जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का
प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज
के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए),
रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू
के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा),
डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका),
मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर
कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना
कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी
कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा), देविंदर कौर (यू के), नीरू असीम(कैनेडा), इला प्रसाद(अमेरिका), डा. अनिल प्रभा कुमार(अमेरिका) और डॉ. शैलजा सक्सेना (टोरंटो,कैनेडा), समीर लाल (टोरंटो,
कनाडा), डॉक्टर गौतम सचदेव (ब्रिटेन), विजया सती(हंगरी), अनीता कपूर (अमेरिका), सोहन
राही (ब्रिटेन), प्रो.(डॉ) पुष्पिता
अवस्थी(नीदरलैंड) अमृत दीवाना(कैनेडा), परमिंदर सोढ़ी (जापान) और प्राण शर्मा(लंदन) आदि की रचनाएं और पंजाबी
कथाकार-उपन्यासकार हरजीत
अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की 58वी किस्त आप पढ़ चुके हैं।
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‘गवाक्ष’ के इस ताज़ा अंक
में प्रस्तुत हैं – यू.के. से पंजाबी कवयित्री देविन्दर कौर की कविताएं और ब्रिटेन निवासी
पंजाबी लेखक हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की 59वीं किस्त का हिंदी अनुवाद…
-सुभाष नीरव
यू.के. से
पंजाबी कवयित्री देविन्दर कौर की पाँच कविताएँ
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
कैनवस
सारी रात घूमती-फिरती रही लड़की
आकाश में लकीरें खींचती रही
ज़मीन की कैनवस को रंग देने के लिए
यादों के सच को
ज़िन्दगी का सच बनाती रही लड़की
पानी बरसता रहा बूँद-बूँद सारी रात
सपना था या सच
लड़की आकाश में इन्द्रधनुष को निहारती
आसमानी झूला झूलती रही
अपने जिस्म के फैब्रिक में
ठंडे, शीतल आँसुओं के मोती जड़ती रही
सोई हुई रात को जगाती रही
कल के सूरज का दीदार करने के लिए
सारी रात सपनों में घूमती रही लड़की।
टिकाव
दूर समंदर के पार
फासले पर बैठी
मैं माँ के पीछे दौड़ती हूँ
फोन करती हूँ
भाभी फोन उठाती है
भाभी है नाम की, रिश्ते की
बहन है अहसास की, खुशबू की
बोलती है आहिस्ता-आहिस्ता
ठहरी हुई आवाज़
समंदर में शांत टिके पानियों-सी
अंदर की उथल-पुथल इतनी शांत ?
मेरी दौड़ ठहर जाती
अंदर खाली-सा
कुछ भरने लगता
बात नहीं सूझती
ख़ामोशी तहें उलटती-पलटती
खोज रही है माँ की आवाज़
दु:ख भरी आवाज़
भाभी फाहा धरती है
माँ के होंठों पर
आवाज़ ख़ामोशी बनती है
सब कुछ टिकने लगता है
मैं रिसीवर रख देती हूँ…।
मासूमियत
नहीं जानती वह
घुग्गी के पंखों में से रिसते रहे
लहू की भाषा
वह बस इतना ही जानती है
जब घुग्गी उड़ती थी
तो वह चलती थी
पंखों में से रिसते लहू की भाषा
पढ़ने लगी
सवाल उसके माथे पर लटका
क्या उड़ते – उड़ते भी
कोई ज़ख़्मी हो जाता है ?
