़ी देकर खरीद ली। खरीद कर पहले तो वह बहुत पछताया। मीट के काम को उसे कोई अनुभव नहीं था। फिर पैट्रो ने उसे काम सिखलाया। सतनाम जल्द ही समझ गया कि बहुत सारे ग्राहक तो पैट्रो के कारण ही दुकान से जुड़े हुए थे, खासतौर पर ग्रीक ग्राहक। इसी तरह ग्रीक रेस्तरांओं के जो आर्डर मिले हुए थे, वे सब पैट्रो के कारण की टिके रह सकते थे इसलिए उसने पैट्रो को काम नहीं छोड़ने दिया जबकि पैट्रो की उम्र रिटायर होने की हो रही थी। पैट्रो के लिए भी ठीक था कि अपनी मर्जी से काम करके तनख्वाह लिए जा रहा था।
मीट का काम बहुत मेहनत मांगता था। सतनाम का पहला सबक तो यह था कि हर कौम के लोग अलग तरह से मीट काटते हैं और खाने के लिए जानवर का अलग-अलग हिस्सा पसंद करते हैं। किसी को जांघ का मांस पसंद है, किसी की टांग का तो किसी को सीना। मगील को उसने स्पैनिश तरीके से मीट काटने के लिए ही रखा था।
सतनाम के स्टाफ में एक जुआइश भी थी। जुआइश अफ्रीकन औरत थी जो कभी अंग्रेज के संग ब्याही हुई थी। उस अंग्रेज के दो बच्चे भी थे। होर्नज़ी रोड में से निकलती लॉयल रोड पर रहती थी। वह दुकान में सफाई करती। दिन में दो बार आती थी। एक बार दोपहर को और एक बार शाम के वक्त दुकान बन्द करने के समय। मीट की दुकान में सफाई का खास ध्यान रखना पड़ता था, नहीं तो हैल्थ वाले जुर्माना कर जाते थे।
दुकान में काम करने का माहौल बहुत सहज था। हर वक्त हँसी-मजाक चलता रहता। सतनाम का स्वभाव भी कुछ ऐसा था कि वह किसी के सिर पर खड़ा नहीं होता था। रौब डाले बिना ही अपना काम निकलवा लेता। हर शाम हिस्सा डाल कर व्हिस्की की बोतल लाई जाती। थोड़ी-बहुत बियर हर वक्त फ्रिज़ में रखे रखते। जुआइश व्हिस्की नहीं पीती थी, वह सिर्फ़ बियर ही पीती। बियर भी स्ट्रांग जैसे कि टेनंट या स्पेशल ब्रू।
पैट्रो वुडग्रीन में रहता था। दुकान के सामने से ही बस जाती थी। कई बार सतनाम छोड़ भी देता। माइको हौलोवे रोड पर पड़ने वाले फ्लैटों में रहता था। पैदल का पांच मिनट का रास्ता। मगील का होर्नज़ी रोड पर ही कुछ और आगे जाकर घर था। सतनाम की अपनी रिहायश मुज़वैल हिल थी। आठ बजे दुकान बन्द करने का समय निश्चित किया हुआ था। साढ़े सात बजे ही काम समेटना आरंभ कर देते और आठ बजे काम के साथ-साथ व्हिस्की भी समाप्त कर देते और दुकान के शटर खींच देते थे। फिर एक-दूजे को अलविदा कह कर अपनी-अपनी राह पकड़ लेते थे।
मीट का काम करने के बारे में सतनाम ने सोचा भी नहीं था। वह काफी समय से दुकान तलाश रहा था पर आफ लायसेंस, न्यूजपेपर शाप या ग्रोसरी आद की दुकान। मीट का काम उसे बुरा लगा करता था, पर यही काम करना पड़ा। इसके पीछे यह कारण था कि यह दुकान बहुत सस्ती मिल गई थी। किराया भी ठीक था, फिर मीट में मार्जिन अन्य वस्तुओं से अधिक था। पहले पहले उसे मीट की कटाई का काम बहुत कठिन लगता था। हर समय हाथ कटने का भय बना रहता। पर अब वह पूरा बूचड़ बन चुका था।
यह दुकान बहुत बड़ी नहीं थी। दुकान का एरिया कम ही था। थोड़ी-सी राह छोड़कर दुकान जितनी चौड़ाई में फ्रिज़ काउंटर बनाया हुआ था। इस फ्रिज़ में नमूने का ही मीट होता था, शो-केस में रखने की तरह। ज्यादातर मीटर तो पिछले कोल्ड रूम्स में ही रखा होता। ग्राहक आर्डर करता और वे निकालकर ले आते और उसके सामने काट देते।
मीट का ध्यान भी रखना पड़ता था। यह खराब भी जल्दी हो जाता था, खासतौर पर गर्मियों में। खराब मीट मुसीबत भी खड़ी कर देता। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। एक अंग्रेजी स्त्री मीट लेकर गई और घंटे भर बाद ही लौट आई। वह गुस्से से भरी हुई थी। दुकान में घुसते ही बोली–
“दुकान का मालिक कौन है ?”
“मैं हूँ ।”
मगील को आगे बढ़कर कहा। वह स्त्री उससे कहने लगी–
“यह देख तेरा मीट, तू लोगों को गंदा मीट बेच रहा है।”
मगील तुरन्त सतनाम की ओर संकेत करता हुआ बोला–
“असली मालिक वो है।”
“मालिक कोई भी हो, मैं तुम्हारी शिकायत करने जा रही हूँ। तुम लोग बासी मीट बेच रहे हो, तुम्हें पब्लिक की सेहत का ज़रा-भी ख़याल नहीं। मैं तुम्हें कचेहरी में घसीटूंगी।”
(क्रमश: जारी…)


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