शनिवार, 12 अप्रैल 2008

गवाक्ष- अप्रैल 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले तीन अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, देवी नागरानी (न्यू जर्सी, यू.एस.ए.) की पाँच ग़ज़लें तथा लंदन में रह रहे पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली दो किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के इस अंक में प्रस्तुत हैं – तेजिंदर शर्मा की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तीसरी किस्त का हिंदी अनुवाद…



तीन कविताएं
तेजिंदर शर्मा, यू के

कर्मभूमि

बहुत दिन से मुझे
अपने से यह शिकायत है
वो बिछडा गांव, मेरे
सपनों में नहीं आत।
वो भोर का सूरज,
वो बैलों की घंटियां
वो लहलहाती सरसों भी
मेरे सपनों की चादर को
छेद नहीं पाते।
और मैं
सोचने को विवश हो जाता हूं
कि इस महानगर की रेलपेल ने
मेरे गांव की याद को
कैसे ढक लिया !

विरार से चर्चगेट तक की लोकल के
मिले-जुले पसीने की बदबू
मेरे गांव की मिट्टी की
सोंधी खुशबू पर
क्योंकर हावी हो गई !
बुधुआ, हरिया और सदानंद
के चेहरों पर
सुधांशु, अरूण और राहुल
के चेहरे
कैसे चिपक गये !
मोटरों और गाडियों का प्रदूषण
गाय भैंसों के गोबर पर
कैसे भारी पड़ ग़या !

गांव के नाम पर, मुझे
नीच साहुकार, गंदी गलियां
और नालियां ही, क्यों याद आती हैं ?
छोटे-छोटे लिलिपुट
बड़ी बड़ी डींगें हांकते
मेरे सपनों के कवच में
छेद कर जाते हैं!
भ्रष्ट राजनीति के
गंदे खेल ही
मेरे दिमाग़ को क्यों
मथते रहते हैं !

इस महानगर ने अपनी झोली में
मेरे लिये
न जाने क्या छुपा रखा है
कि यही
मेरी कर्मभूमि बन गया है।

गिलहरी


रहती है मेरे घर के पीछे
बाग़ के एक दरख़्त पर
उछलती, कूदती, फरफराती
एक डाल से दूसरी पर
बंदरिया-सी छलांग लगाती।
ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।

इस देश के गोरे नागरिकों की
करती है नकल, अपनी
फ़रदार पूंछ को हिलाती है
अलग-अलग दिशा में नचाती है
चेहरे पर रोब लाए
करती है प्रदर्शन, अपनी
अमीरी का, अपनी सुन्दरता का
हां, ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।

अपने आगे के पैरों को देती है
हाथों-सी शक्ल और वैसा ही काम
कुतरती है सेब, मेरे ही बाग़ के
ऐंठती हुई करती है अठखेलियां
पेड़ों से टकराती ब्यार से
उफ़! ये मेरे बाग़ की गिलहरी।

जब जी चाहे पहुंच जाती है
मेरे ज़ीने पर, मेरे स्टोर में
कुतर डालती है, दिखाई देता है जो भी
मैं, बस सुनता हूं आवाज़ें
घबराता हूं, मांगता हूं दुआ
पुस्तकों की ख़ैरियत की।
मुझे भक्त बना देती है
ये जो है मेरे बाग़ की गिलहरी।

एक दिन सपने में मेरे आ खड़ी होती है
चेहरे पर दंभ, रूप से सराबोर
गदराया बदन, दबी मुस्कुराहट
आज आने वाली है उससे मिलने
उसकी दूर की एक रिश्तेदार!
उस शहर से जहां बीता था मेरा बचपन
हां, वो भी तो एक गिलहरी ही है।

ग़रीबी के बोझ से दबी
सिमटी, सकुचाई, शरमाई
अपने सलोने रंग से सन्तुष्ट
संग लाई है अपने अमरूद
बस वही ला सकती थी
महक मेरे शहर की मिट्टी की
पाता हूं वही महक कभी अमरूद में
तो कभी उसमे जो मेरे शहर की गिलहरी है।

मेरे बाग़ की गिलहरी को नहीं भाती
गंवई महक अमरूद की, या फिर
मेरे शहर की मिट्टी की वो गंध
जो मेरे शहर की गिलहरी ले आई है
अपने साथ, अपने शरीर अपनी सांसों में।
वह रखती है अपनी मेहमान के सामने
केक, चीज़ और ड्राई फ़्रूट
कितनी भी खा ले, पूरी है छूट
कितने बड़े दिल की मालकिन है
वो जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।


मेरे शहर की गिलहरी सीधी है सादी-सी
निकट है प्रकृति के, सरल और मासूम
बस खाती है पेड़ों के फल, कैसे पचाए
केक, चीज़ और ड्राई-फ़्रूट
देखती है, मुस्कुराती है, पूछती है हाल
अपनी मेज़बान के, उसके परिवार के।
परिवार यहां नहीं होता, सब रहते हैं
अलग-अलग, यह मस्त देश है
ऊंचे कुल की दिखती है वो
जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।

