गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

गवाक्ष- फरवरी 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के प्रवेशांक(जनवरी 2008) में हमने इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताओं का हिन्दी अनुवाद तथा लंदन में रह रहीं हिन्दी की जानी-मानी लेखिका दिव्या माथुर की कहानी- “खल्लास” प्रस्तुत की थी। इस अंक में प्रस्तुत हैं- मास्को में रह रहे हिन्दी के जाने-माने कवि अनिल जनविजय की कुछ कविताएं । इसके साथ ही, इस अंक से लंदन में रह रहे पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद का धारावाहिक प्रकाशन प्रारंभ करने जा रहे हैं।


छह हिंदी कविताएं
अनिल जनविजय


(1) माँ के बारे में


माँ
तुम कभी नहीं हारीं
कहीं नहीं हारीं
जीतती रहीं
अंत तक निरंतर

कच कच कर
टूट कर बिखरते हुए
बार-बार
गिरकर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोर्चों पर

तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफेद आग बन
लहकती रहीं
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मीं दिनों के सामने

चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं

और एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनन्त को चली गईं
खो गईं…।
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(2) समुद्र और तुम और मैं
(गगन गिल के लिए)

मैं ही तुम्हें
ले गया था पहली बार
समुद्र दिखाने
तुम परेशान हुई थीं उसे देखकर

चुप गुमसुम खड़ी रह गई थीं
खामोश बिल्ली की तरह तुम
और समुद्र बेहद उत्साह में था

बार-बार
आकर छेड़ता था वह
आमंत्रित करता था तुम्हें
अपने साथ खेलने के लिए
तुमसे बात करना चाहता था देर तक
नंगी रेत पर तुम्हें बैठाकर
अपनी कविताएं सुनाना चाहता था
और तुम्हारी सुनना

वह चाहता था
तुम्हारे साथ कूदना
उन बच्चों की तरह
जो गेंद की तरह उछल रहे थे
समुद्र के कंधों पर

सीमाएं तोड़कर
एक सम्बन्ध स्थापित
करना चाहता था तुमसे
परिवार-सुख के लिए

साप्ताहिक अवकाश का दिन था वह
आकाश पर लदी सफेद चिड़ियाँ
उदासी की शक्ल में नीचे उतर आई थीं
और हम भीग गए थे

कितना खुश था उस दिन समुद्र
तुम्हारे नन्हें पैरों को
स्पर्श कर रहा था
तुम्हारी आंखों में उभर रहे
आश्चर्य को देख रहा था
अनुभव कर रहा था
अपने व्यक्तित्व का विस्तार

वह व्याकुल हो गया था
वह तरंग में था
नहाना चाहता था तुम्हारे साथ
बूँदों के रूप में छिपकर
बैठ जाना चाहता था तुम्हारे शरीर में

आँकने लगा था वह
अपने भीतर उमड़ती लहरों का वेग
उसके पोर-पोर में समा गई थी
शिशु की खिलखिलाहट

अपने आप से अभिभूत वह बढ़ा
बढ़ा वह
और सदा के लिए
तुम्हें अपनी बांहों के विस्तार में
समेट लिया था उसने

और आज मैं
अकेला खड़ा हूँ
उसी जगह
समुद्र के किनारे
जहाँ मैं ले गया था तुम्हें
पहली बार।
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(3) कवि की ऊष्मा
(एक संस्मरण)

दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम
हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली
बाबा नागार्जुन के साथ
बहुत थोड़े से लोग हैं, रेल के डिब्बे में
अपने-अपने में सिकुड़े
खांसते-खंखारते

टूटी खिड़कियों की दरारों से
भीतर चले आते हैं
ठंडी हवा के झोंकें
चीरते चले जाते हैं हड्डियों को
सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफिर
अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं

अचानक कहने लगते हैं बाबा-
“माँ की गोद की तरह गर्म है मेरा कम्बल
बहन के प्यार की तरह ऊष्म
इसमें घुस कर बैठते हैं हम
जैसे कि बैठे हों घोर सर्द रात में
अलाव के किनारे…”

