रविवार, 2 दिसंबर 2012

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 53)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ अट्ठावन ॥

शिन्दा दुकान से बाहर आया तो ठंडी हवा का झौंका उसके चेहरे को चीरता हुआ गुज़र गया। वह दुकान में से निकल कर दायें हाथ मुड़ा और सीधा चलने लगा। एक पल के लिए उसके मन में आया कि वह कहाँ जाए। उसी पल वह सोचने लगा कि कहीं भी चला जाए, पर यहाँ से चला जाए। अब ये दो थे, ये तो अकेले ही भारी थे। वह सीधा चलता चला गया।
      उसको बलदेव की याद आई। उसने सोचा कि वह उसके पास चला जाए। पर वह कहाँ रहता था, वह नहीं जानता था। उसका पता उसके पास नहीं था। वह कहीं नज़दीक भी नहीं रहता था। वह चलता गया। सड़क को पहचानने की कोशिश करता सोचने लगा कि यह तो देखी हुई लगती थी। शायद इधर से कभी गुज़रा होगा। सतनाम के साथ मीट मार्किट आते जाते या शुरू-शुरू में बलदेव के साथ इस सड़क पर से गुज़रा होगा। या फिर भ्रम ही हो रहा होगा क्योंकि सारी सड़कें एक जैसी ही तो लगती थीं। वैसी ही दुकानें और रेस्ट्रोरेंट। सड़कों पर ट्रैफिक अधिक नहीं था। इसका अर्थ था कि रात काफ़ी हो रही थी। उसको यह भी नहीं पता था कि वह कितनी देर से चलता आ रहा था। हाँ, इतना था कि उसको थकावट काफी हो चुकी थी। ठंड और अधिक बढ़ गई थी। इतनी ठंड में वह कभी बाहर नहीं निकला था।
      थोड़ा आगे गया तो एक खुला चौक आया। यहाँ रोशनियों का मेला था, लगता था दिन निकला हो। लोग भी बहुत थे। वह रुका नहीं और चलता रहा। सड़क सीधी ही आगे निकलती थी। खुले चौक के बाद फिर बड़ी-बड़ी इमारतें आने लग पड़ीं। इस तरफ कोई घर दिखाई नहीं दे रहा था। इन इमारतों में फ्लैट बेशक हों। शायद बलदेव इधर ही कहीं रहता हो। वह भी तो फ्लैट में ही रहता था। वह सोचने लगा कि बलदेव के यहाँ भी क्यों जाए। वह भी तो एक भाई ही था, उन जैसा ही एक भाई। आगे जाने पर भीड़ और बढ़ गई। इस वक्त भी ये सड़कें लोगों से भरी पड़ी थीं। आगे जाने पर एक और चौक आया। वह इतना थक गया था कि वह भयभीत हो उठा कि कहीं गिर न पड़े। जैकेट हल्की पहने होने के कारण शरीर ठंड से सुन्न हुआ पड़ा था। सड़क पर इमारतों के चरणों में आसरा खोजते लोग रजाइयाँ ओढ़े पड़े थे। उसका दिल करता था कि वह किसी की रजाई में जा घुसे। फिर वह सोचने लगा कि वह घर से क्यों चला ? यह पहली बार तो हुआ नहीं था कि उन्होंने कुछ कहा था। अब भी लौट चले तो ठीक रहेगा। आगे जाने के लिए तो कोई ठिकाना था ही नहीं। परंतु वह जेहन में उठते सभी विचारों को एक तरफ़ करते हुए चलता चला गया। कुछ देर चलने के बाद उसे लगा कि जैसे अब गिर पड़ेगा। थोड़ा और चलने पर उसे पानी चमकता हुआ दिखाई दिया। उसने ध्यान से देखा, यह तो कोई दरिया था। शायद, वही दरिया हो जो उस दिन बलदेव ने दिखलाया था। दरिया के एक तरफ़ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। इमारत के साथ ही ऊँची-सी घंटी लगी हुई थी। वह समझ गया कि यह बिग-बैन था। इसकी फोटो उसने कई बार देखी थी। यह इमारत पार्लियामेंट हाउस की होगी। यह वही थेम्ज़ होगा जहाँ बलदेव पगलों की तरह बैठता था। उसने इधर-उधर गौर से देखा कि कहीं बलदेव ही न बैठा हो।
