गुरुवार, 8 अगस्त 2013

गवाक्ष – अगस्त 2013




जनवरी 2008 गवाक्ष ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू--रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। गवाक्ष में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस..), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस..), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा), देविंदर कौर (यू के), नीरू असीम(कैनेडा), इला प्रसाद(अमेरिका), डा. अनिल प्रभा कुमार(अमेरिका) और डॉ. शैलजा सक्सेना (टोरंटो,कैनेडा), समीर लाल (टोरंटो, कनाडा), डॉक्टर गौतम सचदेव (ब्रिटेन), विजया सती(हंगरी), अनीता कपूर (अमेरिका), सोहन राही (ब्रिटेन), प्रो.(डॉ) पुष्पिता अवस्थी(नीदरलैंड) अमृत दीवाना(कैनेडा), परमिंदर सोढ़ी (जापान) और प्राण शर्मा(लंदन) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास सवारी के हिंदी अनुवाद की 59वी किस्त आप पढ़ चुके हैं।

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गवाक्ष के इस ताज़ा अंक में प्रस्तुत हैं कैनेडा से पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं और ब्रिटेन निवासी पंजाबी लेखक हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास सवारी की 60वीं किस्त का हिंदी अनुवाद
-सुभाष नीरव

कैनेडा से
पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना पाँच कविताएँ
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

सपने का शिखर

तेरा
कारोबारी उलझनों में
ठोड़ी पर हाथ रखकर सोचना
शाम को और खूबसूरत बना रहा है…

मैं…
तेरे बिखरे हुए वस्त्रों
घर के साज-सामान में
कहीं उलझी पड़ी हूँ…

खेलवाले कमरे में बच्चे
‘पज़ल’ के टुकड़े जोड़
किलकारियाँ मारकर हँस रहे हैं…

बूढ़ी मार्गेट के
काँपते हाथ में से
शरबत का गिलास छूटा है

सपना किरच-किरच हो गया है…
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मेरे पदचिह्न, तेरे नक्श

तूने कहा –
‘मैं साये की तरह
तेरे साथ हूँ…’

मैंने कहा –
‘साथ है तो कदमों के निशां तो बना…’
‘साये के निशान नहीं होते…’
कहकर
तू रेगिस्तान बनकर
मेरे सामने
बिछ गया था

मेरे हर पदचिह्न में से
तेरे ही
नक्श उभर आए…।

यह रात

पागल औरत चीख उठी
‘…रात की चोटियाँ
किसने गूंदी हैं ?…’

ख़ामोशी
दीवारों पर
भित्ति-चित्र बनकर
चिपक गई है…

होटल की लॉबी में
वेश्याओं के कहकहे
गूँज उठे हैं…

सैंडल उतार
नंगे पैर
घास पर रख
मैंने अपने अन्तिम शब्द भी
उस ख़ौफ़नाक चीख के
हवाले कर दिए

पागल औरत फिर
चीखी…
यह रात
सबकुछ निगल गई है…
चोटियाँ खोल दो…।
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तूफ़ान के बाद

उफ्फ !
रात का तूफ़ान
कोमल फूलों पर
कितना क़हर बरपा कर गया है…

एक एक पत्ती का दर्द
मेरी उंगलियों की पोरों में
लरज उठता है

मैं नाजुक हाथों से चुग कर
उन्हें मेज़ पर
कटोरे में सजा देती हूँ…

शब्बू आती है
देखते ही
बावरी-सी होकर
चहक उठती है –

‘ओ वॉओ !
पोटपुरी !
हाऊ क्रिएटिव !
हाऊ ब्युटीफुल !
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(शब्बू मेरी सात वर्षीय भतीजी।)

जंगल, तू और मैं

फ़िजा की मुट्ठियों में
नरम नरम ठंडक है
और गुनगुनी-गुनगुनी गर्माहट भी

तेरे सपने के
मस्तक में
कोई गहरी शरारत है
और मैं…
बर्फ़ीले शब्द
अधरों पर रख
काँप रही हूँ

कोई अमरबेल
मेरे पैरों को लपेटा डालती
नस-नस में फैलती
मुझे जकड़ रही है…

चल !  जंगल में
बाहें फैलाये खड़ा
वो वृक्ष बन जाएं
हवा के बोसे के साथ
दुआएं गिनें
किरणें गिनें