“सुनो, तुम यह सब नहीं खाती हो
इसी लिये सेहत नहीं बना पाती हो
मुझे देखो, कितना ख़ूबसूरत देश है मेरा
कैसा है मेरा स्वरूप, रंग रूप।.. देखो
मेरे बाग़ में कितने सुन्दर पेड़ हैं
रंग-बिरंगी पत्तियों वाले पौधे!
यहां का हरा रंग कितना गहरा है!
यहीं आ बसो, यहां है कितना सुख
कितनी शान, मौज है मस्ती है।”
आत्ममुग्ध हो जाती है, जो
मेरे बाग़ की गिलहरी है।

चुप नहीं हो पाती है, जारी है
बोलना उसका और इठलाना।
मेरे देश में इन्सान से अधिक
होती है परवाह हमारी
यही है वो देश जहां कभी
अस्त नहीं होता था सूर्य
जब कभी उदय होता है पूर्व में
तब भी चमकता है मेरा यह
पश्चिम का देश
और चमकने लगता है चेहरा,
मेरे बाग़ की गिलहरी का।

शांत किन्तु दृढ़ आवाज़ में
देती है जवाब, गिलहरी मेरे शहर की।
माना कि तुम हो बहुत सुन्दर और सुगठित
धन और धान्य से भरपूर है शहर तुम्हारा


तुम्हारे देश में हैं सुख, सुविधाएं और आराम
देखो मेरी ओर, देखो मेरे इस साधारण बदन को,
यह तीन उंगलियां जिसकी हैं
उसका नाम है राम! इस तरह देती है सुख
मुझे असीम, वो जो मेरे शहर की गिलहरी है।


टेम्स का पानी

टेम्स का पानी, नहीं है स्वर्ग का द्वार
यहां लगा है, एक विचित्र माया बाज़ार!

पानी है मटियाया, गोरे हैं लोगों के तन
माया के मकड़जाल में, नहीं दिखाई देता मन!

टेम्स कहां से आती है, कहां चली जाती है
ऐसे प्रश्न हमारे मन में नहीं जगा पाती है !

टेम्स बस है ! टेम्स अपनी जगह बरकरार है !
कहने को उसके आसपास कला और संस्कृति का संसार है !

टेम्स कभी खाड़ी है तो कभी सागर है
उसके प्रति लोगों के मन में, न श्रध्दा है न आदर है!

बाज़ार संस्कृति में नदियां, नदियां ही रह जाती हैं
बनती हैं व्यापार का माध्यम, मां नहीं बन पाती हैं !

टेम्स दशकों, शताब्दियों तक करती है गंगा पर राज
फिर सिकुड़ जाती है, ढूंढती रह जाती है अपना ताज!

टेम्स दौलत है, प्रेम है गंगा; टेम्स ऐश्वर्य है भावना है गंगा
टेम्स जीवन का प्रमाद है, मोक्ष की कामना है गंगा

जी लगाने के कई साधन हैं टेम्स नदी के आसपास
गंगा मैय्या में जी लगाता है, हमारा अपना विश्वास!
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तेजेन्द्र शर्मा
जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांव
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)
कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरू‏आत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।

संपर्क:
74-A, Palmerston Road
Harrow & Wealdstone
Middlesex UK
Telephone: 020-8930-7778 / 020-8861-0923.


E-mail: kahanikar@gmail.com , mailto:kathauk@hotmail.com
Website: http://www.kathauk.connect.to/



धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 3)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। चार ।।

