मंगलवार, 4 सितंबर 2012

गवाक्ष – सितंबर 2012



जनवरी 2008 गवाक्ष ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू--रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। गवाक्ष में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस..), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस..), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा), देविंदर कौर (यू के), नीरू असीम(कैनेडा), इला प्रसाद(अमेरिका), डा. अनिल प्रभा कुमार(अमेरिका) और डॉ. शैलजा सक्सेना (टोरंटो,कैनेडा), समीर लाल (टोरंटो, कनाडा), डॉक्टर गौतम सचदेव (ब्रिटेन) और विजया सती(हंगरी) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास सवारी के हिंदी अनुवाद की पचासवीं किस्त आप पढ़ चुके हैं।
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गवाक्ष के इस ताज़ा अंक में प्रस्तुत हैं फ्रेमोंट(अमेरिका) से हिंदी कवयित्री अनीता कपूर की पाँच कविताएँ और ब्रिटेन निवासी पंजाबी लेखक हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास सवारी की इक्यावनवीं किस्त का हिंदी अनुवाद
-सुभाष नीरव

फ्रेमोंट, अमेरिका से
अनीता कपूर की पाँच हिंदी कविताएँ

बोंजाई

रोज़ चाँद
रात की चौकीदारी में
सितारों की फ़सल बोता है
पर चाँद को सिर्फ़ बोंजाई पसंद है
तभी तो वो सितारों को
बड़ा ही नहीं होने देता है !


अलाव

तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नई कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से

समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नई कविता के लिए ?

आँखों की सड़क

मेरी आँखों की सड़क पर
जब तुम चलकर आते थे
कोलतार मखमली गलीचा बन जाता था
मेरी आँखों की सड़क से जब
तुम्हें वापस जाते देखती थी
वही सड़क रेगिस्तान बन जाती थी

तुम फिर जब वापस नहीं आते थे
रेगिस्तान की रेत आँख की किरकिरी बन जाती थी
आँखों ने सपनों से रिश्ता तोड़ लिया था
फिर मुझे नींद नहीं आती थी।

सच

सच लिखूँ तो
कविता झूठी हो जाती है
झूठ लिखूँ
रिश्ता बेमानी हो जाता है
कशमकश तो है
फिर भी दिल ने यही चाहा है
कि तुम हमेशा
मेरी कविता में जीवित रहो।

अहसास

काग़ज़ की मसनद पर
नज्म का बदन है नशीला
फ़िक्र में घुले हैं अहसास
और है लफ्ज़ों का पसीना
दिल के वर्क में लिपटी हुई
इश्क की गिलौरियाँ भी हैं
उठा लो महफिल अब
शमा-ए-रात बुझने को है।
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जन्म : रिवाड़ी (भारत)
शिक्षा : एम.ए.(हिंदी व अंग्रेजी), पी.एचडी.(अंग्रेजी), सितार व पत्रकारिता में डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतियाँ : बिखरे मोती, अछूते स्वर, कादम्बरी, ओस में भीगते सपने, साँसों के हस्ताक्षर एवं दर्पण के सवाल(हाइकु व तांका संग्रह)। भारतीय व अमेरिका की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, कॉलम, साक्षात्कार एवं लेख प्रकाशित। प्रवासी भारतीयों के दु:ख-दर्द व अहसासों पर एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य।

गतिविधियाँ : अमेरिका में हिंदी संस्था 'विश्व-हिंदी-ज्योति' की संस्थापक एवं जन-संपर्क निदेशक। अमेरिका में भारतीय मूल्यों के संवर्धन एवं सरंक्षण के साथ-साथ वहाँ हिंदी भाषा एवं साहित्य की गरिमा को बढ़ाने के लिए संकल्पबद्ध।

