शनिवार, 27 मार्च 2010

गवाक्ष – मार्च 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की बाइसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के मार्च 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तेइसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…



यू.एस.ए. से
इला प्रसाद की लघुकथा

समुद्र : एक प्रेमकथा

उसने जीवन में कभी समुद्र नहीं देखा था। और देखा तो देखती ही चली गई। अपने छोटे-छोटे हाथ हिला-हिलाकर पास बुलाता समुद्र... किनारों से टकराता, सिर धुनता, अपनी बेबसी पर मानो पछाड़ खाता समुद्र और अंत में सब कुछ लील जाने को आतुर, पागल समुद्र !

उसे लगा, समुद्र तो उसकी सत्ता ही समाप्त कर देगा। वह घबराकर पीछे हट गई।
लेकिन, तब भी समुद्र के अपने आसपास ही कहीं होने का अहसास उसके मन में बना रहा। बरसों। उसे लगता, अब समुद्र कहीं बाहर न होकर उसके अंदर समा गया है और वह एक भंवर में चक्कर काट रही है... विवृति उसकी नियति नहीं है।

वह रह-रह कर चौंकती। समुद्र उसके आसपास ही है कहीं। वह लौट नहीं आई है और न समुद्र उससे दूर है।
फिर उसने पहचाना, समुद्र भयानक था लेकिन उसका उद्दाम आकर्षण अब भी उसे खींचता है। वह लौटने को बेचैन हो उठी।

उसने खुद को अर्घ्य-सा समर्पित करना चाहा।
लेकिन, ज्वार थम गया था। लौटती लहरें उसे भिगोकर किनारे पर ही छोड़ गईं। उसके पैर कीचड़ और बालू में सन गए।

समुद्र ने उसे कहीं नहीं पहुँचाया था। बस, मुक्त कर दिया था। मुक्ति का बोध उसे था लेकिन, उसने स्वीकारना नहीं चाहा। अब सचमुच समुद्र उसके अंदर भर गया था। वह चुपचाप, अकेले में लौटने को बेचैन, रोती-बिसूरती, अपने ही अंदर डूबती-उतराती, अपने पर पछाड़ खाती, किनारों से टकरा-टकराकर टूटती रही।

फिर एक दिन उसने सुना।
समुद्र में फिर तूफान आया था और किसी ने लहरों पर खुद को समर्पित कर अपनी नियति पा ली।

उसने महसूसा, उसके अंदर कुछ मर गया।
वह जानती थी, समुद्र में अब कभी तूफान नहीं आएगा...।
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झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।
कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।
कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) । एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य्।
सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन ।
सम्पर्क : ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA
ई मेल ;
ila_prasad1@yahoo.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 23)




