सोमवार, 12 अप्रैल 2010

गवाक्ष – अप्रैल 2010



“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की तेइसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अप्रैल 2010 अंक में प्रस्तुत हैं – यू के में अवस्थित जाने-माने ग़ज़लकार प्राण शर्मा की नई ग़ज़लें तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की चौबीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

यू.के. से
प्राण शर्मा की तीन ग़ज़लें
(1)
हाथ मिला लेने से यार नहीं होता
हर कोई अपना दिलदार नहीं होता

गंगा का जल पावन ही कहलाता है
सच्चे मन का झूठा प्यार नहीं होता

कैसे कह दूँ बेगानों को मैं अपना
सबसे इक जैसा व्यवहार नहीं होता

कितने हो अनजान कि ये भी जाना नहीं
कांटों का तो कारोबार नहीं होता

दिल चाहे कितना भी किसी का हो पक्का
कौन मुसीबत में लाचार नहीं होता

कुछ तो है संबंध हमारा सपनों से
माना हर सपना साकार नहीं होता

‘प्राण’ समर्पण करना पड़ता है खुद को
प्यार जताने से उपकार नहीं होता

(2)
बुरा-भला रिश्तों के बिगड़ते क्यों बोले
भेद किसी के यारो कोई क्यों खोले

कुछ तो लगे सच्चाई जैसा अय यारो
कोई मुँह से बोले या मन से बोले

क्यों न सुहायें हर मन को फूलों जैसे
लोग कि जिनके चेहरे हैं भोले-भोले

रोज़ नहीं चलती है फ़कीरी इनकी भी
रह जाते है खाली फ़कीरों के झोले

दूर जलाओ आग यहाँ से मतवालो
पड़ न कहीं जाएँ खलिहानों पर शोले

मिट्टी-मिट्टी ‘प्राण’ हुआ कमरा-कमरा
आँधी में दरवाजे मैंने क्या खोले

(3)
मेरी अच्छी किस्मत है कि मुझको अच्छे मीत मिले हैं
लगता है बगिया में केवल सुन्दर-सुन्दर फूल खिले है

ये भी सच है मेरे यारो अपने तो अपने होते हैं
ये भी सच है मेरे यारो अपनों के हर रोज़ गिले हैं

दो वक्तों की रोटी उसको मिली तो गुस्सा क्यों खाता है
शुक्र मना कि बेचारे के बरसों बाद अब होंठ हिले हैं

इतनी खुशी मिली है मुझको, अपनो से बेगानों से भी
लगता है, गुंचे और पत्थर दोनों मिलकर साथ खिले हैं

क्यों न रहो तुम जा के कहीं भी, मन में संशय पालने वालो
सब के सब है अपने यारो, भारत में जितने भी ज़िले हैं
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जन्म-१३ जून ,१९३७ , वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान)
शिक्षा –एम ए(हिन्दी), पंजाब विश्वविद्यालय
१९६६ से यू.के में।
सम्मान-१९६१ में भाषा विभाग ,पटियाला ,पंजाब द्वारा आयोजित "टैगोरनिबंध प्रतियोगिता" में द्वितीय पुरस्कार। १९८३ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित “अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता " में सांत्वना पुरस्कार। १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स ,लेस्टर ,यूं,के द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरकार। २००६ में हिन्दी समिति ,यूं .के द्बारा "हिन्दी साहित्य के कीर्तिपुरुष" के रूप में सम्मानित।लेखन- ग़ज़ल विधा पर कई लेख-कहानी और लघु कहानी लिखने में भी रूचि। यूँ तो गीत-कवितायें भी कहते हैं लेकिन गज़लकार के रूप में जाना जाते हैं। ग़ज़ल विधा पर इनके आलेखों की इन दिनों खूब चर्चा है।प्रकाशित कृतियाँ – ‘ग़ज़ल कहता हूँ’ और ‘सुराही’। ‘सुराही’ का धारावाहिक रूप में हिन्दी की वेब पत्रिका ‘साहित्य कुञ्ज’ और महावीर शर्मा के ब्लॉग पर प्रकाशन।
ई मेल : sharmapran4@gmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 24)



सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ उनतीस ॥

अजमेर को सोहन सिंह की मृत्यु के बाद ही पता चला कि वह कितना महत्वपूर्ण था उसकी दुकान के लिए। पूरा रखवाला था। उसके सिर पर ही दुकान को टोनी के आसरे छोड़ सकता था। उसके बाद एक बार तो सब कुछ बहुत ही मुश्किल लगा। न तो टोनी को अकेले छोड़ा जा सकता था इस डर से कि चोरी कर लेगा, न ही वह खुद या गुरिंदर हर वक्त दुकान में खड़े रह सकते थे। गुरिंदर को घर का भी काम करना होता था। अजमेर को भी कई अन्य दुकानों के काम होते। फिर ऊपर से अफ़सोस प्रकट करने वालों की भीड़ लगी रहती। बलदेव शाम को मुँह भर दिखाने आता था। जब शिन्दे को बुलाने की बात हो रही थी तो उसे लगा था कि वह ज़रूर सोहन सिंह वाली जगह की पूर्ति करेगा। वह शिन्दे को अपने संग ही काम पर रख लेगा और वह उसके पास ही रहता रहेगा। शिन्दे को उसके पास ही रहना चाहिए था। भाईचारे में भी उसके पास रहने की ही उसकी बात होनी थी। फिर वह सोचने लगता कि शिन्दा गाँव में निठल्ला ही रहता था। खाली रह कर लंबरदारी-जैसी आदत बन चुकी होगी। पता नहीं, काम में निकम्मा ही हो। उसने तय कर लिया कि शिन्दे के आने पर उसके काम को परख कर ही सोचेगा कि क्या करना है। अगर न हुआ तो वह उसे किसी अन्य जगह काम खोज देगा। कुछ न हुआ तो वापस इंडिया भेज देगा।
शिन्दा आ गया। पहले एअरपोर्ट से पीते हुए आए, फिर सभी पब में जा बैठे। अजमेर शराबी हो गया और ऊपर जाकर सो गया। पहले भी ऐसा ही किया करता था। ज्यादा शराबी हो जाता तो बैड पर गिरने की करता। सतनाम भी चला गया और बलदेव भी। दुकान बन्द करते समय तक टोनी ही रह गया। गुरिंदर उसके संग खड़ी थी। शिन्दे ने आकर टोनी को काम करते हुए देखा और फिर शटर बन्द करवाने में टोनी की मदद करने लगा। सवेरे उठकर शिन्दा शटर स्वयं ही खोलने लगा। उसने सोहन सिंह वाली जगह अच्छी तरह हथिया ली। गुरिंदर ने टिल्ल सिखाने की कोशिश की तो शिन्दे ने सहजता से सीख ली। अजमेर को खुशी थी कि शिन्दा काम में ठीक था। उसने टोनी को ओवरटाइम देना कम कर दिया। इतवार को उसने टोनी को बुलाना ही बन्द कर दिया। दो घंटे तो दुकान खुलती थी। शिन्दे के साथ गुरिंदर खड़ी हो जाती। काम चल जाता। शाम को भी साढ़े तीन घंटे के लिए ही दुकान खुलती थी। वे जैसे तैसे काम चला लेते।
अजमेर ने सोचकर शिन्दे से कहा-
''कहाँ काम करना चाहता है ? यहीं दुकान में या कहीं ओर ?''
''भाजी, मुझे जहाँ भेज दोगे मैं वहीं कर लूँगा, मेरा क्या है।''
''अगर बाहर करेगा तो किराये पर रहना पड़ेगा, रोटी भी खुद पकानी पड़ेगी, कपड़े भी खुद धोने पड़ेंगे। काम भी ऐसा-वैसा ही मिलेगा। यहाँ घर है और कोई प्राब्लम नहीं।''
''जैसा कहते हो, मैं यहीं कर लूँगा।''
''बुच्चड़ के साथ भी सलाह कर ले।''
''इसमें सलाह की क्या ज़रूरत है। जैसा तुमने कह दिया, वे कौन सा तुम्हारी बात काटने वाले हैं।''
''पता नहीं, उसे टंगड़ी-सी तो फंसाने की आदत है।''
