सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 44)





सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ उनचास ॥
सतनाम ने ड्रिंक डालकर हाथ में पकड़ी हुई थी। न पी रहा था और न ही मेज पर रख रहा था। नशे में होने की वजह से हाथ हिल जाता और शराब छलक जाती। दोनों बच्चे पास ही बैठे थे। मनजीत घर का काम करती इधर-उधर आ-जा रही थी। टेलीविज़न पर नया एशियन प्रोग्राम लगा रखा था। बच्चों ने देखा कि उसका ध्यान कहीं और था तो उन्होंने आहिस्ता से रिमोट दबाकर कार्टून लगा लिए। मनजीत ने पूछा -
''रोटी ले आऊँ कि हो गया ?''
''डिंपल कपाड़िया, प्रेम चोपड़ा ने मेरा साथ दिया, शिन्दे को तरीके से निकालकर ले गया जैसे मक्खन में से बाल निकालते हैं। इसका कोई तोड़ सोच, मेरी डिंपल कपाड़िया।''
''सोचना क्या है, दूसरा आदमी रख लो।''
''तूने बात कर दी न टुनटुन वाली। अरे, तुझे बताया तो है कि स्किल्ड बुच्चर दो ढाई सौ मांगते हैं।''
''और तुम तो कहते थे कि आर्थर है।''
''है, आर्थर भी, वह भी इससे कम में नहीं मानता।''
''इतना !''
''इसी तरह के योद्धे मिलते हैं सौ में, यह तो ऐसे होता है जैसे अमिताभ बच्चन के आगे रिशी कपूर।''
उसने गिलास में से छोटा-सा पैग भरा और बोला-
''प्रेम चोपड़ा सीधे ही सौ पोंड हफ्ते का बचा गया। टोनी लेता था दो सौ और ये मुकरी वही काम करेगा सौ में।''
''तुम कह देते, हमारा गुजारा नहीं होता शिन्दे के बिना।''
''तुझे पता है बिन्दू कि मैं उसके सामने बिना पिये बोल नहीं सकता।''
''पीकर बोल लो।''
''अब साँप निकल गया, लकीर को पीटता रहूँ ! उसके पास बहाना ही ऐसा था कि टोनी छुट्टियाँ पर जा रहा है। शिन्दे के कारण मैंने माइको को हटा दिया था।''
सतनाम जानता था कि अब माइको वापस आने के लिए नखरे दिखाएगा। तनख्वाह बढ़ाने के लिए भी ज़ोर डालेगा। माइको को वापस लाने का तरीका एक ही था कि आर्थर को काम पर रखने का भय दिखाया जाए। वैसे आर्थर को काम पर रखकर वह ज्यादा खुश नहीं होता, क्योंकि आर्थर भी विश्वसनीय व्यक्ति नहीं था कि कब काम छोड़कर चलता बने। शिन्दे का इस प्रकार जाना उसको एक धक्के की भाँति लगा। शिन्दे के सिर पर दुकान छोड़कर वह कहीं भी हो आता था। कई कई घंटे बाहर रह सकता था। शिन्दे का वापस लौटना अब इतना सरल नहीं था।
माइको पुन: उसके संग काम करने आ लगा। सब कुछ पहले की भाँति हो गया, पर शिन्दे वाला अभाव पूरा नहीं होता था। शिन्दे को सभी याद करते। सभी उसकी बातें करते रहते, खासतौर पर जुआइस। वह तो शिन्दे से मिलने अजमेर की दुकान पर भी हो आती। यदि अजमेर वहाँ होता तो उसे देखकर आँखें निकालने लग पड़ता। वह उसको देखते ही लौट पड़ती। कभी कभी मगील जुआइस से कहने लगता -
''मुझे तेरी बहुत चिंता है।''
''क्यों ?''
''सोचता हूँ कि शैनी(शिन्दे) के बिना तेरा दिल कैसे लगता होगा ?''
