शनिवार, 1 जनवरी 2011

गवाक्ष – जनवरी 2011



मित्रो, सर्वप्रथम आप सभी को नव वर्ष 2011 की बहुत बहुत शुभकामनाएँ ! हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी हम सबको यही कामना और प्रार्थना करनी चाहिए कि यह नया साल घृणा, द्बेष, नफ़रत, आतंक, विध्वंश से रहित हो और इसके स्थान पर प्रेम, सौहार्द, अमन-चैन और खुशहाली को स्थापित करने वाला हो। इस नये वर्ष में हम सब मिलकर प्रकृति और जीवन को नष्ट करने वाली हर गतिविधि का विरोध करें और इन्हें और अधिक बेहतर और खुशहाल बनाने की प्रक्रिया में संलग्न हों…

जनवरी 2008 में मैंने “गवाक्ष” ब्लॉग की शुरूआत की थी। दो वर्ष का सफ़र पूरा करके यह तीसरे वर्ष की यात्रा में प्रवेश कर रहा है। “गवाक्ष” ब्लॉग के पीछे मेरी मंशा यह थी कि इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाया जाए जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में ईमानदारी से रेखांकित में लगे हुए हैं। “गवाक्ष” का यही उद्देश्य आगे भी जारी रहेगा। इसमें केवल उन्हीं रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित होंगी जो अपने वतन की मिट्टी से कोसों दूर बैठकर सृजनरत हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की बत्तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जनवरी 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – संयुक्त अरब इमारात से पूर्णिमा वर्मन की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तैंतीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

संयुक्त अरब इमारात से
पूर्णिमा वर्मन की कविताएँ

सर्द मौसम- बारह क्षणिकाएँ
कविताओं के साथ सभी चित्र : पूर्णिमा वर्मन
1

धुंध बादल
और ये पेड़ों पे पतझड़
सर्दियों में डूबते दिखते हैं
दिन भी

2

एक हिम सागर
धरा पर
और पत्तों को उतारे
एक तरुवर
दूधिया सूरज नहाता

3

इस अकेली शाम का
मतलब न पूछो
सर्द मौसम
और फैला दूर तक
एकांत सागर
एक पुल
थामे हुए हमको हमेशा

4

धूप की खिड़की
और सर्दी से भरा दिन
बंद अलमारी दुखों की
और पर्दों से बरसती
आस खुशियों की

5

आज
फुर्सत का कोई पल
दूर सूरज गुनगुनाए
सर्द मौसम को थपक
जैसे सुलाए

6

हरी छाँहों में बसी है
गंध सर्दी की
बहुत नम
पारदर्शी याद जैसे
कनक शबनम

7

एक मेपल पात
पियरा
देस से परदेस तक
सर्दी का मौसम जोड़ता है
मुदित जियरा

8

खुशनुमा
सर्दी का मौसम
धरा सागर
और
हिम लिपटी ये बटियाँ
दूर खुलता बादलों में से उजाला

9

पाँव में पायल या सिर पर बोझ
मौसमों से
नहीं रुकते काम
समय को साँटना भी और
जीवन साधना भी है

10

आग है तो आस है
सर्द मौसम
पार करने की
जो मन में चाह है
एक प्याली चाह में वह ताप है

