शनिवार, 21 मई 2011

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 37)





सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ बयालीस ॥
गुरिंदर ने सबसे बढ़िया सूट निकालकर प्रैस किया और पहनकर देखा। उसने बालों का जूड़ा बनाया। उसकी गर्दन और भी लम्बी लगने लग पड़ी। उसने गर्दन पर झुर्रियों वाली ख़ास क्रीम मली। गहरे रंग का मेकअप किया। इतना वक्त लगाकर वह पहले कभी तैयार नहीं हुई थी। ऐसा दिन भी पहले कभी नहीं आया था। वह बलदेव के संग बाहर जा रही थी। इस दिन की उसको हसरत तो थी पर उम्मीद नहीं थी। उस दिन रैडिंग जाते हुए उसे कुछ घंटे बलदेव के संग बिताने का अवसर मिल गया था और आज तो पूरा दिन ही बिताएँगे।
अजमेर इंडिया गया हुआ था। उसका जल्दबाजी में प्रोग्राम बन गया था। बंसों ने अपनी बेटी के विवाह की तारीख़ पक्की करके ही चिट्ठी डाली थी। उतावली-सी में अजमेर तैयारी करने लग पड़ा था। शिन्दे को पुन: उसने दुकान में बुला लिया था, साथ में टोनी को पूरा दिन काम करना था। ऊपर से गुरिंदर तो थी ही, साथ ही साथ बलदेव की भी चक्कर लगाने की ड्यूटी लगा गया था। दुकानों में सो तरह की इमरजैंसी पड़ जाया करती हैं। कोई झगड़ा ही हो जाता, छोटी-बड़ी चोरी भी होती, कोई शीशा आदि भी तोड़ सकता था। शिन्दा इन बातों को शायद संभाल न सके, इसलिए बलदेव या सतनाम की ज़रूरत पड़ सकती थी। अजमेर उन्हें पूरी ताक़ीद कर गया था। बलदेव तो काम पर से सीधा ही इधर आ जाता और रात में वापस एलीसन के घर चला जाता। वहाँ से उसके काम के नज़दीक होने का फ़ायदा था। हाईबरी से वाटरलू जाने के लिए ट्यूब दो जगह से बदलनी पड़ती थी। गुरिंदर को पता था कि बलदेव यहाँ रुकना नहीं चाहता था। बच्चे बड़े थे। शैरन सब समझती थी। शिन्दा भी घर में ही था। वह भी नज़र रखता होगा। इंडिया में तो वह उनका बहुत ध्यान रखता था। गुरिंदर को बलदेव का रात में चले जाना बहुत बुरा लगता। जब वह चला जाता तो मन में कहती कि अच्छा हुआ, जज्बाती होकर कोई ग़लती भी हो सकती है।
बलदेव दुकान में बहुत कम समय खड़ा होता। गुरिंदर या शिन्दा उसको कोई ग्राहक सर्व करने के लिए कहते तो बलदेव कहता-
''ना भई, तुम ही गल्ला संभालो, भाजी तो अगले की जेबें सूंघने लग जाते हैं। मैं भाजी की लक्ष्मी को हाथ नहीं लगाऊँगा।''
बाद में गुरां कहती-
''यह जो इस लक्ष्मी को हाथ लगाता है, वो ?''
''यह तो मेरी है, वो मुफ्त में ही कब्ज़ा किए बैठा है।''
कल बलदेव आया तो उसके आगे चाबियाँ खनखनाता हुआ बोला-
''मेरी जान, मैंने फ्लैट ले लिया।''
''''फ्लैट क्यूँ, घर क्यों नहीं लिया ?''
''फ्लैट संभालना मुझे आसान लगता है, फुल्हम के फ्लैट भी घरों जैसी कीमत के ही हैं।''
''यह तेरा फुल्हम है कहाँ पर ?''