“अलाव की हल्की आँच है कम्बल
कश्मीर की ठंड में कोयले की सिगड़ी है
सर्दियों की ठिठुरती सुबह में
सूरज की गुनगुनी धूप है…”

बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को
प्यार से थपथपाते हैं
जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में
और किलकते हैं –

“भई, मुनि जनविजय !
मेरी किसी कविता से
कम नहीं है यह कम्वल
सर्दियों की ठंडी रातों में
जब निकलता है यात्राओं पर यह बूढ़ा
तो यही कम्वल
इन बूढ़ी हड्डियों को अकड़ने से बचाता है
रक्त को रखता है गर्म
उँगलियों को गतिशील
ताकि मैं लिख सकूँ कविता…
इसमें घुसकर मैं पाता हूँ आराम
मानो बैठा हूँ अपनी युवा पत्नी के साथ
पत्नी का आगोश है कम्वल
पत्नी के बाद अब यह कम्बल ही
मेरे सुख-दुख का साथी है सच्चा…”

इतना कहते-कहते
अचानक उठ खड़े होते हैं बाबा
अपने शरीर से झटकते हैं कम्वल
और ओढ़ा देते हैं उसे
सामने की सीट पर
सिकुड़कर लेटी
एक युवा मज़दूरिन माँ को
जिसकी छाती से चिपका है नवजात-शिशु

फिर खुद सिकुड़कर बैठ जाते हैं बाबा
बगल में घुसाकर अपने हाथ
बेहद सहजता के साथ

मस्त हैं अपने इस करतब पर
आँखों में स्नेहपूर्ण चमक है
एक खुशी, एक उल्लास, उत्साह है, सुख है
मोतियों की तरह चमकते
दो आँसू हैं
बेहद अपनापन है
बाबा की उन गीली आँखों में।
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(4) यौवन की स्मृति


क्या अब भी तुम कविता लिखती हो, ससि रानी
क्या अब भी कोई कहता है तुम्हें ‘मसि रानी’

क्या अब भी तुम्हें कोई यह दिल्ली शहर घुमाता है
नाव तुम्हारी खेकर यमुना से नगर की छवि दिखाता है

क्या अब भी तुम्हें कोई जीवन का पाठ पढ़ाता है
कभी प्रसूतिगृह तो कभी श्मशानघाट ले जाता है

क्या अब भी तुम वैसी ही हो दुबली-पतली
क्या अब भी तुम्हें हर रोज़ होती है मतली

मैं तो अब बूढ़ा हो गया साठ बरस का
पर याद मुझे हो तुम वैसी ही,जैसे तितली

कहाँ हो तुम अब, कैसी हो तुम, ओ मिस रानी!
मैं आज भी तुम्हें याद करता हूँ मसि रानी !

(5) विरह-गान
(कवि उदय प्रकाश के लिए)


दुख भरी तेरी कथा
तेरे जीवन की व्यथा
सुनने को तैयार हूँ
मैं भी बेकरार हूँ

बरसों से तुझ से मिला नहीं
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
एक पत्ता भी खिला नहीं

तू मेरा जीवन-जल था
रीढ़ मेरी, मेरा संबल था
अब तुझ से दूर पड़ा हूँ मैं।
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(6) संदेसा




कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल

कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
खोज रहा हूँ, ढ़ूँढ़ रहा हूँ मैं पूरा संजाल

क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल

याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
लगे, दूर है बहुत मस्क्वा से भोपाल

बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण

जब पत्र मिलेगा तेरा – तू राजी-खुशी है
दिन मेरा हुआ उस पल सोने का हिरण !
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कवि संपर्क :
अनिल जनविजय
मास्को विश्वविद्यालय, मास्को
ई मेल : aniljanvijay@gmail.com



धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 1)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। एक ।।

