रविवार, 28 सितंबर 2008

गवाक्ष - सितंबर 2008



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले आठ अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सात किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के सितंबर,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की सातवीं किस्त का हिंदी अनुवाद तथा डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं…

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 7)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


बारह

गुरां ने सोचा कि अब विवाह तय हो गया है और वह बलदेव से पीछा छुड़वा लेगी, पर बलदेव था कि अब अधिक याद आने लगा था। उसे अपने आप पर गुस्सा आता कि उसने बलदेव के दिल की सदा सुनी क्यों नहीं। फिर बलदेव पर गुस्सा आने लगता कि वह मुँह से कुछ बोला क्यों नहीं। जैसे-जैसे विवाह नज़दीक आ रहा था, उसे लग रहा था कि यह ठीक नहीं हो रहा। फिर उसे अपने गरीब माँ-बाप का खयाल आता तो सोचती कि यही ठीक था। वह तो बहुत किस्मत वाली थी कि इंग्लैंड से आया लड़का मिल गया था, नहीं तो उनके घर की हैसियत को ऐसा रिश्ता कहाँ नसीब होना था। उसका मन होता कि किसी के संग वह अपने दिल की बात साझी करे, पर इतनी करीबी सहेली कोई थी ही नहीं। फिर अब तो विवाह में तीन दिन ही शेष थे। किसी को दिल की बात बता कर करेगी भी क्या। फिर इससे भी अधिक अनसोचा घटित हो गया। बलदेव दूल्हे के पीछे सरबाला बना खड़ा था। यह देखकर गुरां को झटका-सा लगा। उसने मन ही मन सोचा कि रब्ब उससे किस जन्म के बदले ले रहा है। असल में, अब उसे महसूस हो रहा था कि वह बलदेव के साथ कितना जुड़ गई थी।
बलदेव का बड़ा भाई अजमेर इंग्लैंड से विवाह करवाने इंडिया आया तो उसने कितनी ही लड़कियाँ देखीं। कोई उसे पसंद नहीं आती थी तो कोई उसे ना कर देती। आख़िर में किसी बिचौलिये ने गुरां के रिश्ते की बात की और साथ ही कहा कि लड़की लड़के को नहीं दिखानी है, कोई दूसरा बेशक लड़की को देख ले। इस पर उनकी बड़ी बहन बंसो जाकर लड़की देख आई और पसंद भी कर आई। अजमेर को जल्दी लौटना था इसलिए विवाह की भी जल्दी थी। बलदेव और शिंदा अजमेर के आने की खुशी में शराब निकालने में जुटे हुए थे, इसलिए उन्होंने अधिक ध्यान ही नहीं दिया। जब बलदेव को पता चला कि लड़की चक्क से है तो एकबार उसके दिल को कुछ हुआ। फिर जब बारात लेकर गए और वहाँ अपनी क्लास की कुछ लड़कियों को घूमते देखा तो उसे शक होने लगा। फिर एक लड़की ने आकर उसे बुला ही लिया। कहा-
“दूल्हा तेरा सगा भाई है ?”
“हाँ।”
“इधर जो लड़की है, वह गुरां है, पता है तुझे ?”
बलदेव ‘नहीं’ भी नहीं कह सका था। उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि लड़की के बारे में पहले जानने की कोशिश क्यों नहीं की। फिर वह सोचने लगा कि अगर जान भी जाता तो क्या करता। क्या विवाह रुकवा देता। गुरां से उसका इकतरफा लगाव था, इतने से लगाव के सहारे वह कैसे हिम्मत दिखा सकता था। ऐसा सोचते हुए वह संभल गया और विवाह का आनन्द लेने लगा।
अजमेर जब लड़की लेने उनके घर गया तो वहीं उसे मालूम हो गया कि गुरां और बलदेव दोनों क्लास-फैलो रहे थे। अजमेर ने कहा-
“तूने मुझे बताया क्यों नहीं ?”
“मुझे क्या पता था ? हमने कौन-सा लड़की देखी थी। और फिर, गुरां ने कालेज में अधिक किसी को बताया भी नहीं था कि उसका विवाह होने जा रहा है।”