वैलजी वे प्रात: चार बजे पहुँचे। मुख्य सड़क से हटकर जो रोड थी, उस पर कुछ मील जाकर शौन का घर था। सड़क पर इस तरह के इकहरी मंजिल वाले अन्य भी इक्का-दुक्का घर थे। सड़क से घर के लिए दो रास्ते थे। एक अंदर जाने के लिए और दूसरा बाहर आने के लिए। घर के बाहर खड़ी कार की ओर इशारा करते हुए शौन बोला–
“यह मैथ्यू की है, बहुत रफ चलाता है, देख तो ज़रा इसकी हालत।”
वे दोनों कार में से निकले। ताजी हवा के बुल्ले इनके जिस्मों को स्पर्श करने लगे। काफी ठंड थी। वे कमीजों में ही थे। भारी कपड़े कार के बूट में ही पड़े थे। शौन ने दरवाजे की घंटी बजाई। कोई नहीं आया। फिर बजाई, दरवाजा भी खटखटाया। कोई उत्तर न मिला। फिर उसने मैथ्यू को आवाज़ देकर पुकारा और अंत में गालियाँ बकने लगा। जब दरवाजा न खुला तो वह बलदेव से कहने लगा–
“आ जा, रसोई की तरफ से चलते हैं।”
वे घर के पिछवाड़े चले गए। शौन ने खिड़की का शीशा उतारा और अंदर जा घुसा। अंदर जाकर उसने बलदेव के लिए दरवाजा खोल दिया। रसोई में बर्तन जस के तस बिखरे पड़े थे। शौन हँसते हुए बोला–
“देख, लगता है न पंजाबी का घर।”
फिर उसने अल्मारी में से आयरश व्हिस्की बु्शमिल की बोतल उठा ली। दो पैग बनाए। एक गिलास बलदेव को देते हुए बोला–
“वैलकम टू आयरलैंड !... मेरे मुल्क की व्हिस्की ट्राई कर।” बलदेव ने कई बार आयरश व्हिस्कियाँ पीकर देख रखी थीं। इन व्हिस्कियों के स्वाद में धुआंखेपन की बू होती थी। वह सोचने लगा कि ये लोग किस तरीके से शराब बनाते होंगे कि वह स्मोकी हो जाती है। एक बार शौन से बहस भी कर चुका था कि व्हिस्की के धुआंखे होने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता। वह इस बारे में सोच ही रहा था कि मैथ्यू आ गया। वह सीधा बैड पर से ही आँखें मलता हुआ आ रहा था। बलदेव ने शक्ल से ही पहचान लिया। वह उनसे हाथ मिलाता हुआ बोला–
“हम तो सारी रात इंतजार करते रहे...।”
शौन ने उसके लिए भी पैग बनाया और गुस्से होकर कहने लगा–
“दरवाजा क्यों नहीं खोला ?”
“तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते हम बहुत देर से सोये थे।”
मैथ्यू की अंग्रेजी इतनी गूढ़ आयरश उच्चारण में थी कि बलदेव को समझने में कठिनाई महसूस हो रही थी। वे रसोई में से बैठक में आ गए। अब तक शौन की माँ भी उठ आई। बलदेव ने उसका हाथ पकड़कर ‘हैलो’ कहा। वह पश्चिमी बुजुर्गों से मिलने का तरीका नहीं जानता था। भारतीय बुढ़िया होती तो पैरों को हाथ लगाता। फिर मैथ्यू की पत्नी कुमैला और बच्चे भी आ गए। शौन ने बच्चों का तआरुफ़ करवाते हुए कहा–
“यह है बड़ा शौन और यह है कुमैला... शौन का नाम मेरे वाला है, मेरे बाप का भी यही था, यह हमारा खानदानी नाम है। कुमैला का नाम इसकी माँ वाला है।”
बलदेव को क्रिश्चियनों के नामकरण का पता था कि एक ही नाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता है। उसने बच्चों को उठाने को कोशिश की, लेकिन वे भाग गए। बलदेव से शरमा रहे थे। कुमैला भी रसोई के काम में जा लगी। शौन ने बलदेव से कहा–
“डेव, हम घंटा भर सो लें, नहीं तो हम तंग होंगे। अपना शैड्यूल बहुत बिजी है।”
शौन उसे एक कमरे में ले आया, जहाँ उसका बैग रखा हुआ था। उनके बैठते मैथ्यू कार में से सामान निकाल लाया था। दो हफ्तों के कपड़े आदि थे। शौन बलदेव को बिस्तर पर लिटाकर स्वयं दूसरे कमरे में जा पड़ा। अब सोने का वक्त नहीं रहा था। परदों में से भी रोशनी अंदर आ रही थी।
मैथ्यू को बेचैनी हो रही थी। शौन और बलदेव का इस तरह सो जाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसने उनका रात में इतना इंतजार किया था कि पब तक नहीं जा सका था यह सोचकर कि कहीं वे आ ही न जाएं। उसे इस बात की चिंता नहीं थी कि वे दो रात से सो नहीं पाए थे। अभी घंटा भर भी नहीं हुआ था कि वह बलदेव के कमरे में चला गया। उसे करवटें बदलता पाकर बोला–
“डेव, चल उठ, बेकरी चलती हैं।”
बलदेव उठ खड़ा हुआ। नींद तो उसको न के बराबर ही आई थी। उसे जबरदस्त थकान थी। उसकी हालत देखकर मैथ्यू बोला–
“चिंता न कर, गीनस ठीक कर देगी।”
बलदेव हँसता हुआ बाथरूम में जा घुसा। तैयार हुआ तो कुमैला घर की बनी ब्रेड के टोस्ट सामने रख गई। उसे यह ब्रेड बहुत स्वादिष्ट लगती थी। सिमरन भी घर में ही ब्रेड बेक कर लिया करती थी। मैथ्यू इतना उतावला था कि बलदेव को नाश्ता भी नहीं करने दे रहा था। बलदेव के आने पर वह बेहद उमंगित था।
