शनिवार, 27 जून 2009

गवाक्ष –जून 2009



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले तेरह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की चौदह किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून 2009 अंक में प्रस्तुत हैं – टोरंटो, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवयित्री सुरजीत की कविताएं तथा यू के निवासी पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की पन्द्रहवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


टोरंटो, कैनेडा से
पंजाबी कवयित्री सुरजीत की दो कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


गुमशुदा

बहुत सरल लगता था
कभी
चुम्बकीय मुस्कराहट से
मौसमों में रंग भर लेना

सहज ही
पलट कर
इठलाती हवा का
हाथ थाम लेना

गुनगुने शब्दों का
जादू बिखेर
उठते तुफानों को
रोक लेना

और बड़ा सरल लगता था
ज़िन्दगी के पास बैठ
छोटी-छोटी बातें करना
कहकहे मार कर हँसना
शिकायतें करना
रूठना और
मान जाना…

बड़ा मुश्किल लगता है
अब
फलसफों के द्वंद में से
ज़िन्दगी के अर्थों को खोजना
पता नहीं क्यों
बड़ा मुश्किल लगता है…
00

दहलीज़

पहली उम्र के
वे अहसास
वे विश्वास
वे चेहरे
वे रिश्ते
अभी भी चल रहे हैं
मेरे साथ-साथ।

यादों के कुछ कंवल
अभी भी मन की झील में
तैर रहे हैं ज्यों के त्यों।

सुन्दर-सलौने सपने
अभी भी पलकों के नीचे
अंकुरित हो रहे हैं
उसी तरह।

तितलियों को पकड़ने की
उम्र के चाव
अभी भी मेरी हथेलियों पर
फुदक-फुदक कर नाच रहे हैं।
इन्द्र्धनुष के सातों रंग
अभी भी मेरी आँखों में
खिलखिलाकर हँस रहे हैं।

मेरे अन्दर की सरल-सी लड़की
अभी भी दो चुटियाँ करके
हाथ में किताबें थामे
कालेज में सखियों के संग
ज़िन्दगी के स्टेज पर
‘गिद्धा’ डालती है।

हैरान हूँ कि
मन के धरातल पर
कुछ भी नहीं बदलता
पर आहिस्ता-आहिस्ता
शीशे में अपना अक्स
बेपहचान हुआ जाता है।
00
(सुरजीत जी की उक्त दोनों कविताओं का हिन्दी अनुवाद तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग “आरसी” में छपी उनकी पंजाबी कविताओं से किया गया है।)

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 15)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ बीस ॥