“कैसी है लड़की ?”
“अब तो जैसी भी है, ठीक है। वैसे भाजी एक बात बताऊँ कि ऐसी लड़की किस्मत वालों को ही मिलती है।” कहकर उसने अजमेर से हाथ मिलाया तो अजमेर बागोबाग हो गया।
बलदेव इस हादसे में से सहजता से निकल आया। उसने अपने आप को संभाल लिया था। कभी-कभी अपने पराजित होने का अहसास जागता तो वह उसी समय अपने आप को तसल्ली देने लगता कि वह अगर हारा है, तो अपनों से ही हारा है, गैरों से नहीं। इस हार में भी उसकी जीत थी। कालेज में दोस्त भाई की शादी की पार्टी मांगते तो वह खुशी-खुशी सबकी सेवा कर देता। किसी को उसने अपना उदास चेहरा नहीं दिखलाया था। घर में भी पहले की भांति ही हँसता-खेलता रहता।
गुरां से उसकी कोई बातचीत साझी नहीं हो सकी। जब कभी कहीं इकट्ठे बैठे होते तो वे दोनों नज़रें चुराकर एक दूसरे की ओर देखते, पर बोलते नहीं थे। शाम को जब तीनों भाई बैठकर पीने लगते तो बलदेव कुछ खुलकर बातें करने लग पड़ता, लेकिन गुरां से फिर भी उसकी कोई बात न होती। विवाह के बाद अजमेर महीनाभर रहा और फिर वापस इंग्लैंड जाने की तैयारी करने लगा। उसने गुरां का पासपोर्ट बनने के लिए दे दिया था, जिसके बनने में अभी कुछ महीने लगने थे। एक दिन गुरां की माँ अजमेर से पूछने लगी-
“बेटा, गुरां को कालेज से हटा लें ?”
“किसलिए माता, जाने दो, घर में भी क्या करेगी !”
“यहीं चक्क से जाती रहे ?”
“जैसा चाहो कर लो, पर वहाँ से बलदेव को भी जाना होता है, उसके संग ही चली जाया करेगी।”
एक दिन गुरां तैयार होकर अपने कमरे से बाहर निकली। बाहर बलदेव खड़ा था। उसने गुरां को देखा और देखता ही रह गया। इस दौरान उसने गुरां को गौर से देखा ही नहीं था। हल्के से मेकअप में वह अप्सरा लग रही थी। उसके कानों में गुरां का गीत गूंजने लगा। कुछ दिनों से यह गीत बंद हुआ पड़ा था। गुरां उसके करीब से इस तरह निकल गई मानो वह वहाँ हो ही नहीं। पर आगे बढ़कर उसने मुड़कर बलदेव की तरफ देखा। वह कुछ कहना चाहती थी, पर क्या कहना था, यह वह भी नहीं जानती थी। उस दिन गुरां कालेज जाने के लिए बलदेव की मोटर-साइकिल के पीछे पहली बार बैठी थी। मोटर-साइकिल हिला तो उसने बलदेव के कंधे पर अपना हाथ रख लिया। बलदेव के जिस्म में एक सिहरन-सी दौड़ गई। एक झटके से मोटर-साइकिल आगे बढ़ी तो गुरां पूरी की पूरी उसके साथ लग गई। बलदेव आनंदित-सा हो उठा। उसने बात करने का साहस करते हुए कहा-
“ध्यान से बैठना, कहीं कुछ हो न जाए। भाई को क्या मुँह दिखाऊँगा मैं !”
“अगर इतनी ही चिंता है तो ध्यान से चलाना।”
यह उनके बीच पहला वार्तालाप था। कालेज पहुँचकर बलदेव ने शैड में मोटर-साइकिल खड़ी करते हुए कहा-
“कैसा रहा सफर ?”
“बहुत खूब ।”
“डर तो नहीं लगा ?”
“डराने वाला कोई काम करता, तभी न डर लगता।”
बलदेव सोच में पड़ गया कि वह क्या कहना चाहती होगी। उसने फिर कहा-
“लौटने के समय यहीं आ जाना।”
“अब तू मेरे साथ नहीं चलेगा ?”
“तेरे साथ चलते शर्म आती है।”
“अच्छा ! तेरे भाई ने तो तुझे मेरे साथ मेरी देखभाल करने के लिए भेजा है, पर तू है कि तुझे शर्म आ रही है।”
“चल बाबा चल।”
वह गुरां के साथ-साथ चलने लगा। कुछ दूर जाकर गुरां लड़कियों के झुंड में जा मिली और बलदेव अपने यार-दोस्तों में जा खड़ा हुआ। लौटते समय दोनों ही एक-दूसरे से शरमाते रहे। अधिक बात नहीं की, पर एक-दूजे की निकटता का सुख अनुभव करते रहे।
