शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

गवाक्ष – अक्तूबर 2009



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले तेरह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सत्रह किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अक्तूबर 2009 अंक में प्रस्तुत हैं –न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता तथा यू के निवासी पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की अटठारहवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

न्यूजीलैंड से
बलविंदर चहल की कविता
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चित्र : देवेन्द्र पाल

मेरा सूरज बन

तू
मेरा पानी बन
पी लूँ
या फिर
तैर लूँ तेरे संग।

तू
मेरी हवा बन
सांस लूँ
या फिर
सन्देशा दूँ तेरे संग।

तू
मेरा तूफ़ान बन
फेंक दे कहीं
या फिर
तिनका-तिनका बिखेर दे।

तू
मेरा सूरज बन
रौशन कर दे
या फिर
भस्म कर दे सब कुछ।
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(मूल पंजाबी में यह कविता तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लाग “आरसी” में प्रकाशित हुई थी, वहीं से साभार लेकर इसका हिन्दी अनुवाद “गवाक्ष” में प्रकाशित किया गया है)

बलविंदर चहल
जन्म : मानसा, पंजाब
वर्तमान निवास : ऑकलैंड, न्यूजीलैंड
प्रकाशित पुस्तकें : प्रौ0अजमेर औलख दी नाटक कला(1988), सूरज फेर जगावेगा(2009), कविता राहीं विज्ञान(2008) एवं आखिर प्रवास क्यूँ(2009)।

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 18)


सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
चित्र : प्रो0 रमेश शर्मा

॥ तेईस ॥

बलदेव वापस काम पर चला गया पर उसका मन नहीं कर रहा था। एक तो कई महीने खाली रह कर मन हरामी हो गया था और दूसरा, उसे उन लोगों का सामना करना पड़ना था जिनके कारण उसने सिक मारी थी। सिमरन से अलग होने पर बलदेव बहुत शर्मिन्दा था। जब यह खबर उसके दफ़्तर पहुँची तो वह काम पर जाने से झिझकने लगा था। साल में दो या तीन पारिवारिक महफ़िले सजती थीं, जिनमें सिमरन भी आया करती और काम पर बहुत सारे लोग सिमरन को जानते थे। उनकी अलहदगी का अफ़सोस करने उसके पास आ जाते। उसके अन्दर हीनभावना आने लगी थी। वहमी सा हो गया था। शौन उससे पहले ही सिक पर था। शौन को कैरन ने चेतावनी दी हुई थी कि वह उससे खर्चा क्लेम करेगी, इसलिए शौन ने काम पर जाना बन्द कर दिया था। उसी के नक्शेकदम पर बलदेव भी पीठ दर्द का बहाना करके घर में बैठ गया था। अब डॉक्टर से फिटनेस लेकर वापस काम पर जा रहा था।
काम पर जाते समय यद्यपि उसमें उत्साह भी था। उसे आवश्यकता भी थी कि उसके पास नौकरी होगी तभी मोर्टगेज मिलेगी और फ्लैट ले सकेगा। दफ्तर में वापस आकर बाकी तो सबकुछ सह लिया था, पर उससे यह नहीं सहा जाता था कि उसे नौसिखिये क्लर्कों या अस्थायी कर्मचारियों में रखा जाए।
दफ्तर को कई सेक्सनों में विभाजित किया हुआ था। जैसे कि ए, बी, सी, डी। डी सेक्शन में नए लोग ही होते। बलदेव के संगी-साथी तो बी सेक्शन में थे। उसे बी न भी मिले पर सी तो मिलता। दूसरी दुख देने वाली बात यह थी कि उसके पुराने दोस्त उसे अपने से घटिया समझने लग पड़े थे। वे हैलो-सी करके टरका देते। फिर काम शुरू करते ही जल्द ही भाइया गुजर गया जिसके कारण वह दबाव में रहने लगा। काम से लौटते ही उसे अजमेर की दुकान पर कुछ घंटे मदद करवाने के लिए जाना पड़ता। वीक एंड पर तो पूरा दिन ही टोनी के संग खड़ा रहता। सवेरे छह बजे उठता। तैयार होते-हवाते आठ बजे घर से निकलता। टफनल पॉर्क से नॉदर्न लाइन पकड़ता और वाटरलू जा उतरता। वहाँ से कुछ मिनट का रास्ता था। नौ बजे से पहले पहले वह दफ्तर में होता। पाँच बजे काम छोड़ कर छह बजे घर पहुँचता। मैरी घर पर ही होती। सात बजे हाईबरी चला जाता जहाँ से दस बजे लौटता। मैरी को भी वक्त न दे पाता।
दुकान में मदद करते हुए उसे कुछ खुशियाँ भी मिलतीं। गुरां उसके पास आ खड़ी होती। शैरन उसके गले से लटक कर झूलने लगती। अब हरविंदर भी शरारतें करने लगता। गुंरिंदर कहती -
''तेरे भाजी के साथ इतना नहीं खुलते जितना तेरे साथ करते हैं।''
बलदेव को यह सुनना अच्छा लगता पर कई बार अजमेर उसे बहुत दु:खी कर जाता। किसी के साथ बात करते करते कहने लगता-
''रात को सौ पोंड की सेल में फर्क़ था, चलो कोई बात नहीं। कहीं गलती लग गई होगी।''
पहले तो बलदेव ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, जब नोटिस में यह बात आई तो उसे बहुत बुरी लगी कि उसे चोर बनाया जा रहा था। जब शिन्दा आया तो उसने हाथ एकदम पीछे खींच लिया। शिन्दे ने जल्दी ही सोहन सिंह वाली जगह संभाल ली थी, बल्कि वह उससे भी बढ़िया काम करता। टिल्ल को अच्छी तरह चला लेता। उसे ग्राहक सर्व करना आ गया था। फिर बलदेव ने दुकान में आना बन्द ही कर दिया था क्योंकि अब काम चल ही रहा था।
एक दिन वह मैरी को बाहर घुमाने ले गया। थेम्ज़ के किनारे जा बैठे। दरिया भरा पड़ा था। किनारों से बाहर उछल रहा था। भरे हुए दरिया को देख उसकी रूह निहाल हो गई। उसने मैरी से कहा-
''मेरा दिल करता है कि दरिया के किनारे पैर लटका कर बैठा रहूँ और यह इसी तरह मेरे पैरों को छोड़ते छोड़ते उतर जाए, इसी तरह छूता हुआ चढ़े।''
''यह टाईडल दरिया है, ये समुंदर से प्रभावित होते हैं, इनके किनारे बैठना ठीक नहीं होता। इन्हें बगैर छुए महसूस करना चाहिए।''