आयरश-सी। यू.के. और आयरलैंड के मध्य सहस्र मीलों तक फैला समुद्र। कई लोग इसे प्रिय समुद्र भी कहते हैं और कई मौसम का गुलाम भी। यह शीघ्र ही मौसम के प्रभाव में आ जाता है। जैसा कि आज है। खुशगवार मौसम में यह समुद्र ऐसा है मानो यह समुद्र न होकर कोई झील हो।
अगस्त की भोर है। इतनी भोर कि अभी मछली ने भी खेलना प्रारंभ नहीं किया। फिर, पानी पर बैठी कालिमा धीरे-धीरे उठने लगी। दूर, कहीं पानी में हुई आवाज से कइयों ने अंदाजा लगा लिया कि यह व्हेल होगी। लोग लान्ज में से उठकर ऊपरवाले डैक पर जाने लगे। बलदेव ने शौन की तरफ देखा। वह अभी भी गहरी नींद में सोया पड़ा था। उसने अपने बैग को सिरहाना बना रखा था। बलदेव आहिस्ता से उठा और जैकेट डालते हुए वह भी डैक पर जा चढा। यह बड़ा-सा जहाज चलते हुए पानी में छोटी-छोटी लहरें उत्पन्न कर रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी खूबसूरत औरत के हँसने पर उसके गालों पर गडढ़े पड़ रहे हों। बलदेव डैक की रेलिंग पर झुकते हुए क्षितिज की ओर देखने लगा। एकबार तो उसके मन में आया कि काश, गुरां उसके साथ यहाँ होती।
पूरब का क्षितिज रक्तिम होने लगा। डैक पर घूमते कुछ यात्रियों ने कैमरे संभाल लिए। कुछ यूं ही एकटक देखे जा रहे थे। सूर्य की एक छोटी-सी फांक ने झांका। कालिमा के स्थान पर अब लालिमा समुद्र की सतह पर आ बैठी थी। फिर, देखते ही देखते, सूरज बच्चे की भांति छलांग लगाकर पूरे का पूरा बाहर आ गया। इस नजारे का जिक्र शौन ने कई बार किया था। बलदेव ने सूर्य उदित होते तो कई बार देखा था, परन्तु समुद्र में फैलती ऊषा की लालिमा पहली बार देख रहा था। न चिड़ियाँ चहचहाईं, न परिन्दों की कतारें सफ़र पर निकलीं। उसका दिल कर रहा था कि वह इस अनुभव को किसी के संग साझा करे।
बलदेव ने गर्दन घुमायी। एक खूबसूरत लड़की उसकी बगल में खड़ी इस दृश्य को देख रही थी। उसका आयरश चेहरा छोटे-छोटे खाकी बिंदियों से भरा पड़ा था। ये बारीक दाग उसके आयरश होने को और पक्का करते थे और उसकी कम आयु को भी। बलदेव को अपनी ओर देखते पाकर वह बोली–
“बहुत सुंदर !”
“हाँ, एकदम अद्भुत !”
“पहली बार देख रहे हो ?”
“हाँ, पहली बार। और तुम ?”
“मैं तो पहले भी देख चुकी हूँ, पर कई बार आज की तरह मौसम साफ नहीं होता। आज तो हम बहुत लक्की हैं।"
“हाँ।"
बलदेव ने कहा और खामोश हो गया। उसका ध्यान सूरज पर से हटकर उस लड़की की ओर हो रहा था। वह कहने लगा–
“इस सूर्योदय में तू भी बहुत खूबसूरत लग रही है।"
“सच !”
“हाँ।"
“तुम्हारे चश्मे का नंबर तो ठीक है ?”
वह लड़की हँसते हुए बोली। बलदेव झुंझला गया और उसका हाथ एकदम अपने चश्मे पर चला गया। लड़की ने पुन: कहा–
“मैं तो मजाक कर रही हूँ, बुरा मत मानना। क्या नाम है तुम्हारा ?"
“मेरा नाम डेव है और तेरा ?”
“मैं जीन हूँ। तुम आयरलैंड में रहते हो ?”