सतनाम और मनजीत हाईबरी पहुँचे तो दुकान बन्द देख कर थोड़ा हैरान हो गए। सतनाम ने कहा-
''ये प्रेम चोपड़ा तो कहता था कि दुकान बंद नहीं करनी, कहीं साला टोनी भी पैट्रो न बन गया हो।''
मनजीत ने घंटी बजाई। गुरिंदर ने आकर दरवाजा खोला। सतनाम पूछने लगा-
''शॉप नहीं खोली ?''
''अभी टोनी नहीं आया। तू पहले ऊपर आ, तेरी खबर लेती हूँ।''
''जट्टिये, सुख तो है। हमें तो भाइये की मौत ने ही मारा हुआ है, ऊपर से तू डराने लगी है।''
ऊपर अजमेर शराबी हुआ बैठा था। गुरिंदर गुस्से में भरी कहने लगी-
''देख, इनको तूने पिलाई है, सवेरे-सवेरे शुरू कर दी। कोई शर्म है कि नहीं ? भाइये का जिसे भी पता चलेगा, दौड़ा चला आएगा तो बताओ तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी ?''
सतनाम हँसने लगा। उसे हँसता देख मनजीत भी गुस्से में आ गई और बोली-
''बेशरमी की भी कोई हद होती है !''
सतनाम गंभीर होकर बोला-
''सीता और गीता, मेरी बात सुनो, तुम जानती हो कि गोरे मरने पर शराब पीते हैं।''
''पर हम तो गोरे नहीं।''
''पैट्रो एंड पार्टी ने मजबूर कर दिया, चलो सॉरी कर दो।''
''देख तो, सॉरी भी ऐसे मांगता है जैसे चाय मांग रहा हो।”
गुरिंदर ने हाथ मारते हुए कहा। सतनाम फिर हँस पड़ा। मनजीत भी हँसी और पीछे से गुरिंदर भी। अजमेर इतना शराबी हुआ पड़ा था कि उससे बोला तक नहीं जा रहा था। गुरिंदर ने कहा-
''देखो अजीब बात ! बाप मरा पड़ा है, अभी तक इस बारे में किसी को फोन तक नहीं किया। यहाँ पुत्त नशे में धुत्त है।''
''ला फोन, इंडिया में तो कर दें। जट्टिये, तू घबरा मत।''
''वहाँ मैंने कर दिया है, बहन को भी और शिन्दे को भी।''
''जट्टिये, एक बात सोच रहा हूँ कि क्यों न शिन्दे को भाइये के फ्यूनरल पर यहाँ बुला लें। इस बहाने उसका इधर आना भी हो जाएगा।''
''पर उसके पास पासपोर्ट भी होगा ?''
''पासपोर्ट तो सारा इंडिया ही बनवा कर जेब में लिए घूमता है, जैसे पासपोर्ट न हो, शोले फिल्म की टिकटें हों।''
तभी घंटी बजी। गुरिंदर दौड़कर सीढ़ियाँ उतरी। टोनी था। किसी कारण से लेट हो गया था। उसे सोहन सिंह के निधन का पता चला तो वह रोने लगा और रोते-रोते नीचे फर्श पर ही बैठ गया। गुरिंदर उसे हौसला देते हुए उठाने लगी। फिर उसके साथ लगकर दुकान खुलवाई। टोनी बोला-
''सिस्टर, मेरा काम करने को मन नहीं कर रहा। इतना अच्छा बन्दा, मेरा तो जैसे बाप था, मुझ से तो खड़ा ही नहीं हुआ जा रहा, मैं घर को जा रहा हूँ। शाम को आ जाऊँगा। ऐंडी कहाँ है?''
''वह बाहर गया है।'' गुरिंदर को भय था कि टोनी अपना ही रोना लेकर बैठ जाएगा।
''उसे बता देना, मैं चारेक बजे आ जाऊँगा।''
टोनी चला गया। टोनी ने काम पर तो शाम को ही आना होता था। उसे सुबह अजमेर ने फोन करके बुला लिया था लेकिन फोन पर सोहन सिंह के बारे में कुछ नहीं बताया था कि कहीं पैट्रो की तरह दुकान पर काला कपड़ा ही न डलवा दे। उसने सोचा था, टोनी यहाँ आएगा तो उसे समझा देगा। पर वही हो गया।
सतनाम अजमेर की शराब उतारने के लिए नींबू-पानी पिलाने लगा। मनजीत को कहकर लस्सी बनवाई। जब तक गुरिंदर भी आ गई। वह भुनभुनाती हुई बोली-
''घरवालों से ज्यादा तो बाहर वालों को दुख है। टोनी दहाड़ें मारता हुआ लौट गया है कि उससे खड़ा नहीं हुआ जाता।''
''पाखंड करता है साला।''
''तुझे पाखंड ही दिखाई देता है।”
''जट्टिये, बता भला, भाइया इसके लिए गड्डा और बैलों की जोड़ी छोड़ गया है जिन्हें देखकर वो रोए जाता है।''
गुरिंदर ने गुस्से में कोई उत्तर नहीं दिया और दूसरे कमरे में चली गई।
फिर उसने मनजीत से कहा-