''मैं कई कई घंटे यहाँ खड़ा रह कर इसे देख सकता हूँ, इसे उतरते-चढ़ते को, मानो इसे उजड़ते-बसते देख रहा होऊँ।''
''इतना भी क्या लगाव इसके साथ। यह दरिया ही तो है।''
''मैरी, मुझे लगता है कि यह मेरे बारे में सोच रहा है।''
''डेव, कहीं पागल न हो जाना।''
''नहीं मैरी, मैं सच कह रहा हूँ। ज़रा सोच कर देख, थेम्ज़ के बगैर लंदन कैसा लगेगा। शायद थेम्ज़ न होता तो लंदन भी न होता।''
''पुराने शहर बसते ही दरियाओं के किनारे थे, आवाजाही की सुविधाओं के कारण।''
''यही तो मैं कहता हूँ कि थेम्ज़ के कारण ही लंदन है। इसी कारण मुझे यह बहुत खास लगता है। लंदन का हिस्सा बन कर मैं दरिया के साथ जुड़ा हुआ हूँ। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि लंदन के बिना कहीं और रह ही नहीं सकता।''
''देव, तूने दरिया का दूसरा पहलू नहीं देखा होगा, लगता है, इनकी भयानकता से तेरा वास्ता नहीं पड़ा, मेरे साथ डैरी चल, तुझे रिवर फोइल दिखाऊँ, देखने में वह इससे भी सुन्दर होगी, पर बहुत करूप है, सरहद है फोइल। एक तरफ प्रोटैस्टेंट और दूसरी तरफ कैथोलिक, दरिया का पार करना मतलब मौत... कुछ गज का दरिया सचाई में सैकड़ों मील का अन्तर संभाले बैठा है, अस्थायी से पुल हैं, फोइल पर बनते रहते हैं... तुझे उत्तरी आयरलैंड की राजनीति का पता ही है।''
बात करते करते मैरी भावुक हो गई। बलदेव ने कहा-
''मैरी, तेरे साथ कभी डैरी भी चलूँगा, तेरा फोइल भी देखूँगा पर इस वक्त हम थेम्ज़ के किनारे खड़े हैं।''
''तेरे मुल्क में कोई दरिया नहीं ?''
''हैं, मेरे घर के पास ही है सतलज।''
''उसके किनारे खड़े होकर नहीं देखा कभी तुमने ?''
बलदेव सोचने लग पड़ा कि सतलज को कितनी बार देखा था उसने। थेम्ज़ तो छोटा ही था। सतलज तो बहुत बड़ा था। एकदम शिखर पर झील मानसरोवर में से निकलता और सिन्ध तक का सफ़र तय करता दरिया। अब तो बंधा पड़ा था और बरसातों में ही चढ़ता था और कई बार तबाही भी मचाता था। मैरी ने पूछा -
''सतलज कैसा लगता है ?''
उसने सतलज को याद किया। उसे सतलज हँसता हुआ दिखाई दिया जब कि थेम्ज़ अहंकार में रहता था। सतलज को वह थेम्ज़ से ज्यादा जानता था। फिर उसने सोचा कि किन चक्करों में पड़ गया था वह। मैरी ने उसे उलझा हुआ देख कर कहा-
''यहाँ ठंड हो गई है, चल किसी रेस्टोरेंट में चल कर बैठते हैं।''
मैरी आयरलैंड चली गई। उसकी अनुपस्थिति में बलदेव को सबकुछ सूना-सूना लगने लगा। मैरी के बग़ैर उसे इस फ्लैट में रहना ही अच्छा नहीं लगता था पर और करता भी क्या। उसने कुछ घरों और फ्लैटों की लिस्टें देखी थीं पर उसकी पसंद का कहीं कुछ नहीं था। दो बार लिस्टें देखने के पश्चात् वह फिर बैठ गया। कभी कभी उसे नाइजल वाली दुकान हाथ से निकल जाने का दुख होता। अगर दुकान मिल जाती तो उसे काम पर वापस न जाना पड़ता। दुकान में मैरी भी उसकी मदद कर सकती थी। अब तो शिन्दा भी आ गया था। उससे भी काम चला सकता था।
सोहन सिंह के फ्यूनरल के बाद वह शॉप पर बहुत कम जा सका था। शिन्दे को मिलने ही जाता। अजमेर उससे उसके रहने का ठिकाना पूछता तो उसे कई तरह का झूठ बोलना पड़ता था। फ्यूनरल पर आए शौन से पता चल गया था कि शौन को भी उसके पते की जानकारी नहीं थी। शौन से उसने अभी भी मैरी वाली कहानी छिपा रखी थी। फ्यूनरल वाले दिन शौन से उसकी काफी बातें हुई थीं। उसे फोन करने या मिलने का वायदा भी किया था उसने, लेकिन ऐसा कर नहीं सका था। उसका मूड ही नहीं बनता था। काम पर रहने वाली निराशा उसे उदास सा किए रखती। शौन लौट कर काम पर नहीं गया था। उसने घर बैठे ही इस्तीफ़ा भेज दिया था। बलदेव का भी मन होता था कि वह यह काम छोड़ कर दूसरा तलाश ले। इतनी नौकरियाँ थीं लंदन में, मिल ही जाती।
मैरी के बगैर डार्टमाउस हाऊस अलग सा दिखता था और इसके लोग भी। उस दिन जूडी तो उसकी कार के आगे ही आ खड़ी हुई। उसे इमरजेंसी ब्रेक लगानी पड़ी। उसने खीझ कर जूडी की तरफ देखा तो वह हँसने लग पड़ी थी। उसे भी हँसी आ गई थी। जूडी बलिंडा की छोटी बेटी थी। उसने शीशा नीचे किया और कहा -
