मंगलवार, 22 जून 2010

गवाक्ष – जून 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा, कैनेडा निवासी पंजाबी कवि डा. सुखपाल की कविता और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पचीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून 2010 अंक में प्रस्तुत हैं –यू.एस.ए. में अवस्थित हिंदी की जानी-मानी कवयित्री डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कविताएं तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की छब्बीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

यू.एस.ए. से
डॉ. सुधा ओम ढींगरा की चार कविताएं
अपेक्षा

पूनी की तरह
गृहस्थी की तक़ली पर
सुती गई…

अपेक्षाओं का सूत
गदरा ही रहा
आकाँक्षाओं के
महीन सूत के लिए
ना जाने
कितनी बार और
मेरी भावनाएँ
तक़ली पर
कती जाती रहेंगी…

मन को अटेरनी बना
इच्छाओं को कस दिया

गृहस्थी का खेस
फिर भी पूरा न हुआ…
0

बेबसी

चाँद से
मुट्ठी भर चाँदनी
उधार ले आई
हृदय के उन कोनों को
उजागर करने के लिए
जहाँ भावनाएँ
रावण बन
सामाजिक मर्यादाओं की
लक्ष्मण-रेखा पार करना चाहती है
और मन सीता-सा
इन्कार करता हुआ भी
छ्ला जाता है।
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खिलवाड़ –एक

दिन की आड़ में
किरणों का सहारा ले
सूर्य ने सारी ख़ुदाई
झुलसा दी

धीरे से रात ने
चाँद का मरहम लगा
तारों के फाहे रख
चाँदनी की पट्टी कर
सुला दी।
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खिलवाड़ – दो

किरणों के फावड़ों से
सूर्य ने
सारी ख़ुदाई
खोद डाली

रात उतरी
मेढ़ से औ’
चाँद तारे
बो गई।
००
उक्त चारों कविताएं डॉ. सुधा ओम ढींगरा के सद्य प्रकाशित कविता संग्रह “धूप से रूठी चाँदनी” से ली गई हैं जो शिवना प्रकाशन, पी सी लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर-466001(मध्य प्रदेश) से अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 26)



सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ इकत्तीस॥

सिमरन ने बैंक के कर्मचारियों के लिए बने कार-पॉर्क में कार खड़ी की। अपना पर्स उठाते हुए बाहर निकली। सीधी खड़ी होकर स्कर्ट के ऊपर आए बल को आगे-पीछे हाथ मारते हुए सीधा करने लगी। फिर कार की पिछली सीट पर से अपनी जैकेट उठाई और आसपास की कारों पर नज़र दौड़ाती अंदाजा लगाने लगी कि कौन कौन आ चुके थे। लगभग सारी ही कारें खड़ी थीं। इसका अर्थ था कि वह लेट थी। आज फैरी ने उसे लेट करवा दिया था। कभी कभी ऐसा हो जाता। अगर वह कुछ मिनट पहले चलती तो बैंक बहुत जल्दी पहुँच जाती, उस समय तक कोई आया ही न होता। उसका घर तो काम पर से इतनी दूर नहीं था लेकिन बीच में थेम्ज़ पड़ता था। यहाँ पर आकर थेम्ज़ कुछ अधिक चौड़ा हो जाता था।
वह ग्रीनिच से चलती। वूलिच आकर फैरी पकड़ती। दरिया पार करते ही वौलफोर्ड है जहाँ उसका बैंक था। दरिया ब्लैकविल टनल के रास्ते भी पार किया जा सकता है, पर टनल थोड़ा दूर पड़ता था और ट्रैफिक भी खूब हो जाता। यह फैरी ही ठीक थी। कई बार उसका दिल करता कि घर ही वौलफोर्ड में ले ले, पर फिर सोचती कि अगर यहाँ से बदली किसी दूसरे बैंक में हो गई तो फिर क्या करेगी। काम तो बदलते ही रहते हैं, पर घर बदलने बहुत कठिन होते हैं। इसलिए वह इस तरह आने-जाने की तकलीफ़ झेले जाती थी। पाँच-सात सौ गज चौड़े दरिया को पार करते हुए अधिक समय तो न लगता, पर उबाऊ-सा होता। फैरी की प्रतीक्षा भी लम्बी होती।
उसने बैंक के पिछले दरवाजे से लगे अलार्म का कोड नंबर दबाया और दरवाजा खोल कर अन्दर प्रवेश कर गई। वह करीब पंद्रह मिनट ही लेट थी। वह सबको 'हैलो' कहती और साथ ही कह देती -'सॉरी, फिर लेट।' मैनेजर सैंडी हैरिस ने हँसते हुए कहा-
''हम तो सोच रहे थे कि थेम्ज़ ने कोई गड़बड़ी कर दी।''
''हाँ सैंडी, यह थेम्ज़ बहुत खराब है। कहाँ बह रहा है, मेरे घर और मेरे आफिस के बीचोबीच।''
''मिस, यह तो सदियों से बह रहा है।''
''हाँ, पर तकलीफ़देह अब हुआ है।'' कहकर हँसती हुई वह जूली की मदद करने लगी। जूली काउंटर खोलने की तैयारी कर रही थी। वे बाहर खड़े ग्राहकों की लाइन का हिसाब लगाकर देखने लगीं कि कितने काउंटर खोले जाएँ। ठीक साढ़े नौ बजे तीन काउंटर खोल दिए गए। बारबरा उनके साथ आ गई थी। लाइन छोटी हुई तो सिमरन अपना काउंटर बन्द करके पिछले डैस्क पर जा बैठी। दस बजे उसकी किसी क्लाइंट से मुलाकात थी। किसी छोटे बिज़नेसमैन ने अपना ओवर-ड्राफ्ट बढ़ाना था लेकिन वह बैंकिंग पूरी नहीं कर रहा था। सिमरन ने एक दिन पहले ही क्लाइंट की फाइल पर बिज़नेस मैनेजर के संग विचार कर लिया था और मन बना रखा था कि उसके ओवर ड्राफ्ट की लिमिट तब तक नहीं बढ़ाई जाएगी, जब तक वह पूरी बैंकिंग करने का वायदा नहीं करता। मैनेजर सैंडी हैरिस को सिमरन पर पूरा विश्वास था, इसलिए बहुत सारे क्लाइंटों को सिमरन अपने हिसाब से डील कर लेती थी। बहुत सारे क्लाइंट भी ऐसे थे जो कि सिमरन पर ज्यादा भरोसा करते। फिर कम अंग्रेजी जानने वाले लोग तो सिमरन के साथ बात करके ही खुश रहते। कुछ एशियन क्लाइंट्स उसके कारण ही बैंक से बंधे हुए थे। मैनेजर उसे बैंक की खास ताकत मानता था। उसके कारण बैंक की टर्न-ओवर बढ़ी थी।