उसने अपनी कार के बजाय शौन वाली कार ले ली और बोला–
“हम शौन के सोते-सोते ही लौट आएंगे। मुझे तो वह अपनी कार को हाथ ही नहीं लगाने देता।”
कहकर उसने कार को पीछे की ओर ही भगा लिया और बाहर सड़क पर ले आया। कार को सीधा करते हुए बताने लगा–
“दायीं ओर कौर्क और वाटरफोर्ड है, जहाँ से तुम रात में आए थे। यहाँ से हमारा गांव वैलजी एक मील पर है, मिंटले आधा मील... यह बायीं ओर वाला फार्म पहले हमारा हुआ करता था... वो सामने चर्च था, गिर पड़ा था। अब दुबारा बनाएंगे...यह फार्म हमारे परिवार के आदमी का ही है, यह भी मरफी है। हमारा बाबा और इनके बाबा का बाप दोनों भाई थे। इन्होंने फॉर्म बीसेक साल पहले ही लिया है। इनका एक लड़का गठिये का मरीज है, कच्चा दूध जो पी लिया था... वो सामने चीज़ फैक्टरी है। मैंने भी यहाँ काम किया था। इसकी मालकिन पागल हो गई। सामने ज़ोज़ी के पब को रोड जाती है...।”
जब तक वे एक दुकान के आगे न रुके, वह बोलता ही गया। उसके उच्चारण के कारण बलदेव को कई बार दुबारा पूछना पड़ता कि वह क्या कह रहा है। वह बलदेव को बांह से पकड़कर दुकान के अंदर ले चला। सबको प्रसन्न होकर बताने लगा–
“यह डेव है, मेरे भाई शौन का दोस्त। लंदन में रहता है। आज ही आया है, दो सप्ताह ठहरेगा।”
दुकान में दो ग्राहक थे और दो काम करने वाले। सभी बलदेव को उत्साह से मिल रहे थे। पराये रंग का आदमी उन्हें अधिक देखने को नहीं मिलता था। दुकान में ग्राहक आ-जा रहे थे। हर कोई उससे विशेष तौर पर मिलता। मैथ्यू साथ के साथ कमेंटरी देता जा रहा था। बिलकुल ग्रामीण माहौल था। पंजाब के लोगों के साफ स्वभाव जैसे लोग सीधी-सरल बातें कर रहे थे। किसी ने पूछा–
“तू डाक्टर है ?”
“नहीं तो।”
“तेरे रंग के लोग डाक्टर ही तो होते हैं। हमारा एक डाक्टर था, हम उससे मजाक किया करते थे कि तूने हाथ नहीं धोये, जा हाथ धोकर आ।”
वहाँ खड़े सभी लोग हँस पड़े। टाईवाले एक आदमी ने सोचा कि कहीं मेहमान गुस्सा ही न हो जाए, कहने लगा–
“यहाँ एशियन और काले लोग बहुत कम हैं... यहाँ ज्यादातर लोग तो ऐसे होंगे, जिन्होंने काले लोग देखे ही नहीं होंगे। ऐसे लोग भी हैं जिन्हें यह भी नहीं पता कि धरती पर रंगदार लोग भी होते हैं। कभी कहीं गए ही नहीं, अशिक्षा भी बहुत है।”
बलदेव उसकी बात का असली भाव समझ गया था। उसने मुस्कराते हुए कहा–
“अशिक्षा और अज्ञानता तो हर मुल्क के गांव में होती है, इंग्लैंड के गांवों में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अभी तक लंदन नहीं देखा और बहुत से तो लंदन देखे बगैर ही मर जाते हैं।”
मैथ्यू ने साबुत ब्रेड्स खरीदीं। बलदेव ने देखा कि दुकान में कटी हुई कोई ब्रेड नहीं थी। वह सोच रहा था कि यहाँ साबुत ब्रेड का ही रिवाज होगा। कहने को तो यह बेकरी थी, पर साधारण दुकान की तरह सब कुछ मिलता था। मैथ्यू ने एक टेप भी खरीदी। कार में बैठते ही टेप लगाकर कहने लगा–
“यह हँसी-मजाक से भरी टेप है, ज़रा सुन, तुझे पसंद आएगी।”
बलदेव ने ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की। बहुत कुछ उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था। वह मैथ्यू की ओर देखकर ही हँसने लग पड़ता। उसे हँसता देखकर मैथ्यू को अजीब-सी खुशी हो रही थी। उसकी आँखें तसल्ली से भर जातीं।
उनके लौटकर आने तक शौन भी सो कर उठ चुका था। कुछ देर बाद वे तीनों एकसाथ निकल पड़े। मैथ्यू कार चला रहा था। शौन उसके बराबर बैठा था और बलदेव पीछे। पहले उन्होंने उसे अपना गांव दिखाया और फिर आसपास का इलाका। इंग्लैंड के गांवों की तरह ही गांव थे। उन्होंने अपनी पारिवारिक कब्रें भी दिखलाईं, जहाँ उनके बुजु़र्ग दबे हुए थे और उनकी जगहें सुरक्षित थीं।
एक बात जो उसने नोट की, वह यह कि यहाँ पबों की बहुत भरमार थी। वे दो पबों में बियर पी कर बारह बजे वाली सर्विस तक चर्च में आ पहुँचे। शौन कैथलिक क्रिश्चियन था और बहुत ही कट्टर। हर इतवार चर्च जाया करता था। बलदेव भूल ही गया था कि आज इतवार है। उसने एक पल के लिए सोचा कि आज तो गुरां भी फुर्सत में होगी।