सवारी
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ अट्ठाइस ॥

बलदेव काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा होता तो उसका मन साथ न देता। शाम को जल्दी में वापस भागता। टफनल रोड पर पहुँचता तो फ्लैट में जाने को दिल न करता। काम पर अभी भी वह किसी स्थायी सीट पर नहीं बैठ सका था। हर रोज़ नये टेबुल पर जाना पड़ता। वह यूनियन में गया तो यूनियन वाले उसके पीछे ही पड़ गए कि इतनी लम्बी बीमारी की छुट्टी क्यों ली थी। छुट्टी न लेकर कोई हल्की ड्यूटी कर लेता तो भी रिकार्ड ठीक रह सकता था। उसका रैप कहता था कि करीब छह महीने लगातार बगैर छुट्टी के काम करे तभी यूनियन उसकी तरफ से कुछ करेगी।
फ्लैट में लौटते हुए पहले तरह-तरह की नज़रों में से होकर गुजरना पड़ता था। कई बार उसे झगड़ा बहुत करीब-सा प्रतीत होता। एक दिन एक आदमी उसे रोक कर खड़ा हो गया और कहने लगा-
''डेव, मुझे जानता है ?... मेरा नाम पैडी है, मैं ग्रांट का खास दोस्त हूँ।''
''पैडी, मैं तुझे नहीं जानता।''
''तू तो ग्रांट को भी नहीं जानता, पर उसके फ्लैट पर कब्ज़ा कर लिया।''
''पैडी, मैंने कोई कब्ज़ा नहीं किया, मैरी का ही है यह।''
''वो तो चली गई, तू ही रहता है।''
बलदेव को लगा कि बात गालियों तक पहुँचनी ही है, शायद हाथापाई तक भी। वह तैयार होता हुआ बोला-
''पैडी, यह कौंसल का फ्लैट है, मेरे लिए इसकी कोई अहमियत नहीं।''
''अगर नहीं, तो यहाँ से दफ़ा हो जा और चाबी मेरे हाथ में दे।''
''पैडी, इस वक्त तो तू ही यहाँ से दफ़ा हो जा... फिर न कहते घूमना कि लोग तेरी शक्ल पहचानना ही भूल गए। इतना मारूँगा कि सारी उम्र नहीं भूलेगा।'' बलदेव ने मुट्ठियाँ भींचते हुए कहा।
पैडी पैर मलता चला गया, पर बलदेव की नींद हराम हो गई। उसे डूडू की बातें पहले से भी ज्यादा परेशान करने लगीं। इमरजेंसी में वह गैरथ के फ्लैट में जा सकता था, पर वहाँ इतनी दुर्गन्ध आती थी कि आदमी बीमार हो जाए। दुर्गन्ध तो ग्रांट के फ्लैट में से भी आती थी, तम्बाकू की। इसकी मैरी ने भी सफाई की थी और वह भी करता था, पर अभी भी किसी न किसी कोने से तम्बाकू की चुटकी हाथ लग ही जाती। जब तक पूरी कारपेट नहीं बदली जाती, दीवारों में नया पेपर नहीं लगता, ऐसे ही रहना था। वह मैरी की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह आए और जो करना है, करे।
एक दिन मैरी का फोन आ गया कि वह आ रही है। आज ही शाम की फ्लाइट लेने की कोशिश कर रही थी। डैरी से हीथ्रो के लिए हर घंटे जहाज चलते थे। घंटे भर का ही रास्ता था। आम तौर पर लोग एअरपोर्ट से ही टिकट खरीद लेते थे, पर रश होने के कारण कई बार टिकट न भी मिलती। खास तौर पर शाम की फ्लाइटें पहले ही बुक होतीं। टिकट मिलते ही मैरी ने बलदेव को फोन कर दिया। बलदेव दौड़ता हुआ एअरपोर्ट गया। उसके पहुँचते-पहुँचते मैरी की फ्लाइट को पहुँच जाना था। वह इसी हिसाब से घर से चला था।