यह सोचते ही
वह चलने से भी सहमने लग पड़ी
वह रुकी
और बन गई सिल बर्फ़ की
ज़ख़्मी होने के डर से
वह हिम-पत्थर हो गई।
बचाव
उसने तो ‘ना’ ही की थी
अँधेरी शराबी रात में फिसलन भरी सड़क पर चलने से
बचाव ही समझा था उसने तब
कदमों के फिसल जाने के डर से…
फिसल रही सड़क से बचने के लिए
माथे में सिरज ली थी एक पथरीली पगडंडी
क्या पता था पगडंडी पर चलते हुए
पत्थरों में से भी किसी बूटे ने
उसे लिपट जाना था
और उस पगडंडी पर चलते चलते उसने
बूटे के संग हँसना था
उसको हँसाना था
उसको यह भी क्या पता था
पगडंडी के राह पर चलते-चलते कदमों की आवाज़
शीघ्रता में उसके कानों में से गुज़र जानी थी
और उसके पैर पगडंडी से बेख़बर उखड़ जाने थे
एक एक करके उसके माथे में सिरजी
पत्थरीली पगडंडी
पत्थर-पत्थर, कंकर-कंकर होकर
उसके ही पैरों में बिखर जानी थी
और फिसलती सड़क पर से बचती-बचती
कंकर-कंकर, पत्थर-पत्थर राहों पर थकी-थकी उसने
बस, कविता का ही दर खटखटाना था
उसने तो ‘ना’ ही की थी
बस, बचाव ही समझा था।
पोटली
उसने अपनी जड़ों की ओर देखा
नीचे माँ बैठी थी कितना कुछ छोटा-मोटा संभाले
अपनी पोटली संभाल-संभाल कर रखती
जड़ों में माँ अकेली बैठी
बाप, बहन, भाई सब बारी-बारी
थके-हारे
कभी-कभार उस जड़ की ओर लौट आते
सवालों की बौछार बरसती
माँ एक एक सवाल का उत्तर खोजती
बार-बार अपनी पोटली खोलती
बार-बार उसको गाँठ लगाती
युद्ध कर रही थी माँ
जड़ों में बैठी
अपनो के साथ
पोटली की मदद से।
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डॉ. देविन्दर कौर
पंजाबी की जानी-मानी कवयित्री और आलोचक।
शिक्षा : एम.ए. (पंजाबी व इंग्लिश), पी.एचडी
संप्रति : यू के में अध्यापन।
प्रकाशित पुस्तकें : चार कविता संग्रह – ‘इसतों
पहलां कि(1989)’, ‘नंगीयां सड़कां दी दास्तान(1997)’, ‘अग्नचोला(2002)’ और
‘सफ़र(2010)’। इसके अतिरिक्त चार आलोचना की पुस्तकें, चार संपादित पुस्तकें
प्रकाशित।
पुरस्कार /सम्मान : अनेक देशी-विदेशी पुरस्कारों से
सम्मानित।
पता
: 239, The Laurels, Birmingham New Road, Wolverhampton, WV4 6LP,
U.K.
फोन : 01902 564642, mobile 07877960642
ई मेल : Email Id:
within_light@yahoo.co.uk
धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 59)
सवारी
हरजीत अटवाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। चौंसठ ।।
घर से निकला शौन दुनियाभर का टूर लगा बैठा। अमेरिका गया। वहाँ उसको अच्छा
नहीं लगा था। अमेरिका ने कभी भी उसको प्रभावित नहीं किया। अमेरिका की राजनीति उसको
बुरी लगती। हर चीज़ पैसे से बंधी हुई। आम आदमी तो सिर्फ़ वोट ही था और शौन को वोट
बनना कभी भी पसंद नहीं था। अमेरिका रास न आया तो वहाँ से न्यूजीलैंड की ओर चल
दिया।
वहाँ से न्यूजीलैंड का लम्बा सफ़र था। दुनिया का एकदम उल्टा भाग। पूरे दिन
