शनिवार, 8 मार्च 2008

गवाक्ष- मार्च 2008


“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले दो अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं तथा लंदन में रह रहे पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली किस्त आपने पढ़ी। “गवाक्ष” के इस अंक में प्रस्तुत हैं – न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की दूसरी किस्त का हिंदी अनुवाद…

पाँच ग़ज़लें
देवी नागरानी(न्यू जर्सी, यू.एस.ए.)

(1)


डर उसे फिर न रात का होगा
जब ज़मीर उसका जागता होगा

क़द्र वो जानता है खुशियों की
ग़म से रखता जो वास्ता होगा

बात दिल की निगाह कह देगी
चुप जु़बाँ गर रहे तो क्या होगा

क्या बताएगा स्वाद सुख का वो
ग़म का जिसको न ज़ायका होगा

सुलह कैसे करें अँधेरों से
रौशनी से भी सामना होगा

मिलना जुलना है ‘देवी’ दरया से
पर किनारों में फ़ासला होगा


(2)


झूठ सच के बयान में रक्खा
बिक गया जो दुकान में रक्खा

क्या निभाएगा प्यार वह जिसने
ख़ुदपरस्ती को ध्यान में रक्खा

ढूँढ़ते थे वजूद को अपने
भूले हम, किस मकान में रक्खा

जिसने भी मस्लहत से काम लिया
उसने ख़ुद को अमान में रक्खा

जो भी जैसा है ठीक ही तो है
कुछ नहीं झूठी शान में रक्खा

ज़िंदगी तो है बे–वफ़ा ‘देवी’
इसने मुझको गुमान में रक्खा

(3)

दिल को हम कब उदास करते हैं
आज भी उनकी आस करते हैं

हमको ढूँढ़ो नहीं मकानों में
हम दिलों में निवास करते हैं

पहले खुद ही उदास रहते थे
अब वो सबको उदास करते हैं

चढ़के काँधों पे हो गए ऊँचे
इस तरह भी विकास करते हैं

इ​त्तिफ़ाकन निगाह उट्ठी थी
लोग क्या-क्या क़यास करत हैं

(4)


ख़यालो-ख़्वाब में ही महफिलें सजाता है
और उसके बाद उदासी में डूब जाता है

वो चाहता है के नज्दीक रहूँ मैं उसके
क़रीब जाऊँ तो फिर फ़ासले बढ़ाता है

कुछ ऐसे भाए हैं रस्तों के पेचोख़म उसको
क़रीब जाके भी मंजि़ल के लौट आता है

किसी ज़ुबान के शब्दों से उसको नफ़रत है
किसी के धर्म पे उँगली भी वो उठाता है

वो रूठ जाता है यूँ भी कभी-कभी मुझसे
कभी-कभी तो मिरे नाज़ भी उठाता है

(5)



चोट ताज़ा कभी जो खाते हैं
ज़ख्मे-दिल और मुस्कराते हैं

मयकशी से ग़रज नहीं हमको
तेरी आँखों में डूब जाते हैं

जिनको वीरानियाँ ही रास आईं
कब नई बस्तियाँ बसाते हैं

शाम होते ही तेरी यादों के
दीप आँखों में झिलमिलाते हैं

कुछ तो गुस्ताख़ियों की मुहलत दो
अपनी पलकों को हम झुकाते हैं

तुम तो तूफ़ाँ से बच गई ‘देवी’
लोग साहिल पे डूब जाते हैं


जन्म : 11 मई 1941, कराची में।
शिक्षा : बी.ए. अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी।
सम्प्रति : शिक्षिका, न्यू जर्सी, यू.एस.ए.
कृतियाँ : गम से भीगी ख़ुशी(ग़ज़ल संग्रह– सिंधी में)
चरागे-दिल(ग़ज़ल संग्रह– हिंदी में)
ई मेल : devi1941@yahoo.com




धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 2)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। दो ।।

