बुधवार, 9 जुलाई 2008

गवाक्ष- जुलाई 2008


गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले छह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव और दिव्या माथुर की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली पांच किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जुलाई,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – शारजाह(यू ए ई) निवासी कथाकार-कवयित्री पूर्णिमा वर्मन की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की छठी किस्त का हिंदी अनुवाद…

दस कविताएं
पूर्णिमा वर्मन, शारजाह, यू ए ई


गीत –

बज रहे संतूर

बज रहे संतूर बूँदों के
बरसती शाम है


गूँजता है
बिजलियों में
दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं
फिर मल्हारों के
सुखद पद
मन मुदित नभ भी धनकता ढोल
मीठी तान है


इस हवा में
ताड़ के करतल
निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित
सागरों के लहर
संयम तज रहे हैं
उमगते अंकुर धरापट खोल
जग अनजान है



क्षणिकाएँ-

एक

किस अगन से था बुझा वह तीर
जो आकाश से गुज़रा
हवा से जूझ कर बिखरा
लड़ा वह बिजलियों से
बादलों से वह भिड़ा
देखते ही देखते
नीलाभ नभ गहरा गया
लो -
ग्रीष्म का पहरा गया

दो

कुछ तो था उस हवा में जो
झूम कर
उठ चली थी
इस शहर भर घाम में
वह एक
मिश्री की डली थी


तीन

बस वही बकवास,
गुस्सा
और बरसना
सुबह से इन बादलों ने
घर नहीं छोड़ा

चार

घटा, तो फिर घटा थी
दूब चुनरी, झाँझ बिजली
फूल-सी मुस्कान
और
आशीष रिमझिम


पाँच

राम जी,
बाढ़ ने इस तरह घेरा
घर गया, अपने गए,
सपने गए
हर तरफ़ से दर्द बरसा
गया डेरा

छ्ह


शहर में चुपचाप बारिश
कांच पर
रह-रह बरसती है
कि जैसे
दर्द पीकर
ज़िंदगी
सपने निरखती है।


सात

सड़क है, शोर भी है
और बारिश साथ चलती है
हवा है साँस में नम सी
खुली छतरी
हाथ की बंद मुट्ठी में
और लो
आ गई गुमटी चाय की


आठ

बुलबुले ही बुलबुले
बहते हुए
भरे पानी, मुदित चेहरे
नाव कागज़ की
पुराने दिन


नौ

खिली फिर
खिलखिला कर
धूप बारिश की
दरख्तों से टपकती
बूँद में कुछ
झिलमिलाती सी
0


जन्म : 27 जून 1955
शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।
संप्रति : पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह : वक्त के साथ (वेब पर उपलब्ध)
ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com



धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 6)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। दस ।।