अजमेर के वापस जाने तक वह खुलकर बातचीत करने लगे थे। कालेज में भी किताबें उठाये एक-साथ चलते। गुरां बलदेव के दोस्तों के झुंड में आ खड़ी होती। वह राह में आते-जाते कालेज की, दोस्तों की बातें करते, पर घर में चुप-चुप रहते।
कालेज जाने के समय एक दिन गुरां मोटर-साइकिल के पीछे बैठी वह गीत गुनगुनाने लगी। पहले तो बलदेव ने सोचा कि यह गीत उसके कानों को वैसे ही सुनाई देने लगा है जैसे पहले हुआ करता था, पर फिर उसे लगा- नहीं, यह तो गुरां ही गा रही थी। उसने मोटर-साइकिल रोक ली। गुरां ने गाना बंद कर दिया। बलदेव ने कहा-
“चुप क्यों हो गई ?... गा।”
“क्यों गाऊँ ?... तेरा भाई तो मेरे गाने को बंद कर गया है। उसे जब मेरे गाने का पता चला तो बोला था कि खबरदार, अगर फिर से यह मिरासियों वाला काम किया।”
“तू मेरे लिए गा। तेरे इस गीत में मेरा बहुत कुछ है गुरां।”
“बहुत कुछ क्या है ?”
“तेरे इस गीत में मेरी सांसें हैं, मेरी ज़िंदगी है।”
“बहुत समय से बता रहा है !”
कहते हुए गुरां मोटर-साइकिल से उतरकर उसके सामने खड़ी हो गई। उसने गुरां के दोनों हाथ थाम लिए और आँखें नम करके बोला-
“गुरां, मैं तुझसे कुछ कहना चाहता हूँ।”
“मेरे हाथ छोड़, चलती राह है, कोई देख लेगा... हिजड़ा-सा ! कहता है, मैं कुछ कहना चाहता हूँ... अब जब सबकुछ हो चुका तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ... कहने का जब समय था, तब कहाँ चला गया था ? जब सारी दुनिया कहती घूमती थी तो तू कहाँ छिपा फिरता था।”
रोष में आकर बात करती गुरां ने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया।
“आय एम सॉरी गुरां, मैं तेरे गुस्से से डर गया था।”
“और अब किस डॉक्टर ने कह दिया कि कह ?”
“तेरे इस गीत ने मुझे हिम्मत दी।”
गुरां आगे कुछ न बोली और गुस्से में भरी दूर कहीं देखती रही। कुछ देर बाद बलदेव बोला-
“मुझे माफ कर दे।”
गुरां ने उसकी तरफ देखा। दोनों की आँखें नम थीं। बलदेव ने कुछ कहे बिना मोटर-साइकिल स्टार्ट किया और गुरां पीछे बैठ गई। रास्ते भर दोनों कुछ न बोले। बोल ही नहीं सके। कालेज पहुँचकर भी वे गुमसुम से घूमते रहे। लेकिन, दोनों को ढेर तसल्ली थी। उन्होंने कुछ पा लिया था। वापस लौटते हुए गुरां ने प्रश्न किया-
“कैसा है अब तू ?”
“मैं ठीक हूँ, तू कैसी है ?... मुझे माफ कर दिया ?”
“बलदेव, तू एकबार कहता तो सही। मैं सब समझती थी, प्रतीक्षा भी करती थी।”
“हौसला नहीं हुआ।”
“तेरे इस हौसले ने सबकुछ बिगाड़ कर रख दिया।”
“जो भी हो गुरां, बट आय लव यू सो मच... स्टिल आय लव यू...।”
“आय लव यू टू बलदेव, मेरे दिल का तो किसी को पता ही नहीं। तुझे विवाह में देखकर तू क्या जाने, मेरी क्या हालत हुई थी।” कहते हुए गुरां की आँखें भर आईं।
अब वे हमेशा इकट्ठे रहते। घर में भी और कालेज में भी। शिंदे ने एकदिन बलदेव से कहा-
“बलदेव, यह अपने भाई की अमानत है। अगर कोई ऐसी-वैसी बात हो गई तो भाई को मुँह दिखलाने योग्य नहीं रहेंगे।”
“तू फिक्र न कर, मुझे सब पता है।”
“तुझे पता है या नहीं, पर यह जो तू मोटर-साइकिल फर्राटे से निकाल ले जाता है और पीछे वो बैठी होती है, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता, डर लगने लगता है।”
बलदेव ने उसे बाहों में भर लिया।
“यकीन कर यार, मैं तेरा ही भाई हूँ, अगर तू मेरी जगह हो तो क्या ऐसी-वैसी बात सोच लेगा !”