सिमरन से जुदा होने के बाद बलदेव का मूड कुछ बदल गया था। अधिक घूमना-फिरना उसे अब पहले जैसा अच्छा नहीं लगता था। रिवर थेम्ज़ ही थी जो उसे अंदर से निकाल लेती, नहीं तो वह कहीं भी न
जाता, कमरे के भीतर ही बैठा रहता। आयरलैंड जाने की योजना भी शौन की ही थी। वह तो जैसे ‘हाँ’ करके ही फंस गया था। शौन ने कहा था – ‘चल, दो सप्ताह के लिए आयरलैंड चलें।' प्रत्युत्तर में उसने कह दिया था– ‘चल।' जब शौन इंडिया गया तब भी ऐसा ही हुआ था। बलदेव ने सहज भाव में कहा था– ‘आ, इंडिया का चक्कर लगा आएं।' और शौन चल पड़ा था।
उसका शौन को ‘हाँ’ करने के पीछे यह भी एक कारण था कि शौन के जाने के बाद वह कैरन के पास अकेला कैसे रह सकता था। लगभग साल हो गया था उसे शौन और कैरन के संग रहते हुए। वह अब सोचता था कि यहाँ से मूव कर जाए। अपना घर या फ्लैट ले ले। मूव होने का ख़याल पिछले कुछ महीनों से कुछ अधिक ही पीछा कर रहा था, जब से कैरन और शौन के मध्य लड़ाई-झगड़ा रहने लगा था। लंदन से आयरलैंड के लिए चलते समय भी बलदेव ने शौन को कह दिया था –
“शौन, वापस लौटकर मैं कहीं और मूव हो जाऊँगा।"
“जैसी तेरी इच्छा।"
पहले की भांति उसने रुक जाने के लिए जोर नहीं डाला था।
लंदन से चलते समय उसका मूड इतना लम्बा सफ़र करने का कतई नहीं था, पर जब शौन ने कार मोटर-वे पर चढ़ाई तो बलदेव को जैसे चाव-सा चढ़ आया। घर से ही एक-एक पैग पीकर चले थे। बोतल पास थी। एक-एक चलती कार में ही बना लिया तो बलदेव ने रेडियो की आवाज़ ऊँची कर दी। उसकी मनपसंद सिंगर बलौंडी का गीत चल रहा था– ‘टाइड इज़ हाई बट आय एम होल्डिंग आन।’ शौन बोला–
“भाजी, बस ऐसे ही, ऐसे ही रहा कर... खुशी से भरा हुआ।"
“शौन, तू तो जानता ही है कि मैं कभी भी कोई प्रोग्राम प्लैन नहीं करता। जिंदगी जैसे आती है, उसे वैसे ही स्वीकार किए जाता है।"
“ठीक है पर डेव, यह बहुत अच्छी बात नहीं। प्लैन करना चाहिए।"
“तूने बहुत प्लैन कर- करके देख लिए, तू मेरे से कहाँ बेहतर है! तू भी पत्नी का सताया हुआ और मैं भी।"
उसकी बात सुनकर शौन जोर से हँसा और बलदेव भी।
वे सुबह के चले लगभग दोपहर के समय वेल्ज़ जा पहुँचे। एक पब में रुक कर बियर पी और आगे चल दिए। पहले से टिकटें बुक न कराई होने के कारण ज़रा जल्दी फिशगार्ड पहुँचना चाहते थे, पर करते-कराते देर हो ही गई। रात के बारह बज गए थे बंदरगाह पर पहुँचते। सैकड़ों की गिनती में गाडि़याँ खड़ी होकर फैरी में चढ़ने की प्रतीक्षा कर रही थीं। कारें, वैनें और लारियाँ। शौन ने दौड़-भाग करके टिकट लिए। कार को पेट्रोल से भरवाया क्योंकि आयरलैंड में पेट्रोल यहाँ से महंगा था। कार को उन्होंने लाइन में खड़ा कर लिया और इंतज़ार करने लगे।