एशियन तो वहाँ एक और था- याकूब सुमरो। पाकिस्तानी था। याकूब सिमरन को कतई नहीं भाता था। कई बार मसखरी-सी के साथ बात करता, खास तौर पर तब से जब से वह बलदेव से अलग हुई थी। सबको पता था। सभी थोड़ी-बहुत हमदर्दी दिखा रहे थे। लेकिन याकूब ज्यादा ही हमदर्द बनता जा रहा था। यहाँ तक कि सिमरन को आँखें दिखानी पड़ी थीं। फिर जब सिमरन की ली हारवे के संग निकटता बढ़ी तो याकूब ने एक बार फिर अंदाज बदला था और सिमरन को उसे डांटना पड़ा था। अब सिमरन उसे नहीं बुलाया करती थी। काम से संबंधित बात भी सीमित शब्दों में करती।
लंच ब्रेक से पहले याकूब सुमरो उसके पास आया और कहने लगा-
''मिसेज बैंस, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।''
उसने पंजाबी में कहा था और सिमरन अंग्रेजी में बोली-
''मिस्टर सुमरो, मेरे साथ अंग्रेजी में बात करो। यह बैंक है, कोई पॉर्क नहीं।''
याकूब ज़रा-सा झेंपा और फिर बोला-
''मिसेज बैंस, मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत है।''
''मैं क्या कर सकती हूँ ?''
''स्टैनले स्लेटर मुझसे जूनियर है और उसे प्रोमोशन मिल रहा है। मुझे इग्नोर कर दिया गया है। मैं केस को यूनियन में ऊपर तक ले जाना चाहता हूँ। मुझे शायद तुम्हारी गवाही की ज़रूरत पड़े। यह सब मेरे रंग के कारण हो रहा है।''
''कैसी गवाही ? यह रंग के फ़र्क़ के बारे में मैं क्या कह सकती हूँ ? क्या गवाही दूँगी ?''
''यही मेरे काम के बारे में, मेरे बर्ताव के बारे में। मेरे साथ तो निरी रेशियल डिसक्रिमिनेशन हो रही है।''
''तुम्हारी मदद तो तुम्हारे काम ने करनी है। तुम्हारा काम तुम्हारे पेपरों में बोलेगा, तुम्हें मेरी गवाही की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। नस्लवादी कारणों का भी पता चल जाएगा।''
''फिर भी तुम्हें पता ही है गोरों का, हमारे साथ फ़र्क क़रते हैं। अगर तुम इजाज़त दो तो तुम्हारा नाम भर दूँ।''
सिमरन ने मिनट भर के लिए सोचा और कहा-
''भर दो, जो कुछ मेरी जानकारी में होगा, मैं कह दूँगी।''
''थैंक यू। मैं तो सदैव ही तुम्हें बहनों की तरह समझता हूँ।''
सिमरन ने प्रत्युत्तर में कुछ न कहा, पर मन ही मन हँसी। वह सोच रही थी कि याकूब ने उसके बलदेव से अलहदा होने को किस प्रकार मजाक में लिया था। फिर उसे अकेली समझ कर फायदा उठाने की कोशिश की थी। ऐसे ही होते हैं एशियन मर्द। ऐसा ही बलदेव था, पूरा हिप्पोक्रेट। औरत को वस्तु समझने वाला। बलदेव का ख़याल आते ही उसका चेहरा उसके सामने आ गया। बलदेव अच्छा-भला था। उसने बलदेव से कभी नफ़रत नहीं की थी। बस, उससे वह झेला नहीं जाता था। उसे तो सिमरन चाहिए ही नहीं थी, उसे तो गुरिंदर की ज़रूरत थी। बात-बात पर कहने लगता कि गुरिंदर यह पहनती है, गुरिंदर कैसे बोलती है, गुरिंदर ऐसा मेकअप करती है।
बलदेव और सिमरन का विवाह ठीक हो गया था। पहली झड़प उनके बीच रहने के बारे में फैसला करने को लेकर हुई थी। सिमरन ग्रेवज़ैड में रहना चाहती थी और बलदेव फर्न पॉर्क में, उत्तरी लंदन में जहाँ अजमेर रहता था। कुछ समय वे अजमेर के घर में भी रहे, फिर सिमरन को बैंक में नौकरी मिल गई और पहली पोस्टिंग ग्रीनिच में हुई। उसने वहीं घर ले लिया। सो, 'रहना कहाँ है' वाला झगड़ा खत्म हो गया। दूसरी झड़प सिमरन के कपड़ों और बालों को लेकर थी। पहले बलदेव मन में कुढ़ता रहता था, फिर वह सिमरन को टोकने लग पड़ा। वह चाहता था कि गुरिंदर की तरह वह सादे कमीज़-सलवार पहने, उसकी तरह थोड़ा-सा मेकअप करे और धीमे स्वर में बोले। सिमरन को बहुत बुरा लगता। एक दिन तो वह खीझ उठी और ऊँचे स्वर में बोली-