सतनाम सड़क पर निकला तो आगे ट्रैफिक मिल गया। उसने घड़ी देखी। नौ बजने वाले थे। यह आठ से नौ बजे का समय ट्रैफिक का ही होता था। वह सोचने लगा कि अगर वह पंद्रह मिनट और रुक जाता तो बेहतर रहता। उसने वैन को सेवन-सिस्टर्स रोड की ओर मोड़ ली यह सोचकर कि पहले सैपरीऐट रेस्ट्रोरेंट को माल दे देगा। कुल मिलाकर उसे दस रेस्ट्रोरेंट्स को मीट देना था। भारतीय रेस्ट्रोरेंट तो ग्यारह बजे ही खुलते थे। उन्हें बेशक बाद में माल दे, पहले दूसरे रेस्ट्रोरेंट्स के पास पहले हो आए। काम खत्म करके उसे लौटने की भी जल्दी होती। बाहर निकलने पर एक चक्कर घर का भी लगा आता। घर इस वक्त सूना होता और चोरी-चकारी का भय बना रहता था। मनजीत कईबार कहती कि अर्लाम लगवा लो, पर वह आलस्य कर जाता। कईबार मनजीत के दफ्तर का चक्कर लगाने भी चला जाता। वह कांउसल में काम करती थी। उसके मन के किसी कोने में पड़ा डर उसे उस तरफ ले जाया करता। जब कभी मनजीत चुप-सी हो जाती, उस वक्त यह डर उसके अन्दर अधिक फैलने लगता। दफ्तर में कितने ही रंग-बिरंगे मर्द काम करते थे, न जाने क्या-क्या सपने दिखाते होंगे। मीट के काम को वह पसंद भी तो नहीं करती थी। कईबार वह मन ही मन हँसता रहता कि कहीं किस्सा गुमराह ही न हो जाए, मैं अशोक कुमार ही न बन जाऊँ।
वह वापस दुकान में लौटा तो अन्दर से मीट के भुनने की खुशबू आ रही थी। थोड़ी-सी धूप निकलती तो पैट्रो मीट को भूनने लग पड़ता। कोयलों पर भुना हुआ मीट उन सबको पसंद था। आज जैसा मौसम होता तो इसी का लंच किया करते।
सतनाम ने माइको से पूछा–
“कैसा है काम ?”
“बहुत ढीला, पांच ग्राहक भी नहीं आए होंगे।”
उसने उंगलियाँ खड़ी करके दिखलाईं। फिर बोला–
“गवना, मैं ब्रेक पर जा रहा हूँ।”
सतनाम ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। इस तरह वे बारी-बारी से ब्रेक किया करते थे। सतनाम कम ही छुट्टी करता। अगर पैट्रो मीट न भूनता तो वह साथ वाले कैफे से सैंडविच मंगवा लेता और काम करते-करते खाता रहता।
मगील बियर का डिब्बा खोजने लगा। पिछले दिनों उसके पेट में दर्द उठा था तो डॉक्टर ने उसकी शराब बंद करवा दी थी। उसने शराब छोड़कर बियर पीनी आरंभ कर दी, पर ज्यादा बियर पीकर उतना भर नशा फिर कर लेता। जब सतनाम उसे रोकता तो वह कहता–
“मेरा डॉक्टर ज्यादा सयाना नहीं है, गलती से शराब की मनाही कर गया। और फिर, उसने बियर की रोक तो लगाई नहीं।”
मगील सतनाम को कहने लगा–
“गवना, मुझे बियर मंगवा दे, बहुत प्यास लगी है।”
“तू खुद मंगवा कर पी... जा कर ले आ।”
“तू मुझे पिला। देख, मैंने तेरे लिए कितना काम किया है। यह देख, आगे से भी भीग गया और पीछे से भी।”
कहकर वह अपने गुप्तांगों पर हाथ लगाकर दिखाने लगा। सतनाम ने कहा–
“जुआइश आने वाली है, वही देखेगी, तू कहाँ से भीगा है।”
“मैं अब जुआइश के काम का नहीं रहा। और फिर तू मुझे उसके बराबर न रखा कर। उसने तो एक घंटे के लिए आना है और मुझे तो सारा दिन तेरे पास रहना है।”
तब तक जुआइश भी आ गई। बियर के दो डिब्बे उसके पास थे। एक डिब्बा मगील को पकड़ाते हुए बोली–
“अमीगो... पी। मैंने सोचा, तू थका होगा।”
जुआइश ने अपना डिब्बा खोलकर दो घूंट भरे और फिर एक तरफ रखते हुए अपने काम में लग गई। पहले ब्रूम से सारी फ्लोर साफ की, फिर बकट में गरम पानी और ब्लीच डालकर पोचा लगाने लगी। काम के साथ-साथ ऊँचे स्वर में बातें भी करती रही। आराम से तो वह काम कर ही नहीं सकती थी। वह अपना काम समाप्त करके चली गई।