11

धूप नहाया शहर और
मौसम जाड़े का
आतप झरती काँच
और खिड़की मनभावन

12

देवदारों से
ढँकी यह राह
धुँध में घिरता हुआ दिन
सर्द सन्नाटा
और झरती डालियाँ धीमे
000
जन्म : 27 जून 1955
शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।
संप्रतिपिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह : वक्त के साथ (वेब पर उपलब्ध)ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 33)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ अड़तीस ॥
इंडिया में बैठा शिन्दा भाइयों के पास इंग्लैंड आने के लिए उतावला होता। पिता की मृत्यु पर जब आने की तैयारी कर रहा था तो उसका मन पूरी तरह उमंग से भरा हुआ था। घर में अफ़सोस करने आए लोगों की परवाह भी वह भूल जाता। यहाँ पहुँचकर भी वह खुश था। पिता की मृत्यु का दुख था जो शीघ्र ही खत्म हो गया और अंतिम संस्कार के बाद शिन्दा इंग्लैंड के आनन्द को महसूस करने की रौ में आ गया। उसका आनन्द पौंड कमाने में ही था। पौंडों के लिए काम ज़रूरी था।
दुकान में तो वह आते ही काम में हाथ डालने लगा था। दुकान का काम उसको बहुत बढ़िया लगा। इंडिया गए लोग अपने भारी कामों की कहानियाँ सुना सुनाकर यूँ ही डराते रहते थे। दुकान का काम कहीं से भी भारी नहीं था। घंटे ही ज्यादा होते, और कुछ नहीं। सोहन सिंह के संस्कार तक तो शिन्दा जैसे भीड़ में घिरा रहा। बलदेव आ जाता और सतनाम भी। दूसरे गाँवों के लोग अफ़सोस प्रकट करने के लिए आते और मिलते रहते। गाँवों की बातें चल पड़तीं। सब अच्छा लगता। संस्कार के बाद वह एकदम अकेला हो गया। बलदेव तो अब जैसे आता ही नहीं था। सतनाम भी इतवार को आता और अजमेर के संग पब में जा घुसता। गुरिंदर भी अधिक बात न करती। वह बच्चों के संग अपने बच्चों की तरह खेलना चाहता, पर वे उसे बुलाते ही नहीं थे। अपितु उसकी बात पर मजाकिया लहजे में हँसने लग पड़ते।
उसे शीघ्र ही महसूस होने लग पड़ा था कि वह घर का तुच्छ-सा जीव था जबकि इंडिया में वह घर का मुखिया था। उसे गागू बहुत याद आने लगता जो कि उसका बहुत कहना मानता था। इसी तरह दोनों बेटियाँ भी। मिन्दो कभी रूठती तो कभी मान जाती, पर वह एक दबका मारता तो पानी की तरह उसके आगे घूमती फिरती। कभी कभी सक्क का दातुन करती तो गोरे रंग पर लाल अधर बहुत उभरते। यदि कभी शिन्दा रूठ जाता तो उसे सौ सौ नखरे करके मनाती। अब यह सब बहुत पीछे रह गया था। हज़ारों मील दूर। पर वह सारे फ्रीज हुए क्षण उसके सपनों में या ख़यालों में पिघल कर बहते और उसको तंग करते। उसकी नींद टूट जाती। जागता होता तो मन उचाट हो जाता।
उसे अपना रोजाना का रूटीन जो उसे पहले अच्छा लगता था, अब उबाऊ लगने लग गया था। सवेरे उठकर दुकान खोलता और रात के ग्यारह बजे तक खड़ी टांग रहता। ज्यादातर वास्ता उसका टोनी के साथ पड़ता था। टोनी से वास्ता पड़ने के कारण ही अंग्रेजी भी जल्दी सीख गया। उसके रूटीन में उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं होती थी। वह फिल्मों का शौकीन था। इंडिया में होता था तो वीडियो घर मंगवा कर फिल्म देखता। नई लगी फिल्म का पहला शो देखने जालंधर या होशियारपुर जा पहुँचता। लेकिन यहाँ कभी टेलीविज़न के आगे बैठ ही नहीं सका था। यदि कभी बैठता तो बच्चे अपना प्रोग्राम देख रहे होते। यदि कभी कुछ देख भी रहा होता तो बच्चे एकदम चैनल बदल देते।
