रविवार, 18 मई 2008

गवाक्ष- मई 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले चार अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें तथा लंदन में रह रहे कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली तीन किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के मई,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – रचना श्रीवास्तव की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की चौथी किस्त का हिंदी अनुवाद…

तीन कविताएं
रचना श्रीवास्तव

तेरे बिना

एक शाम
जब हम बैठे थे साथ
थाम के मेरा
झुर्रियों भरा हाथ
तुम ने कहा था -
ऐ जी हो गए कितने साल
चलते चलते यूं ही साथ
३५ साल है न
मैंने हौले से कहा
तुम मुस्कुरा दीं
फिर थोड़ा चहक के बोली-
कौन-सा दिन था सबसे प्यारा
जो बिता मेरे साथ
मैं चुप रहा
कुछ तो बोलो
तुम ने तुनक के कहा-
अरे ! मेरी पगली
तेरे इस अजब सवाल का
कोई जवाब दे कैसे
दुआओं भरी पोटली हो जब सामने
कोई एक दुआ उनमें से चुनें कैसे
प्यार अपने बच्चों को
एक सा करते हैं हम
है कौन सब से प्यारा
कोई कहे कैसे
अरे! मेरी प्यारी बुढ़िया
तेरे साथ बीता
हर लम्हा
आज भी है यादों में मेरे
यादों के झरोखों से
कोई एक याद चुने कैसे
अब तुम ही कहो
जब हर दिन हो प्यारा
किसी एक दिन को
सबसे प्यारा कहूँ कैसे
तेरी गहरी आंखों में चमक थी
चाय का प्याला
मेरे हाथों में दे के
तुम बोली -
हम दो चले थे
जीवन सफर में
और आज
फिर हम दो ही है
बीच में कितने मुकाम
आये और चले गए
बच्चे
जिनके लिया जीते रहे हम उम्र सारी
पंख निकले
वो उड़ गए
बनाये बड़े-बड़े घर उन्होंने
पर एक कोना न बना पाये
हमारे लिए
फ़ोन कर कर्तव्य निभा रहें हैं
बात ऐसे करते हैं
के अहसान जाता रहें हैं
याद है न
जब हम बड़े के साथ रहते थे
घर के एक कोने में
अनाथ से पड़े रहते थे
गाहे बगाहे ही
कोई उधर आता था
रखा है
हमें आपने घर में
इस बात का अहसास करा जाता था
जब अपनों का परायापन
सहा न गया
तो हम
यहां आ गए थे
आंसू तेरे
गालों तक आ गये थे
पूछने को उन्हें
जो हाथ बढ़ाया
ख़ुद को अकेला बैठा पाया
उस रोज
जो कुछ पल को बाहर गया मैं
लौटा तो
लुट चुकी थी दुनिया मेरी
मेरे आने का
इंतजार तो किया होता
जाते-जाते कुछ तो कहा होता
अब तो
बाहर जाने से डरता हूं
तन्हा हूं
तन्हाई से डरता हूं
उदास हुआ नहीं
जब बच्चे गए घर से
उस वक्त टूटा नहीं
जब नाता तोड़ा हम से
बिखरा नहीं तब भी
जब पोतों को
दूर रहने को कहा गया हमसे
सब कुछ सहा
पर अब तेरे जाने की बाद
बिखर गया हूं
अकेला
तेरी यादों के साथ रह गया हूं

ज़िंदगी

क्या चीज है ?कैसी है ?
और
किस हाल मे है ज़िंदगी
फूलों में बसी या
बिखरी है खुशबुओं में
या काँटों की बीच फंसी है ज़िंदगी

सांसों के तार से बुनी है
या धडकनों मे बसी है
या लाशों के बीच पलती है ज़िंदगी

सुख की सहेली है
या खुशियों से खिलती है
या गम की चादर से ढकी है ज़िंदगी

तुम को मिली है क्या ?
किसी ने देखी है क्या ?
या फ़िर मुझसे ही छुपी है ज़िंदगी

चाँद की किरण है
या शीतल पवन है
या झुलसते तन-सी है ज़िंदगी

लोगों के बीच मिलती है
या लोगों में मिलती है
या फ़िर विरानों मे भटकती है ज़िंदगी

अपनों की आस है
या प्यार की प्यास है
या टूटते रिश्तों का अहसास है ज़िंदगी

महलों के गुम्बदों में
या घर के आंगन में
या झोपड़ी के दिए मे जलती है ज़िंदगी
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खामोशी की चाह