तीन बजे फैरी को चलना था। एक बजे गाडि़या फैरी में चढ़नी आरंभ हो गईं। नीचे के मंजि़ल लारियों, बसों और बड़ी गाडि़यों की थी और ऊपर की दो मंजि़लें कारों के लिए। फैरी में चढ़ने का बलदेव का यह पहला अवसर नहीं था। फ्रांस वह फैरी से ही गया था, पर वह छोटा-सा सफ़र था। आधे घंटे का। यह फिशगार्ड से रसलेअर तक तो कई घंटों का सफ़र था।
उन्हें रसलेअर पहुँचने के लिए आम दिनों से ज्यादा वक्त लग गया। पहले मौसम साफ था, फिर खराब हो गया। समुद्र गुस्से में दहाड़ने लगा। लहरें फैरी के अंदर तक समुद्र का पानी फेंक जातीं। जहाज के हिचकोलों से लोग बेहाल हुए पड़े थे। उल्टियाँ करके फर्श गंदा कर डाला था। बलदेव उल्टी आदि से बच गया था। जीन के संग होने के कारण उस तरफ ध्यान ही नहीं गया था उसका।
फैरी के रसलेअर पहुँचने तक सूर्यास्त का समय था। बारिश होने के कारण भी अंधेरा जल्दी हो गया था। उसने जीन से विदा ली। वह पैदल जाने वाली भीड़ में शामिल हो गई। शौन और बलदेव अपनी कार की ओर आ गए। शौन कार में बैठते ही कुछ सूंघने लगा। बलदेव ने हँसते हुए कहा–
“मुझे तो मालूम ही नहीं था कि आयरश लड़कियाँ इतनी दरिया-दिल होती हैं।"
“अब तू इसे मर्सडीज़ कहेगा कि नहीं।"
“अगर कोई कार अपनी हो जाए तो उसकी किस्म तो नहीं बदल जाती।"
“डेव, इस मामले में तू बहुत कंजूस है। तुझे औरत की कद्र करनी नहीं आती।"
“शौन, यूं क्यों नहीं कहता कि मैं नरम होकर परख नहीं करता।"
बात करते-करते उनकी कार पुलिस चैकिंग तक पहुँच गई। पुलिसमैन ने सरसरी-सी नज़र दौड़ाई और बढ़ जाने का इशारा कर दिया। उन्होंने राहत की सांस ली। कुछ और आगे बढ़े तो बलदेव को जीन जाती हुई दिखाई दी। उसने शौन से कहा–
“वो देख जीन... ज़रा कार इसके बराबर रोक... पूछ लेते हैं अगर लिफ्ट की ज़रूरत हो तो...।"
शौन ने उसके बराबर जाकर कार को धीमा कर लिया। बलदेव ने कहा–
“हैलो जीन!”
जीन ने यूँ हाथ हिलाया मानो अजनबी आदमी को हाथ हिला रही हो। बलदेव ने फिर पूछा–
“यू फैंसी लिफ्ट ?”
“नो थैंक्स।"
कह का वह मुँह घुमाकर चलने लगी। बलदेव हैरान होकर कहने लगा–
“कमाल है!... इतनी जल्दी भूल गई। देख तो, कंधे उचकाती कैसे गुजर गई।"
शौन हँसा पर बोला कुछ नहीं। उसने कार दौड़ा ली। फिर उसने घड़ी देखते हुए कहा–
“हम वाटरफोर्ड पहुँचकर पब में बैठेंगे और वहीं कुछ खाएंगे।"
“तू ही मेरा वालीवारिस है, जैसा चाहे करता चल। पर रास्ते में कहीं गीनस तो पिलाएगा ही, बहुत थकान हुई पड़ी है।"
बलदेव को पता था कि आयरलैंड में गीनस लोगों को बहुत प्रिय है और हर बीमारी का इलाज गीनस को ही मानते हैं। रसलेअर से निकल कर वे मोटर-वे पर हो गए। आगे जाने पर एक पब आया तो वे रुक गए। दो-दो गिलास पिये, पर दो घंटे बैठे रहे। वक्त का पता ही न चला। फिर थकान भी इस तरह थी कि उठने को मन ही नहीं हो रहा था। घड़ी की ओर देखते हुए शौन उछलकर उठा और बोला–
“जल्दी कर डेव, हम तो बहुत लेट हो गए, हमें वाटरफोर्ड में रुकना है। बारह बजे तो पब बंद हो जाएगा, अभी रास्ता बहुत पड़ा है।"
“फिक्र न कर शौन, बियर न सही, व्हिस्की पी लेंगे।"
