सोमवार, 14 मार्च 2011

गवाक्ष – मार्च 2011

जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की चौंतिसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के मार्च 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – लंदन से पंजाबी कवि-कथाकार शिवचरण जग्गी कुस्सा की कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की पैंतीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


लंदन(यू के) से
पंजाबी कवि शिवचरण जग्गी कुस्सा की दो कविताएँ
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

गर्व न कर तू

गर्व न कर तू
अपने बैंक में पड़े
लाखों डॉलरों और
गोल्डन क्रेडिट कार्डों का...

तेरे ये कार्ड
मेरे पंजाब के ढाबों
या रेहड़ियों पर नहीं चलते !

अंहकार न कर तू
अपने विशाल 'विले' का
इसका उत्तर तो
हमारे खेत वाला
अकेला ‘कोठा’ ही दे सकता है !
जहाँ पड़ती है, ट्यूबवैल की
अमृत जैसी धार
और रसभरा राग
गाती हैं लहलहाती फ़सलें !

और तो और
मेरे खेत की मूली-गाजरें भी
गीत गाती हैं
और मक्की भी ढाक पर छल्ली लटका
मजाजिण(नखरैल) बनी फिरती है !

और ‘मान’ न कर तू
अपनी नाजुक जवानी
और डोलते हुस्न का...
इसका उत्तर देने के लिए तो
हमारे खेतों का
एक सरसों का फूल ही काफ़ी है !
जिसपर बैठकर मधुमक्खी भी
मंत्रमुग्ध हो जाती है
तितलियाँ डालती हैं गिद्धे
और जुगनू रात में दीये बालते हैं !

तू गर्व न कर अपने बाग का
तेरे बाग में अब तक
किसी मोर ने नृत्य नहीं किया होगा
और न ही
'सुभान तेरी कुदरत' कहकर
किसी तीतर ने परवरदिगार का
शुक्राना ही किया होगा...!
नाचे नहीं होंगे खरगोश तेरे बाग में
और न ही कोयल ने कूक कर
कभी ‘शुभ-प्रभात’ का पैगाम दिया होगा !

न कर गर्व तू
अपने बेशक़ीमती लहंगों का
तुझे सुनहरी गीटियाँ गिनने से
फुर्सत मिले तो कभी हमारे गाँवों की
गड्डेवालियों का लिबास देखना !
तेरा भ्रम उतर जाएगा।
उनका पहरावा बता देगा
कि सुन्दरता सिर्फ़ अमीरों के पास ही नहीं
झुग्गियों में भी बसती है !

एक बात याद रखना
मोतियों जड़े पिंजरों में
मीठी चूरी खाने वाले
न तो चुग्गा चुगने का
न घोंसलों के मोह का
और न ही
बसंत ऋतुओं का अर्थ जानते हैं
वे तो सिर्फ़ भोगते हैं
बनावटी आलिंगनों की गरमाहट
और नलियों से पीते हैं दूध
और फिर लावारिसों की भाँति
मालिक की राह देखते हैं...

जो फाइव-स्टार होटलों में
डॉलरों की क़ीमत अदा कर
दूसरों के बनावटी आलिंगनों की
गरमाहट का आनन्द उठाता है
जिसे घोंसला बनाने की ढंग नहीं आया
जिसने हमउम्र आलिंगन की तपिश को नहीं भोगा
वो कैसा पंछी होगा ?
तेरे जैसा ?
वह भी तुले हुए हाड़-मांस का पुतला
रूह और रूहानियत से वंचित !
क्योंकि पिंजरे और महलों के माहौल में
अधिक फ़र्क़ नहीं होता।
अजब और ग़ज़ब

न तो मैं धनुष तोड़ने के काबिल हूँ
औ न, नीचे तेल के उबलते कड़ाहे में देख
ऊपर मछली की आँख बींधने के समर्थ !

न किसी कला में सम्पूर्ण
और न, किसी वेद का ज्ञाता हूँ मैं !
न त्रिभुवन का मालिक
और न ही, शक्ति का बली भीम सैन !
न सूरज जितनी तपिश है मेरे में
और न चन्द्रमा जितनी शीतलता !
न रात जैसी कालिमा है मेरे दिल में
और न दिन जैसा उजाला !

मैं तो ‘खाली’ वहंगी उठा भ्रमण करता हूँ
खुले आकाश के नीचे
चारों दिशाओं के तीर्थ स्थान !

न तो इच्छा है मुझे किसी स्वयंवर की
और न ही मैं कोई धर्मयुद्ध लड़ने की
रखता हूँ अभिलाषा !

मेरा बहरा दिल भी सुनता है
हर विरह-पीड़ा की ध्वनि
तब मित्तर-प्यारे को फ़कीरों का
हाल ही सुनाता हूँ
'तैं की दर्द न आया' का वास्ता देकर !

पर तुझ पर एक ग़िला है
मेरे श्रद्धाभरे
भीलनी के बेरों की तरह
चुनकर निकाले हुए मीठे शब्दों को भी
तू 'जूठा' कहकर दुत्कार देती है !