''तू फिक्र न कर बुङ्ढे, तेरी मुझे ज़रूरत नहीं पड़ने वाली।''
यह सच था कि वह शिन्दे की कमी महसूस करती थी। वह शिन्दे को प्यार करने लगी थी। वह सतनाम से कहने लगती-
''तेरा भाई बहुत अच्छा है। इस दुनिया में बुरे लोगों की चलती है, उसके जैसे शरीफों की नहीं।''
उसकी बात सुनकर सतनाम मन ही मन बोला कि यदि शरीफ़ होता तो साला पार्टियाँ न बदलता घूमता।
शिन्दे का चले जाना कुछ दिन तक तो उससे स्वीकार ही नहीं हुआ था। फिर वह सोचने लगा कि कोशिश जारी रखनी चाहिए कि किसी तरह वह वापस आ जाए। शिन्दे के होते जो फायदे थे, शिन्दे के चले जाने पर और अधिक उभर कर सामने आने लगे। वह हाईबरी पहले की तरह ही जाता। जब से उसने दुकान खोली थी, हफ्ते में दो-तीन बार ताज़ा स्प्रिंग लैम्ब अजमेर को देकर आता था। जिस दिन भी नई डिलीवरी आती तो वह गुजरते हुए दो पोंड मीट उधर दे जाता। अब भी जाता। उसका टोनी, शिन्दे और गुरिंदर के साथ भी हँसी-मजाक चलता रहता था। गुरिंदर उसकी कई बातों पर खीझ भी उठती, पर उसके आने पर लगता कि आसपास का वातावरण हरकत में आ रहा है। अजमेर के स्वभाव का तो पता ही नहीं था कि किस वक्त उसको चढ़ जाएगी और दूसरे की वह उतार कर रख देगा।
सतनाम शिन्दे को छेड़ता हुआ कहता-
''अच्छा भला मीट का काम सीख चला था, इंडिया जाकर बेशक गाँव के अड्डे पर मीट की दुकान खोल लेता।''
प्रत्युत्तर में शिन्दा कहता-
''तुम भाई भाई जैसा मर्जी करो, चाहे मुझे झटकाई बनाओ या ठेकेदार या फिर मुनीर वाला वांगलू।''
एक दिन गुरिंदर सतनाम से बोली-
''तेरे भाजी को तो पता ही नहीं चलता कुछ, देख बलदेव को गए कितना वक्त हो गया। बेचारा लौटकर नहीं आया। जा, तू ही बुला ला उसको।''
''जट्टिये, मुझे लगता है, वह अब इंटरवल के बाद ही आएगा।''
गुरिंदर को उसकी यह बात अच्छी न लगी और कहने लगी-
''इतने महीने हो गए, अभी तक तुम्हारा इंटरवल ही नहीं हुआ ? मैं तो कहती हूँ कि अजीब भाई हो तुम लोग, मुँह पर एक दूजे की तारीफ़ें करने लगते हो, ज़रा इधर-उधर हुए नहीं कि तू कौन, मैं कौन।''
''जट्टिये, सारी दुनिया ही ऐसी है।''
बियर का घूंट भरकर अजमेर कहने लगा-
''इसने तो भई लहू पी लिया।''
''किसने ?''
''ये शिन्दे के बच्चे ने।''
''क्या बात हो गई ?''
''कुछ न पूछ, न साला टोनी जाता, न यह जड़ों में बैठता। अब टोनी को साइन करके ज्यादा पैसे देने होंगे। वह फुल टाइम को मानता ही नहीं।''
उसकी बात सुनता सतनाम बिल्ली झपट्टे के लिए तैयार होता हुआ बोला-
''मैं भी सुनूँ, यह कहता क्या है ?''