“आयरलैंड आकर भी व्हिस्की ही पियेगा ?”
कह कर शौन हँसने लगा।
बरसात यद्यपि बंद हो गई थी, लेकिन हवा अभी भी तेज थी। कार की रफ्तार ज्यादा होने के कारण हवा अधिक सांय-सांय कर रही थी। सड़क पर अंधेरा ही अंधेरा था। कार की लाइट में सडक कुछ गज तक ही नज़र आ रही थी। इंग्लैंड की तरह मोटर-वे पर रोड-लाइट का कोई इंतज़ाम नहीं था। वाटरफोर्ड पहुँचते-पहुँचते उन्हें बारह बज ही गए। शौन बोला–
“अब गीनस नहीं पी सकेंगे। अब कोई पबवाला सर्व नहीं करेगा। पर आ जा, कोशिश करके देखते हैं।"
कहकर उसने कार को एक पब के सामने रोक दिया। वे दोनों फुर्ती से पब में जा घुसे। काउंटर के पीछे खड़ा व्यक्ति तेज स्वर में कहने लगा–
“सॉरी मिस्टर्ज़, पब बंद हो चुका है।"
शौन ने बहुत मुलायम स्वर में कहा–
“यह मेरा दोस्त बहुत दूर से आया है। मैं जानता हूँ कि कुछ मिनट ऊपर हो गए हैं... पर अगर हमें एक गिलास गीनस का मिल जाए तो मेहरबानी होगी। हम अधिक समय नहीं लगाएंगे, हमारा वादा रहा।"
पबवाले ने बलदेव की ओर देखा और फिर शौन की तरफ और कहा–
“ठीक है, पर जल्दी करना।"
कहकर उसने पब में बैठे दूसरे लोगों की तरफ भी देखा क्योंकि पहले वह कइयों को इंकार कर चुका था। उसने फिर बलदेव से पूछा–
“तुम सेलर हो ?”
“नहीं।"
“तुम डॉक्टर हो ?”
“नहीं।"
बलदेव के पीछे ही शौन कहने लगा–
“यह बहुत बड़ा बिजनेसमैन है। यह यहाँ कोई फैक्ट्री खोलना चाहता है। जायजा लेने आया है इस शहर का।"
“वाटरफोर्ड जैसे छोटे शहर में भला क्या कोई फैक्ट्री खोलेगा!”
समीप खड़े किसी व्यक्ति ने हैरानी प्रकट की। शौन ने फिर कहा–
“अब ई.ई.सी. जो बन रही है। आयरलैंड को इससे बहुत मदद मिलेगी। फिर वाटरफोर्ड से अच्छा बंदरगाह कौन-सा हो सकता है, यूरोप से जुड़ने के लिए।"
शौन की दलील से सभी कीले गए। पब के मालिक ने फिर पूछा–
“किस चीज की फैक्ट्री खोलेगा ?”
“शायद कपड़े की।"
शौन ने एकदम उत्तर दिया। उसने यह उत्तर पहले से ही सोच रखा था। वे सभी उससे हाथ मिलाने लगे। उन्हें बलदेव बहुत अच्छा व्यक्ति दिखाई दे रहा था, जो कि शहर में रोज़गार ला रहा था। बलदेव बेंच पर बैठकर गीनस के घूंट भरता हुआ पब का निरीक्षण-सा करने लगा। छोटा-सा पब था। एक तरफ आयरलैंड का प्रमुख वाद्य हार्प पड़ा था। उसे ध्यान आया कि पब का नाम भी ‘द हार्प’ ही था। एक तरफ छोटी-सी स्टेज थी, जिस पर एक स्टूल पर गिटार जैसा कोई वाद्ययंत्र पड़ा था। बलदेव पब में उपस्थित लोगों के लिए आकर्षण का कारण बन चुका था। हर कोई उसकी तरफ देख रहा था। वह भी एक-एक व्यक्ति से नज़र मिलाता और मुस्करा कर उससे मेल-मिलाप का हुंकारा भरता।