का अंतर पड़ जाता था। एक तारीख़ आगे हो जाती,
अमेरिका से चलने पर। न्यूजीलैंड में
ग्रेवाल था, बलदेव के मामा का लड़का। किसी चिकन फैक्टरी
में काम करता था ग्रेवाल जहाँ उसके कई नस्लों के दोस्त थे। कुछ माल्टी,
कु्छ ग्रीक, कुछ ओबरीजियन और दो भारतीय। शुरू में तो
शौन का दिल लग गया था। शहर भी बहुत सुंदर था। ताज़ी स्वच्छ हवा। पर वहाँ काम की कमी
थी। ज़िन्दगी आयरलैंड से भी धीमी गति में चलती। खेती-बाड़ी का ही अधिक काम था। महीने
भर में ही वह समझ गया था कि यह भी उसके रहने योग्य जगह नहीं है।
असल में, शौन आस्ट्रेलिया से बहुत प्रभावित था।
वहाँ की प्रगति करती अर्थ-व्यवस्था के विषय में अख़बारों में पढ़ता रहता था। कितने
ही व्यक्तियों की कहानी उसने पढ़ी थी जो इंग्लैंड से खाली हाथ आए और वहाँ जाकर
मिलिनियर बन गए। देश बहुत बड़ा था। इसने अभी और तरक्की करनी थी। शौन आस्ट्रेलिया
जाने का कार्यक्रम बनाने लगा। परंतु वहाँ जाएगा कहाँ। उसने ग्रेवाल से बात की।
“तेरा कोई परिचित है आस्ट्रेलिया में ?“
“नहीं। पर परिचित की क्या ज़रूरत है। गुरद्वारे चले जाना। वहाँ हर शहर में
गुरद्वारा है। सिडनी में उतरेगा। गुरद्वारे का पता यहाँ किसी से भी मिल जाएगा।“
“ग्रेवाल, तू क्यों नहीं मेरे साथ चलता। तू यहाँ
इतनी दूर अकेला बैठा है। वहाँ इंडियन ही इंडियन हैं। तुझे इमिग्रेशन की भी कोई
मुश्किल नहीं। इन दोनों देशों का एक ही सिस्टम है जैसा वहाँ हमारे आयरलैंड और
यू.के. का है।“
“मैंने सोचा तो कई बार है, पर हिम्मत ही नहीं पड़ती।“
शौन ने ग्रेवाल को तेयार कर लिया। वह जानता था कि अकेले गोरे को
गुरद्वारे में जगह नहीं मिलनी कठिन थी। शौन और ग्रेवाल सिडनी आ गए। एक गुरद्वारे
में ठहरे। लंगर में रोटी खा लेते और सारा दिन काम की तलाश करते या नए दोस्त बनाते।
ग्रेवाल को एक एजेंट ने फॉर्म में काम दिलवा दिया। केले का सीज़न था। खेतों में काम
सरलता से मिल जाते थे। सभी देशी एजेंट थे। जो स्थायी हो जाते, वे
ऐसी ही एजेंटी करने लगते। शेष सभी गैर-कानूनी से लोग ही थे। ग्रेवाल को शीघ्र ही
एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई। लेकिन शौन अभी खाली ही था। शौन के पास लॉरी का
लायसेंस होने के कारण एक फर्म में नौकरी तो मिल गई, पर आस्ट्रलिया में
रहने की अनुमति न होने के कारण वेतन कम देते थे। अब शौन के सामने कई और समस्याएँ आ
खड़ी हुई थीं। नौकरी मिलने के बाद रहने के लिए जगह भी उसने तलाश ली थी। लेकिन
कैथोलिक चर्च नहीं मिल रहा था। किसी चर्च में जाकर ढंग से प्रार्थना वह काफी समय
से नहीं कर पा रहा था। न्यूजीलैंड में भी कैथोलिक चर्चों का अभाव था। फिर धीरे
धीरे चर्च भी मिल गया। लोग भी मिल गए, जिनमें वह रह सकता था। पंजाबियों के बीच