पुरस्कार व सम्मान : वर्ष 2012 में सूर्य नगर शिखर सम्मान, कायाकल्प साहित्य-कला फाउंडेशन सम्मान, अक्षरम् प्रवासी साहित्य सम्मान, प्रवासी कवयित्री सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता अवार्ड के अलावा अन्य कई पुरस्कारों व सम्मानों से सम्मानित।

सम्पर्क : Fremont CA 94539, USA
फोन : 510-565-9025
ई मेल : anitakapoor.us@gmail.com, Kapooranita13@hotmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 51)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ छप्पन ॥

उस दिन अजमेर गल्ले पर खड़ा था कि अचानक चार-पाँच गोरे दुकान में आ घुसे। उसने शिन्दे से कहा-
      ''इन लड़कों का ध्यान रखना, साले चोर हैं।''
      शिन्दा कनखियों से उन पर नज़र रखने लगा। ग्राहक की ओर सीधा देखना दुकानदारी का उसूल नहीं है। वे लड़के समझ गए कि शिन्दा उनको ताड़ रहा है। उनमें से दो ने मौका पाकर वाइन की बोतलें अपनी जैकेटों के अन्दर छिपा लीं। शिन्दे ने भी देख लिया था। उनमें से एक शिन्दे से बोला-
      ''ओ पाकी ! तू हमें चोर समझता है ?''
      ''और क्या, तुम चोर नहीं तो और क्या हो। वो तेरे साथियों ने वाइन चुराई है।''
      वह शिन्दे से बहस करने लगा। तभी वाइन छिपाने वाला एक लड़का बाहर निकलने लगा तो शिन्दे ने उसे पकड़ लिया। वे गुत्थमगुत्था हो गए। उन सबने मिलकर मिनटों में शिन्दे को पीट डाला और भाग गए। इस हाथापाई में शैल्फों में से भी गिरकर कुछ बोतलें टूट गईं। अजमेर आहिस्ता से काउंटर के पीछे से निकला, दरवाजे क़े बाहर जाकर देखा, वे लड़के बहुत दूर निकल गए थे। शिन्दा अभी भी नीचे गिरा पड़ा था। अजमेर को चिंता सताने लगी कि कहीं ज्यादा ही चोट न लग गई हो। उसने शिन्दे को उठाकर खड़ा किया। उसके सिर में चोट थी, कुछ चोटें टांगों-बाहों पर भी थीं, वह ठीक था। उसे ठीक देखकर अजमेर ने राहत की साँस ली। तब तक कुछ और ग्राहक दुकान के अन्दर आ गए। टोनी भी आ पहुँचा। सभी चोरों को बुरा-भला कह रहे थे। अजमेर और शिन्दे के साथ सहानुभूति जता रहे थे। एक औरत बोली-
      ''जल्दी पुलिस बुलाओ, रिपोर्ट करो और इसे अस्पताल ले जाओ।''
      अजमेर शिन्दे को सहारा देकर पिछले स्टोर-रूम में ले गया। स्टूल पर बिठाकर व्हिस्की का बड़ा-सा पैग बनाकर दिया। शिन्दा एक ही साँस में पी गया। पैग पीकर शिन्दे ने आईना देखा। उसकी आँख पर भी चोट लगी थी, पर अधिक नहीं। अजमेर ने घबराहट में दो पैग खुद भी लगा लिए। शिन्दा लंगड़ाता हुआ दुकान में काम करने लगा। अजमेर उससे बोला-
      ''तू बदमाशी दिखाता फिरता है, अगर ज्यादा चोट लग जाती तो।''
      ''पर भाजी, वो चोरी कैसे कर जाएँ ?''
      ''दो बोतलें कितने की होती हैं, अगर पुलिस बुलानी पड़ जाती तो? है तू इललीगल, पंगे लेता है बड़े बड़े।''