आहिस्ता से
सारे शब्द और सपने
जंगल-देवता के
चरणों में रख दें और कहें-
‘हे देव !
सूरज तो
सोना बनकर
समुंदर में
पिघल गया है
लेकिन वॉन गॉग के नयनों में
अभी भी याचना है…

हमें अपनी बंसरी दे दे
हम पतझर के
सारे सुनेहरी गुलाब
तुझे दान करते हैं…’

(विन्सेंट वॉन गॉग, प्रसिद्ध चित्रकार)
(सभी कविताएं कवयित्री के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘इक दीवा, इक दरिया’ से ली गई हैं)
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पंजाबी की युवा कवयित्री। कनाडा में रहते हुए अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा अपने पंजाबी ब्लॉग आरसीके माध्यम से कर रही हैं। गुरुमुखी लिपि में निकलने वाले उनके इस ब्लॉग में न केवल समकालीन पंजाबी साहित्य होता है, अपितु उसमें पंजाबी पुस्तकों, मुलाकातों और साहित्य से जुड़ी सरगर्मियों की भी चर्चा के साथ-साथ हिंदी व अन्य भाषाओं के साहित्य का पंजाबी अनुवाद भी देखा जा सकता है।



प्रकाशित पुस्तक : अभी हाल में पहला कविता संग्रह ‘इक दीवा, इक दरिया’ पंजाबी में प्रकाशित हुआ है और खूब चर्चा में है। यह संग्रह शीघ्र ही उर्दू में प्रकाशित होने जा रहा है। एक अन्य नज्मों का संग्रह 'पहला गीत मुहब्बत का’ भी उर्दू में शीघ्र प्रकाश्य।




फोन : 6047218843(मोबाइल)
आरसीलिंक http://www.punjabiaarsi.blogspot.com/
ई मेल है- tamannatandeep@gmail.com





सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। पैंसठ ।।
शौन ने लूटन वैन किराये पर ली। वैन भी ऐसी कंपनी की कि जिसकी शाखा आयरलैंड में भी हो ताकि वैन छोड़ने वापस लंदन न आना पड़े। पहले उसको लगता था कि लूटन वैन उसके सामान के लिए बड़ी होगी, कोई छोटी वैन ही काफी है। पर जब सामान रखने लगा तो लूटन भी छोटी पड़ रही थी। घर में से सामान निकलता ही आ रहा था। घर में पड़ा यह सामान बहुत थोड़ा प्रतीत होता। वह कुछ भी पीछे छोड़कर नहीं जाना चाहता था। नया लेना आसान नहीं था। आयरलैंड में दुबारा पैर टिकाने थे। छोटी से छोटी ची की रूरत पड़नी थी।
            सामान लादने के लिए वह चर्च में से दो आदमी ले आया। उसको पता था कि ऐसी मदद के लिए बलदेव भी आ सकता था, पर वह बलदेव को कैरन से दूर रखना चाहता था। एलीसन के मामले में बलदेव ने अच्छा रोल नहीं निभाया था। वह बलदेव के स्वभाव को जानता था कि वह अधिक अडि़यल नहीं था। जो बात एलीसन ने कही होगी, वह मान गया होगा। ऐसे ही कैरन भी उसको आसानी से इस्तेमाल कर सकती थी। परंतु उसने बलदेव के साथ इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी। उस दिन पब में मिला था तो एलीसन का जिक्र तक नहीं हुआ था।
            आयरलैंड जाने के लिए शौन अब बहुत उतावला पड़ रहा था। जब से उसका कार्यक्रम बना था, उसका मन उतावला होने लगता। उसका अपना देश था, अपने लोग। अब तो वहाँ सरकार भी उसकी अपनी पार्टी की ही चल रही थी। वह मिनिस्ट्री में कितने ही लोगों को व्यक्तिगत रूप में जानता था। यदि कभी उसका दिल किया ता दुबारा राजनीति में भी जा सकता था। आयरलैंड से चलते समय ही उसके मन में था कि वैलजी में कभी नहीं बसेगा। अब आयरलैंड लौटते समय भी अपने गाँव या इलाके की जगह उसने वाटरफोर्ड शहर को अपने रहने के लिए चुना था।
            वाटरफोर्ड तरक्की कर रहा था। नई नई इंडस्ट्रियल एस्टेट बन रही थीं और लोग वहाँ बस रहे थे। शहर को बंदरगाह होने का बहुत फायदा था। फिर रसलेअर भी करीब ही था जहाँ से वापस फिशगार्ड के लिए फैरी चलती। यहाँ उसने घर किराये पर ले लिया। किराया भी पेशगी दे दिया था। सारी बातचीत लंदन में बैठे-बैठे ही तय हो गई थी। शौन शहर से अधिक परिचित नहीं था। उसने किराये पर लिए घर की स्थिति नक्शे में ही देखी थी। नई जगह टिकना पहले पहले कठिन ही होता है, आहिस्ता-आहिस्ता अपने आप सब ठीक हो जाएगा।
            लंदन के साथ भी उसने नाता नहीं तोड़ा था। उसको लगता था कि यदि कैरन का दिल नहीं लगेगा तो वह वापस भागेगी। यदि वह वापस आई तो इन पादरियों के पास शौन को गलत कहने के लिए कुछ नहीं होगा, क्योंकि संस्कारों के हिसाब से क्रिश्चियन पत्नी को पति के घर में रहना चाहिए और घर उसका अब आयरलैंड में था। उसने न तो लंदन वाला फ्लैट काउंसल को वापस किया था और न ही कैरन की सोशियल सिक्युरिटी ही बंद करवाई थी। काग़ज़ों में कैरन लंदन में ही थी। फ्लैट की चाबी और पैसे डाकखाने से लेने का काम एंथनी को सौंप दिया था। एंथनी चर्च का सेवादार था। शौन का विश्वासपात्र।
            कैरन ने आयरलैंड जाने का बहुत विरोध किया था। फ़ॉदर जॉअ के पास भी गई, पर इस मामले में फॉदर कुछ नहीं कह सकता था। फिर कैरन ने सोचा कि शायद शौन वहाँ जाकर सुधर ही जाए। वहाँ के लोगों की भी वह कुछ शरम-हया करेगा। उसका गृहस्थ जीवन ठीकठाक चल पड़ा तो आहिस्ता आहिस्ता शौन को लेकर लंदन लौट आएगी। वह शौन को जैसे कोई राह न देना चाहती हो।
            वे दोनों पैटर्शिया को लेकर वाटरफोर्ड पहुँच गए। एजेंट से चाबी ली और अनदेखे घर में पहुँच गए। घर देखकर उनका मन बहुत दुखी हुआ। जैसे काग़ज़ों में घर बताया गया था या तस्वीर में दिखाया गया था, घर वैसा बिल्कुल नहीं था। कमरे भी छोटे थे। पीछे गार्डन भी छोटा-सा। फ्रंट गार्डन तो था ही नहीं। कैरन क्रोध में आगबबूला होती हुई बोली -