रह रहकर अब वह ऊब चुका था। चर्च जाते ही कभी कभी उसको अहसास होने लगता कि वह
जिम्मेदारी से सचमुच ही तो नहीं भाग रहा। कभी कभी बहुत उदास हो जाता। अपनी उदासी
की बात वह पादरी के साथ करता। उसको तसल्ली न मिलती। यहाँ के हालात जानने के लिए
उसने फॉदर जॉअ को पत्र लिखा। फिर वह फॉदर ऐडरसन को भी और धीरे धीरे कैरन को भी खत
लिखने लग पड़ा। अब भविष्य में स्थायी होने के रास्ते भी उसके हाथ में आ रहे थे, पर
उसका मन ऊब गया। उसको आस्ट्रेलिया भी इंग्लैंड जैसा लगने लगा। सिर्फ़ धरती से जुड़े
दृश्यों और मौसम का अंतर था। लोग वैसे ही नस्लवादी थे, वैसे
ही सभी आयरिशों को उत्तरी आयरलैंड की सियासत से जोड़ने लगते। अंत में उसने वापस
लौटने का निर्णय कर लिया। कैरन ने भी ख़त में लिखा था कि एक अवसर और दिया जाए।
लौटकर वापस वह सीधा कैरन के पास आया। कैरन ने चर्च के लोगों में अपनी
अच्छी-खासी इज्ज़त बना ली थी। शौन को इसकी बहुत खुशी थी और ईर्ष्या भी। वह
पैटर्शिया को अच्छी तरह संभाल रही थी, यह भी शौन के लिए बहुत था। पैटर्शिया अब
बड़ी भी हो गई थी। वह सोच रहा था कि कैरन को एक अवसर और दिया जाना बनता था। उसको
वापस लौटना अच्छा लगता था।
कैरन और वह कुछ दिन ठीक रहे। चर्च जाकर दोनों ने आशीर्वाद लिया। शौन कोई
काम करने के बारे में सोचने लगा। बलदेव से वह नहीं मिला और ऐलीसन से भी नहीं।
ऐलीसन से नाराज था कि वह आयरलैंड क्यों गई। बलदेव ने उसके बच्चे संभालकर उसको जाने
के लिए उत्साहित किया था। इसलिए वह बलदेव से भी नाराज था। वह सोचता था कि बलदेव तो
उनकी ट्रेडिशन को जानता था। उसके अपने संस्कार भी तो ऐसे ही थे। फिर उसने ऐलीसन की
मदद क्यों की।
कैरन उसको शीघ्र ही पहले वाली कैरन लगने लग पड़ी। प्रारंभ में वह कैरन के
भरोसे के कारण जाता था कि दूसरी कोई औरत होती तो लड़खड़ा गई होती, पर
वह उसकी प्रतीक्षा करती रही थी। उनमें पहले की भाँति अब फिर ठनने लग पड़ी। एक दूसरे
पर चीखते, गालियाँ निकालते। पैटर्शिया समीप खड़ी होकर रोने लगती। अब शौन को लगता कि
कैरन तो बिल्कुल नहीं बदली थी। उनके लड़ाई-झगड़े की भनक बाहर लोगों तक पहुँच गई।
चर्च जाते लोग शौन द्वारा कैरन को छोड़कर चले जाने की घटना से परिचित थे। उनकी
सहानुभूति कैरन के साथ होती। शौन सोचता कि लंदन में इसके बहुत हमदर्द हो गए थे, क्यों
न उसको आयरलैंड ले जाए। यदि कैरन आयरलैंड में रहकर भी उसके संग बसती रही तो वह भी
जैसे-तैसे शेष ज़िन्दगी उसके साथ गुज़ार लेगा। इस विषय पर उसने फॉदर जॉअ से भी बात
कर ली। कैरन को आयरलैंड जाने की बात कतई पसंद नहीं थी, पर
वह मान गई। शौन आयरलैंड जाने की तैयारी करने लगा।
जाने से पहले उसने एक बार बलदेव से मिलना चाहा। उसके ठिकाने का शौन को
पता नहीं था। इतने दिनों में उसने बलदेव से मिलने की कोशिश भी नहीं की थी। वह