चर्च के बाहर ‘आज का वाक्य’ लिखा हुआ था। शौन बता रहा था कि यह उनके परिवार का चर्च था। किसी बड़े बुज़ुर्ग ने बनवाया था। उनके पीछे ही बलदेव चर्च में घुसा। वह पहले भी शौन के साथ चर्च चले जाया करता था। वह इसमें विश्वास नहीं करता था पर साथ देने के लिए चला जाता। ऐसे ही, शौन भी उसके साथ गुरुद्वारे जा आता था। चर्च में स्कूलों के डैस्कों की भांति डैस्क लगे हुए थे, जिन पर आज की अरदास के कुछ पन्ने और अन्य किताबचे-से पड़े हुए थे। अरदास के कई पड़ाव थे।
बलदेव को अधिक जानकारी नहीं थी। वह बाकी लोगों को देखकर उन जैसा ही करता रहा।
चर्च में शौन के बहुत से परिचित मिल गए। वह किसी के पास रुकता नहीं था। हाथ मिलाकर वह आगे बढ़ जाता। उनमें से कुछ लोग बलदेव को भी आकर मिलते। मैथ्यू पब को जाने के लिए उतावला था। वह कह रहा था–
“ज़ोज़ी के यहाँ चलते हैं, वह सड़क पार करके उसका पब है।”
बलदेव सोच रहा था कि ज़ोज़ी का पब कोई खास जगह होगी जिसका जिक्र सुबह से मैथ्यू कई बार कर चुका था। यह नाम पहले शौन से भी सुन रखा था। जब लौटकर वे कार में बैठे तो उसने पूछा–
“यह ज़ोज़ी का पब तो तुम्हारा खास पब लगता है।”
“हाँ, तू भी देखेगा तो हैरान रह जाएगा। यह पब गवर्मेन्ट के किसी कानून के मुताबिक सहीं नहीं उतरता। न यहाँ टॉयलेट है, लोग बाहर ही खड़े हो जाते हैं, स्त्रियाँ ज़ोज़ी के फ्लैट में चली जाती हैं। न कोई हीटिंग है, न धुआं निकालने के लिए पंखा। पर फिर भी बेहद बिजी रहता है।”
शौन के बाद मैथ्यू ने कहा। वह आगे बताने लगा–
“बियर भी इसकी सस्ती होती है। बियर सस्ती होने का कारण तो वैसे यह है कि थरूरियों में जाकर यह बैठी हुई बियर ले आती है और ज्यादा गैस देकर बेची जाती है। रिजेक्टिड बियर तो मुफ्त के भाव ही मिल जाती है।”
“कोई माइंड नहीं करता।”
“माइंड ?... बल्कि खुश होकर पीते हैं। रात में तू भीड़ देखना एक बार।”
सड़क के किनारे एक पहाड़ी के ऊपर था यह पब। पब कैसा, छोटा-सा घर था। खाली क्रेटों या ड्रमों से पब कहा जा सकता था। बीसेक कारें खड़ी करने की जगह थी जहाँ चार खराब कारें पहले ही खड़ी थीं। अधिकतर कारें मेन रोड पर ही पार्क थीं। कारों की संख्या देखकर लगता था कि अंदर काफी लोग थे। एक गीली-सी दीवार की ओर इशारा करते हुए मैथ्यू बोला–
“यह है पब का टॉयलेट। बारिश हो या बर्फ़, लोग यहाँ आ खड़े होते हैं।” बताते हुए मैथ्यू हँसने लगा।
वे पब के अंदर गए। एक ही कमरा था। अंदर भीड़ थी। धुएं से सारा वातावरण भरा पड़ा था। वे लोगों की भीड़ में से जगह बनाते हुए काउंटर तक पहुँच गए। गिलास भरती लड़की से मैथ्यू ने कहा–
“ज़ोज़ी कहाँ है ?”
“ऊपर है।”
“जा, उसे कह कि गारडा आया है।”
कहकर उसने बलदेव की तरफ इशारा किया। गारडा से उसका मतलब था– सिपाही। उस लड़की ने ज़ोज़ी को आवाज़ लगाई। कुछ देर बाद मोटी-सी, टेढ़े घुटनों वाली औरत आ प्रगट हुई। मैथ्यू ने उससे कहा–
“ज़ोज़ी, तेरी कारगुजारी चैक करने के लिए गारडा आया है।”
“मैथ्यू, अगर तूने इसके आने के बारे में पहले मुझे न बताया होता तो मैं तेरी बात पर ध्यान भी देती।”
शौन ने उसे इशारा किया और एक तरफ बुला लिया। उसने ड्यूटी-फ्री वाली लाई हुई बोतलें बेचनी थीं। इसी तरह, पबों वाले इंग्लैंड से आने वालों की प्रतीक्षा करते रहते थे।
बलदेव को कमरे का धुआं चढ़ने लगा। उसने अपना चश्मा उतार कर साफ किया। मैथ्यू ने उससे पूछा–
“ऐलिसन का क्या हाल है?”
बलदेव को ठीक से समझ में नहीं आया। हालांकि संगीत नहीं चल रहा था, पर फिर भी काफी शोर था। बलदेव ने ‘सॉरी’ कहकर सवाल दोहराने के लिए कहा। वह सोचने लगा कि कौन है यह ऐलिसन ? वह तो किसी ऐलिसन को नहीं जानता था।
फिर उसे स्मरण हो आया कि शौन की बहन का नाम भी ऐलिसन था, जिससे शौन की कम ही बनती थी। शौन उससे नाराज था कि उसने कुंवारेपन में बच्चे पैदा कर लिए थे जो कि कैथोलिक धर्म के बहुत खिलाफ है। इसीलिए सभी ने ऐलिसन से सम्बन्ध तोड़ रखे थे।
सिगरेटों के धुएं से बलदेव को खांसी होने लगी तो वह बाहर निकल आया। अपना गिलास थामे मैथ्यू भी पीछे-पीछे ही आ गया। उसने बलदेव से फिर पूछा–
“ऐलिसन का क्या हाल है?”
“बहुत अच्छा। वह बिलकुल ठीक है।”
बलदेव ने शीघ्रता में कहा। मैथ्यू बोला–
“डेव, वह बहुत अच्छी लड़की है। तूने जो उससे विवाह करने का फैसला किया है, वह बहुत सही है।”