            शौ, यह क्या है ? यह कोई रहने लायक घर है ? अगर इतना किराया देना था तो टाऊन हाउस क्यों लेना था ? कार कहाँ खड़ी होगी ? कूड़ा कहाँ रखेंगे ? आता-जाता कोई भी दरवाज़े को हाथ मार जाएगा। तू एजेंट से बात कर, हमारे साथ यह धोखा हुआ है।
            कैरन, हमने छह महीने का कंट्रेक्ट साइन किया है, अब छह महीने रहना ही पड़ेगा।
            शौन भी एजेंट पर खीझा पड़ा था। मगर किया क्या जा सकता था। घर को लेकर इतनी बारीकी में उन्होंने जाँच-पड़ताल की ही नहीं थी। शौन ने देखा था कि रोज़ाना की सुविधाओं के आसपास हो, बस। अधिक सामान तो कैरन खोल ही नहीं रही थी यह सोचकर कि इस घर में छह महीने ही रहना था। वह शौन से कहती -
            छह महीने तो झट खत्म हो जाएंगे, तू अभी से दूसरे घर की तलाश शरू कर दे।
            ठीक, महीनाभर पहले खोजेंगे। अभी तो बहुत वक्त है।
            शौन मन ही मन कहता कि छह महीने काटो तो जानूँ।
            शौन काम की तलाश में निकल पड़ा। लॉरी का लायसेंस होने के कारण काम में कठिनाई नहीं आई। ई.ई.सी. के बन जाने के कारण कई कंपनियाँ इस शहर को अपना आधार बनाने के लिए रुचि ले रही थीं। काम उसको मिल गया। पर वहाँ का माहौल उसे पसंद न आया और वह किसी दूसरी कंपनी में जा लगा। वहाँ का माहौल भी उसको ठीक नहीं लगता था। किसी के साथ राजनीति पर बात तो कर ही नहीं सकता था। जब कभी मन उदास होता तो बलदेव को फोन कर लेता। एक दिन कहने लगा -
            डेव, मैं काम बदल रहा हूँ।
            फिर ?“
            हाँ।
            क्यों ?“
            यहाँ काम करने वाले लोग कुछ ज्यादा ही ग्रामीण हैं। मुझे लगता नहीं कि मैं इनका हिस्सा हूँ।
            यह आयरलैंड तो सारा ही सीधा-सरल है, तू इनका हिस्सा बनने से कैसे मना कर सकता है।बलदेव ने मजाक के लहजे में कहा। शौन बोला -
            मैं तेरी बात मानता हूँ, पर ये तो बहुत ही सीधे हैं।
            बात करके शौन हँसने लगा। बलदेव ने कहा –
            अगर नहीं रहना वहाँ, तो आ जा। मेरी मदद कर। या कुछ और देख लेना।
            अब लौटना नहीं हो सकेगा। घर भी बदलना है। दुबारा घर खोजना बहुत कठिन काम है।
            अगर ये नहीं तो अपनी दोस्ती का दायरा बढ़ा, वैलजी हो आया कर।
            वैलजी तो नहीं, यहीं एक स्नूकर क्लब ज्वाइन किया है। थोड़ा काम ठीक हुआ तो गोल्फ क्लब भी जाया करुँगा। पर वैलजी नहीं जाऊँगा... तू जानता ही है।
            शौन जानता था कि स्नूकर या पूल खेलने से मित्रताओं का घेरा कहीं अधिक खुलता है। वह रह रोज़ पब में जाता। पूल खेलता। पूल खेलने में वह बहुत निपुण था। कुछेक मित्र बने भी, पर अच्छा मित्र न मिला। काम पर भी सहकर्मियों के साथ उसका वास्ता कम ही पड़ता था। अपनी लॉरी चलाता, जिस किसी के साथ उसे काम होता, उससे संक्षेप में बात करता। शाम को लॉरी की चाबी थमाकर घर आ जाता। जितना बाहर से लगता था कि वाटरफोर्ड तरक्की कर रहा है, उतना ही अंदर से देखने से लगता कि कुछ नहीं हो रहा है। कोई नए जॉब नहीं निकल रहे थे, नए स्टोर नहीं खुल रहे थे। कोई नई सड़क भी नहीं बनी थी। उसने डबलिन मूव हो जाने का फ़ैसला कर लिया। उसको अब यकीन होने लगा था कि कैरन आयरलैंड छोड़कर नहीं जाएगी। इसलिए घर लेकर टिककर रहना चाहता था। इन्हीं दिनों में कैरन लंदन का एक चक्कर लगा आई थी। अपनी सोशियल सिक्युरिटी उठा लाई थी और सभी परिचितों से मिलकर उसने यह प्रभाव छोड़ने का यत्न किया था कि अब तो यहीं रहना है। अगर लोगों को पता चलता कि स्थायी तौर पर आयरलैंड चली गई है तो उसके पैसे बंद हो सकते थे।
            शौन ने डबलिन में घर ले लिया। घर भी ऐसे इलाके में जहाँ सभी बड़ी बड़ी नौकरियों वाले अथवा व्यापारी थे। बढि़या किस्म का बंगला था। यह कैरन की पसंद का घर था। घर को देखकर उसने कहा -