मैरी को देखते ही उसका मन खुशी से भर उठा। वह बांहें फैलाकर मैरी की तरफ दौड़ा, पर मैरी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। फिर उसे एक ओर ले जाकर आलिंगनबद्ध करते हुए बोली-
''डेव, मेरे साथ ही इस फ्लाइट में बहुत सारे लोग आए हैं डैरी से, कोई भी परिचित हो सकता है।''
''तेरे हसबैंड का परिचित होगा ?''
''हो सकता है, या फिर हमारे परिवार का ही।''
''टैंड से मिलकर आई लगती हो।''
''हाँ मिली थी। मैं घर गई थी, रात में रही भी थी, पर टैंड तो अभी भी वैसा ही है, लूना बिच अभी भी उसके संग ही है।''
''मिच कैसा है ?''
''वह ठीक है, मुझे बहुत मिस करता है।''
फिर वह अपना अटैची घसीटते हुए बलदेव के साथ-साथ कार पॉर्क की ओर चल पड़ी। कार में बैठती हुई बताने लगी-
''डेव, तू भूल रहा है कि हम कैथोलिक हैं।''
''सॉरी !''
''हाँ, टैंड के साथ कई बैठकें हुईं, पादरी ने भी हमें एक करने की कोशिश की, हमारे परिवार वाले भी यही चाहते थे। टैंड कन्फेशन बॉक्स में जाकर लौट आया और मैंने कह दिया कि यह अन्त है।''
बलदेव कुछ न बोला। चुपचाप कार चलाता रहा। मैरी ने फ्लैट के बारे में कुछ बातें पूछीं और कहने लगी-
''यह फ्लैट अब मैंने अपने नाम करवाना है। सारे बिल अपने नाम करवाकर रैगुलर पे करती रहूँगी और साल भर बाद अप्लाई करूँगी कि अपने भाई के साथ ही रहती रही हूँ यहाँ। कइयों ने यही सलाह दी है।''
बलदेव को यह बात वह पहले भी बता चुकी थी। बलदेव को इस बात की भी खीझ-सी थी कि वह उसके जाने के बाद फ्लैट का किराया देता रहा था जो कि ज्यादा था। शौन के घर में वह थोड़े से किराये में ही रहे जा रहा था। मैरी आगे कहने लगी-
''यह बातें छोड़, कभी याद भी किया मुझे ?''
''मैरी, तुझे बहुत मिस किया। पहले अकेला रहने की आदत बन गई थी, अब तेरी आदत पड़ गई है। अच्छा हुआ तू वापस आ गई।''
मैरी खुश हो गई। फिर फ्यूनरल पर इकट्ठा हुए लोगों के बारे में बताने लगी। अगली सवेर बलदेव से उठा नहीं जा रहा था। दिल ही नहीं कर रहा था। मैरी के साथ से अभी उसका मन नहीं भरा था। वह उससे बातें भी पूरी नहीं कर सका था। उसने काम पर से छुट्टी कर ली। छुट्टी के लिए फोन करते हुए उसका मन भी कांप रहा था कि बिना कारण छुट्टी से उसका नुकसान होगा। वह सारा दिन मैरी के साथ पड़ा रहा। मैरी ने कुछ सिगरेट पीं। उसने कहा-
''मैरी, तू तो बहुत टेंशन में स्मोक करती है, क्या हुआ ?''
''डेव, फ्यूनरल की भाग-दौड़ ने आदत-सी बना दी, मैं कंट्रोल कर लूँगी।''
बलदेव का हाईब्री की तरफ का भी चक्कर लग जाता, पर वह दुकान में नहीं जाता थ। उस रात उसे गुरां के बारे में बुरा-सा सपना आया तो उसका मन हुआ कि एक नज़र देख ही आए। वे उधर से गुजर रहे थे। मैरी जानती थी कि यह बलदेव के भाई की दुकान है। बलदेव ने कार को पिछली रोड पर खड़ा किया। मैरी कार में ही बैठी रही और बलदेव दुकान में आ गया। काउंटर पर खड़े शिन्दे ने कहा-
''बड़ी उम्र है भई तेरी, अभी भाजी ऊपर गया है, तेरी ही बातें कर रहा था।''
''मेरी तुमने चुगलियाँ ही करनी हैं, और क्या करना है।''