“मैं तेरी जैसी जमातें जो नहीं पढ़ा।” कहकर शिंदा हँसने लगा।
गुरां मोटर-साइकिल के पीछे बैठती तो एकदम बलदेव से लगकर बैठती। उसके काने के पास मुँह ले जाकर गुनगुनाना आरंभ कर देती। बलदेव को नशा चढ़ने लगता। वह कहता-
“अगर भाई न होता तो मैं तुझे कभी भी दूर न होने देता।”
“तेरा भाई तो विलैतिया है, और बहुत मिल जाएंगी।”
“अगर हिम्मत है तो रहे जा, जो होगा, देखा जाएगा, मैं खुद झेल लूंगा।”
गुरां उसकी ठोढ़ी पकड़कर कहती-
“मुंडा जवान हो गया।”
इन्हीं दिनों में गुरां का पासपोर्ट बनकर आ गया। उसने बलदेव से कहा-
“बता, कब जाऊँ ?”
“अगर जाना ही है तो जब मर्जी चली जा। पर जाने से पहले एक बार गीत सुना जा ताकि जब मेरा दिल करे, उसे सुन सकूँ। तुझे नहीं पता, यह गीत मेरा आसरा है।”
उसकी बात सुनकर गुरां भावुक होते हुए बोली-
“यह गीत तेरा, यह गुरां तेरी मेरा राजा।”
बलदेव ने उसे आलिंगन में ले लिया।
चक्क वे जाते रहते थे। छोटा-सा घर था। घर की एक बैठक थी, गली से थोड़ा हटकर। वहीं बलदेव बैठा करता था। वही उसकी शराब पड़ी होती। घर में अकेली माँ ही हुआ करती। उसका बाप और भाई तो खेतों में होते। उस दिन भी वे चक्क चले गए। माँ बहाना करके बाहर निकल गई। बलदेव ने बोतल उठाई। गुरां बोली-
“इसकी क्या ज़रूरत है ?”
बलदेव ने बोतल एक तरफ रख दी। गुरां ने पलंग पर नई चादर बिछाई और बैठ गई। एक सिरहाना टांगों के नीचे रखा और एक पीठ के पीछे और बलदेव से बोली-
“तुझे इस गीत के मायने भी पता हैं ?”
“मुझे इसके मायने से कुछ नहीं लेना-देना। मेरा मतलब तो गीत से है, तुझ से है, तेरी आवाज़ से है और तेरी शीशे की बनी गर्दन से है।”
गुरां ने घुटनों को हाथों के घेरे में लिया और गला साफ करते हुए गीत गाने लगी- “भट्ठी वालिये... चंबे दीये डालिये नीं...।”
गुरां गाती गई। बलदेव उसकी ओर देखता रहा। पहले गुरां ने आँखें मूंद रखी थीं, ठीक वैसे जैसे कालेज में गाया करती थी। फिर उसने आँखें खोल लीं और बलदेव की आँखों में आँखें डालकर गाने लगी। बलदेव बुत बनकर उसकी तरफ देखता रहा।
गुरां ने गीत खत्म किया तो उसने उसकी गर्दन पर चुम्बन दिया और फिर उसके होंठ चूमने लगा।

(क्रमश: जारी…)

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मानव हो कर
दानव बनना
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पुत्र हो कर
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कैसे कहलाये फिर पूत
ठीक नही है

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मानस बन जाए बनमानस
अपने को मानस कहलाये
ठीक नही है
पैदा किए उसने इंसान
और वो बन जायें हैवान
कहलायें ख़ुद को भगवान
ठीक नही है ।
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जन्म : २ फरवरी, १९५६, लुधियाना (पंजाब) पिछले बीस वर्षों से डेनमार्क में निवास प्रकाशन व प्रसारण : चार पुस्तकें पंजाबी भाषा में, "जीवन जाच" "चेतना दे आर पार" "सगल मनोरथ" “किरण किरण मेरी कविता रानी" हिन्दी पुस्तक "दर्पण" का पंजाबी में अनुवाद, हिन्दी में कविता प्रकाशाधीन, डेनमार्क में अनेक "भारतीय राजदूतों" द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सम्मानित "रेडियो सबरंग डेनमार्क" में पंजाबी भाषा में कार्यक्रम प्रसारित "अनेकता में एकता" पर अटूट विश्वास


अनुरोध
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