जीवन सरिता में तैरते हुए देखा मैंने
किनारे पे खामोशी बैठी थी
उसकी भी थी एक आवाज
पर सुनने नहीं दिया उसे
मेरे अन्दर के शोर ने
मैं उसके पास जाना चाहती थी
पर -
दूर बहुत दूर ले गई
लहरें मुझे
देखा उस के पास लोगों को
मुझे लगा छू लूं उसे
हाथ बढाया पर तभी
उलझ गई
मैं लताओं के जाल में
मेरे हाथ उसे छूते-छूते रह गए
नम आँखों से जब देखा
तो लगा
मुस्कुरा रही थी वो
शायद मेरी बेबसी पे
हँस ने भी लगी थी धीरे-धीरे वो
चुभने लगी ये हँसी शूल-सी
हृ्दय विदीर्ण होने लगा मेरा
मैं तेज और तेज
हाथ पाव मरने लगी
पर तब तक
उलझ चुकी थी मैं जीवन भंवर में
निकलने की कोशिश में
और फसती गई
डूबता हुए देखा
वो
शांत-सी बैठी थी किनारे पे
चाहा आवाज दूँ उसे
पर
शब्द कहीं अटक से गए थे
और मैं
उसके स्वप्न संजोये
अनंत सागर मे विलीन हो गई।
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रचना श्रीवास्तव
रेडियो कवयित्री। २००४ से अब तक, रेडियो सलाम नमस्ते और फ़नएइसिया पर कविता पाठ, मंच संचालन मनोरंजन (फ्लोरिडा)संगीत रेडियो (हिउस्टन) पर कविता पाठ। हिन्दी नेस्ट ,रचनाकर ,लेखिनी ,साहित्य-कुंज, सृजनगाथा ,हिन्दी-पुष्प आदि में कविता प्रकाशित हो चुकी हैं
ई मेल : rach_anvi@yahoo.com




धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 4)