''भाजी कह रहा था, तू गोरी के साथ रहता है, सच ?''
बलदेव हँसने लगा। शिन्दे ने कहा-
''हँस रहा है, ज़रूर दाल में काला है...इतने दिनों बाद कैसे ?''
''मैं तुझे घुमाने ले जाने के लिए आया हूँ। मैंने सोचा जंग न लग जाए।''
''फिर से पानी दिखाना है ?''
''ओ यार...कहीं बैठेंगे, दारू का घूंट भरेंगे, पर तू तो बिज़ी लगता है।''
''भाजी से पूछ ले, ऊपर ही है, जा, मिल आ।''
बलदेव ऊपर की ओर चल दिया। स्टॉक रूम के बड़े शीशे के सामने खड़े होकर ऐनक ठीक की। बाल संवारे। सीढ़ियाँ चढ़ गया। सीढ़ियाँ चढ़ते सामने रसोई में गुरां खड़ी थीं। वह न मुस्कराई और न कुछ बोली। बलदेव को पता था कि उसका यह गुस्सा दिखाने का अंदाज है। उस दिन शिन्दे को छोड़ने के बाद वह नहीं आया था। उसने गुरां के पास जाकर पूछा-
''तू ठीक भी है ?''
''तुझे क्या ?''
तभी, फ्रंट रूम से अजमेर भी निकल आया। उसने पूछा-
''अब तो नज़दीक ही रहता है, अब न आने का क्या बहाना है?''
''काम पर ही होता हूँ।''
''वीक एंड ?''
''नहाना-धोना।''
गुरां जो चुप थी, कहने लगी-
''धोने वाले कपड़े यहाँ दे जाया कर।''
बलदेव ने इस बात का कोई उत्तर न दिया और अजमेर से पूछने लगा-
''काम काज कैसा है ?''
''काम ठीक ठाक ही है।''
कहता हुआ वह सीढ़ियाँ उतर गया। बलदेव वहीं खड़ा रहा। उसकी आवाज़ सुनकर शैरन भी अपने कमरे में से निकल आई और उसने उससे 'हैलो' की। बलदेव ने गुरां को धीमे से कहा-
''मैं जल्दी में हूँ, सिर्फ़ तुझे ही देखने आया हूँ।''
''झूठा... इतने करीब रह कर भी।''
उसका दिल भर आया। बलदेव ने पूछा-
''सब ठीक है ? मुझे सपने ठीक नहीं आते।''
''मैं ठीक हूँ, मुझे कुछ नहीं हुआ। तेरे सपनों की जड़ें कहीं ओर होंगी।''
बलदेव घड़ी देखता हुआ बोला-
''गुरां, मुझे कहीं जाना है, लौटकर आता हूँ, आज या कल।''
वह चलने लगा तो शैरन बोल उठी-
''बाय-बाय चाचा जी, सी यू अगेन।''
वह शैरन को हाथ हिलाता हुआ नीचे उतर गया। उसके नीचे पहुँचते ही शिन्दा जैकेट उठाये खड़ा था। अजमेर ने पूछा-
''कहाँ ले जाना चाहता है इसे ?''
''कहीं खास नहीं, मैंने सोचा, चक्कर-सा लगवा दूँ, कहीं बैठकर बीयर-सोडा पिला दूँ।''
''बीयर तो यहाँ पॉल के पी आते हैं।''
''यहाँ तो पीते ही हैं, उधर वैस्ट एंड का चक्कर लगा आते हैं। मेरे काम पर पार्टी-सी है। मैंने सोचा, इसे भी ले चलूँ।''
बलदेव ने बहाना घड़ दिया। अजमेर ने कहा-
''एक बात का ध्यान रखना, इसे अपनी राहों पर न लगा लेना, तू तो बच्चों को छोड़े बैठा है, पर इसका सब कुछ है अभी... तेरे वाले उलटे कामों में पड़ गया तो गया, न ये घर का रहेगा, न घाट का।''
उसकी यह बात बलदेव को सीने में बजी। वह चुपचाप चल दिया। शिन्दा उसके पीछे ही था। उसने शिन्दे से कहा-
''तूने अच्छी तरह पूछ लिया। उस दिन कह रहा था कि क्यों लेकर गया।''
''तू चला चल, यह मुझे हर वक्त नाईयों की बछिया की तरह तो बांधे रखता है दुकान में। और फिर बड़े भाई की बात ऐसी ही होती है, ज्यादा बोदर नहीं किया करते। देख, मैं कभी गुस्सा नहीं करता।''
