मंगलवार, 19 जुलाई 2011

गवाक्ष – जुलाई 2011




जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की अड़तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जुलाई 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – इंग्लैंड से हिंदी कवयित्री डॉ. वन्दना मुकेश की कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की उनतालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

इंग्लैंड से
डॉ. वन्दना मुकेश की पाँच कविताएँ


डैफ़ोडिल

सुन दोस्त, उधर देख-
गुदगुदी वातानुकूलित गाड़ियाँ
क्यों दिखती हैं
थकी, उकताई-सी।
धीरे-धीरे सरकती, ऊँघती सी...
और उनमें बैठे लोग
बेज़ार, थके, मायूस
कुछ खीजे से, कुछ रीते से।
सुन दोस्त, बजा सीटी,
बुला उन्हें, कर इशारा।
आ बैठें हिलमिल
दरख्तों के साये में,
खिलखिलाएँ कुछ पल
खुले आसमां के नीचे।

घर

घर और मकान की क्या परिभाषा?
मकान की
चार सपाट दीवारों में,
गूँज नहीं पाते हैं-
घर के हास-परिहास,
आशा- निराशा।

यूरोप

दबे पाँव दाखिल होते हैं
शहर में
कि खामोशी सहमा देता हमें
इंसानी हजूमों से नदारद
इस शहर में
क्या
दिल धड़कता है कहीं?


स्पर्श

कभी,
ह्रदय के अंतरतम बिंदु तक
वीणा के तारों-सा
झंकृत करता
वह स्पर्श...
भीष्म की शैया का
स्मरण कराता...

टाइम-मशीन

पिता को अंधाश्रम से घर ले आया हूँ।
क्योंकि कल ही टाइम-मशीन में,
अपना भूत औ भविष्य देख आया हूँ।


उम्मीद

जिनके पसीने से बनते हैं-
शराब के साथ के पकौड़े
बुझे पड़े हैं उनके घरों के
कई दिनों से चुल्हे।
बापू कहता है-
फसल अच्छी होगी तो
लल्ली की शादी होगी...
गोटू सोचता है
फसल अच्छी होगी तो शायद बन सकेंगे
उसके घर में भी
एक प्लेट पकौड़े...

या बापू उसे भी खेलने दे
गेंद और बल्ला,
फिर अपने चूल्हे की तो बात क्या
साँझे चूल्हे की खुशबू से
महक उठेगा मोहल्ला।
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जन्म- भोपाल 12 सितंबर 1969 शिक्षा- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से स्नातक, पुणे विद्यापीठ से अंग्रेज़ी व हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पी.एचडी की उपाधि। इंग्लैंड से क्वालिफ़ाईड टीचर स्टेटस।भाषा-ज्ञान- हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू एवं पंजाबी।लेखन एवं प्रकाशन- छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत। 1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता 'खामोश ज़िंदगी' प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक पुस्तकों, वेब पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयों पर कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित। 'नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन'- 2002 में प्रकाशित शोध प्रबंधप्रसारण- बी.बी.सी. वैस्ट मिडलैंड्स, आकाशवाणी पुणे से काव्य-पाठ एवं वार्ताएँ प्रसारितविशिष्ट उपलब्धियां-
छात्र जीवन से ही अकादमिक स्पर्धाओं में अनेक पुरस्कार, भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान
यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011, में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान
भारत सरकार एवं गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011 की संयोजक सचिव।
22वें अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में प्रपत्र वाचन
2005 में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषीय सम्मेलन की संयोजक सचिव
इंटीग्रेटेड काउंसिल फ़ॉर सोश्यो-इकनॉमिक प्रोग्रेस दिल्ली द्वारा 'महिला राष्ट्रीय ज्योति पुरस्कार' 2002
1997 से भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कवि- सम्मेलनों का संयोजन-संचालन
गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से संबंद्ध।
संप्रति- इंग्लैंड में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन
संपर्क: vandanamsharma@yahoo.co.uk

6 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

VANDANA MUKESH KEE CHHOTEE-CHHOTEE
KAVITAAON KEE BHAVABHIVYAKTI MAN KO
BHRPOOR CHHOTEE HAI . PADHWAANE KE
LIYE AAPKAA SADHUWAAD .

उमेश महादोषी ने कहा…

आखिरी को छोड़कर सभी कवितायें अच्छी लगीं। एक तो आखिरी कविता की आखिरी पंक्तियां ठीक से समझ नहीं पा रंहा हूँ। भावों के संयोजन में शायद कुछ अवरोध है। दूसरे इसका बिम्ब मुझे स्वाभाविक नहीं लगा, हो सकता है इंग्लेण्ड/यूरोप के सन्दर्भ में ठीक हो।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

डॉ. वन्दना मुकेश की पाँचों कविताएँ मन को छूने वाली हैं...

बेनामी ने कहा…

प्राण जी एवं उमेशजी, धन्यवाद। यह रचना मैंने भारत द्वारा वर्ल्ड कप जीतने पर, एक अख़बार की ख़बर पढ़ कर लिखी थी। संभवत: संदर्भ न होने के कारण आप को मानसिक श्रम करना पड़ा, क्षमा चाहती हूँ। शायद इस रचना पर और मेहनत करनी होगी। वंदना मुकेश

ashok andrey ने कहा…

vandana jee ek gehree soch ko liye in kavitaon men imandar koshish ke sath prastut huee hain yahi iski pakad hai, badhai

Sushil Kumar ने कहा…

डा॰ वंदना मुकेश की लघु -कवितायें मन पर असर करती हैं| मर्मस्पर्शी और बेचैन सी|