सवारी
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। छह ।।
शुक्रवार का दिन। गर्मियों के कारण अभी सूरज काफी बड़ा है। सात बज चुके हैं, पर जैसे अभी तीन-चार बजे का समय हो।
सोहन सिंह अभी टिल्ल (गुल्लक) पर ही खड़ा था और टोनी सैल्फों को भर रहा था। हर समय इधर-उधर हाथ मारने की उसकी आदत थी। इस तरह वह हर समय व्यस्त प्रतीत होता। उसकी इसी बात पर अजमेर खुश था। इसी कारण वह अपनी कई बातें अजमेर से मनवा लेता था।
शुक्रवार को दुकान बिजी हो जाया करती, पर आज अभी तक कोई खास बिजनेस नहीं हो रहा था। अजमेर के ऊपर से उतरने की अभी तक आवश्यकता नहीं पड़ी थी। लड़कों का एक समूह दुकान के सामने से गुजरा। सोहन सिंह ने टोनी को सतर्क हो जाने का संकेत किया। ऐसे लड़के इकट्ठा होकर दुकान में चोरी करने आ घुसते थे। इनका बहुत ध्यान रखना पड़ता था। एक आदमी को हर वक्त दरवाजे के आगे खड़ा रहना पड़ता था कि कोई लड़का कोई चीज उठाकर न भाग जाए।
सोहन सिंह को सामने से प्रेम और मुनीर आते दिखाई दिए। उसका चेहरा खिल उठा। वे कई दिनों बाद आए थे। खासतौर पर मुनीर तो दो महीने बाद आया था। वह इंडिया गया हुआ था। उनके अंदर घुसते ही सोहन सिंह कह उठा–
“आओ भई जोड़ो, इतनी देर बाद कहाँ से ? और मुनीर, तू कब आया ?”
“कल ही अंकल जी, मैं किहा, भाई जान को मिल आसां... बताओ, की हाल है हमारे सोहणे सरदार दा ?”
“ठीक है, अभी ऊपर ही है। तू सुना माठरा... किद्दां(कैसे) ?”
वह प्रेम को ‘मास्टर’ कहकर बुलाया करता था। उसका प्रेम और मुनीर के साथ हँसी-मजाक चलता रहता था। प्रेम ने कहा–
“ठीक है अंकल जी।”
“क्या कहती फेर तेरी सियासत ?”
“सियासत ने क्या कहना !... तुम यह हिस्सा-बंटवारा करने से बाज नहीं आते।”
“ओ भई माठरा... तुसी सूत भी ऐसे ही आते हो, सीधी उंगली से घी नहीं निकला करता।”
“फेर ये बसों में से निकालकर गरीबों को क्यों मारे जाते हो, किसी बड़े को हाथ डालो।”
“भई माठरा... वो भी डालेंगे। धीरे-धीरे। ये तो मस्कें करते हैं, तू देखता चल, किसी बड़े को भी हाथ डालेंगे... टाप के बंदे को...।”
कहकर सोहन सिंह हँसा। प्रेम और मुनीर भी हँसे। प्रेम जब भी आता तो पंजाब की सियासत की बातें करने लगता। सोहन सिंह सीधा-सरल होने के कारण सियासत के बारे में अधिक नहीं सोचा करता था। पर पंजाब के आतंकवाद ने उस पर असर किया हुआ था। रोज़ के पाँच-छह बंदे मर रहे थे। उसके भाई कामरेड परगट सिंह के नज़दीकी दोस्त को आतंकवादी मार गए थे। इसका उसे बहुत दुख था। वहाँ गांव में उसका एक लड़का रहता था। उसकी भी चिंता सोहन सिंह को रहती थी। उनके घर में साउथाल से छपने वाला पंजाबी का अखबार आता था, पर इस अखबार में आतंकवाद का पक्ष लेती खबरें ही हुआ करतीं जो कि और अधिक डरावनी लगतीं। पर फिर भी, इस विषय पर वह मजाक कर लेता था। उसने कहा–
“भई माठरा... इस मढीर ने पंजाब को पंजाब नहीं रहने देना। ये पुलसिये तो पहले ही ताड़ में बैठे थे, उन्हें तो जैसे बिल्ली भाणे छिक्का टूटा।”
वह फिर मुनीर से बोला–
“मुल्लो, ये सारा पंगा तुम्हारा ही डाला हुआ है।”
“अंकल जी, तुसी तां ऐवें(यूं ही) इंडिया से जुड़े बैठे जे, भ्रा तुही असाडे होसी, हाले(अभी) भी सोचो, हिम्मत मारो, साडे साथ जाओ, भ्रा–भ्रा मिल के बैठ सां।”
कहकर मुनीर ताली बजाकर हँसने लगा। तब तक अजमेर भी आ गया। उसने मुनीर से गर्मजोशी से हाथ मिलाया और प्रेम से भी, फिर टोनी की तरफ सवालिया नज़रों से देखने लगा। टोनी ने कहा–
“अभी तक तो कुछ नहीं हो रहा। चोर लड़कों का ग्रुप निकल कर गया है।”
“हम बैच्ड हाऊस में हैं, ध्यान रखना। घंटी कर देना, वो आ जाएगी।”
“आल राइट।” टोनी ने उत्तर दिया।
अजमेर आगे-आगे और मुनीर-प्रेम पीछे-पीछे पब में जा घुसे। वे ऐसी जगह पर बैठे जहाँ से दुकान साफ दिखाई देती थी। अजमेर जब भी पब में आता तो इन्हीं सीटों पर बैठने की कोशिश करता, ताकि दुकान का भी ध्यान रखा जा सके। पब में आना अजमेर को अच्छा लगता था। पब में काम करने वाले और वहाँ आने वाले रैगुलर ग्राहक जब उसे ‘हैलो’ कहते तो वह फूल जाता। कभी-कभी किसी के लिए गिलास भी भरवा देता।
बियर का घूंट भरते ही अजमेर ने पूछा–
“अब सुना मियां, तेरा इंडिया का ट्रिप कैसा रहा ?”
“पूछो न सरदार जी, बहुत बढ़िया। मोर दैन एक्सपैक्टेशन्स।”
फिर उसने जेब में से लिफाफा निकालकर अजमेर को देते हुए कहा–
“मैंने कहा, एक तो भाजी को मिल आसां, दूजा शुक्रिया अदा कर आसां।”
अजमेर ने लिफाफा पकड़ लिया। यह वह उधार था जो मुनीर जाते समय उससे लेकर गया था। अजमेर पूछने लगा–
“कब लौटा ?”
“कल ही, और आज ही तुहां दी कचेहरी में आ हाजि़र होयां।”
“कहाँ का चक्कर लगाया फिर ?”
“अबकी दो महीने पटना में लगाए। पटने के साथ ही एक गांव है–सीतापुर, वहाँ इक कबीला डेरा डाले बैठा हैसी। बस, मैं उसमें ही जा मिला था।”
“कैसा लगा ?”
“पुछो कुझ ना सरदार जी, क्या-क्या तजर्बात होए होसण लाइफ दे।”
“हमें भी बता कुछ।”