''लंदन में ही है, तुझे ले चलूँगा किसी दिन।''
''आज ही ले चल।''
''आज तो अब लेट हो गए, शॉप भी बिजी हो जाएगी। और फिर बच्चे भी घर पर ही हैं। कल चलना।''
आजकल वह बलदेव के संग शॉपिंग करने चली जाया करती थी। लेकिन संग शैरन और हरविंदर भी होते। रास्ते भर वे ही बलदेव के साथ सवाल-जवाब करते रहते और फिर स्टोरों में जाकर भी चिपटे रहते। गुरिंदर को अपनी बात करने का अवसर ही न मिलता, और किसी बात की आज़ादी कहाँ होनी थी।
गुरिंदर के कान सीढ़ियों की तरफ़ लगे हुए थे। बलदेव का फोन आ गया था कि दसेक बजे वह पहुँच जाएगा। शिन्दे ने नीचे जाकर दुकान खोल ली थी। सीढ़ियों पर आहट हुई। गुरिंदर उठकर शीशे के आगे खड़ी हो गई। अपने आप को एक बार फिर देखा और फिर सीढ़ियों की तरफ़ देखने लगी। बलदेव ही था। बलदेव ने गुरिंदर की ओर देखा तो देखता ही रह गया। गुरिंदर के करीब होकर सूंघते हुए बोला-
''क़त्ल करने की पूरी तैयारी की हुई है।''
''क़ातिल तो तू हैं, मैंने तो बस लाश सजाई है तेरे लिए। इसे छूकर इसमें जान डाल दे।''
बलदेव ने उसे बाहों में लेकर कहा-
''न मेरी जान, ऐसा न कह। तू लाश नहीं, तू तो मेरी रूह है, अप्सरा है... चलें ?''
''हाँ, पर शिन्दे को कोई गोली दे दे, नहीं तो यह मरा शक करेगा।''
''उसको मैं संभालता हूँ, तू साइड डोर के रास्ते निकल चल। ये ले चाबी, कार में बैठ, मैं टरका कर आता हूँ।''
गुरिंदर कार में जा बैठी, करीब दो मिनट में बलदेव भी आ गया। ड्राइविंग सीट पर बैठता हुआ बोला-
''मैं कह आया हूँ कि फ्लैट की सफ़ाई करने चले हैं।''
''इंडिया में तो यह बड़ा बुजुर्ग बना होता था, बहुत रौब डालता था।''
''यहाँ भाजी और सतनाम ने काम करवा-करवा कर इसकी जान ही निकाल रखी है, अभी भी शराब पिये घूमता है। मैंने कहा तो कहता है कि रात में जो पी थी, उसकी ही स्मैल आती है।''
''स्मैल तो कहीं इसके कपड़ों में से देखो।''
बातें करते हुए वे चल पड़े। पहले बलदेव ने उसको थेम्ज़ दिखाया और फिर फुल्हम आ गया। वे दोनों कार में से निकले और साथ-साथ चलने लगे। गुरिंदर ने बलदेव का हाथ पकड़ लिया और बोली-
''आज के दिन तो मुझे अपनी बनाकर चल।''
बलदेव ने उसको खींचकर अपनी बगल में लगा दिया। फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर अन्दर प्रवेश किया। बलदेव दिखाने लगा-
''ये देख, बड़ा बैड रूम, यह दूसरा और यह सिटिंग रूम... ये किचिन और डायनिंग... मेरे लायक बहुत है।''
''सुन्दर है, बहुत बढ़िया। सामान तूने डलवाया है ये ?''
''नहीं गोरे छोड़ गए। बता, क्या पियेगी, चाय या ठंडा ?''
गुरां उसकी तरफ़ देखने लगी। उसे बाहों में भरकर ऐड़ियाँ उठाकर चूमते हुए बोली-
''ये रम पिऊँगी मैं।''
दोनों एक दूजे की बाहों में वैसे ही खड़े रहे। गुरां कहने लगी-
''मुझे माहिलपुर वाली जीती मिली थी एक दिन।''
''क्या कहती थी ?''
