रविवार, 10 अक्तूबर 2010

गवाक्ष – अक्तूबर 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की उन्तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अक्तूबर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया) की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…
आस्ट्रेलिया से
डा. हरदीप कौर संधु की पाँच कविताएं

माँ मेरी ने चादर काढ़ी…

माँ मेरी ने
इक चादर काढ़ी
उस पर डालीं
फूल-पत्तियाँ
पलंग पर
जब बिछाऊँ चादर
माँ तुझको
तकती हैं अँखियाँ

फूल हैं चादर के
तेरा चेहरा माँ री
पत्तियाँ लगें तेरे पपोटे
बड़ी रीझ से चादर काढ़ी
दी बेटी को प्यार पिरोके

जब भी उठती हूक कलेजे
झट चादर पर जा बैठती
निहार-निहार कर फूल-पत्तियाँ
संग तेरे दो बातें कर लेती
खोल कर तुम भी बाहें अपनी
मुझे बुक्कल में हो भर लेती।

नन्हीं नन्हीं सी बातें

बचपन में
नन्हों की
नन्हीं नन्हीं सी बातें
टोकरी ले
छोटी सी छड़ी से
थोड़ा टेड़ा करते
छड़ी को
एक लम्बी रस्सी बाँधते
टोकरी के नीचे
रोटी का चूरा
मुट्ठी भर दाने
थोड़ा -सा पानी रखते
‌फिर किसी कोने में
चुपके से जा छुपते
शोर मत करना
साथियों को कहते
पक्षी उड़ते -उड़ते
देख कर रोटी
दाना..... पानी
बिन टोकरी देखे
जैसे ही करीब आते
अपनी समझ में
हम फुर्ती दिखाते
धीरे से...
रस्सी खींचते
टोकरी गिरते ही
पक्षी उड़ते....
चिड़िया फुर्र....र..र
कबूतर फुर्र....र..र
पक्षी फु्र्र कर जाते
हाथ मलते हम रह जाते
बिन साहस हारे
दोस्तों के सहारे
फिर टोकरी रखते
कभी- न- कभी
कोई- न- कोई
कबूतर - चिड़िया
पकड़ी जाती
पंखों को कर
हरा गुलाबी
छोड़ देते
खुले आकाश में
लगा कर अपने-अपने
नाम की परची
ये मेरी चिड़िया.....
वो तेरा कबूतर....



रब न मिला

पूजा के उपरान्त
अगरबत्ती की राख ही
हाथ आई थी मेरे

बहुत ढूँढा....बहुत ही ढूँढा
रब न मिला मुझे
एक दिन मन में
रब को मिलने की ठानी

खाना न मैं खाऊँगी
मैं भूखी ही मर जाऊँगी
जब तक रब को न पाऊँगी

तभी एक भिखारी ने
मेरे द्वार आ दस्तक दी
भूखा था वो शायद
माँग रहा था वो खाना
मैने कहा अभी नहीं
मैं तो रब को खोज रही हूँ
थोड़ी देर बाद तुम आना

फिर एक कुतिया ने
मेरे सामने आ ‘चऊँ –चऊँ’ करने लगी
भूखी होगी वो भी शायद
पर मैने उसे भी फटकारा

थोड़ी देर बाद...
एक बूढ़ी अम्मा आकर बोली
बेटी रास्ता भूल गई हूँ
और सुबह से भूखी भी हूँ
क्या थोड़ा खाने को दोगी
मैने कहा .....
जा.. री.. जा...
जा... री... अम्मा
रास्ता नाप तू अपना
मैं तो कर रही हूँ

इन्तज़ार अपने रब का

तभी आसमान में
गूँजी एक आवाज़
किस रब का
है तुझे इन्तज़ार
मैं तो आया
तीन बार तेरे द्वार
पर तूने मुझे
ठुकराया बार-बार
अगर रब को है तुमने पाना
छोड़ दे तू इधर-उधर भटकना

मैं तो हर कण में हूँ
और रहता तेरे पास ही हूँ
ज़रा अपने मन की
खोल तू आँखें
पाओगी मुझे
हर प्राणी में



आटे की चिड़िया

मुन्नी जब रोए
आटे की चिड़िया से
माँ पुचकारे
चिड़िया जब मिली
मुन्नी के चेहरे पर
मुस्कान खिली
आँखें हैं भरी
अभी भी लबा-लब
हँसी भी छूटी
कोमल लबों पर
पकड़ कर चिड़िया
बोली नन्ही गुड़िया-
'' माँ...ओ...माँ...
ये तैसी है...
चिरिया छोती सी
न उदती है...
न करती चीं-चीं...