“नहीं, अपने दोस्त शौन के साथ घूमने जा रहा हूँ। लंदन में रहता हूँ मैं।"
“लंदन में किस इलाके में ?”
“करिक्कलवुड।"
“सच !... मैं भी वहाँ कुछ दिन रह कर आयी हूँ। छुट्टियों में।"
“वैसे कहाँ रहती हो ?”
“डबलिन।"
“फिर डबलिन वाली फैरी क्यों नहीं ली ?”
“वो फैरी मुझे लेट कर देती। कल मुझे कालेज जाना है।"
“क्या पढ़ती हो ?”
“मैं नर्सिंग का कोर्स कर रही हूँ।"
“बहुत खूब ! नर्सों की तो पहले ही बहुत कमी है। फिर तो लंदन में ही काम करोगी ?”
“नहीं, शायद मैं अमेरिका जाऊँ।"
फिर वे दोनों चुप हो गये और समुद्र की ओर देखने लगे। सूरज अब कुछ ऊपर उठ चुका था। मौसम सुहावना था। और भी बहुत सारे लोग डैक पर चढ़ आए थे। बात आगे बढ़ाने के लिए बलदेव बोला–
“मौसम अच्छा हो तो सफ़र करने का मज़ा ही कुछ और होता है।"
“हाँ, पर आज की फोर-कास्ट भी बहुत अच्छी नहीं है।"
“तुम अकेली हो ?”
“हाँ, अकेली हूँ। आगे रसलेअर से बस पकड़ूंगी और कुछ घंटों में डबलिन पहुँच जाऊँगी। मेरा घर डबलिन के निकट टारा गांव में है।"
“जीन, मेरे साथ पब में चलना पसंद करोगी ?”
“क्यों नहीं। पर अभी तो खुला भी नहीं होगा... और तुम बता रहे थे कि तुम्हारा दोस्त तुम्हारे साथ है।"
“दोस्त है शौन, पर उसके साथ तो मैं रोज ही पीता हूँ। तेरे जैसी खूबसूरत लड़की का साथ तो किस्मत से ही मिलता है।"
जीन थोड़ा शरमाई। तब तक शौन भी उनके बराबर आ खड़ा हुआ। उसने जीन से हैलो कहा और बलदेव से पूछने लगा–
“कैसा लगा, समुद्र में से सूरज का उगना।"
“अद्वितीय! कल्पना से आगे।"
कहते हुए बलदेव ने शौन का जीन से परिचय करवाया। शौन बोला–
“भाजी(भाई), रेस्टोरेंट खुल गया, आजा नाश्ता कर लें। तूने रात में भी कुछ नहीं खाया।"
शौन के संग चलता बलदेव जीन से कहने लगा–
“हमारे साथ नाश्ते के लिए चलोगी ?”
“नहीं, मैं ठीक हूँ, तुम चलो।"
“फिर मेरे संग ड्रिंक ज़रूर लेना। पब के खुलते ही आ जाना, मैं प्रतीक्षा करुँगा।"
“मैं आ जाऊँगी।"
कहते हुए जीन ने हाथ हिलाया। बलदेव शौन के पीछे-पीछे डैक की सीढि़याँ उतरने लगा।
शौन काफी समय से पंजाबियों के बीच में विचरता आ रहा था। उसने पंजाबी के कुछ मोटे-मोटे शब्द कंठस्थ कर लिए थे, जिन्हें गाहे-बेगाहे प्रयोग कर लेता था। इन शब्दों के सहारे ही कई बार वह पूरा वाक्य भी समझ लेता था। ऐसे ही बलदेव ने भी उससे कुछ आयरश शब्द सीख रखे थे। कई बार मजा लेने के लिए वह भी बोलने लगता।
रेस्टोरेंट में जाकर उन्होंने हल्का-सा नाश्ता किया। रात में शराब अधिक पी लेने के कारण वे कुछ खा नहीं सके थे। बलदेव को तो समुद्री सफ़र में लगने वाली उल्टियों से भी डर लगता था। ‘सी-सिकनैस’ की गोलियां लेना उसे पसंद नहीं था। शराब के साथ ली ये गोलियां उल्टा असर भी कर जाती थीं। नाश्ता करके शौन ने कहा–
“हम पहले ड्यूटी-फ्री वाला काम खत्म कर लें, फिर फुर्सत पाकर दुनिया देखेंगे।"