“उस कबीले का नाम होसी– चांगलो, बड़ा मारखोरा कबीला जे। उनका सरदार बता रहा था कि शेर के शिकार को भी निकलसण... जंगल के डाकू जिनसे पुलीस ऊपर भी दहशत वे, वो भी इनसे डरसण।”
“तेरा उनसे वास्ता कैसे पड़ा ?”
“बाइ चांस ही, मैं तो सोचता था कि कोई खानाबदोश से मिलसण जिनमें मैं सहज ही फिट हो सां। मैं पता करके पहुंचा। मेरे पास सस्ते से पचासेक कंबल होसण, उनको देने की खातिर कि दोस्ती गंढ़ सां। पर उनका काम कहीं मोटा ही था। लोहे दा कम्म करसण और गायों-बैलों का भी।”
“पंजाब में भी बैलगाडि़यों वाले आया करते हैं जैसे।”
प्रेम ने अपनी राय देते हुए कहा।
मुनीर कहने लगा–
“नहीं प्रेम, ये तो बहुत ही शोहदे थे। इनकी एक बात ने मुझे बहुत मुतासिर करे रखा।”
“किस बात ने ?”
“ये एक गेम खेलते हैं। नाम होगा– वांगली, जिसकी खासियत यह है कि दोनों प्लेअर एक ही तरफ खेडसण, जाणी कि प्लेअरों का आपस में कोई मुकाबला ना होसी।”
“फिर किसके साथ हुआ ?”
“वांगलू के साथ।”
“यह वांगलू क्या हुआ ?”
“वांगलू नगाड़े की तरह होसी और नगाड़े की तरह ही बजाया जाता है।”
“जैसा अपने यहाँ अखाड़े में बड़ा ढोल बजाया करते हैं, ऐसा ही कोई गेम होगा।” प्रेम बोला।
मुनीर कुछ कहने लगा था कि पब के दरवाजे से उसे परवेज़ आता दिखाई दिया। यह भी उनकी रोड पर ही रहता था। प्रेम और मुनीर विदरिंग रोड पर एक-दूसरे के आमने-सामने रहते थे। इसीलिए उनकी दोस्ती थी। परवेज़ से मुनीर की अधिक नहीं बनती थी। उसे देखकर मुनीर बियर वाला गिलास छिपाने लगा था, पर फिर हाथ घुमाते हुए गाली देकर बोला–
“मेरा क्या बिगाड़ देसी।”
परवेज़ ने उनके पास आकर सभी से हाथ मिलाया।
मुनीर के सामने पड़े प्वाइंट को देखकर होंठ फैलाए। अजमेर ने कहा, “परवेज़ साहब, बियर का गिलास लाऊँ ?”
“न सरदार जी, मैं नहीं पिऊँगा। मैं तो एक बिल्डर को खोज रहा था, घर का कुछ करवाने के वास्ते। कई बार यहीं पब में ही देखा है।” वह आसपास देखकर वापस चला गया।
अजमेर बोला, “इसे मैंने पचास बार यहाँ बैठकर पीते हुए देखा है। आया भी पीने ही था...।”
“सरदार जी, कई बंदे दोगले होसण। मुसलमान होने का झूठा दावा करसण। मैं तो कहता हूँ अगर तुम्हारे में कोई नुक्स है तो सरेआम कबूल करो।”
मुनीर परवेज़ के व्यवहार से खीझ गया था। बातें पुन: घूमकर इंडिया पर आ गईं। अन्य बहुत सारे पाकिस्तानियों की तरह मुनीर के लिए भी इंडिया खास आकर्षण रखता था। इंडिया की फिल्में, इंडिया की डेमोक्रेसी, इंडिया का टेलीविज़न आदि। इसीलिए वह छुट्टियों में इंडिया जाना पसंद करता था। पहले पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उसे इंडिया का वीज़ा नहीं मिला करता था। फिर उसने ब्रिटिश पासपोर्ट भी ले लिया और उसका इंडिया जाना आसान हो गया। वह पाकिस्तान कम ही जाता। उसकी दो बीवियाँ थीं और दोनों ही पाकिस्तान में थीं। इधर दोनों में से किसी को नहीं बुलाया था। वहीं दोनों को खर्चा भेज देता था और यहाँ खुद अकेला रहता था। घर का अधिक हिस्सा किराये पर दे रखा था। खुद बेकार था और बेकारी भत्ता लेता था। अजमेर का उसी दिन से परिचित था जिस दिन से उसने दुकान खोली थी।
अजमेर को मुनीर उसकी बातों और हंसी-मजाक के कारण पसंद था। शाम के वक्त वह दुकान में ही आ खड़ा होता था। दुकान में अपने बंदे खड़े होने का लाभ यह होता कि चोरी का खतरा कम हो जाता था। चोर के लिए अधिक लोगों के बीच चोरी करना कठिन हो जाता। फिर रात के समय लूट-खसोट का भी भय बना रहता था। बाद में, प्रेम भी मुनीर के साथ आ मिला था। प्रेम किसी गुजरातिन लड़की से विवाह करवाकर यहाँ स्थायी हुआ था। अजमेर ने उसकी काफी मदद की थी। इसलिए भी प्रेम उसकी इज्ज़त करता। मुनीर को अजमेर से उधार की ज़रूरत रहा करती, इसलिए उसके गुण गाता रहता। अगर अजमेर अच्छे मूड में होता तो उन्हें पब में पैसे खर्च न करने देता। बाद में, दुकान में ही व्हिस्की आदि पिला दिया करता। कई बार ऐसा भी होता कि उन्हें हिस्सा डालने के लिए भी कह देता।
उनकी बातें घूमती-घुमाती फिर वांगलू पर आ गईं। अजमेर सिर मारता हुआ बोला, “मियां, तेरी बात कैसे मान लूँ कि कोई गेम प्लेअरों के बीच न होकर प्लेअरों और वांगलू के बीच होती है।”
“यह सच है, प्लेअर खेलते हैं वांगलू के फटने तक। अगर वांगलू फट जाए तो दोनों प्लेअर जीत जासण, नहीं तो दोनों की हार।”
“जीतने का उन्हें कुछ मिलता भी है ?”
“हाँ, तीर मिलसण।”
“और अगर वे प्लेअर हार जाते हैं तो तीरों का क्या करते हैं ?”
“अगले साल के लिए रखसण।”
“मियां, मुझे यह बात हज़म नहीं हो रही कि किसी गेम में मुकाबला बंदे और औज़ार के बीच है, मुकाबला तो औज़ार के साथ बंदों में हुआ करता है।”
“तुम्हारी बात सही है पर जो मैं कह रहा हूँ, वह भी सच है।”
“नहीं मियां।”
“सरदार जी, यहाँ खासियत यह भी है कि वे सारे एक ही कबीले के और आपस में सगे होसी।”
इससे पहले कि अजमेर कुछ कहता, खिड़की के रास्ते लड़के-लड़कियों का एक झुंड दुकान में घुसता उसे दिखाई दे गया और वह फुर्ती से उठकर दुकान की ओर भागा।