      फिर वह शैल्फों से गिरकर टूटी चीजों का हिसाब लगाकर देखने लगा और बोला-
      ''यह देख, कितना नुकसान हो गया। अक्ल से काम करना सीख, यह नहीं कि जिसके साथ दिल किया, भिड़ गए।''
      शिन्दे को ज़रा हैरानी हुई कि उस दिन एक बोतल के बदले इतना अपमान किया था और आज हवा उल्टी बहने लगी। उसने छिपकर तीखी बियर का डिब्बा उठाया और पीछे ले गया। ग्राहक आते और अजमेर से पूछते कि क्या हुआ तो अजमेर अपने हुए नुकसान का रोना लेकर बैठ जाता। शिन्दे की चोटों का जिक्र तक न करता।
      दुकान में चोरी होती रहती थी, पर आँखों के सामने वाली चोरी या जबरदस्ती वाली चोरी कम ही होती। वैसे दुकानों में से लूट-खसोट की ख़बरें आम छपती रहतीं। शराब की दुकानें रात देर तक खुलने के कारण चोरों को सुविधा हो जाती। फिर दुकानदार तबका चोरों के लिए आसान निशाना था। खास तौर पर एशियन दुकानदार। एशियन दुकानदार लड़ाई-झगड़े से बचते रहते कि कहीं दुकान न बन्द करनी पड़ जाए। ऐसा करने से कारोबार को नुकसान पहुँचता था, दुश्मनी भी पैदा होती थी। दुश्मनी में से ही निकली आगज़नी की घटनाएँ घटित होती रहती थीं। बहुत बार दुकानदार चोरी को अनदेखा कर देते। अजमेर का हिसाब था कि बाकी ग्राहकों को कुछ-कुछ पैसे अधिक लगाते जाओ तो चोरी से हुए नुकसान की पूर्ति हो जाएगी। ऐसी बातें वह शिन्दे को समझाने भी लगता। पर शिन्दे से चोरी, फिर सीनाज़ोरी वाली बात बर्दाश्त न होती। वह पंगा ले लेता था। अजमेर यह भी जानता था कि शिन्दे की उपस्थिति में चोरी की वारदातों में कमी आई थी।
      दुकान का सारा भारी काम शिन्दा ही करता। अजेमर उसको बियर इस तरह देता जैसे भीख दे रहा हो। उसको यह अच्छा न लगता। वह सिर्फ़ सौ पौंड की खातिर टूट-टूटकर मर रहा था। प्रेम शर्मा उससे पूछता -
      ''शिन्दे, कितने पैसे जोड़ लिए ?''
      ''जोड़ा क्या -राख!''
      ''क्यों, सवेर से रात तक मरता है, जोड़ा क्यों नहीं ? सात दिन काम करके कितने कमाता है ?''
      ''सौ पौंड।''
      ''सिर्फ़ सौ पौंड ! यह भी कोई तनख्वाह है ?''
      वह कहकर शिन्दे को निढाल कर देता। शिन्दा फिर हौसला करते हुए कहता-
      ''ये सौ पौंड तो मेरे बचते ही हैं, बाकी सब फ्री ही है।''
      ''शिन्दे, कहीं तनख्वाह रुपयों में तो नहीं मिलती ?''
      शिन्दा बात को बदलते हुए कहता-
      ''मैं तो हँसता हूँ, मैं दो सौ पौंड हफ्ते का उठाता हूँ।''
      ''पता नहीं शिन्दे, तू क्या उठाता है और क्या रखता है, पर अपना ध्यान रखना।''
      एक दिन प्रेम शर्मा आया और अजमेर के साथ धीमे स्वर में बातें करने लगा। वह शिन्दे के पास आया तो शिन्दे ने कहा-
      ''कौन सी खास बात हो रही है भई ?''
      ''कोई खास नहीं, मेरा भाई आया हुआ है, उसको लेने जाना है। एजेंट कहते हैं कि बाकी की रकम दे दो और लड़का ले जाओ।''
      ''अच्छा !... अभी भी आए जा रहे हैं।''