''बलॅडी, वाय नॉट यू अंडरस्टैंड, आय एम फकिन ब्रिटिश एंड शी इज़ फकिन फ्रैशी। डोंट यू डेअर टू कम्पेयर हर विद मी।''
बलदेव को यह वार्तालाप बहुत बड़ा लगा था। कई दिन इसी को लेकर लड़ाई-झगड़ा चलता रहा कि सिमरन ने 'एफ' लफ्ज़ का प्रयोग किया था। गाली निकाली थी। जब कुछ शांति हुई तो बलदेव ने उसे कहा-
''मैं मर्द होकर कभी गाली नहीं निकालता और तू औरत होकर निकालती है। शेम की बात है।''
''वाट वाज़ फकिन डिफरेंस ? तू आदमी है और मैं औरत हूँ, स्टॉप दिस रबिस।''
इस बात पर फिर झगड़ा हो गया। इस झगड़े को सामान्य हालात में लाने के लिए फिर कितने ही दिन लग गए। सिमरन बलदेव से इतनी ऊब गई थी कि उसका दिल करता था कि घर छोड़कर कहीं भाग जाए। उसकी माँ उसे रोकते हुए कहती-
''बेटी, थोड़ा समय और देख ले। यह अभी इंडिया में ही बैठा है, थोड़े समय जब यहाँ की आदत पड़ गई तो ठीक हो जाएगा।''
''मोम, और कितनी देर टोलरेट करूँ इसे ?''
''ऐसा होता है बेटी, इंडिया से आए लड़कों को घटियापन का अहसास होता है, इसलिए भी वह ट्रबल करता होगा। जैसे ठिगने आदमी को बराबर होने के लिए लड़ना पड़ता है, तेरे डैडी की तरह।''
''मोम, डैड तो जैंटिल था, तेरा कहना मानते हैं, तेरी सुनते हैं, पर यह डेव ऐसा नहीं है, ही इज़ टू मच हिप्पोक्रेट।''
''जिस दिन अच्छी जॉब मिल गई, ठीक हो जाएगा। अभी फैक्टरी वर्कर है न।''
बलदेव को रेलवे में क्लर्की मिली तो बहुत खुश था। तनख्वाह बेशक कम थी उसकी फैक्टरी वाली जॉब से, पर बढ़िया नौकरी होने का अहसास था। घर में वह पहले से अधिक प्रसन्न रहने लगा। उसे अच्छे रौ में देखकर सिमरन कहने लगी, ''अपनी हिप्पोक्रेसी को ज़रा नरम कर।''
''नहीं सिमरन, मेरी वैल्यूज़ और तेरी वैल्यूज़ में फ़र्क है।''
''सिर्फ़ हिप्पोक्रेसी का ही फ़र्क़ है। एंड वी आर मैरिड नाउ, वी शुड एडजस्ट।''
''यही तो कर रहा हूँ।''
फिर सिमरन की प्रोमशन होकर वौलफोर्ड वाली ब्राँच में बदली हो गई। वौलफोर्ड दरिया के दूसरी ओर था। कुछ हफ्ते काम पर गई और फिर गर्भवती होने के कारण छुट्टी मिल गई। आठवां महीना चल रहा था। अनैबल का जन्म हुआ। जब अनैबल महीने भर की हुई तो वह दुबारा काम पर जाना आरंभ कर दिया। बेबी को आया के पास छोड़ कर। घर में फिर झगड़ा रहने लगा। बलदेव बच्चे को आया के आसरे नहीं रखना चाहता था। वह चाहता था कि सिमरन काम छोड़ दे। जब वह ग्रीनिच में काम करती थी तो बलदेव को लगता था कि वह आँखों के सामने तो थी, पर वौलफोर्ड बहुत दूर प्रतीत होता। वहाँ तक पहुँचने की तकलीफ़ भी उसे बहुत बड़ी दिखाई देती। बलदेव उसे तरह-तरह की दलीलें देकर काम छोड़ देने के लिए तैयार करता। कभी बच्ची के लालन-पालन को लेकर, कभी वौलफोर्ड के इलाके का रफ एरिया होने की, कभी दरिया के खतरनाक रास्ते की। सिमरन कहती -
''डेव, मैं अपनी जॉब नहीं छोड़ सकती। तू तो इस जॉब की इम्पोर्टेंस समझता ही है। अगर ज्यादा ही है तो तू काम छोड़कर घर संभाल।''
''मैं मर्द हूँ मर्द, समझी।''