।। सात ।।

कोई समय था कि शौन राजनीति में बहुत सक्रिय हुआ करता था। फिनागेल पार्टी के खास कारकुन के तौर पर वह उभर रहा था। स्कूल में ही वह पार्टी के सालाना समारोह में जाकर भाषण दिया करता और ऐसे मुद्दे उठाता कि खूब तालियाँ बजतीं। चुनाव आते तो बढ़-चढ़कर प्रचार करता। पार्टी का वक्ता बनकर जलसों को सम्बोधित करता। राजनीति में दिलचस्पी उसके रक्त में थी। उसका दादा शौन मरफी ने आईलैंड की आज़ादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। देश आज़ाद हुआ तो वह देश के निर्माण में जुट गया। जिन लोगों ने देश की आज़ादी में कोई खास भूमिका अदा नहीं की थी, वे भी बड़े-बड़े ओहदों पर अपने हक जतला रहे थे। पर शौन मरफी ने ऐसा कुछ नहीं किया था। वह ऐसा नेता था जिसे कुर्सी की कोई भूख नहीं होती। वह मुल्क में से माईग्रेशन रोकने में जुटा हुआ था। उसे दुख था कि देश के पढ़े-लिखे लोग अमेरिका और इंग्लैंड में सैटिल हो रहे थे। इस माईग्रेशन से आयरलैंड को बहुत नुकसान हो रहा था। शौन मरफी अखबारों में लेख लिखता। शहर-शहर जाकर रैलियाँ करता। इसे पार्टी के बड़े मुद्दों में शामिल करने की कोशिश में रहता।
उससे अगला शौन मरफी अर्थात इस शौन का पिता कुछ अलग तरह का नेता था। वह सीधा ही कुर्सी की तरफ दौड़ पड़ा था। पर वह काउंटी कौंसल तक ही रहा। लोगों की राय थी कि वह अगर यहाँ तक पहुँचा था, तो अपने बाप के कारण ही, नहीं तो उसकी इतनी योग्यता नहीं थी। जब शौन जूनियर उठा तो सभी कहने लगे थे कि यह अपने दादा की तरह निकलेगा और पार्टी में ऊपर तक पहुँचेगा।
पर हालात गलत निकल गए। शौन के पिता का अचानक निधन हो गया। घर की सारी जिम्मेदारी स्कूल में पढ़ते शौन के ऊपर आ पड़ी। घर में वही सबसे बड़ा था। उसकी माँ अनपढ़ औरत थी। रोटी-रोजी का प्रमुख जरिया एक फॉर्म था जिसका कई वर्षों से झगड़ा चलता आ रहा था। पिछली पीढ़ी से ही मुकदमा कचेहरियों में था।
शौन ने पिता के बगै़र घर चलाना सीखा ही था कि उनके फॉर्म के मुकदमे का फैसला हो गया। वे हार गए। इससे आमदनी तो खत्म हुई ही, साथ ही साथ, इलाके भर में बदनामी का भी सामना करना पड़ा। सभी जानते थे कि उनके खिलाफ फैसले का बड़ा कारण सियासत में उनकी पकड़ का न रहना था। उसके पिता-दादा के हिमायती विरोधी दल के साथ जा खड़े हुए थे। इसी गिले के मारे शौन ने राजनीति में भाग लेना छोड़ दिया था।
शौन ने किसी न किसी तरह पढ़ाई पूरी की और काम पर लग गया। पहले कुछ समय तक उसने किसी का ट्रैक्टर चलाया और फिर एक पब में गिलास भरने का काम करने लगा। पब में से काम छूटा तो एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई। उसके पीछे-पीछे ही उसकी छोटी बहन आइरन जवान हो गई और उसके बराबर काम करने लगी। आइरन के बाद जल्द ही ऐलिसन ने भी काम शुरू कर दिया। उनके दिन फिरने लगे। वे फिर से पैरों पर खड़े हो गए। फॉर्म छिन जाने का दुख कुछ कम होने लगा। शौन फिर से सियासत में सरगरम होने के बारे में सोचने लगा। उसके अंदर राजनीति के प्रति फिर से दिलचस्पी जाग उठी थी।
इन्हीं दिनों में ही ऐसी एक और घटना घटित हो गई कि शौन की ज़िंदगी बदल ही बदल गई। ऐलिसन शौन की छोटी बहन गर्भवती हो गई और हुई भी बरायन स्वीनी के बेटे से जिससे वे फॉर्म वाला केस हारे थे। यह शौन और उसके समस्त परिवार के लिए बहुत ही अपमानजनक बात थी। उनका धर्म कैथोलिक था। कैथोलिक धर्म में सिर्फ़ मदर मैरी ही बिना पति के माँ बन सकती है, अन्य कोई कुआंरी लड़की नहीं।