।। पाँच ।।

जुलाई का महीना है। गरमी बहुत पड़ रही है। इतनी भी नहीं कि रिकार्ड टूट जाए। सैंतीस डिग्री का रिकार्ड है लंदन की गरमी का। जुआरियों की कंपनी की ओर से इस साल की गरमी के रिकार्ड टूटने को लेकर शर्त लगाने के बारे में लोगों को उकसाया जा रहा है। तीन हफ्तों से पड़ रही गरमी से अब लोग ऊबने भी लग पड़े हैं। बारिश की दुआ कर रहे हैं। दुकानों और पबों वाले खुश है। आइसक्रीम, सोफ्टड्रिंक्स, बियर आदि की बिक्री अच्छी हो रही है। यद्यपि, टेक-अवे गर्म खाने इतने नहीं बिक रहे। गरमी का मौसम प्रदूषण को भी बढ़ाता है। यही कारण है कि ट्रैफिक के समय हाईबरी कॉर्नर के राउंड-अबाउट के इर्द-गिर्द माहौल दमघोंटू हो जाता है। इसी बात का ध्यान रखते हुए काउंसल ने कुछ नए दरख़्त लगाए हैं। पेड़ तो लगाए हैं पर राउंड-अबाउट के इर्द-गिर्द की प्रेड के लोगों को ये पसंद नहीं हैं, खासतौर पर दुकानदारों को। वे कई बार इन पेड़ों को उखाड़ फेंकने की बात भी करते हैं क्योंकि इससे दुकानें पूरी दिखाई नहीं देतीं। लेकिन पेड़ उखाड़ना ज़ुर्म है। जु़र्म करने के लिए कोई आसानी से तैयार नहीं है, इसलिए पेड़ फलने-फूलने लगे हैं।
हाईबरी के इस बड़े-से राउंड-अबाउट के चारों ओर दुकानें और दफ्तर हैं। हौलो-वे रोड से इसमें दाख़िल हों तो चैरिटी वालों का बड़ा दफ्तर है। साथ ही, पीज़ा और साथ ही, सिंह-वाइन्स। उसके साथ एक ‘फिश एंड चिप्स’ और फिर सरकंडों की छत से बना पब जिसका नाम ‘बैच्ड हाउस’ है। जिसकी मालकिन शीला मिंटगुमरी है। वह अपने ब्वाय-फ्रेंड पॉल राइडर के साथ मिलकर इसको चलाती है। फिर सेंट पौल्ज़ रोड है। इसे पार करके दुकानें हैं जैसे कि कारों के स्पेअर पार्ट्स की, इस्टेट एजेंट है, इंश्योंरेंस का दफ्तर आदि। फिर सिटी रोड पर आगे काउंसल के दफ्तर हैं। इसी तरह आगे अपर स्ट्रीट पार करके ‘मैकडॉनल्ड’ ‘कंटकी’ आदि। बहुत व्यस्त जगह है। बिजनेस के नज़रिये से बढि़या मानी जाने वाली। बड़ी सड़कों का जंक्सन भी है। हौलो-वे रोड जिसे ‘ऐ-वन’ भी कहते हैं, सीधी सिटी में जाती है। दूसरी ओर से सेंट पौल्ज़ रोड ईस्ट लंदन से आकर सीधी वेस्ट एंड पहुँचती है। इस पर यदि सीधे चलते जाओ तो दरिया थेम्ज़ आ जाता है।
करीब दस बजे ‘सिंह वाइन्स’ का शटर अंदर से खुला। सत्तर वर्षीय भारी देहवाला एक बुजु़र्ग बाहर आ खड़ा हुआ। वह सेंट पौल्ज रोड की ओर देखने लगा। सड़क के फुटपाथ पर कई आदमी चले आ रहे थे, पर टोनी दिखाई नहीं दे रहा था। उसने ऐनक ठीक की और आँखों पर हाथ की छ्त्तरी बनाकर फिर से देखने लगा। टोनी अभी भी नहीं दिखाई दिया। उस बुजु़र्ग ने घड़ी की तरफ देखा। दस बजने में पाँच मिनट शेष थे। वह मन ही मन बुदबुदाया, “यह लेजी पूरे टाइम पर ही आएगा। यह नहीं कि तू दो मिनट पहले ही आ जा। शटर उठा लेते हैं, लड़का भी माल लेकर आने वाला है,नहीं...यह तो पूरे टाइम पे ही पहुँचेगा।”
उसके शटर उठाते ही पब का गवना पॉल राइडर भी पब खोलने लग पड़ा। उसने हवा से घूमने वाला साइनबोर्ड खींचकर फुटपाथ पर रख दिया, जिस पर कैपिटल अक्षरों में लिखा था– ‘हॉट फूड सर्व्ड हियर।’ पॉल ने सोहन सिंह को देखकर दूर से ही हैलो की और ऊँचे स्वर में पूछा–
“हाऊ आर यू डैड ?”
“मी ओ.के. पाल, यू ओ.के. ?”
“यैस... नाइस डे अगेन।”
“वैरी ब्यूटीफुल!... मी ड्रिंक टुडे, जू बाई ?”
“आफ कोर्स ! कम आन हियर लेटर आन, आय बाई बियर फार यू।”
“मी जोकिंग पाल, मी ड्रिंक बरांडी, बियर वाटर, मीन नो वाटर।”