      वह दरिया के पुल पर आ गया। दरिया के दोनों किनारों पर रोशनियाँ जगमगा रही थीं, लेकिन दरिया में फिर भी अँधेरा था। उसने पुल पर खड़े होकर दरिया की ओर देखा। दरिया बहुत भयानक दिखाई दे रहा था। इतनी भयानक जगह उसने पहले कभी नहीं देखी थी। बिग बैन के घड़ियाल ने घंटे बजाने शुरू कर दिए। वह घंटे गिनने लगा, पर वह गिनती भूल गया। उसने अंदाजा लगाया कि बारह ही बजे होंगे।
      पुल की ग्रिल उसकी छाती से ऊँची थी। उसने ग्रिल पर हाथ फेरा। वह बर्फ़ की तरह ठंडी थी। वह हिम्मत करके ग्रिल पर चढ़ गया। कुछ लोग शोर मचाते हुए उसकी तरफ़ दौड़े, पर उसने छलांग लगा दी।
      दरिया में गिर कर कुछ देर तो उसे पता ही नहीं चला कि क्या हुआ और क्या नहीं। फिर उसे लगा, जैसे वह गाँव के किसी कुएँ में हो। बचपन में वह कुओं में दूसरे लड़कों के साथ छलांगे लगाया करता था। वह तैरने की कोशिश करने लगा, पर उससे तैरा ही नहीं जा रहा था। मानो कोई चीज़ पकड़कर उसे नीचे खींच रही हो। वह बचाव के लिए हाथ-पैर मारने लगा और मारता रहा।
      जब शिन्दे की चेतना लौटी तो वह एक अस्पताल में था। पहले तो उसे कुछ पता ही न चला कि उसके साथ क्या हो रहा था और वह कहाँ था। फिर धीरे-धीरे उसको सब याद आने लगा। पहले तो उसने शुक्र किया कि वह बच गया था, फिर सोचने लगा कि यदि न बचता तो अच्छा था।
      पुलिस ने मामूली-से बयान लिए। उसने कह दिया कि उसे मालूम ही नहीं कि उसके साथ क्या हुआ है। उसने अपना पता जुआइश वाला दे दिया। उसको नहीं पता था कि वह कितने दिन अस्पताल में रहा। एक दिन कह दिया गया कि वह अब ठीक है और घर चला जाए। उसके पास फूटी कौड़ी नहीं थी। अस्पताल वालों ने उसको हाईबरी पहुँचा दिया। वह वापस हाईबरी नहीं आना चाहता था, पर सोचने लगा कि और जाएगा भी कहाँ। जुआइश को भी तकलीफ़ नहीं देना चाहता था।
      शिन्दा वापस आया तो अजमेर दुकान में खड़ा था। उसने मुस्करा कर पूछा-
      ''कहाँ से आ रहा है ?''
      ''मैं कहीं गया था ज़रा।''
      ''यह ज़रा-सी इतने दिन !''
      ''बस, ऐसे ही टाइम लग गया।''
      ''कहाँ रहा ?''
      ''एक फ्रेंड के यहाँ।''
      ''किस फ्रेंड के ?... काली के तो हम हो आए थे।''
      ''नहीं, कोई और फ्रेंड था, तुम नहीं जानते।''
      कहकर वह ऊपर चढ़ गया और अपने बैड पर जा पड़ा। बैड पर लेटते ही उसको लगा कि ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है, वह यह क्या करने जा रहा था। इन लोगों के कारण मरने की क्या ज़रूरत थी ? ये उसके अपने नहीं थे अब। उसके अपने तो थे - मिंदो, गागू, दोनों बेटियाँ। फिर उसको उनकी याद आने लगी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और वह कितनी ही देर तक रोता रहा।