      ''यह तो ऐसे ही चलता रहेगा। एजेंट का फोन आया कि रेस्ट्रोरेंट में आ जाओ, लड़का तुम्हारा सामने बैठा होगा, पन्द्रह सौ पौंड दे जाओ और...।''
      तब तक अजमेर उसके संग जाने के लिए तैयार होकर आ गया और वे लड़के को लेने चल दिए। एक दिन प्रेम अकेला दुकान में आया तो शिन्दे ने पूछा-
      ''तेरा भाई कैसा है ?... दिल लगा ?''
      ''दिल तो लगाना ही पड़ेगा। भाजी ने साउथाल में काम पर लगवा दिया है। और वहीं उसका केस भी करवा दिया।''
      ''कैसा केस ?''
      ''यही खालिस्तान का, पुलिटिकल स्टे का।''
      ''बामनों ! तुम कैसे हो गए खालिस्तानी ?''
      ''यहाँ पक्का होना है, कुछ तो…। भाजी ने ही सलाह दी थी।''
      शिन्दे का रंग उड़ने लगा। अजमेर ने शिन्दे का यह केस इस कारण नहीं करवाया था कि उसकी ज़मीर इजाज़त नहीं देती थी। भाईचारे में नाक नहीं रहती। यहाँ सारा भाईचारा ही खालिस्तानी बना घूमता था, पक्का होने की खातिर। उसने दुखी होकर बियर के दो डिब्बे अधिक पी लिए। सतनाम भी अजमेर वाली बोली ही बोलता था और बलदेव ने भी यही कहना था। उसने भी ताया परगट सिंह का मुर्दा उसके सामने ला खड़ा करना था।
      शिन्दा बड़े भाइयों को कुछ कह भी नहीं पाता था, पर उस दिन उससे रहा नहीं गया था, जिस दिन कोई रिश्तेदार इंडिया से आए लड़के को लेकर आया था और अजमेर से बोला था-
      ''बैंस साहिब, इसका मुहिंदरजीत का कुछ सोचो। कैसे सैटिल कराएँ ?''
      ''आजकल का हॉट केक पुलिटिकल असाइलम ही है।''
      ''कोई वकील जानकार है तो बताओ।''
      ''एक है तो सही, फोन करके देख लो।''
      शिन्दा भी करीब ही बैठा था, कहने लगा-
      ''भाजी, मेरे लिए भी इसी वकील से बात कर लो।''
      शराबी हुए अजमेर ने ध्यान ही नहीं दिया था कि शिन्दा भी करीब ही बैठा था। उस वक्त तो उसने कुछ नहीं कहा, पर दूसरे दिन उसकी शामत आ गई।
      शिन्दा अजमेर के यहाँ से भागकर सतनाम के पास चला गया। काम करवाने में सतनाम ने भी उसकी बुरी हालत कर दी। उसका काम भारी था और गन्दा भी। सतनाम का लाभ इतना था कि वह चुभती बात नहीं करता था, पर उसकी पत्नी मनजीत का मुँह शिन्दे को देखते ही फूल जाता था। रात में सतनाम तो एक पैग में ही काम चला लेता, पर शिन्दे का कुछ न बनता। कई बार उसको रातभर नींद न आती। तरह-तरह के ख़याल मन में आते। कई बार पूरी की पूरी रात आँखों में निकल जाती। उसको अपना परिवार याद आने लगता। मिन्दो का चेहरा आँखों के सामने आ खड़ा होता, बेटियों का भी। गागू उसको खूब याद आने लगता।