''पूछती थी कि अपने देवर के संग रहती है या कि हसबैंड के साथ।''
''तूने क्या कहा ?''
''उस दिन तो कुछ नहीं कहा, अब मिलेगी तो बताऊँगी सबकुछ। वह तेरा हालचाल बहुत पूछे जाती थी।''
''मैंने तेरे आने के बाद फेल होने का रिकार्ड जो तोड़ दिया था।'' कहकर बलदेव हँसने लगा और फिर बोला-
''और क्या कहती थी ?''
''पूछती थी कि अभी भी गाती है ?''
''गुरां, आज गाएगी तू ?''
''जैसा कहे। मैंने तो इंडिया में तब भी कहा था कि अगर गाया तो सिर्फ़ तेरे लिए ही गाऊँगी।''
''आज हो जाए फिर वही रौनक।''
''तुझे पता है कि मैंने मुड़कर फिर कभी गाया नहीं, रियाज़ भी नहीं, गीत भी भूल गया होगा।''
''गीत तो मुझे पूरा याद है।''
कहकर बलदेव ने अल्मारी में से वोदका की बोतल निकाल ली। उससे बोतल पकड़ते हुए गुरिंदर ने कहा-
''बलदेव, बी नैचुरल ! शराब के बग़ैर, जैसे लंगेरी बैठक में हम बैठे थे... याद है न ?''
''मुझे सबकुछ याद है गुरां।''
कहकर वह हाथ पकड़कर गुरां को बैडरूम में ले गया। गुरां बैड पर चढ़कर बैठ गई। एक सिरहाना पीठ के पीछे रख लिया और एक टांगों के नीचे। बलदेव बैड के नज़दीक कुर्सी पर बैठ गया। गुरां बोली-
''तू वहाँ क्यों बैठ गया ? यहाँ मेरे पास आ।''
बलदेव उठकर बैड पर बैठ गया। गुरां ने कहा-
''तू अभी भी दूर बैठा है, और पास हो।''
बलदेव कुछ करीब सरका। गुरां गला साफ़ करती गुनगुनाने लगी। उसने आँखें बंद करके लम्बी टेर लगाई - ''नी भट्ठी वालिये…चम्बे दीये डालिये, नी पीडां दा परागा भुन्न दे, नी तैनुं देवां हझुंआं दा हाड़ा....।''
उसने गीत का मुखड़ा गाते हुए आँखें खोल लीं। बलदेव थोड़ा हटकर आँखें मूंदे गीत के आनन्द में डूबा हुआ था। गुरां ने मुखड़े से आगे पहला टप्पा शुरू करते हुए आँखें पुन: मूंद ली। उसको लगा कि बलदेव उसकी ओर बढ़ रहा था और गर्दन पर चुम्बन लेने लगा था। उसने आँखें खोलीं, बलदेव अभी भी आँखें बंद किए अधलेटा पड़ा था। टप्पे के बाद उसने मुखड़ा दुबारा शुरू करते हुए टेर के साथ बांह भी आगे बढ़ाई, पर बांह बलदेव को छू न सकी। वह थोड़ा हटकर था। गुरां ने एकबार फिर आँखें बंद कीं। दुबारा खोलीं तो बलदेव अभी भी उसी मुद्रा में था। गुरां की आवाज़ डोलने लगी। पर वह गाती रही। वह बोल भूल रही थी, उसकी आवाज़ डूब रही थी। बलदेव अभी भी थोड़ी दूरी पर आँखें मूंदे पड़ा था। गुरां का गीत बंद हो गया। वह बुरी तरह हाँफने लगी। बलदेव एक झटके से उठा और बोला-
''गुरां तू ठीक तो है ?''
फिर उसने गुरां की बांह देखी ओर एकदम से कह उठा-
''तुझे तो तेज़ बुख़ार है !''
(जारी…)
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