      वह करीब घंटाभर बैड पर लेटकर उठ खड़ा हुआ और अपने आप से बोला कि दुबारा ऐसी गलती नहीं करेगा। जैसे भी है, काटेगा। हर हालात का सामना करेगा। वह उठकर नीचे दुकान में आ गया और काम करने लग पड़ा।
      गुरिंदर उसके लिए सैंडविच बना लाई। लेकिन उसने कोई सवाल न किया। अजमेर ने एकबार फिर पूछा, शिन्दे ने पहले वाला ही उत्तर दे दिया। शाम को सतनाम आ गया। वह आते ही बोला-
      ''आ गया भई इनविज़ीबल मैन !... कहाँ रहा ?''
      ''एक फ्रेंड की तरफ चला गया था।''
      ''कौन-सा फ्रेंड ?''
      ''तुम नहीं जानते।''
      ''अगर बताएगा तो जानेंगे न।''
      शिन्दे ने जवाब नहीं दिया। सतनाम गुस्से में बोला-
      ''अगर पुलिस पकड़ लेती ?''
      ''तो क्या होता !... इंडिया भेज देती। यही तो मैं चाहता हूँ।''
      ''फिर बाहर खड़े होकर ऊधम सिंह वाला गीत गा कि मुझे पकड़ लो लंडन वासियों... मैं खड़ा पुकारूँ।''
      ''मैं वापस जाना चाहता हूँ। मुझे भेज दो। मुझे अब यहाँ नहीं रहना।''
      शिन्दा अजमेर से कह रहा था। अजमेर बोला-
      ''जो लाख रुपया भेजा था, वह पूरा करदे और फिर बेशक चला जा, हमने तेरे से क्या करवाना है।''
      शिन्दे ने 'ठीक है' में सिर हिलाया और फिर से काम में लग गया। अजमेर ने धीमे स्वर में सतनाम से कहा-
      ''कहीं बलदेव के यहाँ न हो आया हो।''
      ''नहीं, लगता नहीं। उसको फोन करके मैंने टोह ले ली थी।''
      ज़िन्दगी फिर से पहले की भाँति चल पड़ी। वह सवेरे उठकर दुकान खोलने लगा और पहले की तरह ही रात को बन्द करने लगा। उसने शराब कम करने की कोशिश की। एक दिन जुआइश आ गई। जुआइश को देखते ही शिन्दे की आँखें भर आईं और जुआइश की भी। वह बोली-
      ''शैनी, तू कहाँ चला गया था, सभी फिक्र में दौड़े फिरते थे।''
      शिन्दे ने उसको सारी व्यथा सुना दी। वह कहने लगी-
      ''ओ माई गॉड ! तू यह क्या करने चल पड़ा था। यह ज़िन्दगी तो ईश्वर की दी हुई नेमत है, यहाँ तक पहुँचने की तुझे ज़रूरत नहीं। मैं हूँ। तू मेरे पास आ जाता, मैं तेरी पूरी देखरेख करती। ये लोग तेरी पूरी कीमत नहीं आंक रहे।''
      शिन्दे से कुछ बोला न जा सका। जुआइश ने फिर कहा-
      ''यह ठीक है कि मैं सुन्दर नहीं। मेरी आदतें भी ठीक नहीं। पर मैं दिल की बहुत अच्छी हूँ। शैनी, मैं तेरे लिए कुछ भी कर सकती हूँ। तुझे एक भेद की बात बताऊँ - मेरी जड़ें बहुत गहरी हैं, बहुत बड़े-बड़े लोग मुझे जानते हैं, अच्छे भी और बुरे भी। अगर तू मेरे पास आ जाए तो तेरी हवा की ओर भी कोई नहीं देख सकता।''
(जारी…)

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1 टिप्पणी:

कुसुम ने कहा…

हरजीत जी के उपन्यास 'सवारी' की कुछ किस्तें ही पढ़ पाई हूँ। इस किस्त ने तो जबर्दस्त ढंग से बांधा। अब मन हो रहा है कि पूरा नावल पढ़ना ही पड़ेगा। किताब रूप में क्या यह हिंदी में उपलब्ध है ?