इंडिया में उसे बढ़िया कपड़े पहनने का बहुत शौक था। कभी क्रीज़ नहीं मरने देता था। पर अब वही ट्राउजर सवेरे उठकर टांगों में फंसाता और दुकान में आ घुसता। इंडिया से आते वक्त वह सोचा करता कि इंग्लैंड में आकर अजमेर की तरह पगड़ी ही बांधा करेगा। जब से सिगरेट की लत पड़ी तो उसने बाल कटवा दिए थे। वैसे ही कभी कभी शौकिया पगड़ी बांध लेता। उसका पासपोर्ट भी पगड़ी वाला था, पर यहाँ आकर उसे सतनाम का चेहरा पसंद था, बिलकुल क्लीन शेव्ड। एक दिन उसने भी कुछ वक्त लगाकर शेव कर मारी। उस दिन सतनाम और बलदेव भी संयोग से आए हुए थे। सतनाम का स्वभाव पहले ही मखौल करने वाला था। वह कहने लगा-
''ओए, यह क्या खुसरे की ऐड़ी जैसा मुँह निकाले फिरता है।''
''क्यों, अच्छा नहीं लगता ?''
''अच्छा तो लगता है, बल्कि बहुत अच्छा लगता है, पर अगर किसी गोरे ने पप्पी मांग ली तो हमारी बेइज्ज़ती तो हो जाएगी न।''
उसकी बात सुनकर सभी हँस पड़े। बलदेव बोला-
''अगर गोरे ने मांग ली तो निभ जाएगा, पर अगर कोई काला पीछे पड़ गया तो इसका क्या बनेगा।''
इस बात पर सब तरफ हँसी दौड़ गई। शिन्दा शर्मिन्दा सा हो गया और उसने फिर से पहले जैसी चोंच दाढ़ी रख ली। इंडिया में वह ड्राइवरों जैसा चेहरा-मोहरा बनाकर रखता था। खड़े बाल और चोंचवाली दाढ़ी। खैणी भी खा लेता था और सिगरेटें भी पी लेता, पर जब धार्मिक लहर चली तो सब छोड़ दिया था। अब टोनी को पीते देख उसका दिल करने लगता था। अजमेर सिगरेटों के बहुत खिलाफ़ था। इसलिए शिन्दे की हिम्मत न पड़ती। उस दिन बलदेव की कार में भी डरते हुए ही स्मोक किया था कि घर जाने पर किसी किस्म की गंध के कारण कोई मुसीबत ही न खड़ी हो जाए।
बलदेव भी बहुत बदल गया था। उसे कभी बलदेव अपने बहुत करीब प्रतीत होता था। पर अब वह पहले जैसा नहीं रहा था। वैसे भी उसकी हरकतें शिन्दे को अजीब लगतीं। वह दरियाओं के बारे में ही बातें करता रहता। शिन्दे को लगता कि विवाह के टूट जाने के कारण वह मानसिक तौर पर हिल गया था। बलदेव का गोरी के साथ रहना भी उसको अच्छा नहीं लगा था। फिर जब वह गोरी किसी दूसरे आदमी के साथ दुकान में कुछ खरीदने आई तो शिन्दा बहुत दुखी हुआ था। लोगों का यह कहना था कि गोरी औरतें भरोसेवाली नहीं होतीं, बहुत सच लगा था। इस बात से सतनाम ठीक था। बाहर कहीं मुँह नहीं मारता था। जहाँ सतनाम हर वक्त मजाक के मूड में रहता, वहीं अजमेर सदैव रौब डालता रहता। उसका स्व उसे सजग करता रहता कि मैं ही मैं हूँ।
अजमेर जो कहता, वह सत्य वचन कहकर मान लेता था। उसकी बातें शिन्दे को तंग भी करती, पर वह उफ्फ नहीं करता था। जिस दिन उसने पचास पौंड हफ्ता देने की बात सुनाई, वह भी उस दिन से जबसे शिन्दा आया था तो उसे अजमेर से सारे गिले भूल गए।
अजमेर ने पूछा, ''तू खुश भी है... ये पचास तेरे बचेंगे ही, बाकी का तेरा सारा खर्चा मैंने ही करना है।''
''भाजी, जैसा आपने कर दिया, ठीक ही है। मुझे तुम्हारी बात पसन्द है। तुमने सदा मेरा भला ही सोचना है।''
सतनाम ने बताया हुआ था कि इसे मान देता रहा कर। अजमेर ने आगे कहा, ''यह अब तू देख कि पैसे तूने लेने हैं या सीधे मिन्दो को भेजें।''
''भाजी, उसे ही भेज दो।''
''ऐसा न हो कि यहाँ से पैसे जाते रहें और वो वहाँ खर्च करती रहे। मुझे पता है कि उसका हाथ ज़रा खुला है।''