फिर एक गंजे व्यक्ति ने स्टेज पर पड़ा वाद्य उठाया और उस पर उंगलियां फिराने लगा। धीरे-धीरे उसने ऐसी धुन छेड़ी कि सभी खुशी में शोर मचाने लग पड़े। फिर एक स्त्री माइक हाथ में पकड़े मंच पर आई और गाने लगी। कोई कंटरी-साइड धुन थी जैसी पुरानी अमेरिकन फिल्मों में हुआ करती है। इस गीत के बोल मस्ती भरे थे। कोई मल्लाह खौफ़नाक समुद्र में से वापस अपनी महबूबा के पास लौटा था। कुछेक लोग उठकर स्टेज के सामने खड़े होकर नाचने लगे। कुछ फ्लोर पर पैर मार-मार कर संगीत का साथ देने लगे।
बलदेव की थकावट कहीं गुम हो गई। वह कंधे हिला-हिलाकर संगीत का आनंद उठाने लगा। गाने वाली स्त्री में उसे गुरां का भ्रम हो रहा था। जब वह मुस्कराती तो गुरां जैसी लगती। उसने गीत समाप्त किया। सभी तालियाँ बजाने लगे। वह बलदेव के करीब आकर बोली–
“तू अपने मुल्क का कोई गीत गाएगा ?”
“नहीं, मैं नहीं गा सकता।"
बलदेव ने कहा तो शौन हँसने लगा। शौन जानता था कि वह गाएगा तो क्या, उसे तो संगीत से भी अधिक लगाव नहीं था। बलदेव ‘न-न’ कर रहा था कि उस स्त्री ने उसकी बांह पकड़ ली। वैसा ही गुरां जैसा नरम स्पर्श। बलदेव उस स्पर्श के पीछे चलता हुआ स्टेज पर जा पहुँचा। स्त्री ने माइक बलदेव के हाथ में थमा दिया। बलदेव ने चश्मा उतारा, उसे जेब में रखा और गाने लगा–
“भट्ठी वालिये चम्बे दिये डालिये
नी पीड़ां दा परागा भुन्न दे...।"
( भट्ठी वाली, चम्बे(पुष्प) की डाली, री दर्दो का हाड़ा भून दे...।)
उसने पूरे का पूरा गीत गा डाला। स्वर अधिक ऊँचा न उठा सकने के कारण वह पास से ही लौट आता था, पर वह गीत खत्म करके ही रुका। पब में बैठे सभी लोगों ने जोरदार तालियाँ बजाईं। उस स्त्री ने उसे अपनी बाहों में भर लिया। पब का मालिक अंदर से पब को बंद करता हुआ ऊँची आवाज़ में बोला–
इसी खुशी में एक-एक प्वाइंट मेरी तरफ से... फ्राम द हाउस...।"
शौन अवाक् हुआ खड़ा था कि बलदेव ने गीत गाया। बलदेव स्वयं भी हैरान था। वह सबका हीरो बना हुआ था। बारी-बारी लोग उससे हाथ मिला रहे थे। हर कोई उसके लिए ड्रिंक खरीदना चाहता था। कई अपने गिलासों में से घूंट भरने के लिए कर रहे थे। पब के मालिक ने दुबारा काउंटर खोल दिया। अब उसे पब बंद करने की कोई जल्दी नहीं थी।
उन्हें पब में से निकलते ढाई बज गए। शौन बुदबुदाया– “ब्लडी लेट!” फिर कार स्टार्ट करते हुए बोला–
“भाजी, तूने तो कमाल कर दिया।"
“हाँ, पर पता नहीं यह सब कैसे हो गया।"
“जैसे भी हुआ, पर मुझे नहीं पता था कि तू गा भी लेता है।"
यह तो मुझे भी आज ही पता चला। पता नहीं दिमाग के किस कोने में से निकलकर यह गीत सामने आ खड़ा हुआ।शौन उसे वाटरफोर्ड शहर के बारे में बता रहा था। बलदेव कोई ध्यान नहीं दे रहा था। फिर शौन उसके बिजनेसमैन होने की बात सूझने के बारे में बात करने लगा, लेकिन बलदेव तो उस गीत के बारे में सोचे जा रहा था जो कि गुरां का गीत था। वह हैरान था कि यह गीत कैसे शब्द-दर-शब्द उसके दिमाग में अंकित हो गया था और अब अचानक कैसे आ प्रकट हुआ था। न कभी उसने इस गीत को गुनगुनाया था और न ही कभी गौर किया था। उसने मन ही मन कहा, ‘गुरां, मुझे भी गाना आ गया।
।। तीन ।।