      वह हिसाब लगाकर देखता कि गागू तो उसके जितना बड़ा हो गया होगा। अगर ननिहाल वालों पर गया तो लम्बा हो गया होगा। उसको सबके ख़त आते थे। मिन्दो अलग से लिखती और बेटियाँ अलग। गागू भी अपनी चिट्ठी अलग से लिखता और उसमें अलग ही माँग की होती। उन्हें उसकी हालत का कुछ भी पता नहीं था। वह भी ख़तों के जवाब देता, पर कभी भी कोई ऐसी बात नहीं लिखी थी उसने। ख़तों का उसको बहुत बड़ा सहारा था, बल्कि एक मात्र सहारा था। कभी-कभी इस सहारे पर भी हमला हो जाता, उसकी चिट्ठी पहले ही खोलकर पढ़ ली जाती।
      दूर तक आसपास शिन्दे का कोई नहीं था। एक जुआइस थी जिसके पास जाकर उसे कुछ राहत मिलती थी। जुआइस को लेकर भी अजमेर उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लगा चुका था। सतनाम उसको कहता कुछ नहीं था, पर उस पर नज़र रखता। एक दिन तो उसने भी कितने सारे दोष उसके सिर मढ़ दिए थे। शिन्दे को कई बार लगता कि भाइयों की आपसी लड़ाई में वह रगड़ा खाए जा रहा था। कुछ भी हो, वह अपने भाइयों के खिलाफ़ सोचना भी पाप समझता था, किसी अन्य से तो क्या बात करता।
      प्रेम शर्मा और मुनीर आते तो उसको अकेला पाकर उसे सहलाने लग पड़ते। एक दिन प्रेम ने कहा-
      ''शिन्दे, ऐंजला को जानता है ?''
      ''कौन सी ऐंजला ? जो शराबी सी बनकर आया करती है ?''
      ''सुन्दर है न ?''
      ''है तो सुन्दर पर कालों ने तोड़ रखी है।''
      ''तुझे इस बात से क्या, तुझे वो पक्का करा सकती है।''
      ''बामन, तू मुझे घर से बाहर निकलवाने पर तुला हुआ है।''
      शिन्दे ने हँसते हुए कहा। शिन्दा को ऐंजला का पता था। वह हर समय खर्चों से परेशान रहती थी। शिन्दे को लगा कि शायद ऐंजला यह काम कर सकती होगी। इस तरह पक्का करवाने की बात तो उससे जुआइस ने भी एक बार कही थी। जुआइस ने खुद तो अपने पति से तलाक लिया नहीं था। उसका पति मालदार आसामी थी। यदि तलाक ले लेती तो सिर्फ़ आधा हिस्सा ही मिलता, नहीं तो सबकुछ उसका और उसके बेटा-बेटी का था। जुआइस के पास अन्य कई ऐसी सहेलियाँ थी जो यह काम कर सकती थीं, पर अजमेर कैसे मानेगा। वह तो उसको किसी भी हालत में पक्का हुआ नहीं देखना चाहता था। अजमेर ने प्रेम के भाई को तीन साल का स्टे दिलवा कर काम करने का कार्ड भी ले दिया था।
      यह सब वह शिन्दे के लिए भी कर सकता था, पर उसने नहीं करना था। यदि कर देता तो यह मुफ्त का नौकर कहाँ से मिलता। जो लाख रुपया दिया भी था, वह कोई मायने नहीं रखता था। लाख की अब पहले जितनी कीमत नहीं रही थी। फिर चौदह-पन्द्रह सौ पौंड का लाख रुपया बन जाता था।
      एक दिन मुनीर ताना मारते हुए बोला-
      ''शिन्दे यार, कहाँ भेड़ियों के वश पड़ गया सू, चल तुझे मजे का काम दवा सां, ज़रा तू ऐश कर सैं और अपनी टबरी बारे भी सोच सैं।''
      शिन्दा उल्टा उससे बोला-
      ''मियाँ, पहले तू अपनी टब्बर बारे तो सोच, और अपना सोच कि गोरमिंट की निठल्ला बैठे-बैठे खाए जाता है, अगर कोई काम है तो आप कर, मुझे काम करते हुए को तू क्या काम पर लगवाएगा।''
(जारी…)

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