''नहीं भाजी, वह ऐसी नहीं है। घर के खर्चे ही बहुत हैं। तीन बच्चे पढ़ते हैं। ज़मीन तुम्हें पता ही है कि कितनी है। हमारा घर तो तुम्हारे सिर पर ही चलता था, पहले भी और अब भी।''
अजमेर खुश हो गया। वह मिन्दो को पैसे भेजने के बारे में सोचने लगा। मिन्दो की चिट्ठी भी आई हुई थी। पैसों की मांग की थी।
शिन्दे को ख़त आते रहते थे। वह भी जवाब देता रहता। गागू उसे अलग चिट्ठी लिखता और दोनों लड़कियाँ अलग। कभी कभी शिन्दा फोन भी कर लेता। फोन मंहगा पड़ता था। अजमेर आँखें निकालने लगता था। फिर फोन करने -सुनने के लिए मिन्दो को बाहर आना पड़ता था। यह भी शिन्दे को पसन्द नहीं था।
अजमेर की अन्य किसी बात का तो वह बुरा न मनाता, पर उसका शकी स्वभाव उसे बहुत बुरा लगता था। टोनी पर शक करता, उसे अकेले गल्ले पर अकेला न छोड़ता। ऐसे ही बलदेव भी उससे खफ़ा था। शिन्दा गल्ले पर खड़ा होता तो टोनी के कान में कुछ कहने लगता। शिन्दा जला-भुना बियर का डिब्बा खोल लेता। कई बार बाहर से लौटा अजमेर पूछता कि उसके पीछे कौन कौन दुकान में आए थे। उसका अर्थ यह होता कि कहीं शिन्दा पैसे निकालकर ही न किसी को पकड़ाता रहा हो। बलदेव तो दुकान में आता ही कम था। उसका इशारा सतनाम की तरफ ही अधिक होता।
उस दिन शिन्दे को बहुत तकलीफ़ हुई थी जिस दिन बियर की छोटी सी बोतल की चोरी के कारण अजमेर ने उसे अपमानित किया था। दुकान में वह अकेला किधर किधर हो सकता था। उस दिन के बाद शिन्दे ने सोच लिया था कि छोटी मोटी चोरी के बारे में वह अजमेर को बताएगा ही नहीं। कई बार टोनी की गर्ल फ्रेण्ड आती तो टोनी बियर उसे देकर शिन्दे को पैसे देने लगता। शिन्दा अब लेने से इन्कार करने लगा था। ऐसे ही टोनी की बेटी भी अपने किसी न किसी ब्वॉय फ्रेण्ड को लेकर आ जाती, अब शिन्दा उसको थोड़ी-बहुत रियायत कर देता।
मुनीर और प्रेम शर्मा का दुकान में आना उसे अच्छा लगता था। मुनीर उससे खालिस्तान की बातें करने लगता। इस लहर के बारे में बात छेड़ते हुए मुनीर कहता-
''इसी तहरीक से सिक्खों का भला होसी।''
''भला तो पता नहीं किसका होगा, पर पंजाब मे आम बंदे की हालत बहुत बुरी है, अंधी को बहरा घसीटे फिरता है।''
''जो भी होसी, पर खालिस्तान तो बणसी।''
''मीआं, सब अखबारी रौले हैं।''
''शिन्दे, तुझे पता ना होसी, कभी साउथाल जाके देख, पूरा खालिस्तान बना है।''
''ये साउथाल कहाँ है ?''
शिन्दा कहता और फिर सोचने लगता कि अब बलदेव आया तो कहूँगा कि साउथाल लेकर चले। पर बलदेव लौटकर उसे चक्कर लगवाने के लिए लेकर ही न गया।
एक दिन प्रेम शर्मा उससे पूछने लगा-
''शिन्दे, कैसे स्टे मिल गई।''
''कैसी स्टे ?''
''यही, पुलिटिकल असाईलम की।''
''पता नहीं, भाजी को पता है।''
''अप्लाई तो कर रखा है ?''
''यह भी भाजी को ही पता है।''
''देखना कहीं....। यह तो जल्दी से जल्दी कर देना चाहिए।''
रात में उसने अजमेर से बात करते हुए कहा-
''आज प्रेम पूछ रहा था कि असाईलम के लिए अप्लाई किया कि नहीं। पक्के होने के बहुत चांस हैं।''
उसकी बात सुनकर अजमेर गुस्से में आकर बोला-
''जब हम खालिस्तानी है ही नहीं तो.... इस बामण की टांगें तो मैं चीरूंगा।''
(जारी…)
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लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथाल,
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