पॉल हँसता हुआ अंदर जा घुसा। सोहन सिंह ने वाहेगुरु कहते हुए दुकान खोल ली और साथ ही सिगरेट खरीदने के लिए एक ग्राहक ने अंदर प्रवेश किया। ग्राहक को सर्व करते हुए ही टोनी आ गया। सोहन सिंह ने उसे घड़ी दिखलाते हुए कहा–
“फैव मिनट लेट जू लेजी।”
“सॉरी डैड, बस गॉट लेट।”
“नो बस लेट, टू मच वोमैन लेट।”
“यैस डैड, मी यंग मैन, वोमैन वैरी गुड फार मी, यू ओल्ड मैन, नो गुड फार वोमैन।”
“मी ओल्ड...ओल्ड गोल्ड।”
कहते हुए सोहन सिंह हँसने लगा और टोनी भी। टोनी पैंतालीस साल का अफ्रीकन नस्ल का आदमी था जो कि कई सालों से दुकान में काम करता चला आ रहा था। वह अपने दुबले-पतले शरीर के कारण अभी जवान दिखाई देता था। बालों मे मणके-से डालकर रखता। वह दुकान से बाहर निकलते हुए बोला–
“नो साइन आफ ऐंडी !... मे बी ट्रैफिक।”
वह अभी कह ही रहा था कि अजमेर की वैन बाहर आकर खड़ी हो गई। राउंड-अबाउट की दुकानें होने के कारण गाड़ी खड़ी करने की बहुत समस्या थी। लगभग चार कारों की जगह उनकी दुकानों के आगे बनी हुई थी, पर वह हमेशा भरी रहती। यदि वैन खड़ी करने के लिए सही जगह न मिलती, तो जल्दबाजी में खाली करनी पड़ती। ट्रैफिक वार्डन का भय रहता। अजमेर को भी जगह न मिली। उसने डबल पार्किंग ही कर ली। टोनी ‘हैलो’ कहकर पिछला दरवाजा खोलने लगा और सामान का अंदाजा लगाने लगा कि कितना सामान है और पहले वह कौन-सा उतारे। उसने बियर के क्रेटों को हाथ लगाया और तीन क्रेट उठाकर अंदर ले गया। अजमेर ने वैन का साइड डोर खोलकर सामान उतारना शुरू कर दिया था। अभी थोड़ा-सा सामान ही उतरा होगा कि ट्रैफिक वार्डन आ गया। कहने लगा–
“मिस्टर सिंह, तू डबल पार्किंग नहीं कर सकता।”
“और क्या करूँ ? कहीं भी जगह नहीं है।”
“तू आठ बजे से पहले अनलोड किया कर या फिर जगह खाली होने का इंतजार कर।”
“ऐसा मैं नहीं कर सकता। भरी वैन को कहीं ओर कैसे खड़ी करूँ।”
“वैन मूव कर नहीं तो मैं टिकट दे दूंगा।”
अजमेर उसकी बात अनसुनी करके सामान उतारने लगा। ट्रैफिक वार्डन ने उसकी वैन का नंबर नोट करना शुरू कर दिया। अजमेर डर गया कि सचमुच ही टिकट न काट दे। उसने वैन स्टार्ट की और ले गया। चक्कर काटकर आया तो वार्डन जा चुका था। वे जल्दी-जल्दी वैन अनलोड करने लगे। टोनी कह रहा था–
“यह कुछ ज्यादा नस्लवादी है। दूसरे वार्डन जबकि मान जाते हैं।”
उन्होंने वैन खाली कर दी। अजमेर वैन को दुकानों के पिछवाड़े दुकानदारों के लिए सुरक्षित पार्किंग में खड़ी कर आया। वापस दुकान में आकर अजमेर सीधा पिछले स्टॉक रूम में गया। वहाँ लगे बड़े-से शीशे में खुद को देखा। वह थका-थका-सा लग रहा था। उसकी पगड़ी का सिरा पसीने से भीगा पड़ा था। वह ऊपर फ्लैट में जा चढ़ा। टोनी और सोहन सिंह सामान को सैल्फों में टिकाने लगे। सोहन सिंह प्राइसिंग गन से कीमत लगा देता और टोनी उसे सैल्फ में रख देता।
हफ्ते में दो दिन शापिंग की जाती थी। मंगलवार और वीरवार। पहले दिन से ही अजमेर ने यह सिस्टम बना रखा था। ये दो दिन टोनी दस बजे काम पर आता नहीं था तो वह तीन बजे शुरू करता। तीन से ग्यारह। आठ घंटे। आफ लायसेंस होने के कारा शाम की बिक्री अधिक थी। दिन में ग्राहक इक्का-दुक्का ही आता। दिन में तो सोहन सिंह भी ‘टिल्ल’ का काम चला लेता था। अजमेर की पत्नी गुरिंदर भी आ खड़ी होती थी।