किसी कुआंरी लड़की का इस तरह गर्भवती हो जाना बहुत बड़ा धब्बा माना जाता था। शौन गुस्से में पागल हो उठा और ऐलिसन को मारने की तैयारियाँ करने लगा। ऐलिसन डर कर लंदन भाग गई।
एक बार उसने इस घटना के बारे में थोड़ा-सा बताते हुए बलदेव से कहा था कि ऐलिसन ने यह पाप कमा लिया। अगर वह ऐसा न करती तो मैं अब तक पार्लियामेंट तक पहुँच गया होता या फिर उसके करीब होता। पर इन हालातों में मैं किस मुँह से लोगों में जाता, मेरा तो घर में से निकलना ही कठिन हो गया था, मैथ्यू की पढ़ाई छूट गई, मुझे अपना चेहरा छुपाने के लिए लंदन की शरण लेनी पड़ी। जिस माईग्रेशन के खिलाफ मेरा ग्रैंड फादर लड़ा था, वैसा ही कुछ मुझे करना पड़ा।
मैथ्यू की पढ़ाई छूटने का शौन को जहाँ दुख था, वहीं तसल्ली भी थी कि काम करेगा और घर संभालेगा। इसी सोच के अधीन ही, उसे लंदन आने के बारे में हौसला मिल रहा था। लंदन वह लोगों की नज़रों से बचने के लिए आया था। लेकिन साथ ही साथ उसके मन में था कि वह ऐलिसन को ढूँढ़ेगा और उसे प्रेरित करेगा कि वह बच्चे को गिरा दे। अगर नहीं गिराना चाहती तो बच्चे को त्याग दे। लंदन में कई संस्थाएं थीं जो अनचाहे बच्चों को ले लेती थीं, वे उन्हें आगे अडोप्शन के लिए दे देती थीं। उसे था कि यदि ऐलिसन बच्चे के बिना अकेली वापस वैलज़ी लौट जाती है और विवाह करवा कर घर बसा लेती है तो उनका पारिवारिक मान-सम्मान पुन: बहाल हो सकता है। जब उसकी माँ को शौन के लंदन जाने के बारे में पता चला तो वह कहने लगी–
“शौन, क्यों पुराने जख्म उधेड़ने चला है, अब लोग भूल-भुला गए हैं।”
“नहीं मदर, लोग ऐसी बातें भूला नहीं करते, अगर वह लौट आई तो सब ठीक हो जाएगा।”
“पर पता नहीं, वह लंदन में हो या बर्मिंघम या फिर लिवरपूल में जा घुसी हो।”
“नहीं मदर, मुझे पता चला है कि लंदन में रहती एक लड़की का पता था उसके पास।”
शौन के लिए लंदन जाना भी बहुत बड़ा कदम था। लंदन में उसके कुछ परिचित रहते थे। पर वह चुपचाप पहुँचना चाहता था। किसी को बिना बताए। उसे यह भी डर था कि लोग उसे भगौड़ा ही न कहने लग पड़ें। उसने क्रकिलवुड नाम के इलाके के बारे में सुन रखा था, जहाँ आयरश लोगों की भरमार थी। इसी इलाके में ‘द क्राउन’ नाम की पब थी जिसका जिक्र कई गानों में आता था। एक आयरश फिल्म का क्लाइमैक्स भी इसी पब में घटित होता दिखलाया गया था। दो एक सीरियल भी यहाँ फिल्माये गए थे। शौन ने सोचा कि क्यों न वह इसी पब में जा पहुँचे। वहाँ से आगे देखा जाएगा। लंदन की तैयारी करता शौन आयरलैंड का मशहूर गीत गुनगुनाता रहा था, जिसमें गायक कह रहा है कि मैंने एक जापानी वैन खरीदी, अरबी तेल वैन में भरवाया और अमेरिकी सपने देखता लंदन के क्राउन पब में आ बैठा।
शौन भी क्राउन पब में जा पहुँचा। पहले गिलास का आर्डर देते ही पब के मालिक से खाली कमरे के बारे में पूछने लगा। उसने, पब में पहले से ही बैठे एक लोकल आदमी से मिलवा दिया जिसने उसे मोरा रोड पर स्थित एक घर में कमरा किराये पर दिलवा दिया। इस कमरे में शौन ने अपना छोटा-सा अटैची और बैग ले जाकर रख दिया। यह सब कुछ घंटे में ही हो गया। शौन हैरान हो रहा था कि जिस बारे में वह इतना डर रहा था, वह इतनी आसानी से हो गया। यहाँ सभी लोग भी अपने थे, पराये देश में आने वाली झिझक भी उसे व्यर्थ लगी। उसने मकान मालिक से काम के बारे में बात की तो उसकी समस्या का हल भी सहज ही हो गया। क्राउन पब के बाहर हर सुबह लोग काम की तलाश में आकर खड़े हो जाया