माहिलपुर का कालेज। आश्की के लिए ज़रखेज ज़मीन। इसी कालेज में जाने लगा था बलदेव।
वह घर से सम्पन्न था। पिता-भाई इंग्लैंड में थे। उन्होंने उसे कालेज जाने की खुशी में मोटर साइकिल ले दिया था। यद्यपि उसके गांव से सीधी बस माहिलपुर जाती थी, पर वह मोटर साइकिल ही दौड़ाये फिरता। दो लड़के रास्ते में उसके साथ हो जाते। मोटर साइकिल होने के कारण उसकी दोस्ती का दायरा भी जल्द ही बड़ा हो गया था। सवेरे बस-अड्डे पर जा खड़ा होता और फिर कालेज के गेट के सामने। ये उसके रोजाना के काम हो गए थे। शीघ्र ही वह ग्रुप बनाकर लड़ाई-झगड़ों में भी हिस्सा लेने लग पड़ा था।
घर में उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। माँ मर चुकी थी। भैया-भाभी थे जो बड़ों वाले फर्ज़ तो निबाहते, पर आयु का फ़र्क कम होने के कारण उस पर रौब नहीं बना सके थे। शिंदा उससे सिर्फ दो साल बड़ा था। दोस्तों की तरह था। इकट्ठे मिलकर खेती करते थे, शराब निकालते थे और हुड़दंग मचाते थे। शिंदा अगर कोई बात करता तो उसे सलाह देने जैसी ही करता। कालेज जाते ही बलदेव ने खेती का काम छोड़ दिया था। शिंदा एक बार भी उसे जोर देकर नहीं कह सका था कि वह उसकी मदद किया करे। उसकी भाभी थी, अगर किसी बात पर खीझी होती तो उसके बेटे गागू को मोटर साइकिल पर बिठाकर दो चक्कर लगवा देता, वह खुश हो जाती।
पंडोरी माहिलपुर से दूर नहीं है। पश्चिम की ओर सिर्फ चार मील। माहिलपुर की खबर गांव में पहुँचती तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगते कि यह लड़का कहीं न कहीं खता खाएगा। लोग शिंदे से कहते। शिंदा उसे समझाने लगता, पर बलदेव एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता।
कालेज में यूथ फेस्टिवल के दिन थे। बलदेव को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने अपने मित्रों के साथ होशियारपुर फिर देखने के लिए निकलना था, पर किसी बात पर लेट हो गए। यूँ ही वक्त काटने के लिए पंडाल में जा घुसे। कविता पाठ की प्रतियोगिता चल रही थी। भाग लेने वाले विद्यार्थी बारी-बारी से कविता पढ़ रहे थे। बलदेव की मंडली पीछे बैठकर बातें कर रही थी, जिससे पंडाल का ध्यान भंग हो रहा था। स्टेज सचिव ने कई बार उन्हें चुप भी करवाया लेकिन बेअसर रहा। तभी एक लड़की स्टेज पर आई। उसने माइकवाला स्टैंड पकड़ा और मुँह ऊपर उठाकर आँखें मूंदकर हेक लगाई– “भट्ठी वालिये, चम्बे दिये डालिये... नी पीड़ां दा परागा भुन्न दे...।"
सारा पंडाल शांत हो गया। बलदेव तो जैसे कील दिया गया हो। पास बैठा तेजा कहने लगा–
“अरे यह तो गुरां है ... चक्क वाली... यह तो भई बढ़कर निकली, लगती नहीं थी।"
बलदेव को तेजा की बात सुनाई नहीं दी थी। वह तो गुरां को सुन रहा था। वह गुरां को देख रहा था। उसकी लम्बी गर्दन में से होकर निकलता एक-एक शब्द उसको मस्त किए जा रहा था। उसका गीत समाप्त हुआ। अनाउंसर ने कुछ कहा। गुरां के बाद अगले विद्यार्थी की बारी आई। लेकिन बलदेव को अभी भी वही गीत सुनाई दे रहा था। उसके दोस्त उसे फिल्म देखने जाने के लिए उठाने लगे। अगले शो का समय हो रहा था। पहुँचना भी होशियारपुर था। पर वह न उठा। मंच की तरफ ही देखे जा रहा था। दोस्तों से कहने लगा–