खाकर नोती
और.....दाने
पीकर दुधू
और....पानी
बदी हो जाएगी
चिरिया नानी
बदी होतर
फुर्र...र हो जाएगी
फिर तिसी के
हाथ न आएगी
जब मैं बुलाऊँ
उदती आएदी

मीथे-मीथे...
गीत सुनाएगी
चीं-चीं कर....
मुझे जगाएगी
दादी की कहानी वाली
चिरिया बन जाएगी!!''

दस हाइकु

माँ और बेटी
दु:ख सुख टटोलें
टैलीफोन से ।
अँधेरी रात
देती सदा पहरा
बापू की खाँसी ।
कर्म से सजे
सबसे सुन्दर हैं
सर्जक हाथ
रक्षा का धागा
बहन ने भाई की
कलाई बाँधा।
कच्चा ये धागा
भाई-बहन बीच
प्रेम प्रतीक
ऊँचे मकान
रेशम के हैं पर्दे

उदास लोग
दादी का ख़त
कैसे वो पढ़ पाए
हिन्दी न आए
चाटी की लस्सी
गाँव जाकर माँगी
अम्मा हँसती

गए बटोही
वे देश अनजान
छोड़ निशान
प्रवासी ढूँढ़े घर
धीरे धीरे जड़ जमाए
रोपा गया जो पौधा

डा. हरदीप कौर संधु
जन्म: बरनाल़ा (पंजाब)
सम्प्रति निवास: सिडनी (आस्ट्रेलिया)
शिक्षा: बी.एससी., एम.एससी(बनस्पति विज्ञान), एम. फिल(प्लांट इकोलोजी), पी.एच-डी. (बनस्पति विज्ञान)
कार्य: अध्यापन
ई मेल :hindihaiku@gmail.com
हिंदी ब्लॉग : http://hindihaiku.wordpress.com/
पंजाबी ब्लॉग : http://punjabivehda.wordpress.com/