अजमेर ने कहा। अगले दिन सतनाम से भी इस बारे में बात की। कहने लगा-
''मैंने शिन्दे से बात की थी कि रहना है या वापस जाना है। कहता था-यहीं रहना है। मैंने कहा- भई बाहर काम ढूँढ़ देते हैं, मेरे पास तो टोनी है ही। कहने लगा- मैंने यहीं दुकान में ही काम करना है। मैंने कहा- चल ठीक है। मैं पचास पाउंड हफ्ते के दिए जाऊँगा, बाहर रहकर पचास नहीं बचने वाले।''
सतनाम ने कोई उत्तर नहीं दिया। पर उसने इसके बारे में सोचना आरंभ कर दिया। शिन्दे को पचास पाउंड का पता चला तो वह खुश हो गया। उसने पाउंडों को रुपये में बदल कर देखा था। पचास हफ्ते की, दो सौ महीने के और ढाई हज़ार साल के। बात लाखों में पहुँचती थी। उसके तो धरती पर पैर ही नहीं लग रहे थे। उसने काम करते होने का दिखावा करना टोनी से सीख लिया था और वह हर वक्त हाथ चलाता ही रहता। उसकी तरफ देखता अजमेर सोचने लगा कि क्यों न कोई दुकान या कोई बिजनेस साथ के साथ फंसा लिया जाए। दुकान तो इस तरह शिन्दे द्वारा संभाली ही जानी थी।
अब मसला यह था कि शिन्दे का सैर का वीज़ा छह महीने का था। उसके बाद उसका क्या इंतज़ाम होना था। यह चिंता शिन्दे की नहीं थी। अजमेर की थी या थोड़ा-बहुत सतनाम की। अजमेर ने सतनाम से बात की तो वह बोला-
''इललीगल ही रहना पड़ेगा, अब और तो कोई रास्ता नहीं पक्का होने का।''
''राह तो है एक, खालिस्तानी बनकर पुलिटिकल स्टे की एप्लीकेशन दे दे।''
''दे दो फिर, देखी जाएगी। शायद बात बन जाए। जहाँ पहले ही हज़ारों-लाखों स्टे के लिए एप्लाई किए घूमते हैं, वहाँ इसकी एक एप्लीकेशन से होम ऑफिस भला कितना बिजी हो जाएगा।''
''पर लोग क्या कहेंगे कि कामरेड परगट सिंह के भतीजे ने खालिस्तानी बन कर...।''
''बात तो भाई ठीक है यह भी।''
''मैं सोचता हूँ कि इसी तरह रहे जाए, ज़रूरत पड़े तो मेरे वाली या बलदेव वाली अडेंटीफिकेशन इस्तेमाल कर कर ले।''
बात हो गई। शिन्दा सोहन सिंह की तरह दुकान का एक हिस्सा बन गया। शेष सब कुछ 'सिंह वाइन्ज़' में पहले की तरह ही था।
बलदेव और मनजीत इतवार को आ जाते। पहले की भांति मुनीर और प्रेम शर्मा भी आ जाया करते। पब में जा बैठते। गिलासों के गिलास खाली होते। अजमेर पब के व्यापार को बहुत गौर से देखता। कई बार पब के मालिक पॉल राइडर के साथ भी पब के कारोबार के बारे में बातें करने लगता।
पंजाब में गड़बड़ी ज़ोरों पर थी। कई बार अजमेर कहने लगता-
''यह तो शुक्र है, गागू अभी छोटा है, नहीं तो मुंढीर (लड़कों का समूह) के साथ बिगड़ जाता। पंजाब के लड़के पता नहीं क्या सोच रहे हैं।''
वह पंजाब के हालात को लेकर बहुत फिक्रमंद रहता था। वही नहीं, सतनाम और प्रेम भी वहाँ की बातें करते हुए जज्बाती हो जाते। रोज़ ही कितने-कितने बेगुनाह लोग मर रहे थे। मुनीर, इन बातों से अधिक बावास्ता नहीं था। वह छोटी-मोटी बात कर लेता। वह अभी भी बिहार के चांगलो कबीले के वांगली खेल के इर्दगिर्द ही उलझा हुआ था।