“शौन मुझे लगता है कि मैंने तो दुनिया देख ली। शायद, जीन मेरे सफ़र को सफल बना दे।"
“हाँ, लड़की सुंदर है। अब ढील मत कर देना, जैसा कि तू कर ही दिया करता है।"
“तू फिकर न कर, तुझे शिकायत का मौका नहीं दूंगा। तेरे लिए खोजूं कुछ ?”
“नहीं, कुछ खास नहीं हैं, पुराने से मॉडल ही घूमे जाते हैं।"
“अभी तड़का है न, थकावट की मारी पड़ी हैं बेचारी। जरा ठहर, इन्हें मेकअप करने दे, फिर देखना – मॉडल को बदलते।"
कहकर बलदेव हँसने लगा। वे दोनों ही लड़कियों को देखने के शौकीन थे। लड़कियों की कारों के मॉडल से तुलना करते। शौन कहने लगा–
“मेकअप से मॉडल बदला तो क्या बदला। और फिर मुझे तो इंडिया जाकर मारुतियाँ ज्यादा पसंद आने लगी हैं।"
शौन की बात पर दोनों हँसे। हँसते हुए वे ड्यूटी-फ्री दुकान में जा घुसे। शौन पिछले दिनों बलदेव के साथ इंडिया का चक्कर लगा आया था। इंडियन लड़कियाँ उसे विशेष तौर पर पसंद थीं। ड्यूटी-फ्री दुकान में से व्हिस्की की बोतलें इकट्ठी करता शौन बोला–
“इतनी तो व्हिस्की, बरांडी और रम ले ही जाएं कि पेट्रोल का खर्च निकल आए।"
“कितनी ले जाने की इजाज़त है ?”
“इंडिया जितनी ही।"
कहकर शौन व्यंग्य में बलदेव की तरफ देखने लगा। बलदेव हँस पड़ा। इंडिया जाते समय वे काफी व्हिस्की ले गये थे। जब दिल्ली के एक अधिकारी ने ऐतराज किया तो दस पौंड बलदेव ने उसके हाथ में थमा दिए थे। तभी शौन ने हँसते हुए कहा था कि हमारे मुल्क में भी इसी तरह मुट्ठी गरम करके काम चल जाता है।
शौन ने तकरीबन पच्चीस लीटर शराब इकट्ठी कर ली। उन्होंने बैग बड़ी मुश्किल से उठाये और फैरी के निचले डैक की तरफ की सीढ़ियाँ उतरने लगे, जहाँ उनकी कार खड़ी थी। नीचे, दो मंजिलें कारों की थीं और तीसरी निचली मंजिल पर लोरियाँ और वैनें खड़ी थीं। यहाँ का माहौल एकदम अलग था। चारों तरफ गहरी चुप थी, सिवाय फैरी के चलने की आवाज के। फैरी की आवाज डरावना-सा माहौल पैदा कर रही थी। बलदेव के लिए यह सब एकदम नया-सा था। जब वह महसूस करता कि यह जगह समुद्र के कई फीट नीचे है तो उसे भय-सा लगने लगता। पर वह शौन के पीछे-पीछे चलता गया। उसकी चुप्पी को देखकर शौन पूछने लगा–
“क्या सोच रहा है ?”
“सोचता हूँ कि यह सीलन, यह चुप्पी, बड़ा फिल्मी-सा माहौल पैदा कर रही हैं।"
“हाँ, तेरा समुद्री जीवन से वास्ता जो नहीं पड़ा।"
“शायद, इसीलिए।"
“चिंता न कर, आज से तू अभ्यस्त हो जाएगा।"
कार तक पहुँचते उन्होंने देखा कि कुछ युगल इधर-उधर कारों में बैठे अपने आप में मस्त थे। शौन बोला–
“भाजी, जीन को यहाँ ले आ। सबकुछ यहाँ का रंगीन लगने लगेगा।"
बलदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिवाय छोटी-सी मुस्कान के और उसके साथ शराब की बोतलें कार में रखवाने लग पड़ा। शौन ने बोतलें इस प्रकार रखीं कि बाहर से देखने वाले को पहली नज़र में कुछ पता न चले। सीटों के नीचे भी बोतलें छिपा दीं। कोई कोना नहीं होगा जहाँ उसने बोतल फंसाने की कोशिश न की हो। फिर, एक बोतल को बाहर निकालते हुए बोला–