''कहना क्या है, सवेरे उठता ही पीने लग पड़ता है। कुछ सामने पीता है और कुछ चोरी से। ऊपर से सिगरेटें भी पीता है।''
''अच्छा, सिगरेटों का तो मुझे नहीं पता।''
''मैंने तो पकड़ा है इसे। मैंने पूरा हिसाब लगाकर देखा कि इसका दस से पन्द्रह पोंड का फालतू खर्च है रोज़ का। लगाकर देख हिसाब, बात कहाँ पहुँचती है। मैं तो परेशान हुआ पड़ा हूँ।''
''यह तो बिलकुल गलत है, दुकानें इतना बोझ कहाँ झेलती हैं। इसे समझाना था।''
''समझाऊँ क्या !... अगर कुछ कहूँ तो गुस्सा हो जाता है। लहू पी रखा है। गुरिंदर अलग लड़ने लगती है।''
''गुस्सा होने का क्या मतलब हुआ। जब वह गलती करता है तो रोकना तो हुआ ही। चुरा कर पीने का क्या मतलब ! धमकाना था ज़रा।''
''क्या धमकाऊँ ! पहले बलदेव छोटी सी बात पर गुस्सा होकर चला गया जैसे कोई डंडा मारा हो... अब इसे कुछ कहा तो... इसे इतना समझ में नहीं आता कि इसकी तनख्वाह तो एडवांस में इसकी औरत को दे आया हूँ।''
''भाई, कोई बात नहीं। हौसला रख। मैं इसको समझाता हूँ, बात इसके खाने में डालता हूँ।”
''मैंने तो मज़बूर होकर ही बात तुझे बताई है, तू ही इसके साथ बात कर।''
पब में से उठकर वे दुकान पर आ गए। सतनाम ने शिन्दे की तरफ देखा। शिन्दे ने नज़रें झुका लीं। सतनाम ने कहा-
''आ भई गब्बर सिंह, एक दो बातें करें।''
शिन्दा गल्ला छोड़कर बाहर निकल आया। उसके हाथ काँप रहे थे। सतनाम ने चिंतित होकर पूछा-
''क्यूँ, क्या हुआ तुझे ?''
''कुछ नहीं, यूँ ही सिर सा दुखता है।''
सतनाम उसके कंधे पर हाथ रख उसको दुकान में से बाहर ले आया। शिन्दा कहने लगा-
''यार, भाजी मेरे साथ बहुत बुरा व्यवहार करता है। रात में जी भर कर पीता है और फिर मेरे पर ही बिगड़ता है। मुझे तो वापस इंडिया ही चढ़ा दो, यहाँ मेरी कुत्ते बराबर कदर नहीं।''
''इस मुल्क में कुत्तों के तो मेन रोल होते हें... तू यूँ न देवदास वाला रोल किए जा।''
''मेरी तो बस करवा दी इसने। लाख रुपया क्या दे आया है, अब बातों से मेरा खून पीना चाहता है।''
''बात यह है भई कि एक तो शराब कम कर और ध्यान से काम कर। जिसने तनख्वाह देनी है, वो काम तो चाहेगा ही।''
''मैं काम से कब इन्कार करता हूँ।''
''शराब तो पीता है न।''
''यह तो भाजी ने मुझे अपसेट ही इतना किया हुआ है कि रहा नहीं जाता।''
''सोच ले, अगर नहीं दिल लगता तो उधर आ जा, पर मेरा नाम न लेना।''
शिन्दा कुछ न बोला। वह पुन: दुकान में आ गए।
घर पहुँचकर सतनाम मनजीत से कहने लगा-
''ओ मेरी पूनम ढिल्लों, तेरा देवर आ रहा है, एक रूम सैट कर दे।''
''सच, बलदेव मान गया ?''
''अरी शर्मिला टैगोर, तेरा एक ही देवर है कहीं। उधर जट्टी को भी बलदेव की ही पड़ी हुई है, साला बलदेव ही संजय दत्त हो गया। सारा मूड ही खराब कर दिया।''
''और कौन आ रहा है ?''
''शिन्दा ! उधर प्रेम चोपड़ा की उसके साथ शूटिंग ठीक नहीं चल रही।''
''शिन्दे को हम नहीं रखेंगे। मैं तो किसी को भी नहीं रखना चाहती। पर शिन्दे को तो बिलकुल ही नहीं। जाकर बहन जी से पूछो, कितना गन्दा है वह।''
''ज़रा होश से काम ले, हमेशा बिन्दू ही न बनी रहा कर। अब हमें उसकी सख्त ज़रूरत है। सोच कर देख, उसके आने से हमारे कितने पैसे बचते हैं। और फिर घर में, मेरी भी चल लेने दिया कर। तू मुझे हीरो तो क्या, साइड हीरो भी नहीं समझती।''
(जारी…)
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