घूमते-घुमाते एक दिन अजमेर की दुकान पर पहुँच गया। अजमेर उसको देखकर खुश हुआ और
पूछने लगा-
“तू कब आया ?“
“थोड़े ही दिन हुए हैं।“
“सैटल हो गया वहाँ भी ?“
“नहीं, अच्छा नहीं लगा वो देश।“
“हमारे कज़न का क्या हाल है ?“
“ज़िन्दगी की मजे ले रहा है... डेव कहाँ होता है ?“
“वो बैटरसी में है। उसने गैस सिलेंडर का काम शुरू किया है। दुकान ली है।“
“सच ! डेव और दुकान ! यकीन नहीं आ रहा। क्या नंबर है उसका ?“
“फोन नंबर तो नहीं है इस वक्त। पार्क रोड पर शॉप है, पार्क
रोड हाई रोड में से निकलती है।“
“कितना नंबर पार्क रोड का ?“
“रोड का नंबर भी नहीं पता मुझे, इतना पता है कि पार्क रोड पर एक ही परेड
है दुकानों की और बस स्टाप इसकी दुकान के सामने है। तलाश करना कठिन नहीं।“
अजमेर के संग कुछ और बातें की। बियर का एक डिब्बा उसके साथ पिया और आ
गया। उसको लगा कि बलदेव भी सैटल हो गया था, बस वह ही रह गया।
वह बलदेव के पास बस में ही गया। कार उसके पास थी नहीं। दुकान बंद थी।
उसने घड़ी देखी तो ग्यारह बजे थे। फिर उसको दुकान के आगे लिखा बोर्ड दिखाई दिया
जिसपर लिखा था - जल्दी ही वापस आऊँगा, प्रतीक्षा करो। शौन ने पाँचेक मिनट
प्रतीक्षा की। फिर उसको उसकी दुकान के बोर्ड पर लिखा उसका मोबाइल फोन नंबर दिखाई
दिया। उसने बलदेव को फोन किया। बलदेव खुश होता हुआ बोला -
“कहाँ से फोन कर रहा है ?“
“तेरी दुकान के बाहर से।“
“वहीं ठहर, मैं आ रहा हूँ।“
बलदेव कुछ मिनट बाद ही वैन दौड़ाता पहुँच गया। दोनों एक-दूरे को जफ्फी
डालकर मिले। शौन उसको देखकर मुस्कराए जा रहा था, बोला -
“मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि तू भी कारोबार में पड़ गया। तू तो बिल्कुल
ही बदल गया है। ये इतने भारी सिलेंडर तू उठा लेता है ?“
“पर शौन, तू बिल्कुल नहीं बदला। आस्ट्रेलिया ने
तेरे पर कोई असर नहीं डाला। वैसे का वैसा शौन।“
“मुझ पर आस्ट्रेलिया ने क्या असर डालना था, सिर्फ़ कैरन ही
डालती है।“
“क्या हाल है उसका ?“
“वैसी की वैसी जैसी मैं छोड़कर गया था। बिल्कुल नहीं बदली।“
“वापस क्यों लौट आया ? वहाँ दिल नहीं लगा ?“
“दिल भी अब लग गया था, सब ठीक था, पर मेरी आत्मा ने
मुझे टिकने नहीं दिया। मुझे बांह से पकड़कर लौटा लाई कि आकर अपना फर्ज़ निभा।“
“पर शौन, तू कैरन का सब्र भी देख, तेरा
कैसे इंतज़ार किया है उसने।“
“पता नहीं डेव, इंतज़ार किया या उसकी मजबूरी थी। उसका बाप
हार्ट का मरीज़ है, शायद उसकी ज़िन्दगी का ख़याल करती इंतज़ार
करती रही हो।“
“शौन तू उसके बारे में उल्टा सोचता है।“
“डेव, बाइबिल में लिखा है कि मन एक धरती है, इसपर
जो जैसा बीज बोएगा, वैसा ही पौधा उगेगा। नफ़रत बोओगे तो नफ़रत
पाओगे। अगर कैरन मेरे मन में प्यार बोती तो उसको प्यार मिल जाता। मैं कौन होता हूँ
रोकने वाला।“
