बुधवार, 3 नवंबर 2010

गवाक्ष – नवंबर 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू।एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के नवंबर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया) की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की इकत्तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

आस्ट्रेलिया(सिडनी) से
डा. भावना कुँअर की कविताएँ

॥एक॥
दीये की व्यथा
(दीपावली पर विशेष)

शाम के वक्त
घर लौटते हुए
चौंका दिया मुझे एक
दर्द भरी आवाज़ ने
मैं नहीं रोक पाई स्वयं को
उसके करीब जाने से
पास जाकर देखा तो
बड़ी दयनीय अवस्था में
पड़ा हुआ था एक "मिट्टी का दीया"
मैंने उसको उठाकर
अपनी हथेली पर रखा
और प्यार से सहलाकार पूछा
उसकी कराहट का मर्म?
उसकी इस अवस्था का जिम्मेदार?
वह सिसक पड़ा
और टूटती साँसों को जोड़ता हुआ -सा
बहुत छटपटाहट से बोला-
मैं भी होता था बहुत खुश
जब किसी मन्दिर में जलता था
मैं भी होता था खुश जब
दीपावली से पहले लोग मुझे ले जाते थे अपने घर
और पानी से नहला-धुलाकर
बड़े प्यार से कपड़े से पौंछकर
सजाते थे मुझे तेल और बाती से
और फिर मैं
देता था भरपूर रोशनी उनको
झूमता था अपनी लौ के साथ
करता था बातें अँधियारों से
जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी को
एक साथ लाकर
कारीगर देता था एक पहचान हमें
"दीये की शक्ल"
और हम सब मिलजुलकर
फैलाते थे एक सुनहरा प्रकाश
पर अब
हमारी जगह ले ली है
सोने, चाँदी और मोम के दीयों ने
अब तो दीपावली पर भी लोग दीये नहीं
लगातें हैं रंग बिरंगी लड़ियाँ
और मिटा डाला हमारा अस्तित्व
एक ही पल में
तो फिर अब भी क्यों रखा है
नाम "दीपावली" यानी
दीयों की कतार?
आज फेंक दिया हमें
इन झाड़ियों में
तुम आगे बढ़ोगी
तो मिलेंगे तुम्हें मेरे संगी साथी
इसी अवस्था में
अपनी व्यथा सुनाने को
पर तुमसे पहले नहीं जाना किसी ने भी
हमारा दर्द, हमारी तड़प
आज वही भुला बैठे हैं हमें
जिन्हें स्वयं जलकर
दी थी रोशनी हमने
0

॥दो॥
आँखें जाने क्यों

आँखें जाने क्यों
भूल गई पलकों को झपकना...
क्यों पसंद आने लगा इनको
आँखों में जीते-जागते
सपनों के साथ खिलवाड़ करना …
क्यों नहीं हो जाती बंद
सदा के लिए
ताकि ना पड़े इन्हें किसी
असम्भव को रोकना ।
॥तीन॥
स्याह धब्बे ...

आँखों के नीचे
दो काले स्याह धब्बे ...

आकर ठहर गए

और नाम ही नहीं लेते जाने का...
न जाने क्यों उनको
पसंद आया ये अकेलापन।
0

॥चार॥
दस हाइकु

1-भटका मन
गुलमोहर वन
बन हिरन।

2-नन्ही चिरैया
गुलमोहर पर
फुदकी फिरे।

3-जुगनुओं से
गुलमोहर वृक्ष
हैं झिलमिल।

4-था पल्लवित
मन मेरा -देखा जो
गुलमोहर।

5-मखमली सा
शृंगार किये,खिले
गुलाबी फूल।

6-झूम ‍ गाते हैं
खेत खलिहान भी
आया बंसत।

7-नटखट -सी
चंचला,लुभावनी
ऋतु बसन्त ।

8-दुल्हन बनी
पृथ्वी रानी,पहने
फूलों के हार।

9-खेत है वधू
सरसों हैं गहने
स्वर्ण के जैसे ।

10-रंग बिरंगी
तितलियों का दल
झूमता फिरे ।

00
डॉ० भावना कुँअर
शिक्षा - हिन्दी व संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि, बी० एड०, पी-एच०डी० (हिन्दी)
शोध-विषय - ' साठोत्तरी हिन्दी गज़लों में विद्रोह के स्वर व उसके विविध आयाम'।
विशेष - टेक्सटाइल डिजाइनिंग, फैशन डिजाइनिंग एवं अन्य विषयों में डिप्लोमा।
प्रकाशित पुस्तकें - 1. तारों की चूनर ( हाइकु संग्रह)
2. साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर
प्रकाशन - स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, गीत, हाइकु, बालगीत, लेख, समीक्षा, आदि का अनवरत प्रकाशन। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अंतर्जाल पत्रिकाओं में रचनाओं एवं लेखों का नियमित प्रकाशन, अपने ब्लॉग http://dilkedarmiyan.blogspot.com पर अपनी नवीन-रचनाओं का नियमित प्रकाशन तथा http://drbhawna.blogspot.com/ पर कला का प्रकाशन अन्य योगदान
स्वनिर्मित जालघर - http://drkunwarbechain.blogspot.com/
http://leelavatibansal.blogspot.com/
सिडनी से प्रकाशित "हिन्दी गौरव" पत्रिका की सम्पादन समिति में
संप्रति - सिडनी यूनिवर्सिटी में अध्यापन
अभिरुचि- साहित्य लेखन, अध्ययन,चित्रकला एवं देश-विदेश की यात्रा
करना।
सम्पर्क - bhawnak2002@yahoo.co.in