करते थे। ज़रूरतमंद उन्हें आकर ले जाते। भवन निर्माण के लिए मज़दूरों का बहुत अभाव चल रहा था। पहले दिन ही शौन को सीमेंट मिलाने का काम मिल गया। वह इस तुच्छ से काम से ही खुश था। उसे जल्द ही पता चल गया कि लंदन में तो नौकरियाँ ही नौकरियाँ थीं। डाकखानों में, बसों में, रेलवे में, ट्यूब(भूमिगत रेल) में, हर जगह आदमियों की आवश्यकता थी। अब उसे समझ में आने लगा था कि लोग लंदन की ओर क्यों भागते हैं। फिर भी, उसे गिला था कि पढ़े-लिखे लोग जिनके ऊपर आयरलैंड की सरकार बढ़-चढ़कर पैसे खर्च करती है, बाहर भाग जाते हैं।
अगले इतवार को वह चर्च गया। चर्च के पादरी वाटर जोय से उसका बिना किसी कठिनाई के परिचय हो गया। उससे अगले इतवार उसके कुछ और परिचित बन गए। उसे लगने लगा कि लंदन जैसे महानगर में उसका भी कोई है। ऐलिसन को वह भूल ही गया और कई महीने भूला रहा। वह अपने पैर जमाने में लगा रहा। जब ऐलिसन का ख़याल आया तो साथ ही साथ उसने यह भी हिसाब-किताब लगा लिया कि वह अब तक माँ बन चुकी होगी।
अब उसने ऐलिसन को तलाशने के बारे में सोचना प्रारंभ कर दिया। अब उसका गुस्सा खत्म हो चुका था। एक समय था कि ऐलिसन अगर उसके सामने आ खड़ी होती तो पता नहीं वह क्या कर देता। अब वह ऐलिसन के बारे में शांति से सोचता। उसने उसके बारे में फादर जोय के साथ भी बात की। फादर का कहना था कि चर्च में आकर अपने गुनाह की कन्फैशन कर ले तो उसे माफ किया जा सकता था। पहले उसे यह चिंता भी सताती रहती कि पता नहीं ऐलिसन किस हाल में होगी। पर लंदन आकर यह चिंता नहीं रही थी। सोसल सिक्युरिटी वालों ने उसे संभाल लिया होगा।
ऐलिसन को खोजना था, पर खोजे कहाँ ? उसने संभव ठिकानों पर जाकर पता किया, ऐलिसन के बारे में किसी को कुछ नहीं पता था। उसे इतनी भर सूचना मिली कि ऐलिसन ने एक बेटी को जन्म दिया था। उसने ऐलिसन को खोजने में फादर जोय की भी मदद ली ताकि किसी चर्च में आती-जाती की ही खबर मिल सके। उसे यह भी डर था कि उसे लंदन में आया देखकर ऐलिसन कहीं इधर-उधर ही न हो जाए, इसलिए वह बहुत नरम रुख इख्तियार कर रहा था। कई बार यह भी सोचता कि वह ऐलिसन को लेकर व्यर्थ की ही सिर-खपाई करता घूम रहा था।
इन्हीं दिनों में शौन को रेलवे में क्लर्क की नौकरी मिल गई। इस नौकरी पर वह बहुत खुश था। वह चर्च जाकर जीसस क्राइस्ट का शुक्रिया अदा कर आया। वह जीसस के आगे खड़े होकर मन ही मन बोला, हे जीसस क्राइस्ट, मुझे वह सब कुछ वापस चाहिए जो मेरे से खो गया है। मेरा फॉर्म या फॉर्म जैसा मुझे वापस मिले, फिर से वैसी ही इज्ज़त भी।
फॉर्म को भी शौन भूल नहीं सका था। तीन पुश्तों तक कब्ज़ा रहने के बाद फॉर्म इसलिए ही उनके हाथों से निकल गया था कि वे छोटे थे और माँ साधारण औरत थी। कई बार उसे लगता कि उसके साथ बहुत अन्याय हुआ था, पर फिर वह अपने आप को किस्मत की दलील देने लग जाता। वह लंदन आ गया था, नौकरी भी मिल गई थी, अब उसे महसूस होने लगा कि एक दिन वह अपना खोया हुआ सबकुछ वापस हासिल कर लेगा।
एक दिन ऐलिसन का भी उसे पता चल गया। एक जगह जहाँ किसी वक्त ऐलिसन आकर रहा करती थी, वहाँ वह अपना फोन नंबर छोड़ आया था, वहीं से किसी ऐशली ने फोन किया था। उसने ऐलिसन को अपने घर में बुला लिया था और शौन को भी। शौन उसके घर पहुँचा तो उसने कहा–
“देख शौन, मैं ऐलिसन को अच्छी तरह जानती हूँ। तू उस दिन आया, मैंने जानबूझकर नहीं बताया था कि वह कहाँ रहती है। मैंने उसे बहुत मुश्किल से तुझसे मिलने के लिए राजी किया है। अगर तूने उसे कुछ फालतू कहा तो तेरे लिए बहुत बुरा होगा, यह सोच लेना।”