एक दिन सतनाम ने कहा-
''मियाँ, हम क्यों न वांगली के बारे में बीच का कोई समझौता कर लें।''
''कैसा समझौता ?''
''तेरी बात को थोड़ा-सा हम मान लेते हैं, थोड़ा-सा तू इधर सरक आ, इस कहानी में से थोड़ी-सी कहानी खारिज कर दे।''
''ओए सतनाम सिंघा, ऐ समझौता तां मैं करसी अगर झूठ होसी। ऐ गल्ल तां मैंनू इस तरहां होंट करसी कि सारी की सारी मेरे जेहन में संभाली पईऊ। अगर यकीन नहीं होसी तो जाके देख छड्डो।''
''तेरा मतलब इतनी सी बात के लिए इंडिया की टिकट खरीदें, फिर बिहार जाकर चांगलो खोजें।''
''तू सरदारा कुछ न कर, ऐह गल्ल यहीं छोड़ सू।''
''कैसे छोड़ दूँ। आदमी का आदमी के साथ मुकाबला तो है ही, पर एक नगाड़े से या तू जिसे वांगलू कहता है, से कैसा मुकाबला।''
''मुकाबला तो प्लेअरों में भी होसी पर दिखता नहीं ऊ। यकीन जाणो यारो।''
''यकीन ! क्यों करें तेरे पर यकीन ? कारण बता।''
''इस कारण कि मैं शरीफ बंदा, अगर नहीं करना सू तो भुला छड्ड।''
''अपनी शराफ़त की काई और बात सुना जो तेरी यह बात मान सकें।''
''की सुणा सां सतनाम सिंघ जी, की सुणां सां। मैं कभी कूकर के सोटी तक नहीं है मारी।''
''कुत्ते को गाली दी होगी।''
सतनाम भी मजे लेने के मूड में था। प्रेम और अजमेर दर्शक बने बैठे थे। मुनीर कुछ खीझकर ठीक होकर गया और बताने लगा-
''गालियों की गल्ल तों ऐह है कि मैनूं आउंदी ही नहीं ऊ। छोटा होता था तो मेरे वालिद साहिब ने एक बंदा मैनूं गालियाँ सिखावण खातिर रखिया होसी। एक गाली मैनूं याद होसी तो उसनूं एक छिल्लड़ मिल सी।''
''मियाँ, तू आगे ही बढ़ी जा रहा है।''
''खुदा कसम।''
मुनीर फिर अपनी बात पर अड़ गया। हँसी-ठट्ठा होता रहा। सतनाम ने कहा-
''तेरी बात का यकीन तो कर लें पर तू हमारी बात का नहीं करेगा।''
''तू बता तो सही।''
''वो जो सामने काला बैठा है, उसकी आँख बकरे की है।''
''यारा, तू मजाक उडा सैं। भला बकरे दी किंज लग सी। वैसे मैनूं तो इह वी नहीं सू पता कि अखियाँ चेंज होसी, इह तो मेरे बाबे ने बदलवाई तो यकीन आसी।''
''तेरा बाबा ने आँख बदलवाई ?... एक और गप्प।''
''यारा, तैनूं मेरी हर गल्ल गप्प लगसी... मेरे बाबे का इक सरदार दोस्त होसी, मरन लगा अखियाँ दान कर गिया, पर बाबे के साथ धोखा हो गया सू, बहुत बड़ा धोखा।''
''वह कैसे ?''
''मेरा बाबा पंज नवाजी और अखियाँ अधिया पी के खुल सण।''
सभी हँसने लगे। इतना हँसे कि आसपास बैठे लोग उनकी ओर देखने लग पड़े। जब तक पब बन्द होने की घंटी बजी, सभी उठकर चल पड़े। मुनीर और प्रेम -पने घर की ओर चल दिए। शिन्दा ग्राहकों को सर्व कर रहा था। सतनाम ने अजमेर से पूछा-
''शिन्दा, काम में कैसा है ?''
''महा लेज़ी...। इसका कोई फायदा नहीं, टोनी भी खीझा पड़ा है। मैं वायदा कर बैठा हूँ काम देने का। अब सोचता हूँ कि मेरे तो पचास भी पूरे नहीं होने वाले।''
(जारी…)
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