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 31)



सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(चित्र : अर्पणा कौर)

॥ छत्तीस ॥
तड़के आँख खुलते ही बलदेव को अहसास हो गया था कि एलीसन उसके संग ही लेटी थी। मैरी के शरीर से एलीसन की भिन्नता कुछ पल के लिए महसूस हुई, फिर उसे लगा जैसे बस वह इसी जिस्म को ही जानता हो। उसने एलीसन के चेहरे पर से बाल एक तरफ किए। एलीसन बहुत सुन्दर दिख रही थी। शौन की बात सच थी कि उसकी बहन सूरत और सीरत दोनों पक्ष से खूबसूरत थी। उसने एलीसन को जगाया। वह मानो गहरे आनन्द में हो। फिर वह बातें करने लगी। वैलज़ी की, माँ, भाई और बहन की। बलदेव सबको जानता ही था। एलीसन अपने गाँव के बारे में बहुत कुछ तो भूल ही चुकी थी। सालों के साल गुजर गए थे उसे गाँव से आए हुए। वह बलदेव को वहाँ के बारे में सवाल पर सवाल पूछती जा रही थी। फिर वह अपने बचपन के विषय में बताने लगी। घर से भागने की कहानी उसने अपने हिसाब से सुनाई। वह सारा दोष अपनी माँ या शौन पर मढ़ रही थी। उसे अपना गाँव, अपना घर और आसपास का वातावरण बहुत याद आते थे। फॉर्म वाला केस जो वे हारे थे, उसका एलीसन को भी बहुत दुख था।
अचानक दरवाजा खुला। फेह और नील अन्दर आ घुसे। बलदेव ने पूछा-
''तूने दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं किया था ?''
''नहीं, बच्चों के कारण। ये कभी भी जाग जाते हैं, बाथरूम जाना होता है या कई बार सपना आने पर उठ खड़े होते हैं।''
एलीसन ने बच्चों की तरफ देखा और फिर बलदेव की ओर और हँसने लगी। उसकी हँसी में ताज़गी थी मानो पहली बार हँसी हो। उसके बोलने के लहज़े में लंदन का स्पर्श था। नील पूछने लगा-
''डेव, तू और मम सैक्स करते थे ?''
बलदेव एकदम शर्मिन्दा हो गया। एलीसन ने हँसते हुए मुँह कम्बल के अन्दर दे लिया। फेह चुप खड़ी मुस्कराए जा रही थी। बलदेव को फेह की आँखों में से अनैबल और शूगर झांकती प्रतीत हुईं। उसका मन उतावला पड़ने लगा। उसने फेह और नील से कहा-
''चलो, तुम टेली देखो, तुम्हारी मम्मी अभी आती है।''
बच्चे चले गए। बलदेव उठकर कपडे पहनने लगा।
एलीसन बोली-
''अभी तो बहुत समय पड़ा है, पड़ा रहता।''
''एलीसन, मुझे ज़रा जल्दी जाना है।''
''ठीक है, चल मैं चाय बना देती हूँ।'' कहती हुई वह भी उठ खड़ी हुई।
चाय खत्म करके बलदेव उठकर चल पड़ा। एलीसन ने रोक कर घर की एक चाबी देते हुए कहा-
''डेव, फिक्र करना छोड़ दे, यहाँ मजे से रह, जब तक दिल करे, तनाव मुक्त हो।''
''एलीसन, मैं तनाव मुक्त ही ज्यादा रहता हूँ, बल्कि मेरी यही समस्या है कि मैं किसी बात को गंभीरता से नहीं लेता।''
''फिर, अब किधर भाग चला है ?''
''मुझे कोई बात याद आ गई।''
''शाम को आएगा ?''
''हाँ, एलीसन अब कुछ दिन तेरे पास रहूँगा।''
''कुछ दिन ही ?''
जवाब में बलदेव हँसा और बाहर निकल गया। कार में बैठते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा। फेह और नील उसे हाथ हिला रहे थे। उससे उनकी तरफ देखा नही गया। पता नहीं कितनी बार अनैबल और शूगर ऐसे ही सिमरन के कमरे में जाती होंगी। उसने तो कभी अपनी बेटियाँ देखने तक की कोशिश नहीं की थी। अब तक तो उन्हें याद भी नहीं रहा होगा कि उनका वह डैडी भी था कि नहीं। शायद किसी अन्य को डैडी कहने लग पड़ी हों। फिर वह अपने दिल को तसल्ली देने लगा कि सिमरन ऐसी नहीं थी। उसने घड़ी देखी। अभी सात ही बजे थे। उसका दफ्तर तो नौ बजे खुलना था। उसके मन में आया कि क्यों न एक नज़र दोनों लड़कियों को देख ही आए। फिर उसी वक्त उसे ख़याल आया कि वह इतना कमज़ोर नहीं। उसे अपनी मजबूती संभालकर रखनी चाहिए।