सोहन सिंह की मुश्किल अंग्रेजी की ही थी, नहीं तो काम वह सभी कर लेता था। उम्र अधिक होने के कारण हाथों में भी फुर्ती नहीं रही थी। ग्राहक बढ़ जाने पर वह जल्दी-जल्दी सर्व नहीं कर पाता था। फिर काउंटर के पीछे लगी घंटी बजा देता जो कि ऊपर फ्लैट में बजती थी। घंटी सुनकर ऊपर से कोई न कोई आ जाता। गुरिंदर या अजमेर। सोहन सिंह का सारा दिन दुकान में शुगल-सा चलता रहता था। वह ऐसा बंदा था कि किसी बात को दिल पर नहीं लगाता था। उसने कभी भी घर की जिम्मेदारी नहीं संभाली थी। पहले उसका बड़ा भाई कामरेड परगट सिंह घर को देखता था और अब उसका यह बड़ा लड़का अजमेर का कर्ताधर्ता था। कामरेड परगट सिंह अपनी ओर से इलाके का माना हुआ व्यक्ति था, जिसका अजमेर पर बहुत प्रभाव था। अभी भी घर में उसे प्राय: याद किया जाता था। उसने ही अजमेर को इंग्लैंड भेजा था। उसके नाम पर अजमेर कई साल पार्टी को फंड भी देता रहा था।
अजमेर की दुकान सही स्थान पर थी। आर्सनल की फुटबाल ग्राउंड के बिलकुल नज़दीक। जहाँ हर वीक-एंड पर कोई न कोई मैच चलता ही रहता। वैसे भी हाईबरी कॉर्नर अड्डे की जगह थी। सारी रात लोग चलते-फिरते रहते। रिश्तेदारों और गांव के लोगों में उसकी अच्छी जान-पहचान बन गई थी। ऐसी जान-पहचान बनाकर रखना उसके स्वभाव में था। प्रशंसा का भूखा भी था वह। कई लोग उसकी तारीफें करके उसका इस्तेमाल भी कर लेते थे।
अजमेर की दुकान सामने से तो आम दुकानों जितनी ही चौड़ी थी, पर पीछे की ओर काफी लम्बी थी। जितनी दुकान थी, उतना ही पिछवाड़े में स्टॉक रूम था। बगल में एक कमरा और पीछे की ओर बाथरूम। पीछे एक छोटा-सा आंगन भी था। दुकान में प्रवेश करते ही दायीं ओर काउंटर था। मध्य में गंडोला था। तीनों दीवारों के साथ सैल्फें थीं। शीशे के फ्रंट को वह खाली रखता ताकि बाहर से देखने वाले को अंदर का व्यू पूरा दिखाई दे। बायीं तरफ वाली दीवार की सैल्फों में वाइन भरी हुई थी। बीच में गंडोले पर बियर और दायीं तरफ की सैल्फों में सोफ्ट ड्रिंक के डिब्बे और बोतलें थीं। व्हिस्की की छोटी-बड़ी बोतलें और सिगरेटें काउंटर के पीछे थीं। सैल्फों पर से सामान ग्राहक स्वयं उठा लेता और काउंटर के पीछे की वस्तु को मांग कर लेता था। दुकान की बड़ी सेल वाइन और बियर की ही थी। यद्यपि सामान उसने और भी कई किस्म का रखा हुआ था। जैसे कि चाकलेट, स्वीट्स, मुरमुरे-कुरकुरे आदि। आइसक्रीम का फ्रीज़र भी था। निरोध भी रखे हुए थे जो कि रात के समय बिक जाते थे।
दुकान के पीछे स्टॉक रूम था जहाँ से ला-ला कर सामान सैल्फों पर रखा जाता था। यहीं एक आदमकद शीशा भी लगा हुआ था। स्टॉक रूम में घुसनेवाला शीशे के सामने अवश्य खड़ा होता। सबकी आदत-सी बन गई थी। स्टॉक रूम के साथ ही एक और कमरा था, जहाँ सस्ता मिला सामान भरा पड़ा होता। दायीं ओर फ्लैट को जाता रास्ता था। दुकान के ऊपर और दो मंजि़लें थीं। एक मंजि़ल पर रसोई, एक सिटिंग रूम और एक बैडरूम था। तीन बैडरूम ऊपरली मंजि़ल पर थे। फ्लैट में जाने के लिए रास्ता दुकान में से होकर जाता था और रोड पर भी एक दरवाजा था। दुकान बंद होती तो वही दरवाजा प्रयोग में लाया जाता। शैरन और हरविंदर स्कूल से लौटते तो दुकान में से ही ऊपर फ्लैट में जाते थे, पर स्कूल वे साइड-डोर से ही जाते थे।
कभी-कभी गुरिंदर खिड़की में आ खड़ी होती और कितनी-कितनी देर वहाँ खड़ी होकर बाहर राउंड-अबाउट से गुजरती कारों को देखती रहती। अजमेर देखता तो पूछता–
“क्या देख रही है ?”
“लंदन।”
“लंदन यहाँ से क्या दिखेगा।”
“और तो तुम कहीं ले नहीं जाते, मैंने सोचा यहीं से देख लूँ।”
“मैं दुकान चलाऊँ कि तुझे लंदन घुमाऊँ?”
“मुझे न घुमाओ, कभी बच्चों को कहीं ले जाओ तो क्या हो जाएगा।”
“मेरे पास टाइम नहीं, जा तू ले जा।”
“मैंने लंदन का कुछ देखा हो तो इन्हें लेकर जाऊँ। मुझे तो इस दुकान का ही पता है। कभी नीचे, कभी रसोई में... निरी कै़द!”
(क्रमश: जारी…)


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