“छोड़ो यारो फिल्म... ये यूथ फेस्टिवल देखते हैं, फिल्म तो कल भी देखी जा सकती है।"
बलदेव की बात सुनकर वे सब बैठ गए। बलदेव की नज़रें गुरां को खोज रही थीं। वह न जाने कहाँ जा छिपी थी। फिर प्रतियोगिता के परिणाम की घोषणा हुई। गुरां को इसमें फर्स्ट प्राइज़ मिला था। तालियों से सारा पंडाल गूंजने लगा, पर बलदेव जस का तस बैठा रहा। किसी ने कहा–
“पता नहीं यार, यह ईनाम कैसे ले गई। चलती तो गर्दन झुका कर है।"
फिर जब गुरां ने ईनाम लिया तो बलदेव अपने हाथों की तरफ देखने लगा। गुरां ईनाम लेकर चली गई। लेकिन बलदेव ज्यों का त्यों बैठा रहा। यूथ फेस्टिवल के समाप्त होने पर उसे दोस्तों ने पकड़कर उठाया।
उस दिन के बाद बलदेव बदल गया। खामोश रहने लगा। पहले वाली जल्दबाजी खत्म हो गई। मोटर साइकिल की स्पीड कम हो गई। बस-अड्डे पर जाकर खड़ा होना बंद कर दिया। दोस्त राहों में खड़े होकर उसका इंतज़ार करते रहते, वह दूसरी तरफ से निकल जाता। गुरां की तरफ दूर से खड़े होकर देखता रहता। कक्षा में भी ऐसी जगह पर बैठता जहाँ से गुरां दिखाई देती हो। गुरां इस बात से बेखबर थी, पर बलदेव को इस बात की परवाह नहीं थी कि गुरां उसकी तरफ देखती थी कि नहीं। बस, वह उसकी ओर देखता रहता।
यह जज्बा जिसे वह पाल बैठा था, कभी-कभी उसको बहुत आनंदमयी लगता और कितनी-कितनी देर वह आनंदित हुआ घूमता रहता। लेकिन कभी-कभी खीझने भी लगता कि कैसी बीमारी लगा ली थी उसने।
एक दिन शराब पीते हुए शिंदे ने पूछा–
“तेरी तबीयत तो ठीक है ?”
“हाँ, ठीक है।"
“फिर यह खोया-खोया-सा क्यों बना फिरता है ?”
“कुछ नहीं यार, यूँ ही...।"
“अगर कुछ नहीं तो मैंने यह गुड़ की इतनी ज़बरदस्त चीज बनाई है, एकबार भी नहीं कहा तूने।"
“यार शिंदे, एक लड़की देखी है...।"
“पसंद है ?”
“यार, पसंद वाली बात तो बहुत छोटी है।"
“चक दे फट्टे ! देखता क्या है, अपना ट्यूबवैल वाला कोठा सही जगह पर है।"
“छोड़ यार, तू उल्टी बात कर रहा है।"
“फिर तूने लड़की पूजा करने के लिए देखी है !”
बलदेव ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया। उसे लग रहा था कि उसकी यह बात किसी से करने वाली थी ही नहीं। उसके दोस्त भी उल्टा-सीधा बोलने लगते थे। उसने एक-दो बार जब कहा कि गुरां की आवाज़ उसके कानों में अचानक गूंजने लगती है, तो सब उस पर हँसने लगते।
गुरां इस सारे घटनाचक्र से अनजान थी। वह चक्क से सवेरे साइकिल से आती और चुपचाप शाम को लौट जाती। राह में कभी वह रुकी नहीं थी। किसी से फालतू बात नहीं की थी। कक्षा में भी लड़कियों के बीच में होकर बैठती। कक्षा में कौन-कौन सा लड़का था, उसे कुछ मालूम नहीं था। कालेज आने का उसका मकसद सिर्फ पढ़ना था। उसका बाप बहुत साधारण किसान था जो उसे बहुत मुश्किल से पढ़ा रहा था। गुरां का छोटा भाई था जो कि पढ़ नहीं सका था। माँ-बाप की इच्छा थी कि लड़की ही पढ़-लिख जाए। गुरां का लक्ष्य बी.ए.,बी.एड करके अध्यापिका बनने का था। वह इस लक्ष्य के पीछे चलती अपने आसपास को अनदेखा करती आ रही थी।