“पब खुलने में तो अभी देर है, आ जा तुझे कायम करुँ।"
“वे दोनों कार में बैठ गये। शौन ने दो पैग बनाये। उसने कार में ही सबकुछ रखा हुआ था। वह हमेशा ही कार में इसी तरह पीने का इंतजाम किए रखता था। वह ग्लव-बॉक्स खोलता हुआ बोला–
“यह देख, यहाँ सभी कुछ पड़ा है। ये पैकेट देख, ये टीशू, पिछली सीट पर तौलिया भी है, मेरा मतलब है, जब मर्जी आ।"
फिर वह अपने पिछले सफ़रों के किस्से सुनाने लगा कि कैसे हर बार कोई न कोई लड़की उसे मिल जाती रही थी। कई बार दोस्ती लम्बे समय के लिए भी पड़ जाती थी। लेकिन ज्यादातर वास्ता इसी सफ़र तक ही होता। बहुत से नौजवान लड़के-लड़कियों का इस प्रकार फैरी से सफ़र करने का मतलब ही आनन्द उठाना होता है। फैरी में घुसते ही नौजवान आँखें अपने हमउम्र को तलाशने लगती हैं। ये कहानियाँ शौन बलदेव को अक्सर सुनाया करता। लेकिन, हर कहानी हर बार उसे नयी ही लगती। अब तो वह सुनते हुए ही आनंदित होता जा रहा था।
कार में से निकल कर वह वापस ऊपर की ओर चले तो एक जोड़ा उनके आगे-आगे जा रहा था। सीढि़याँ चढ़ते हुए एक जोड़ा नीचे उतरता हुए मिला। यह सीलन और यह चुप्पी, अब बलदेव को इतनी परायी नहीं लग रही थी। वह फिर से मेन लान्ज में आ गए। उन्हें हल्का-सा सुरूर हो रहा था। लान्ज की चहल-पहल बहुत सुहावनी लग रही थी। सुबह सभी सोये हुए ऐसे लग रहे थे मानों इन्होंने कभी उठना ही न हो। जहाँ जिसको जगह मिली थी, सो गया था। कोई सोफे पर तो कोई नीचे ही। भीड़ में से बलदेव जीन को खोजने लगा। शौन ने कहा–
“आ जा बैठते हैं। उसे भी तेरी जरूरत होगी, खुद ढूँढ़ लेगी।"
फिर शौन उसका ध्यान एक औरत की ओर दिलाता हुआ बोला–
“वो देख मर्सडीज।"
“शौन, तू बहुत लिबरल है, करटीना को मर्सडीज कहे जा रहा है।"
“डेव, तुझे सुंदरता की जरा भी समझ नहीं। मर्सडीज नही तो एम डब्ल्यू कह ले, तू तो करटीना पर ही गिर पड़ा है।"
“होंडा, मैं होंडा से ऊपर नहीं उठ सकता।"
“तेरी तंग नज़र... मैं कुछ नहीं कह सकता। तू यहाँ रुक, मैं बात करके आता हूँ।" कहता हुए शौन उस औरत की तरफ चला गया।
बलदेव वहीं बैठ कर सामने चल रहे टेलीविजन पर समाचार देखने लगा। मौसम के बारे में बता रहे थे कि मौसम खराब है। बलदेव ने खिड़की में से समुद्र की ओर देखा, उसका नीलापन धूप में दुगना हुआ पड़ा था। बलदेव सोचने लगा कि मौसम विभाग वाले भी कई बार धोखा खा जाते हैं। कल भी मौसम ठीक नहीं बता रहे थे, पर सारा दिन और फिर रात को भी मौसम साफ रहा था। टेलीविजन देखता बलदेव साँप की तरह सिर घुमाता जीन को खोजे जा रहा था।
कुछ देर बाद शौन एक आदमी के साथ सामने आ खड़ा हुआ। बलदेव मन ही मन हँसा कि औरत के पीछे गया था, पर मर्द ले आया है। शौन ने उस आदमी की तरफ इशारा करके कहा–