क्लैपहम के साथ ही वाटरलू था। मुश्किल से पन्द्रह मिनट की ड्राइव पर। ट्रफिक भी नहीं था। वह दफ्तर के आगे पहुँच गया। वहाँ कुछ भी नहीं था। अभी बहुत समय था। उसके मन में विचार आया कि क्यों न सिमरन से मिलकर बेटियों से मिलने के विषय में सोचे। यदि उनसे मिलेगा तो जान-पहचान बनी रहेगी। सिमरन से मिलने में कोई नुकसान नहीं था। उससे तो अब उसका कोई वास्ता नहीं था। कोई तेर-मेर नहीं रही थी। वह जो चाहे करती घूमे और बलदेव जहाँ चाहे जाता रहे। उसने कार आगे बढ़ाई और वॉलफोर्ड की ओर चल दिया। टॉवर ब्रिज पार करके सिटी एअरपोर्ट के साइन पकड़े। ब्लैकवैल टनल दायीं ओर रह गया। अब ट्रैफिक कुछ बढ़ना शुरू हो गया था।
सिमरन का स्वभाव था- सीधी बात करने का, बगैर किसी फ़रेब के। ली हारवे के संग संबंधों के विषय में भी वह संक्षिप्त-सा उत्तर देकर पीछा छुड़ाने लगती थी। शायद बात वैसी हो ही न जैसा कि बलदेव सोचे बैठा था। वह अब अपने काम पर भी देखा ही करता था कि स्त्रियाँ दूसरे पुरुषों के साथ कितनी छूट ले लिया करती थीं जब कि उनका कोई खास मतलब नहीं होता था। यदि किसी के संग टेबल अथवा ड्यूटी की निकटता हो, फिर तो अधिकांश समय इकट्ठे ही बीतता है। वह स्वयं भी पैम के साथ कितनी-कितनी देर बैठा बातें करता रहता था। लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं निकलता था। ऐसी बातें सोचते हुए उसका दिल ज़ोर से धड़कने लग पड़ा। उसने घड़ी देखी। साढ़े आठ बजे थे। वह अंदाजा लगा रहा था कि सिमरन घर से निकल चुकी होगी। उसने अख़बार खरीदी और कार में बैठकर पढ़ते हुए सिमरन की प्रतीक्षा करने लगा। अख़बार में उसका ध्यान नहीं था। वह रह-रहकर बैंक के कार पॉर्क की तरफ़ देखता कि सिमरन अभी आई कि आई। एक बार कार पॉर्क का चक्कर भी लगा आया और फिर स्वयं ही अपने उतावलेपन पर हँसने लगा। उसने सोचा कि शायद सिमरन ने कार बदल ली हो। सिमरन को कारों से बेहद प्यार था। बलदेव के जन्म दिन पर उसने उसे यह वाली कार लेकर दी थी। याद आते ही बलदेव ने स्टेयरिंग पर हौले-हौले हाथ फेरना शुरू कर दिया।
वह इंतज़ार करता रहा। सिमरन कहीं भी आती हुई दिखाई न दी। शायद वह मिस कर गया हो। बहुत मुश्किल से साढ़े नौ बजे। बैंक खुला। ग्राहकों की लम्बी कतार थी। काउंटर के पीछे सिमरन उपस्थित नहीं थी। उसने इन्कुआरी पर जाकर घंटी बजाई। एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आया जिसके बैज पर लिखा हुआ था- याकूब सुमरो। बलदेव ने पूछा-
''कैन आई सी मिस बैन्ज़ ?''
''हैलो जी, आप मि. बैंस हैं ?''
याकूब सुमरो ने पंजाबी में बात की। बलदेव बोला-
''हाँ, आप सिमरन को बुला सकते हैं ?''
''आओ जी, बताओ क्या पियोगे ? चाय या ठंडा ?''
''शुक्रिया, अगर आप उसे बुला दें तो...''
''वो तो जी छुट्टियों पर गई हुई है, कनेरी आयलैंड, ली हारवे के साथ।''
बलदेव पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह संभलता हुआ बोला-
''कब वापस आ रही है, कुछ पता ?''
''एक मिनट जी, पूछ कर बताता हूँ।''
उसने वहीं खड़े होकर काउंटर पर बैठी गोरी से पूछा-
''बारबरा, सिम और ली छुट्टियों से कब वापस आ रहे हैं ?''
''अगले सोमवार।''
बारबरा ने याकूब की तरफ तिरछा-सा देखते हुए कहा।
याकूब व्यंग्य में मुस्कराते हुए बलदेव से बोला-
''जी नेक्सट मंडे, क्या हाल है आपका ? आप कभी आया करो टाइम निकाल कर।''
(जारी…)

लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,साउथाल, साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड, दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)