उसकी बात पर बलदेव चुप रह गया। वह सोच रहा था कि ज़िन्दगी तो शायद समझौतों
का नाम है, बीजने-काटने वाली बातें तो बहुत पुरानी हैं। शौन ने पूछा -
“तू इस बिजनेस में कैसे पड़ गया ?“
“बस, इत्तफाकन ही।“
वह उसको कारोबार शुरू करने की बात बताता उसे दुकान का पिछला यार्ड दिखाने
ले गया। ऊपर वाला फ्लैट भी दिखलाया। फिर कारोबारी बातें करता इसके अंदर की
बारीकियाँ समझाने लगा। उन्हें सुनता हुआ शौन रोमांचित हो रहा था। उसने कहा -
“तू तो थोड़े समय में ही बहुत बड़ा बिजनेसमैन बन गया लगता है।“
“शौन, तू ज़रा देर से आया है। भरी सर्दियों में
आता तो देखता यहाँ कितना रश था, फोन पर फोन बजता था, गैस
लेने वालों की भीड़... मैंने तुझे बहुत याद किया। अगर तू मेरे साथ होता तो काम
हमारे सामने दौड़ता फिरता। पर मैं अकेला था,
मुझे ढंग का वर्कर भी नहीं मिला।“
“अब अकेला ही करता है ?“
“नहीं, एक ड्राइवर भी है, सैयद, पर
मजा नहीं आ रहा। अब तू आ गया है, मुझे कोई चिंता नहीं।“
“नहीं डेव, मैं तो आयरलैंड जा रहा हूँ, वहीं
सैटल हो जाऊँगा।“
“क्यों ?“
“मैं कैरन को एक और टैस्ट में से निकालना चाहता हूँ। अगर वह मेरे साथ वहाँ
रह सकी तो ठीक है, नहीं तो वापस आ जाएगी।“
“यदि रह सकी तो ?... जो अब तक तेरा इंतज़ार कर सकती है, वो
वहाँ भी रह लेगी।“
“फिर मैं वापस लंदन लौट आऊँगा उसको लेकर और फिर उससे कोई गिला नहीं करूँगा।“ कहकर
शौन हँसा।
तब तक सैयद भी आ गया। वह बलदेव को हिसाब-किताब देने लगा। फिर बलदेव ने ऑन्सरिंग
मशीन सुनी और डिलीवरी नोट तैयार किए और सैयद को थमा दिए। सैयद ने अपनी वैन में से
खाली सिलेंडर निकाले और भरे हुए रखकर चला गया। शौन सैयद की ओर देखता जा रहा था।
बलदेव ने समझते हुए कहा -
“यह सैयद कुछ समय पहले ही मेरे साथ काम करने लगा है। डिलीवरी करता है। कोई
बहुत ही उतावला ग्राहक हो तो मैं जाता हूँ। तू आ जा एक बार, हम
दोनों डिलीवर करेंगे। पूरा साउथ-ईस्ट लंदन कवर करके रख देंगे। यह सैयद दो पौंड एक
सिलेंडर डिलीवर करने का लेता है। कई बार पचास सिलेंडर भी डिलीवर कर आता है।“
“तेरी पेशकश बुरी नहीं डेव, पर मेरे सारे प्रोग्राम बन चुके हैं।“
शाम को बोट पब में मिलने का वायदा करता शौर चला गया। बोट पब थेम्ज़ में
चलता-फिरता पब था। रास्ते में जाता शौन बलदेव के बिजनेस के बारे में सोचता जा रहा
था और फिर मन ही मन कहने लगा -
“यह पाकि तो बहुत अच्छा रहा।“
(जारी…)
लेखक संपर्क :
67, हिल
साइड रोड,
साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)
1 टिप्पणी:
aapke is ank men devindar kour ki kavitaon ke saath atval jee ka yeh uapanyaas ansh kaphi prabhavshali hai jo ek baar men padva gyaa.main dono lekhako ko badhai deta hoon.
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