“डेव, यह है एंड्रीऊ, मेरी बहन आयरीन का पुराना बॉय–फ्रेंड... और एंड्रीऊ, यह है मेरा दोस्त डेव।"
बलदेव ने उससे हाथ मिलाया और हालचाल पूछा। वे बातें कर ही रहे थे कि सामने जीन आती दिखाई दी। बलदेव उन्हें ‘एक्सक्यूज मी’ कहते हुए जीन की ओर बढ़ गया। जीन उसे देखते ही बोली–
“डेव, किधर चले गए थे ?”
“मुझे थोड़ी शापिंग करनी थी। अब फुर्सत में हूँ, आ जा कहीं बैठें।"
बलदेव ने घड़ी देखी। बारह बज रहे थे। पब खुल चुका था। उसने जीन का हाथ पकड़ा और पब की ओर चल पड़ा। जीन ने अपना बैग पिट्ठू की भांति पीठ पर लटका रखा था। पब में से वाइन के गिलास भरवा कर वे फैरी की रेलिंग के पास आकर खड़े हो गए। धूप हल्का-सा चुभ रही थी। बलदेव ने जेब में कार की चाबी टटोलकर देखी। शौन की कार की एक चाबी हमेशा उसके पास हुआ करती थी और इसी तरह उसकी कार की एक चाबी शौन के पास। बलदेव ने कहा–
“मुझे तेरा इस थोड़े से सामान के साथ सफ़र करना बहुत अच्छा लगा।"
“हाँ, बहन के घर जाती हूँ तो मुझे अधिक सामान की जरूरत नहीं पड़ती। उसके कपड़े मुझे आ जाते हैं।"
“तुझे बाई-एअर सफ़र कैसा लगता है ?”
“ठीक है, एक घंटा लगता है सारा, पर फैरी का मजा कुछ और ही है। डबलिन वाली फैरी में तो नाइट-क्लब भी है, रात भर म्युजिक बजता है।"
“फिर तो अगली बार मैं भी उसी में जाऊँगा।"
“पर समय बहुत लग जाता है।"
कहते हुए जीन ने अपनी वाइन खत्म कर दी। बलदेव और भरवा लाया। ठंडी हवा चलने लग पड़ी थी। समुद्र की लहरें चूहों की कतारों की भांति दौड़ने लगीं। दूर, उत्तर दिशा में बादल का एक टुकड़ा उभर रहा था। हवा जरा-सी तेज हुई तो लहरें खरगोश जितनी हो गईं और जल्द ही कुत्ते जितनी। जहाज हिचकोले खाने लगा। उसकी रफ्तार भी धीमी पड़ गई। बलदेव जीन का हाथ थामे पब के अंदर आ गया। वे एक तरफ कुर्सियों पर बैठ गए। जहाज इतना हिल रहा था कि बैठना कठिन हो रहा था। मेजों पर गिलास तो क्या टिकते। बार-मैन को गिलास भरने कठिन हो रहे थे। लान्ज में बैठे लोग भी हिल गए। कई तो उल्टियाँ करते हुए बाथरूम की ओर भागने लगे। बच्चों पर कोई असर नहीं था। उनका शोर पहले से भी ज्यादा था। बलदेव ने जीन की आँखों में आँखें डाल कर कहा–
“जीन, यू फैंसी ए गुड्ड टाइम ?”
जीन का चेहरा सकुचा गया। उसकी आँखें झुक गईं। बलदेव को आस नहीं थी कि वह यूं शरमा जाएगी। उसने फिर कहा–
“जीन, घबराने की कोई जरूरत नहीं। किसी तरह की फिक्र न कर। मेरे पास सारे इंतजाम हैं, मेरी कार भी नीचे डैक में ठीक जगह पर खड़ी है। तू कोई चिंता न कर।"
“नहीं डेव, मुझे कोई फिक्र नहीं, कंडोम तो मेरे पास भी है, पर तू कुछ जल्दी नहीं कर रहा ?”
(क्रमश: जारी…)


लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
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