''बलदेव को भी बुला लेते तो वो भी इनके ड्रामे में शामिल हो जाता।''
''फोन नहीं किया ?''
''मिला नहीं। पता नहीं कहाँ है। अजीब टब्बर है। कई बार तो इस तरह बिहेव करने लग पड़ेंगे, मानो एक दूजे को जानते तक न हों।''
अजमेर का नशा उतरने में तीन घंटे लग गए। फिर भी पूरी तरह ठीक नहीं था। मुँह धोया, सिर में पानी डाला, खट्टी चीजें खाईं। फिर उन्होंने भाइये की मौत की खबर लोगों तक पहुँचानी आरंभ कर दी। शिन्दे को बुलाने की सलाह भी बन गई। सैटियों को एक तरफ करके चादरें बिछा दी गईं। मनजीत कहीं से गुरबाणी की टेपें ले आई और लगा दीं। टेप सुनते ही सतनाम बोला-
''यह कामरेड परगट सिंह का घर है, यह टेप ठीक नहीं।''
''यह घर हमारा भी है, हमें पसंद है और ठीक भी लगती है।''
मनजीत ने कहा। सतनाम कुछ न बोल सका। गुरिंदर आँखें फाड़कर उसकी तरफ देखने लगी कि दे जवाब अब। सतनाम ने धीमे से कहा-
''यह अब मैडम एक्स बनी घूमती है।''
जब सभी काम हो गए तो वे बलदेव को खोजने लगे, पर उसका किसी को पता हो तो वह मिले। शोन के घर से वह जा चुका था। वे बैठते-उठते यह बात करते रहते कि बलदेव को कहाँ ढूँढ़ें। हालांकि फ्यूनरल में अभी कई दिन लग सकते थे क्योंकि शिन्दे के आने पर ही तारीख पक्की करनी थी। फिर भी बलदेव का उनमें शामिल होना ज़रूरी था। अफसोस करने के लिए आने वाले लोग क्या कहेंगे। लोग तो आने भी लग पड़े थे। मिडलैंड से कारें भर कर आ बैठते। सतनाम कहता कि इनके लिए तो यह अफसोस की घड़ी जैसे मुश्किल से नसीब हुई हो।
तीसरे दिन बलदेव का फोन आया। अजमेर ने ही उठाया और झिड़कते हुए कहने लगा-
''कहाँ है तू ? तुझे मालूम भी है कि इधर क्या हो गया है?''
''क्या हुआ ? मैंने सतनाम की दुकान पर काला कपड़ा टंगा हुआ अभी अभी देखा है।''
''भाइया पूरा हो गया, जल्दी आ जा।''
बलदेव एकदम ही चल पड़ा। मैरी अस्पताल गई हुई थी। उसे आठ बजे के करीब लौटना था। उसने मैरी के लिए नोट लिखकर छोड़ दिया कि वह किसी ज़रूरी काम से जा रहा है, शायद लौटने में देर हो जाए। हाईबरी आया तो सभी वहीं पर थे। सतनाम, मनजीत और बच्चे भी। सतनाम उसे देखते ही बोला-
''क्यों भई ऐंनक बाबू, तुझे किसी की फिक्र है कि नहीं ?... इधर दिल एक मंदिर हुआ पड़ा है और तू पता नहीं कहाँ ईद का चाँद बना घूम रहा है।''
''ईद का चाँद बनने लायक होता तो वहीं क्यों छोड़ती।''
अजमेर ने ताना मारा। आमतौर पर वह ऐसी बात करता नहीं था, पर वह बलदेव से बहुत खीझा पड़ा था और इस ताने के जरिये उसने सारी खीझ निकाल ली। बलदेव कुछ न बोला, पर उसे बात चुभी बहुत। सतनाम की बात का उसे कभी दुख नहीं लगता था। अजमेर की यह बात उसे दिल से कहीं हुई प्रतीत हुई थी। उसने कहा -
''इसमें घबराने वाली कौन सी बात है... मैं काम पर जाने लग पड़ा हूँ इसलिए चक्कर नहीं लगा।''
फिर वह भाइये के अन्तिम समय के बारे में पूछने लगा। कुछ दूसरी भी बातें हुई। फिर अजमेर ने कहा-
''फ्यूनरल पर पन्द्रह सौ खर्च हो रहा है, अपने हिस्से का पाँच सौ निकाल दे।''
''मेरे पास तो पाँच सौ हैं नहीं।''
''तू तो कहता है कि मैं काम पर जाने लगा हूँ।''
''हाँ, वेजज़ मंथली मिलती है, और मेरे सिर पर कर्ज भी बहुत हुआ पड़ा है।''
''सीधे सीधे कह कि तू हिस्सा नहीं देगा। तू क्या समझता है कि वह अकेले हमारा ही बाप था।''
''बात तो बेशक साझा था पर वह कौन-सा कंगाल था, पेंशन...।''
उसने बात बीत में ही छोड़ दी। कहने को तो वह कहना चाहता था कि वह तो दुकान में भी काम करता था। अजमेर पेंशन की बात सुन कर ही बौखला उठा और कहने लगा-