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 30)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पैंतीस ॥
बलदेव काम पर से बाहर निकला तो पानी बरस रहा था। बारिश के कारण ठंड भी बहुत थी। उसने सिर पर कैप लगा ली ताकि ऐनक बारिश से बची रहे। बड़ी जैकेट के कॉलर खड़े किए और थेम्ज़ के किनारे की तरफ चल पड़ा। थेम्ज़ के साथ-साथ चलता वह सोचने लगा कि यह दरिया इस समय चढ़ रहा था या उतर रहा था। एक तो वैसे ही अँधेरा अच्छी तरह उतर चुका था, फिर बारिश इर्द-गिर्द की रोशनियों को रोक रही थी। दरिया की गति का कुछ पता न चल सका। हल्की-सी लहरें चमकतीं और एक-दूसरी में समा जातीं। दरिया किनारे इस वक्त कोई भी नहीं था। कारें गुजर रही थीं जो कि थोड़ा हटकर थीं। और वह अपने आप को बहुत अकेला पा रहा था।
मैरी ने टैड और मिच्च के आने की ख़बर सुनाई तो वह उसी वक्त अगले पड़ाव के लिए तैयार होने लगा था। सारा दिन काम पर इन्हीं सोचों में गुम हुआ घूमता रहा था। मैरी का इसमें कोई कसूर नहीं था। वह तो आयरलैंड से लौटते ही उसे इशारे करने लग पड़ी थी। जैसे वह कई बार स्थिति को स्पष्ट करने से झिझकता था, इसी तरह मैरी ने किया। जो कुछ भी हुआ, पर एक बार फिर वह हार गया था। इस हार को लेकर वह कहाँ जाए। गुरां के पास तो वह जाएगा ही नहीं। गैरथ का फ्लैट उसे पसन्द नहीं था, बदबू जो मारता था। शौन भी यहाँ नहीं था। शौन ने तो पलटकर फोन तक नहीं किया था कि कहाँ था वह और किस हालत में था।
बारिश कुछ तेज हो गई। उसने वैस्ट मनिस्टर ब्रिज पार कर लिया और अंडर ग्राउंड स्टेशन में जा घुसा। यहाँ गरमाहट थी। जैकेट उतार कर पानी झाड़ा। कैप को भी उतार कर फटका। ऐनक साफ की और एस्कालेटर से नीचे उतर गया। ट्यूब पकड़कर वह टफनल पॉर्क आ गया। उसने डार्टमाउथ हाउस की तरफ चलना आरंभ कर दिया। बरसात थम चुकी थी। एस्टेट के अन्दर आकर उसने मैरी के फ्लैट की ओर देखा। बत्तियाँ जल रही थीं। टैड और मिच्च आ गए होंगे। वह शीघ्रता से अपनी कार में बैठ गया। यह शुक्र था कि किसी ने उसे देखा नहीं था। कार स्टार्ट करके वह मेन रोड पर आ गया। अब स्टेयरिंग किसी तरफ नहीं घूम रहा था। गर्मी के दिन होते तो वह पहले की भांति कार पॉर्क में जाकर सो जाता। उसे ख़याल आया कि कोई बैड एंड ब्रेकफास्ट ही खोजा जाना चाहिए। वह कैमडन रोड पर आ गया। यहाँ कुछ बैड और ब्रेकफास्ट थे। कई लोगों ने विक्टोरियन हाउसिज़ को तब्दील करके होटल बना लिए थे। कैमडन रोड के घर कुछ-कुछ क्लैपहम हाई रोड के घरों से मिलते जुलते थे। यहाँ एलीसन रहती थी। फिर उसने सोचा, क्यों न वह एलीसन को फोन करे। शौन के विषय में ही पूछे। उसने एक टेलीफोन बूथ के आगे कार रोकी। पहले कुछ 'बैड एंड ब्रेकफास्ट' को फोन करके उनसे रात के लिए कमरे का किराया पूछा और हफ्तेभर के किराये के बारे में भी पूछताछ की। सभी मंहगे थे। फिर उसने एलीसन को फोन घुमा दिया।
''एलीसन, मैं डेव, शौन का दोस्त।''
''हाँ, शौन का फोन आया था, तेरे बारे में पूछता था।''
''कहाँ है वो ?''
''अमेरिका में ही है अभी वह। न्यूजीलैंड जाने की तैयारी में है।''
''मैं शौन के बारे में सोच रहा था कि तेरा ख़याल आ गया।''
''मैं तो तेरे फोन का बहुत दिनों से इंतज़ार कर रही थी। अगर मेरे पास तेरा नंबर होता तो मैं कर लेती। एक तो तेरी डाक आई पड़ी है, दूसरा यदि तेरा रहने का इंतज़ाम अभी नहीं हुआ हो तो तू यहाँ अस्थायी तौर पर रह सकता है।''
''डाक लेने कब आऊँ ?''
''आज ही आ जा।''
''तेरे लिए अब लेट तो नहीं ?''
''नहीं, लेट कैसा... तेरी मर्जी है।''
फोन रखकर वह सोचने लग पड़ा कि नया दरवाजा खुलता प्रतीत हो रहा है। उसकी कार एलीसन के घर की तरफ दौड़ती रही और वह सोचता रहा कि वह एलीसन के यहाँ ही रुक जाए या कोई दूसरा प्रबंध करे। एलीसन के द्वार तक पहुँचते-पहुँचते वह पूरी तरह तय नहीं कर सका था कि उसे क्या करना चाहिए। उसने बेल बजाई। फेह ने दरवाजा खोला और पूछने लगी-
''तुम डेव हो ?''
''हाँ, तुम्हें कैसे पता ?''
''उस दिन शौन अंकल के साथ आए थे तो मम्मी भी तेरे बारे में बातें करती थी।”
तभी, रसोई में से एलीसन भी आ गई और टेलीविजन के सामने से उठकर नील भी। एलीसन बोली-
''तू तो बहुत ही थका थका-सा लगता है। ठीक तो है ?''
''हाँ, मैं ठीक हूँ। तू कैसी है ?''
''मैं भी ठीक हूँ। आ बैठ जा। मैं कैटल ऑन करती हूँ।''
कुछ ही मिनट में वह चाय बना लाई। कप उसके हाथ में थमाते हुए बोली-