दोपहर ढले ग्राहक निरंतर आने लगे। सतनाम और माइको सर्व कर रहे थे। जितना कोई मीट मांगता, वे काट देते। एक ग्रीक बुढ़िया आकर उधार मांगने लगी। पैट्रो उसे अपनी भाषा में कुछ कहने लगा जो कि सतनाम की समझ में नहीं आ रहा था। अगर माइको रेस के घोड़े जीतता था तो उसे अपनी जेब से मीट ले देता था। पैट्रो उसे ना किए जा रहा था, पर वह बहुत ही मिन्नतें करने लगी। वह खीझकर बोला–
“निक्की ने इसकी आदत खराब कर दी थी। अब मैं कितनी बार लेकर दे सकता हूँ, इसके पास तो हमेशा ही पैसे नहीं होते।”
उस औरत ने पैट्रो की बात सुने बग़ैर ही मांगने का हंगामा-सा खड़ा कर दिया। सतनाम कहने लगा–
“पैट्रो, थोड़ा-सा मीट देकर चलता कर, कह दे फिर न आए।”
“कितनी बार कह चुका हूँ।”
खीझा हुआ पैट्रो उसके लिए मीट काटने लगा। मीटवाला बैग उसके हाथ में थमाते हुए बोला–
“गवने का शुक्रिया अदा कर।”
वह सतनाम को दुआएं देती हुई चली गई। कुछ देर बाद एक गोरी ने आकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया। सतनाम ने पूछा–
“मैडम, आज तुम्हारी क्या समस्या है ?”
“आज फिर मीट खराब है। मैं तेरा मीट खाकर बीमार हो गई हूँ।”
“तू मेरा मीट खाकर बीमार क्यों होती है ! उस दिन भी हो गई थी।”
“तेरा मीट खराब निकला है, मुझे दूसरा मीट दे।”
“नहीं मैडम, आज यह बहाना नहीं चलेगा। उस दिन मैंने तुझे पूरा चिकन दे दिया था। तेरी हेराफेरी और नहीं चलेगी।”
“मैं तेरी शिकायत करूँगी, तेरी दुकान बन्द करवा दूँगी।”
वह बहुत गुस्से में बोल रही थी। मगील बोला–
“मदाम, तुझे यकीन है कि तू हमारे ही मीट से बीमार हुई है ?”
“हाँ, बिलकुल।”
“सोच ले, कहीं ऐसा न हो कि तेरी पति ने तुझे ज़हर दे दिया हो।”
“तुम पाकि मुझे समझते क्या हो ? अगर तुम्हें वापस पाकिस्तान न भेजा तो मुझे कहना।”
वह फिर नस्लवादी गालियाँ बकती हुई चली गई। मगील सतनाम से पूछने लगा–
“गवना, यह पाकिस्तान इंडिया में ही है ?”
“लौरेल, तू यह फिक्र छोड़कर काम में लग जा।”
“गवना, अगर तू मेरी तनख्वाह बढ़ा दे तो रब तुझे ऐसी बदरूहों से बचाए रखे।”
“तेरी तनख्वाह क्या बढ़ाऊँ, कभी तेरा अगला गीला हो जाता है, कभी पीछा।”
सतनाम की बात पर सभी हँस दिए। मगील नाचने की मुद्रा में कमर हिलाने लगा, जिसका अर्थ था कि मुझे किसी की क्या परवाह है।
लगभग छह बजे तक सभी खाली-से थे। कोई ग्राहक आ जाता तो सर्व कर देते, नहीं तो बैठे रहते। पैट्रो ने माइको और सतनाम से तीन-तीन पोंड पकड़े और बोतल लेने चला गया। काम का थका पैट्रो थोड़ा झुककर चल रहा था, पर जब व्हिस्की की बोतल लेकर लौटा तो तनकर चल रहा था। माइको ने कहा–
“देखो, बुडढ़ा व्हिस्की के नाम पर कैसे होशियार हो जाता है।”
पैट्रो ने उसकी बात सुनी तो ज़रा-सा मुस्कराया और फिर एक-से तीन पैग बनाए। उनमें बर्फ़ की दो-दो डलियाँ डाल दीं।
सतनाम ने घर में फोन घुमाया। पहले मनजीत से और फिर परमजोत और सरबजीत से बातें कीं। परमजोत अब स्कूल जाती थी और सरबजीत अभी नर्सरी में था। वह इस साल से ही बड़ी मुश्किल से जाने लगा था। उन्हें छोड़ने और लाने की जिम्मेदारी मनजीत की ही थी। वह सवेरे काम पर जाते समय छोड़ देती और तीन बजे जब काम से लौटती, उन्हें ले आती।
सातेक बजे अब्दुला आ गया। अब्दुला का इसी परेड में आफ-लायसेंस था। वह आते ही बोला–
“सा सरी अकाल सरदार जी।”
“आओ खान साहिब, क्या हाल है ?”
“हमारा हाल ये कच्छी खराब करने पर तुला है, सरदार जी।”
“क्या हो गया ?”