''क्यों जूडी, मरने का इरादा है ?''
''डेव, मुझे तुझसे एक काम है, ज़रूरी।''
''बता।''
जूडी घूम कर दूसरी ओर गई और कार का दरवाजा खोल कर उसके बराबर आ बैठी और बोली-
''मैरी कब आ रही है ?''
''पता नहीं, सारी रस्में पूरी करके ही लौटेगी। ग्रांट के फ्यूनरल पर जो गई है।''
''उसके बिना अकेला महसूस नहीं कर रहा ?''
''नहीं तो, क्यों पूछ रही है ?''
''डेव, सच यह है कि मैं ब्रोक हूँ, मुझे पैसे की सख्त ज़रूरत है। मैं तुझे गुड टाइम दे सकती हूँ, मुझे कुछ पोंड दे दे।''
''जूडी, मैं ऐसा नहीं हूँ।''
''मैं कहाँ ऐसी हूँ, यह तो मेरा बैनेफिट नहीं आया इसलिए कह रही हूँ, प्लीज़ डेव।''
''जूडी, इस काम के लिए मैं तुझे पैसे नहीं दे सकता। मैं तुझे जानता भी तो नहीं अच्छी तरह।''
''मैं साफ हूँ, विश्वास कर मेरा।''
''सॉरी जूडी, मैं तेरे किसी काम नहीं आ सकता।''
''उधार ही दे दे, दस पोंड, वायदा रहा लौटा दूँगी, प्लीज़ डेव !''
जूडी ने अनुनय की। बलदेव ने जेब में से पाँच पोंड निकाल कर उसे दिए और कहा-
''यही हैं, फाइव ही।''
जूडी ने धन्यवाद कह कर पाँच का नोट पकड़ा। कार में से उतरी और कहने लगी-
''अगर मेरी ज़रूरत हो तो बताना।''
जूडी चली गई। उसके बैठने के साथ ही कार में बू सी बिखर गई थी। यह बू ड्रग पीने के कारण थी। बलदेव ने भी कुछेक बार लेकर देखा हुआ है। उसे उसकी बू बहुत बुरी लगती थी। बलिंडा की दूसरी बेटी पैंट हालांकि सुन्दर थी। वह कहीं काम भी करती थी। बन-संवर कर रहती थी। ग्रांट के मरने पर बलिंडा के सारे परिवार ने ही बारी बारी से उससे अफ़सोस प्रकट किया था। जबकि वह ग्रांट से कभी मिला भी नहीं था। उसकी बॉडी देखने भी नहीं गया था। यह सोच कर वह मन ही मन हँसता और स्वयं को दोषी-सा महसूस करने लगता। बलिंडा का बड़ा बेटा माइकल उसे एक दिन अजमेर की दुकान पर मिला था। वह गे था। उसका ब्वॉय फ्रेंड भी साथ ही था। बलदेव को दुकान में देख कर हैरान होता हुआ बोला-
''डेव, यह तेरी दुकान है ?''
''नहीं, मैं काम करता हूँ, यूँ ही टेम्परेरी ही।''
''हम अपनी संस्था के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे हैं, कुछ दे।''
बलदेव ने ना कर दी थी पर टोनी ने दो पोंड दे दिए थे और आँख मारते हुए कहा था -
''ये भले लोग हैं, कठिन समय में काम आते हैं।''
बलिंडा का छोटा बेटा डगलस उसे अक्सर ही सड़क पर या पॉर्क में घूमता मिल जाता। वह लोफरों की भांति उल्टी टोपी पहनता और नाराज़ सा हुआ चलता, पर बलदेव के साथ बढ़िया तरीके से पेश आता था।
कई लोग बलदेव की तरफ अजीब नज़रों से देखते। कई बार उसने घूंट भर पी होती तो राह में खड़े होकर बातें करने लगता। कई बार वह यह भी सोचने लगता कि क्या ये लोग ही उसकी मंजिल हैं या ये फ्लैट या इन फ्लैटों की ज़िन्दगी। उसे अपने आप पर गुस्सा आने लगता कि वह अपने भविष्य के प्रति क्यों लापरवाह हुआ बैठा था।
एक दिन डूडू ने फिर उसे शाम डेसाई की दुकान पर रोक लिया।
वह कहने लगा-
''डेव, तुमने ग्रांट के फ्लैट पर कब्ज़ा कर लिया, यह बहुतों को पसन्द नहीं। इन फ्लैटों में कई नस्लवादी लोग रहते हैं जो बहुत खतरनाक हैं।''
''डूडू, इस फ्लैट से मेरा कोई संबंध नहीं, यह तो मैरी ने संभाल रखा है। मैरी ग्रांट की बहन है।''
''पर लोगों को तू ही दिखाई दे रहा है। तेरा रंग दिख रहा है। मैरी की कोई बात नहीं करता। अपना ध्यान रखना। दरवाजे-खिड़कियाँ अच्छी तरह बन्द करके सोया कर, कोई रात में ही तेरे पर हमला न कर दे। आगज़नी की भी वारदातें होती रहती हैं, मैं पैंतीस नंबर में हूँ।''
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(क्रमश: जारी…)
लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-८५७८०३९३
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