''पर देख ले, बात कहते समय मिनट नहीं लगाता। एकबार भी नहीं सोचता कि किसी के कहाँ मार करेगी।''
''बलदेव, यह गोरी वाली बात सच है ?''
बलदेव कुछ न बोला और चलता रहा। आगे जा कर कार के पिछले दरवाजे की ओर इशारा किया। कार में बैठी मैरी को देखकर शिन्दे की आँखें चमक उठीं और शरारती लहजे में सिर मारते हुए बोला-
''मैं जाऊ ?... वापस लौट जाऊँ ?''
''आ जा अब, अगर कबाब में हड्डी बनना ही है तो... इससे मिलाने ही तो तुझे लाया हूँ।''
''पर यह है कौन ?''
''भरजाई समझ इस वक्त तो।'' बलदेव के मन में मैरी को शिन्दे से मिलवाने का विचार अचानक ही आया था।
''फिर तू देवर-भरजाई के बीच में न बोलना।''
''नहीं बोलता, तू जो छीनना चाहता है, छीन ले।''
''मेरी इंट्रोडक्शन करा दे ज़रा।''
कार में बैठते ही शिन्दे ने मैरी से हैलो कहा। बलदेव ने दोनों का परिचय करा दिया। उसने शिन्दे को शैनी बना दिया ताकि मैरी को बोलने में आसानी हो। बलदेव ने कार में पड़ी शिन्दे वाली सिगरेटों की डिब्बी उसे थमा दी। शिन्दे ने ना करते हुए वापस कर दी। बलदेव ने कहा-
''मैरी, शैनी तेरे सामने सिगरेट पीने से झिझक रहा है।''
''इसमें झिझक कैसी ?'' कहकर मैरी ने एक सिगरेट खुद सुलगा ली और एक शिन्दे के मुँह से लगा दी और लाइटर से जलाते हुए बोली-
''वैसे मेरा ब्रांड सिलेक्ट है।''
उसका शुक्रिया करते हुए शिन्दा बोला-
''मेरी आदत तो नहीं, पर कभी-कभी हॉबी के तौर पर स्मोक करता हूँ।''
उसे अंग्रेजी में बोलते देख बलदेव हैरान हो गया और बोला-
''तू तो छा गया, बड़ी जल्दी अंग्रेजी पिक कर ली।''
''टोनी के साथ हर समय लगा जो रहता हूँ। ग्राहकों के साथ भी वास्ता पड़ता है। और तू अपने आप को क्या समझता है ! मौका मिलने पर मेरे और भी हाथ देखना।''
बात करते हुए शिन्दे सीट पर से थोड़ा ऊपर उठ रहा था।
बलदेव ने उसका जवाब देने के बजाय मैरी से पूछा-
''अगर शैनी अपने साथ थोड़ी देर बैठ ले तो तुझे कोई एतराज़ तो नहीं ?''
''नहीं-नहीं डेव, मैं तो बल्कि ज्यादा इन्जाय करूँगी।''
तब तक वे फ्लैट में पहुँच गए। बलदेव ने तीन बड़े पैग बनाकर बांट दिए। जब दूसरा पैग बनाया तो बलदेव बोला-
''मैरी, शैनी ने बहुत देर से नंगी औरत नहीं देखी।''
''दिखा दे, कहीं स्ट्रिपटीज़ पर ले जाकर। तुम मर्दों का यही तो शौक है।''
''मैं कभी नहीं गया। और फिर वे औरतें ठीक नहीं होतीं।''
''तुमने तो जिस्म ही देखना है। या यूँ कह कि भाई के लिए पैसे खर्च करने से डरता है।''
''यह भी ठीक है, पैसे मेरे पास है ही कहाँ।''
''सीधा कह कि कंजूस हूँ... इंडियन तो होते ही पैसे वाले हैं।''
''सभी इंडियन नहीं होते, कई मेरे जैसे पैनीलैस भी हैं।''
कहते हुए बलदेव और पैग बनाने लगा। शिन्दा बोला-
''कहीं जाना है ?''
''नहीं, जाना कहाँ है ?''
''फिर जल्दी क्यों मचा रहा है ?''
''मैंने सोचा, ज़रा किक लगे, सरूर आए।''
वह फिर मैरी को बताने लगा-
''ये जल्दबाजी के पैग मैंने एक्सीलेटर देने के लिए डाले हैं।''