“इसने आफ लायसेंस के लिए अप्लाई कर छडिया सू, असीं(हम) सीधे ही अफेक्टिड होसां।”
“यह तो खराब बात है, आबजेक्शन कर दो।”
“हसीं तां करसां, पर तुहीं वी करो।”
“खान साहिब, हमारा कोई लेना-देना नहीं शराब की दुकान से। हम तो करेंगे अगर कोई मीट की दुकान खोलेगा।”
“हमारी ही मदद कर छड्डो।”
“पर हम किस ग्राउंड पर करेंगे ?”
“यही कि इस परेड में एक ही आफ-लायसेंस काफी होसी।”
सतनाम सोच में पड़ गया और फिर बोला–
“खान साहिब, कांती पटेल हमारा ग्राहक भी है... मैं सोचूँगा, पर प्रोमिस नहीं।”
“सरदार जी, गाहक को तो असीं वी तुहां दे बन सां, पर हलाल किया करो। हलाल मीट की खातिर हमें स्ट्राउड ग्रीन जाना पड़ता है।”
अब्दुला कुछ देर खड़ा रहा और अपने रोने रोता हुआ चला गया। दुकान बन्द करने का वक्त हो रहा था। पैट्रो ने ओवरआल उतारा और बैग उठाकर चल दिया। माइको भी। जुआइश और मगील ही रह गए थे। सतनाम ने उन्हें बियर के पैसे दिए और दुकान बन्द करके वैन में जा बैठा। उसके मन में हलाल मीट ही घूमे जा रहा था।
स्ट्राउड ग्रीन की हाई रोड पर अब बहुत सारी दुकानें पाकिस्तानियों की हो गई थीं। अधिकतर मीट की ही थीं। हलाल मीट लेनेवाले यहीं आते। यहीं गफूर की दुकान थी। वह सतनाम को स्मिथफील्ड मीट मार्किट में मिला करता था। वह होलसेल का काम करना चाहता था। सतनाम के साथ प्राय: विचार-विमर्श करने लगता। वक्त-बेवक्त सतनाम उससे माल भी ले आया करता था। खासतौर पर चिकन। गफूर के दो और भाई दुकान पर काम करते थे। उसने अच्छा-खासा बिजनेस चला रखा था। उसके काम की तरफ देखकर सतनाम सोचा करता कि अगर घर में एक से ही दो-तीन आदमी हों तो काम कहाँ का कहाँ पहुँच सकता है।
उसने वैन को गफूर की दुकान के सामने जा खड़ा किया। गफूर उसे देखकर खुश होते हुए बोला–
“हई शाबा शे सरदार जी, किधर राह भूल गए ?”
“मैं कहा, भाई जान को हैलो कह चलूँ।”
“जम जम के कहो जी... अन्दर आ जाओ। जी आया नूं(स्वागत है)। बताओ क्या पियोगे ? कुछ ठंडा, चाय या व्हिस्की मंगाऊँ ?”
“कुछ नहीं पीना, एक छोटी-सी बात पूछनी है।”
“पूछो जी पूछो, बल्कि हुक्म करो जी।”
“यह हलाल कहाँ से लेते हो ?”
सवाल सुनकर गफूर हँसने लगा और बोला–
“यह कैसी तफ़सीस करने बैठ गए।”
“मैंने कहा कि इतना समय हो गया इस बिजनेस में। हलाल के बारे में मुझे कुछ जानकारी नहीं।”
“हलाल करने का इरादा है ?”
“सोच रहा हूँ।”
“ना सोचो। बिलकुल ना सोचो। पहली बात तो यह कि एक सिंह पर कौन-सा मुसलमान यकीन करेगा कि यह हलाल का है। दूसरा अगर हलाल का बोर्ड लगा भी बैठो तो कोई गोरा अन्दर नहीं घुसने वाला, दोहरी मार पड़ेगी।”
“तेरी बात तो गफूर बिलकुल ठीक है, पर कई पूछा करते हैं।”
“दो-चार गाहकों की खातिर खतरा मोल नहीं लेना।”
“पर यह हलाल कौन-सी कम्पनी करती है ?”
“हैं बहुत-सी कम्पनियाँ। अगर ज़रूरत पड़ेगी तो नम्बर दे दूँगा। स्मिथ फील्ड मार्किट में ही मिलता है।”
कहकर गफूर मंद-मंद मुस्कराया। सतनाम ने कहा–
“मैंने तो कभी देखा नहीं।”
“तुम्हें नहीं दिखाई देगा, मुझे देगा।”
“अच्छा !”
“सरदार जी, क्यों भोले बन रहे हो। यह हलाल तो सारी यकीन की बात होगी। इन चिकन की गर्दनों पर टक लगेंगे तो हलाल होंगे।”
(क्रमश: जारी…)

लेखक संपर्क : 67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393
07782-265726(मोबाइल)
ई-मेल : harjeetatwal@yahoo.co.uk


अनुरोध

“गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com