मैं तो अपने भगवान को जबरन
परसादा छकाने की जिद्द करता हूँ,
भोले ‘धन्ने भगत’ की भाँति
और लगाम पकड़कर रोकने का जिगरा रखता हूँ मैं
अपने गुरू का घोड़ा, ‘माता सुलक्खणी’ की तरह !

जंगल में खड़े होकर एक चमत्कार देखा
एक नदी पूछ रही थी मछेरों से
हीरे-जवाहरात की दास्तान !
...और वे मछली के भाव का ही
ढिंढोरा पीटने लग पड़े !

जब बदली ने सतरंगी पींग डाली मोर के संग
तब बिजली ने तड़क कर 'ग़ज़ब' का ग़िला किया
... तब बदली की आँख से टपके मोती
और धरती ने बाहें फैला लीं !
आसमान ने ताली बजाई
समूचा वायुमंडल सुर्ख़ हो मुस्करा उठा
तमाम आलौकिक नज़ारे देखता मैं आ बैठा
गाते हुए दरख्त और कामधेनु गाय के पास !

प्रकृति के आगोश में बैठा
'अज़ब' और 'ग़ज़ब' के चक्करों में पड़ गया मैं !
००
शिवचरण जग्गी कुस्सा
गाँव : कुस्सा, ज़िला-मोगा(पंजाब)
वर्तमान निवास : लंदन(इंग्लैंड)
शिक्षा : मैट्रिक(पंजाब), आई.एफ़.के. यूनिवर्सिटी ऑस्ट्रिया।
सम्प्रति : 1986 से 2006 तक ज़र्मन और ऑस्ट्रियन बार्डर पुलिस में और आजकल एस.आई.जी.(सिक्युरिटी)।
प्रकाशित कृतियाँ :
जट्ट वढिया बोहड़ दी छावें, कोई लभो सन्त सिपाही नूं, लग्गी वाले कदे ना सौंदे, बाझ भरावों मारिया, ऐती मार पई कुरलाणे, पुरजा पुरता कटि मरै, तवी तों तलवार तक, उजड़ गए गरां, बारीं कोहीं बलदा दीवा, तरकश टंगिया जंड, गोरख दा टिल्ला, हाजी लोक मक्के वल्ल जांदे, सजरी पैड़ दा रेता, रूह लै गिया दिलां दा जानी, डाची वालिया मोड़ मुहार वे(१५ उपन्यास पंजाबी में)। एक उपन्यास 'जोगी उतर पहाड़ों आए' प्रकाशनाधीन।
तू सुत्तां रब जागदा, ऊँठां वाले बलोच, राजे शींह मुक्कदम कुत्ते, बुड्ढ़े दरिया दी जूह(चार कहानी संग्रह)।
चारे कूटां सून्नीयां(आत्मकथ्य)।
बोदे वाला भलवान, कुल्ली नी फकीर दी विच्चों(व्यंग्य संग्रह)
सच आक्खां ता भांबड़ मचदै(लेख संग्रह)

पुरस्कार/सम्मान
सात गोल्ड मैडल के अलावा 17 भिन्न-भिन्न संस्थाओं की ओर से अचीवमेंट अवार्ड और पंजाबी सथ लांबड़ा की ओर से 'नानक सिंह नावलिस्ट पुरस्कार' से सम्मानित।
ब्लॉग : www.shivcharanjaggikussa.com
ई मेल : jaggikussa65@gmail.com

7 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

तेरे ये कार्ड
मेरे पंजाब के ढाबों
या रेहड़ियों पर नहीं चलते !
***
अंहकार न कर तू
अपने विशाल 'विले' का
इसका उत्तर तो
हमारे खेत वाला
अकेला ‘कोठा’ ही दे सकता है !
***

बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं.

बधाई,

चन्देल

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

इसका उत्तर देने के लिए तो
हमारे खेतों का
एक सरसों का फूल ही काफ़ी है.....

कोमल भावनाओं में रची-बसी
खूबसूरत रचना के लिए
शिवचरण जग्गी कुस्सा जी को
हार्दिक बधाई।

सहज साहित्य ने कहा…

गर्व न कर तू- कविता की गहराई बनावटी जीवन पर गहरा प्रहार करती है और नैसर्गिक सौन्दर्य की सही व्याख्या करती है ।

PRAN SHARMA ने कहा…

KAVITAYEN PRABHAVSHAALEE HAIN .
ANUVAAD BHEE SRAHNIY HAI .

सुनील गज्जाणी ने कहा…

सादर प्रणाम !
इसका उत्तर देने के लिए तो
हमारे खेतों का
एक सरसों का फूल ही काफ़ी है.
कोमल भावनाओं में रची-बसी
खूबसूरत रचना के लिए
शिवचरण जग्गी कुस्सा जी को
हार्दिक बधाई।
सम्मानिया सुभाष जी कोया भी आभार कि हम तक उम्दा कवियों कि रचनाये पहुचाते है ,
सादर !

Sushil Kumar ने कहा…

श्री जग्गी कुस्सा की रचना अपनी लोकधर्मी गुणों से पाठकों को प्रभावित करती है।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

बस इतना ही कह सकती हूँ , वाह! क्या खूब लिखा है...|
प्रियंका