''तुम्हें उसकी पेंशन बहुत चुभती है। कितनी पेंशन लेता था वह भला... किसी ने कभी बूढ़े का हाल आकर तो पूछा नहीं, कोई दो रातें तो उसे अपने पास रख नहीं सका, बातें करते हैं पेंशन की...।''
सतनाम बलदेव की बात पर दिल से खुश था लेकिन जब उसने बात बिगड़ती देखी तो अजमेर को शान्त करने के लिए बोला-
''भाई, इसके कहने के पीछे कोई बैड फीलिंग नहीं... यह तो यूँ ही ज़रा हाथ तंग होने के कारण कह रहा है... अब सारे काम भी तो तू बाप की जगह पर करता है, सारे काम काज...अब शिन्दे ने आना है तो इसकी भी तुझे ही फिक्र है...।''
अजमेर कुछ ठंडा पड़ा। वह थोड़ी नरम आवाज में सतनाम से बोला-
''तू इससे पूछ जरा। भाइये को लेकर इसे कभी बाप जैसी फीलिंग हुई ? पूछ तो जरा...।''
''इसका जवाब भाई मैं देता हूँ। असल में इसने तो बाप का प्यार तेरे में ही देखा है, छोटा-सा था जब भाइया इधर आ गया। वैसे भी भाइया सीधा सा बन्दा था, अपने अस्तित्व को पहचानता ही नहीं था कभी, एक्सट्रा की तरह एक ओर खड़े रह कर ही खुश था। हम तुझमें ही बाप को देखते रहे हैं। और फिर माँ के चले जाने के बाद भी इसका स्वभाव कुछ बदल गया, अभी बाल कलाकार के रूप में था उस समय यह।''
सतनाम की बातों से अजमेर की आँखें भर आईं। गुरिंदर और मनजीत भी उनके पास आकर खड़ी हो गई थीं। वे भी उदास हो उठी थीं। सतनाम ने सब की ओर देखकर कहा-
''मुझे लगता है, मैं गलती से 'मैं चुप रहूँगी' का डायलॉग बोल गया हूँ।''
अजमेर ने सैटी पर से उठते हुए कहा-
''अगर किसी ने हिस्सा नहीं डालना, तो तुम्हारी मर्जी, मुझे तो फ्यूनरल अच्छी तरह करना है। गाजे-बाजे के साथ। गाँव वाले क्या कहेंगे !''
अजमेर के उठ खड़े को अर्थ था कि अब पब में चलें। गुरिंदर ने खीझते हुए कहा-
''नीचे, दुकान में टोनी अकेला है, अगर तुम्हें ज्यादा ही हुड़क उठ रही है तो शॉप में कुछ नहीं है क्या ?''
''जट्टी तो भाई अब ध्यान चन्द की तरह ज्यादा ही गोल मारे जा रही है।''
कहकर सतनाम अजमेर के संग नीचे उतरने लगा। बलदेव ने शैरन को अपने पास बुला कर गोदी में बिठा लिया। गुरां भी उसके पास ही बैठ गई और मनजीत भी। मनजीत कहने लगी-
''भाजी, तुम्हें शैरन सबसे अच्छी लगती है। कभी हमारे बच्चे नहीं उठाये। कभी हरविंदर को पास नहीं बुलाया।''
बलदेव को लगा मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। उसने अवसर को संभालते हुए कहा-
''असल में बात यह है कि मैं बच्चों के साथ बात नहीं कर पाता। ये शैरन ज़रा बड़ी है और मेरी बात सुन लेती है।''
गुरिंदर ने बात बदलते हुए कहा-
''सुन बलदेव, अब तू अपनी भाजी की मदद करा दे शॉप में, अफसोस करने वाले आ जाते हैं तो टोनी को अकेला छोड़ना पड़ता है। रात में रश भी हो जाता है।''
''गुरां, मैं वीक एंड पर ही आ सकता हूँ, पाँच बजे तो काम छोड़ता हूँ।''
''काम पर यहीं से चला जाया कर और रात में ही हैल्प करा दिया कर।''
''तू फिक्र न कर गुरां, मैं कोशिश करता हूँ।''
कहते हुए बलदेव ने शैरन को अपनी बांहों में कसा और उठ खड़ा हुआ। मनजीत के पास होने के कारण गुरां ने उसे रुकने के लिए भी नहीं कहा।
बलदेव जाने के लिए नीचे शॉप में आया तो सतनाम और अजमेर बोतल खोले बैठे थे। न-न करते भी उन्होंने बलदेव के लिए पैग बना दिया और सतनाम कहने लगा-
''बात सुन ओए, कोई सहेली भी है कि फांग (अकेला) ही है।''
''फांग ही समझ ले।''
कहकर उसने अजमेर की तरफ देखा। सतनाम ने फिर कहा-
''अपना मगील है न, बहुत बढ़िया शै है, बात करवाऊँ।''
00
(क्रमश: जारी…)

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