इसी खींचतान में शूगर भी आ गई। अब तक बलदेव भी सहनशील हो गया था। वह सवेरे जल्दी काम पर निकल जाता। सिमरन बाद में बच्चों को बेवी मांइडर के पास छोड़कर जाती और बलदेव से पहले घर लौट आती। बच्चियाँ बड़ी हो रही थीं। बड़ी ने बातें करना शुरू कर दिया था, फिर छोटी ने भी। अब वे पहले से अधिक जुड़ गए थे। सिमरन पहले गुस्से में आकर कंधे उचकाकर कह दिया करती थी कि इन बातों की मुझे कोई परवाह नहीं, लेकिन अब यह रवैया उसने छोड़ दिया था। बलदेव ने भी बात-बात में उसकी तुलना गुरिंदर से करना बन्द कर दी थी। वह समझ चुका था कि हर औरत गुरां नहीं होती। लड़ाई-झगड़ा उनका अब भी हो जाया करता। कई-कई दिन बिना बोले बीत जाते। लेकिन दोनों में से कोई न कोई झुक जाता। अब दोनों ने ही झुकना सीख लिया था।
बलदेव का स्वभाव कुछ-कुछ मनमौजी-सा होने लगा था कि जो होता है, होता रहे लेकिन सिमरन ज्यादा प्रैशर में रहने लगी। काम पर अधिक काम का बोझ ओर घर आकर घर का, बच्चों का बोझ। बलदेव ने कभी घर के काम में हाथ नहीं लगाया था। काम पर से लौटता तो सैटी पर जा बैठता और मेज पर टांगें रखकर टेलीविजन देखता रहता या फिर बच्चों के संग खेलता रहता। काम पर उसकी मित्रता शौन से हो गई थी। कई बार उसके संग पब-क्लब में चला जाता तो देर से घर लौटता। सिमरन अकेली बैठी कलपती रहती। सिमरन की बड़ी बहन अमरजीत की अपने घरवाले के साथ अनबन चल रही थी। सिमरन उसके बारे में सोचकर भी अपने मन पर एक बोझ-सा लिए रहती। फिर बहन का तलाक हो गया। इस तलाक का असर सिमरन पर भी हुआ। वह सोचती कि बलदेव के संग और झुककर रह लेगी पर विवाह टूटने नहीं देगी। बलदेव की हर नाराज़गी झेलती रहेगी।
लेकिन हालात सिमरन के हक में नहीं, विरोध में खड़े होने लगे। अमरजीत ने एक मुसलमान लड़का जवैर ढूँढ़ लिया और उसके संग रहने लग पड़ी। इसी बात पर बलदेव गुस्से में रहने लगा। वह सिमरन के पूरे खानदान को ही अबा-तबा बोलने लगा। तभी, ली हारवे सिमरन का इमीजिएट अफ़सर बनकर ब्रांच में आ गया। बैंक के कारोबारी कामों के कारण वह सिमरन को अक्सर शाम को भी फोन करता और घर भी आ जाता। बैंक की नई पॉलिसी से अनुसार एशियन व्यापारियों तक पहुँच बनानी थी। ली हारवे की यही प्रमुख डयूटी थी और सिमरन की उसे ज़रूरत होती। वह शाम की गई कई बार देर से लौटती। क्लाइंट्स के साथ डिनर पर भी जाना पड़ता। बलदेव के सब्र का प्याला जल्द ही छलक गया। एक दिन उसने कहा-
''सिमरन, सब कुछ टॉलरेट कर सकता हूँ, पर यह नहीं किया जाता।''
''डेव, यह मेरी जॉब है।''
''मुझे नहीं चाहिए, ऐसी जॉब।''
''पर मुझे चाहिए। मेरी अब आगे प्रोमोशन के चांस हैं। हो सकता है, मैं बिजनेस कंट्रोलर ही बन जाऊँ।''
''मुझे नहीं चाहिए बिजनेस कंट्रोलर, मुझे वाइफ़ चाहिए। मुझे तेरा वो बन्दा भी पसंद नहीं। मुझे तेरा किसी पराये बन्दे के साथ इस तरह जाना भी पसंद नहीं।''
''इट्स पार्ट ऑफ माय जॉब।''
''छोड़ दे ऐसे जॉब।''
''जॉब मैं नहीं छोड़ सकती।''
''फिर मुझे छोड़ दे।''
सिमरन सिर पकड़कर बैठ गई। फिर कितना कुछ सोचती मन को समझाने लगी।
अगली बार ली हारवे का फोन आया तो बलदेव फिर वही बर्ताव करने लग पड़ा-
''सिमरन, मी ओर दिस मैन एंड जॉब ?''
''डेव, यू आर टू मच फार मी। आय कांट टेक इट।''
''मी टू, आय कांट टेक इट टू।''
''डेव, दैन फक्क ऑफ फ्राम माई लाईफ़।''
(जारी…)
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67, हिल साइड रोड,साउथाल,
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