            शौ, बस अब मुझे कहीं नहीं जाना। यह मेरा घर है और मैं यहीं रहूँगी।
            वह आस-पड़ोस वालों से दोस्ती बढ़ाने लगी। पहलीबार उसको प्रतीत हुआ कि इन देशों में भी अच्छे लोग रहते हैं। यहाँ पड़ौसी औरतें सवेरे ही तैयार हो जाती हैं। साधारण कपड़ों में कभी किसी को उसने देखा ही नहीं था। उनकी बातें भी कैरन को बहुत अच्छी लगतीं। बड़े-बड़े स्टोरों की बातें, हीरे-जवाहिरों की बातें, दूर-सुदूर छुट्टियाँ बिताने की बातें कैरन के पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं था, पर उसको अपना आपा बड़ा लगने लगा था।
            शौन ने यहाँ घर इसलिए लिया था कि इस इलाके की कीमत बढ़ने की उम्मीद थी। यह स्ट्रैग हिल का इलाका यद्यपि अभी डबलिन से बाहर था, पर शीघ्र ही इसके शहर की सीमा में शामिल हो जाने की आस थी। घर के साथ एक एकड़ जगह भी मिलती थी जिसकी कीमत कहीं से कहीं पहुँच जाने की उम्मीद थी। यह बात उसके एक कैबनिट मिनिस्टर दोस्त ने बताई थी। इसलिए उसने मुश्किल में रहकर भी जैसे तैसे यह घर ले लिया था। किस्त भी अधिक थी और जितना कुछ पास में था, वह सारा रुपया घर में ही लगा दिया था। अब घर चलाने के लिए मेहनत भी अधिक करनी पड़ती।
            उसको इस घर में आकर जो बात अच्छी लगी थी, वह यह थी कि कैरन बहुत खुश थी। उसको घर मालिक होने का अहसास हो रहा था। लंदन वाला घर काउंसिल का था और वाटरफोर्ड वाला किराये का। कैरन यहाँ आकर बदली-बदली लगती थी। शौन को लगा कि शायद अब सबकुछ ठीक हो जाएगा। काम शौन को यहाँ आकर भी ढंग का नहीं मिला था। वही लॉरी ड्राइवरी का काम करने लगा था। यहाँ लंदन की अपेक्षा तनख्वाह कम ही थी और खर्चे अधिक। उसको ओवर टाइम करना पड़ता। गुज़ारा कठिन हो रहा था। लंदन में जो कुछ पैसे कैरन को मिलते थे, वे मिलने बंद हो गए। फ्लैट भी कांउसिल ने पुनः अपने कब्ज़े में कर लिया था। कुछ महीनों के पश्चात शौन ने कैरन से कहा -
            चल चलें, क्लेम भर आएँ। खर्चा चलना कठिन हो रहा है।
            शौ, अपने पड़ोस में लोगों को अगर पता चला कि हम क्लेम ले रहे हैं तो वो क्या साचेंगे। ये सभी ऊपरली क्लास के लोग हैं।
            हम अपना हक़ ले रहे हैं, कोई गुनाह तो नहीं कर रहे।
            पर इससे हमारी इज्ज़त कम नहीं होगी ?“
            अगर किस्त न दे पाए तो क्या इज्ज़त बढ़ जाएगी।
            शौ, तू टिककर अच्छी तरह काम कर। बहाना माकर छोड़ क्यों देता है।
            मैं नहीं छोड़ता, पर काम कोई ढंग का है ही नहीं। देख, कितने घंटे तो मैं लगाता हूँ।
            तेरा इतना परिचय है, तू तो कहता है कि गवर्नमेंट तेरी अपनी पार्टी की है, किसी दोस्त तक पहुँच कर, ये सभी यहीं तो रहते हैं, इसी शहर में।
            कैरन की बातें उसको खिझाने लगती हैं। उसके द्वारा किसी से नौकरी की सिफारिश करवाने का अर्थ था कि स्वयं को हीन करना। फिर भी बढि़या नौकरी की क्या गारंटी थी। जब उसने घर लिया तो सोचा था कि अपनी ही लॉरी खरीद लेगा, पर डिपोजिट देने योग्य पैसे ही नहीं बचे थे। फिर उसने घूम-फिर कर देखा भी था। लॉरियों का काम पहले जैसा नहीं रहा था। उसने कैरन पर क्लेम करने के लिए बहुत ज़ोर डाला। इसी बात को लेकर उनमें फिर से झगड़ा रहने लगा।
            कुछ समय तक उनके संबंध ठीक रहे और फिर तिड़कने लगे। हर वक्त घर में लड़ाई-झगड़ा रहने लगा। पूरी एक रात के झगड़े के बाद शौन ने कैरन से कहा -
            मैं लंदन जा रहा हूँ। तुझे किस्त लायक पैसे वहाँ से भेजूँगा।

(जारी…)

लेखक संपर्क :

67, हिल साइड रोड,

साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड

दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)