''संग कुछ खाएगा ?''
''नहीं।''
''डिनर करेगा ?''
''तुमने खा लिया ?''
''बच्चे तो खा चुके हैं। तू बता, खाना है तो चिप्स और पाई हैं।''
''हाँ, खा लूँगा।''
बलदेव चाय की चुस्कियाँ लेने लगा। एलीसन ने पुन: पूछा-
''डेव, तू ठीक तो है ?''
बलदेव अपने हाथों की ओर देखता हुआ कहने लगा-
''हाँ, मैं ठीक हूँ। यह मौसम खराब है।''
''रहने की समस्या है तो एक कमरा खाली ही है।''
''एलीसन, मैं यहाँ सैटी पर ही काम चला लूँगा।''
''नहीं, तू ऊपर आराम से सोना। मैं तो पहले से ही बच्चों के कमरे में ही सोती हूँ।'' कहती हुई वह उठ कर ऊपर चली गई। कुछ देर बार लौटकर आई और बोली-
''तेरा कमरा तैयार है, तू जब चाहे जाकर सो सकता है।''
''और शौन क्या बात करता था फोन पर ?''
''कुछ खास नहीं, तेरे भाई के घर उसने फोन करके तेरे बारे में पूछा था। तेरी बहुत फिक्र करता था।''
''दोस्त जो हुआ, हम बहुत समय से इकट्ठे हैं।''
''डेव, देख उसकी बदकिस्मती... कैसी पत्नी मिली। कैरन तेरे मुल्क की ही है न ?''
''नहीं, मॉरीशस की है। हाँ, मेरे रंग की ज़रूर है।''
''एक ही बात है... शौन बताता था कि वहाँ भी सब इंडियन ही हैं।''
''हाँ।''
''डेव, असल में मैं कैरन की समस्या को थोड़ा-थोड़ा समझती हूँ, उसे शौन पर बहुत आशाएँ थीं।''
''हाँ, शौन ने भी उसके लिए बहुत कुछ किया है, उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश की है।''
''डेव, मुझे लगता है, कैरन को इस विवाह से जो वह चाहती थी, उसे मिला नहीं।''
''एलीसन, यह भी हो सकता है पर दोनों के स्वभाव की समस्याएँ भी हैं।''
''जो भी हो, पर देख शौन की तकदीर, कहाँ-कहाँ भटकता घूम रहा है इस वक्त, अपना घरबार छोड़कर। उसकी बेटी की बेकद्री हो रही है।''
कहते हुए एलीसन ने आँखें भर लीं। वह शौन की चिंता करती जा रही थी या फिर पैटर्शिया की। कैरन से उसकी अधिक हमदर्दी नहीं थी। एलीसन पूछने लगी-
''तू कैरन से कभी मिला है ?''
''नहीं।''
''डेव, मैं कैरन से मिली थी। शौन कहता था कि सब कुछ देखकर आऊँ। फॉदर जॉअ उसकी मदद कर रहा है। शौन में ही सब लोग दोष निकाल रहे हैं। वह अपनी जिम्मेदारी से भाग गया, यह सच्चे क्रिश्चियन को शोभा नहीं देता। मैं तो यही प्रार्थना करती हूँ कि वह अपने घर लौट आए।''
कहकर वह उठी और बच्चों को सोने की हिदायतें देनी लगी। तीन चार बोतलें लाकर बलदेव के सामने रखते हुए कहने लगी-
''ये सब शौन की पड़ी हैं, मैं तो पीती नहीं, तूने जो पीनी है, पी ले।''
''मैं नहीं पीता, कोई साथ अगर दे तो कभी कुछ ले लेता हूँ।''
''तेरा साथ ज़रूर दूँगी पर बहुत छोटी ड्रिंक के साथ।''
गिलासों में वोदका उंडेलता बलदेव एलीसन के बारे में सोचने लगा। मैरी से काफ़ी भिन्न थी वह। शरीर उससे अधिक गुदगुदा था। पीछा भी मैरी जितना तराशा हुआ नहीं था। घुंघराले भूरे बालों को कर्ल डाले हुए थे। एक लट रह-रह कर उसके चेहरे पर गिर रही थी जिसे वह झटक देती। बलदेव उसकी तरफ चोर निगाहों से देखता तो उसे अपनी ओर गौर से देखता हुआ पाता। बलदेव के मन में बेचैनी-सी होने लगती। मैरी का चेहरा उसके मन में से गायब हो रहा था। उसकी जगह एलीसन की सूरत उभरने लगी। वह हैरान था कि यह तो स्विच ऑन-ऑफ़ करने भर की ही देर लगी थी। शायद, यह नशे का सुरूर भी हो। जो भी था उसे अच्छा लग रहा था। उसने एलीसन से कहा-
''मैं नहीं जानता था कि शौन की बहन इतनी खूबसूरत है।''
''तू तब आया तो था।''
''पर मैं तेरी तरफ ध्यान से देख नहीं सका था।''
एलीसन कुछ शरमाकर कहने लगी-
''शौन, मेरा भाई मुझ पर बहुत हुक्म चलाता है। जिस दिन तुम दोनों आकर लौट गए थे, उस दिन गुस्से से भरा फोन आया कि मैं तेरे लिए इतना सुन्दर मर्द खोजकर लाया और तूने उसे ठीक से बुलाया भी नहीं। अब फोन पर भी यही झगड़ा करता था कि मुझे तेरे से अच्छा मर्द नहीं मिल सकता।''
''तू क्या कहती है फिर ?''
''ठीक है, देखने में तो ठीक है, दिल को लुभाता है पर इतनी जल्दी मैं क्या कह सकती हूँ।''
बलदेव के वह एकदम सामने बैठी थी। बलदेव ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया। उसने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। बलदेव ने उसे खींच कर अपने संग बिठा लिया और कहा-
''एलीसन, अब बता मेरे बारे में और क्या सोचती है ?''
''अभी मेरा कोई तर्जुबा नहीं, कल बताऊँगी।''
(जारी…)
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