''डेव, मुझे तो कुछ ज्यादा ही एक्सीलेटर दे दिया।''
मैरी नशे में हुई पड़ी थी। बलदेव बोला-
''मैरी, नशे में तू बहुत प्यारी लगने लगती है।''
''सच !''
''हाँ मैरी, तेरा जिस्म और ज्यादा कस जाता है और बहुत खूबसूरत लगने लगता है।''
''थैंक्यू डेव।''
''इसमें थैंक्यू वाली बात नहीं है, मैं तुझे कोई कम्पीलेंट नहीं दे रहा।''
मस्ती में आई मैरी उठकर उसे चूमने लग पड़ी। बलदेव खड़ा हो गया, उसने मैरी को भी खड़ा किया और शिन्दे से कहने लगा-
''शैनी, मैरी दिल की बहुत सुन्दर है, इसकी ठोड़ी बहुत सुन्दर है, इसका एक-एक अंग, इसकी छातियाँ तो जैसे पत्थर की हों, तू देखेगा तो सोचेगा कि नकली हैं या फिर कुछ करा रखा हो।''
मैरी गर्व में भरी खड़ी थी। वह हँसे भी जा रही थी। बलदेव उसकी छातियों पर हाथ फेरने लगा। बलदेव ने उसका टॉप उतार दिया और फिर ब्रा भी। मैरी उसी तरह खड़ी हँसती रही। बीच-बीच में कहती रही, ''डेव, यू आर बास्टर्ड !''
बलदेव उसकी छातियों को तोलता हुआ शिन्दे से बोला-
''शैनी, ये मेरी किस्मत में हैं, तू सिर्फ एक बार छू सकता है।''
मैरी अभी भी हँसी जा रही थी। शिन्दा कहने लगा-
''कोई शर्म कर, देख लेगा कोई।''
कहते हुए उसने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया। मैरी ने बलदेव को आलिंगन में ले लिया और अपना चेहरा उसकी गर्दन में छिपा लिया।
वे देर तक बैठे हँसी-मजाक करते रहे। शिन्दा कहने लगा-
''तू तो निकल चला, तभी किसी के हाथ में नहीं आ रहा।''
शिन्दे को घर जाने के लिए उन्होंने टैक्सी बुला दी। बलदेव कार चलाने योग्य नहीं रहा था। टैक्सी में चढ़ाने के लिए वे नीचे आए। स्टेशन पर टैक्सी वालों का दफ्तर था। जल्दी में भारी कपड़ा दोनों ने ही नहीं उठाया था। ठंड बहुत थी। वापस लौटते समय पैडी मिल गया। यही पैडी आज बलदेव को बहुत प्यार से मिला। वैसे भी बलदेव ने नोट किया था कि मैरी के आने के बाद लोगों का व्यवहार कुछ ठीक हो गया था।
बलदेव को मैरी की एक बात कुछ-कुछ चुभती आ रही थी कि वह टैंड और मिच्च की बहुत बातें करने लगी थी। एक दिन उसने कहा-
''डेव, अगर मिच मेरे पास आया तो हमें कुछ ध्यान से रहना पड़ेगा। दस साल का हो गया है। सब समझता है। लूना के बारे में सारी खबर मुझे वही देता है।''
बलदेव सोचने लगा कि हालात बदलने के आसार दिख रहे थे। एक दिन शराबी हुई मैरी बताने लगी-
''मैं टैंड को खुली ऑफर दे आई हूँ। यहाँ लंदन में आ जाए तो ठीक है।''
बलदेव अपने बारे में सोचने लगा कि अचानक सब कुछ बदल गया तो उसका क्या होगा। जब वह सिमरन से अलग हुआ तो रात के बारह बजे घर से निकल पड़ा था। रात को कार एक पॉर्क में खड़ी की थी और वहीं सो गया था। पर अब सर्दियाँ थीं और कार में रात नहीं काटी जा सकती थी। गैरथ भी ज्यादा शराब पीकर सो जाए तो दरवाजा नहीं खोला करता।
एक दिन वह काम से लौटा तो मैरी का चेहरा उतरा-उतरा-सा था।
बलदेव ने पूछा तो बोली-
''शाम की फ्लाइट में टैंड आ रहा है।''
(जारी…)
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