“फिक्र न कर ऐशली, मेरा मकसद उससे गुस्सा होने का नहीं, मैं उसकी मदद करना चाहता हूँ, अगर कुछ कर सकता होऊँ तो।”
तभी दरवाजे की घंटी बजी। ऐशली ने उठकर दरवाजा खोला। शौन के कान दरवाजे की ओर ही थे। उसने ऐलिसन की आवाज़ पहचान ली। उसके मन के अंदर कुछ होने लगा। उसने स्वयं को तैयार किया और ऐलिसन से मिलने के लिए उठकर खड़ा हो गया। ऐलिसन उसके सामने आ खड़ी हुई। दोनों की आँखें भर आईं। ऐलिसन ने बांहें खोलीं, पर शौन वहीं खड़ा रहा। ऐलिसन समझ गई। उसने आँखें पोंछते हुए कहा–
“हैलो शौन।”
“हैलो।”
“क्या हाल है ?”
“ठीक हूँ।”
“घर में सब कैसे हैं ? मदर कैसी है ?”
शौन को इस सवाल पर गुस्सा आ गया। उसने उत्तर नहीं दिया।
ऐशली बोली, “तुम लोग बैठो, मैं कैटल आन करके आती हूँ।”
कुछ देर के लिए शौन और ऐलिसन के बीच चुप छाई रही। फिर ऐलिसन ने ही कहा–
“ऐशली बता रही थी कि तू मुझे मिलना चाहता है।”
“हाँ, मैं तेरी मदद करना चाहता हूँ।”
“क्या मदद करेगा मेरी ?”
“मैं चाहता हूँ कि यह बच्ची तू केअर वालों को दे दे और मेरे संग वापस चले।”
“पस जाकर मैं क्या करूँगी ?”
“पस जाकर हम तुझे सैटिल करेंगे। तेरा विवाह करेंगे।”
ऐलिसन कोई जवाब देने के बजाय व्यंग्य में मुस्कराई। शौको उसका ऐसा करना चुभा, पर वह आगे बोला–
“यहाँ क्रकिलवुड में एक बड़ा चर्च है। पादरी फादर जोय बहुत अच्छा आदमी है। मेरे साथ उसके पास चलकर अपने गुनाह की कन्फैशन कर ले, सब कुछ ठीक हो जाएगा, ज़िंदगी दुबारा शुरू कर ले।”
“शौन, किस गुनाह का कन्फैशन करूँ ? मैंने कोई गुनाह नहीं किया।”
“तूने मदर मैरी बनने की कोशिश की है।”
“तुमने बात को यूँ ही बढ़ा लिया, यहाँ लंदन में तो...।”
“ये सब काफि़र हैं, तू कैथोलिक है, हमारा परिवार सच्चा ईसाई है।”
“अगर तू यह कहे कि मैं बच्ची को छोड़ दूँ, तो यह काम मैं नहीं कर सकती। और मैंने कोई गुनाह नहीं किया।”
“यह बच्ची ?... गुनाह नहीं तो और क्या है ?”
“यह मदर की गलती थी।”
“मदर की गलती कैसे हो गई ? बच्चा तूने पेट में पाला और मदर की गलती कैसे हो गई ?”
“वह इस तरह कि मुझ अल्हड़ को काम पर भेजा। मुझे बाहर की दुनिया का कुछ पता नहीं था। मुझे मदर ने कुछ बताया ही नहीं।”
“ब्राइन स्वीनी के लड़के के साथ तू जा सोई और मदर की गलती ?”
“हर मदर का फर्ज़ होता है कि अपनी बेटी को अच्छे-बुरे की शिक्षा दे और ऐसी कठिन घड़ी से बचने का तरीका सुझाए, जो मुझ पर घटित हुई। सारी गलती मदर की है या फिर तेरी, तू बड़ा था। तुम्हीं जाकर कन्फैशन करो।”
“ऐलिसन तू हद से बाहर जा रही है। मैं तुझे और बर्दाश्त नहीं कर सकता।”
कहते हुए वह उठकर खड़ा हो गया। ऐलिसन भी। उनका शोर सुनकर ऐशली भी आ गई। ऐलिसन ने पैर धरती पर जोर से पटका और चली गई। शौन देखता रह गया। उसने हैरान होते हुए कहा–
“देख ऐशली, यह उल्टा हमें ही बुरा कह रही है।”
ऐशली ने कोई जवाब नहीं दिया और जाकर चाय ले आई। कप शौन के हाथ में पकड़ाते हुए बोली–
“शौन, तेरी जानकारी के लिए एक-दो बातें और बताती हूँ... एक तो यह कि जिस आदमी के साथ ऐलिसन रह रही है, वह सज़ा-याफ़्ता मुजरिम है। वह कैथोलिक भी नहीं। और ऐलिसन आजकल फिर गर्भवती हो गई है।”

(क्रमश: जारी…)


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1 टिप्पणी:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

रचना श्रीवास्तव की कविताएं प्रभावकारी हैं. बधाई,

डॉ० चन्देल