मैडम फ्लौरा यूथ फेस्टिवल की तैयारी में जुटी हुई थी। वह कालेज के नये विद्यार्थियों में से टेलेण्ट तलाशने निकली तो उसने गुरां के कंधे पर आकर हाथ रखा। गुरां के साथ स्कूल से आई लड़कियों ने गुरां के गाने के बारे में बता दिया था। गुरां सोचती थी कि स्कूल में तो बचपन था, वहाँ लोगों में गाना और बात थी, पर कालेज अलग जगह थी। अब वह बड़ी हो चुकी थी। पूरी औरत थी। लोगों के सामने गाना ठीक नहीं था। और फिर, उसका लक्ष्य तो पढ़ना था, गाना नहीं। उसने मैडम को मना कर दिया। मैडम रिहर्सल करने के लिए दबाव डालने लगी कि गाकर देख ले, अगर पसंद न आए तो न गाये। पर जब उसने कुछेक रिहर्सलें कीं तो उसे यह सब पसंद आने लगा। यह सबकुछ नया-नया और स्कूल से बहुत भिन्न था। मैडम ने उससे कई गीत गवा कर देखे। अंत में, ‘भट्ठी वालिये...’ ही पसंद किया गया। कालेज की स्टेज से गाती तो विद्यार्थी उसे शांत होकर सुनते।
यूथ फेस्टिवल में से जीते ईनाम ने उसकी कालेज में वाह-वाह करवा दी। मंच के प्रधान ने तो यहाँ तक कह दिया कि इस गीत का गीतकार भी शायद इतने बढ़िया ढंग से न गा सका हो, जैसा गीत गुरां ने गाया था। कालेज की वह विशेष विद्यार्थी बन गई थी। उसके मन में थोड़ा अंहकार भी आने लगा था। वह थोड़ा बन-संवर कर भी रहने लगी। कालेज के कितने ही लड़के उस पर जान छिड़कते थे। उससे बात करने का बहाना खोजते थे। हिम्मत वाले लड़के प्यार का इजहार भी करने लगते। पर उसने किसी तरफ ध्यान नहीं दिया और अपनी राह पर चलती चली गई। प्रथम वर्ष अच्छे अंकों में पास हो गई।
पास तो बलदेव भी हो गया था पर मुश्किल से ही। उसकी एक अन्य समस्या थी कि वह इंग्लैंड की तरफ देख रहा था कि कोई न कोई सबब बनेगा ही। भाई किसी ने किसी तरह भिजवा ही देखा वहाँ।
उसका भाई शिंदा एक दिन कहने लगा–
“बलदेव, ये तू लड़कियों के चक्कर में न फंस जाना... यह अपने प्रोफेसर की तरह कोई पंगा न ले बैठना...कालेज में ध्यान से रहना चाहिए। देखने-दिखाने में तू चंगा है, खुरली पर खड़ा ही लाख का है, कोई न कोई बाहर का रिश्ता हो ही जाएगा। नहीं तो उधर से वे भी जोर लगाएंगे ही, पर तू ध्यान से रह।"
बलदेव ने कोई उत्तर न दिया। वह सोच रहा था कि शिंदे की किस बात का जवाब दे, जवाब कोई था ही नहीं। वह किसी लड़की के चक्कर में था ही नहीं। वह तो बस गुरां को दूर से देखा करता था, इससे अधिक कुछ नहीं था। पूरा साल यूँ ही गुजर गया।
उसकी यह हालत सफ़र करती-करती गुरां तक भी पहुँच गई। उसके लिए यह बात कोई नई बात नहीं थी। कितने ही दीवाने थे उसके। कई उसे राह में चलती को आवाज़ें भी कसते। कइयों ने तो उसका नाम ही ‘भट्ठी वाली’ रख छोड़ा था। उसे पता था कि कई खामोश आशिक भी होंगे। लेकिन उसे इन बातों से कोई सरोकार नहीं था। उसने तो अपनी पढ़ाई पूरी करनी थी। फिर भी उसने सोचा कि एक नज़र बलदेव को देखे तो सही। लम्बा-चौड़ा बलदेव, बड़ी-बड़ी आँखें, गोल चेहरा, भरवीं दाढ़ी और खड़े सिर के बाल। उसे अच्छा लगा। उसी पल उसने सोचा कि अच्छे-बुरे से उसे क्या लेना था।
बलदेव ने कालेज चक्क की तरफ से होकर जाना प्रारंभ कर दिया था जबकि चक्क माहिलपुर के दूसरी ओर पड़ता था और उसको कई मील का सफ़र अधिक तय करना पड़ता था। उसे अधिक सफ़र हो जाने से कुछ नहीं था, उसने तो एक नज़र गुरां को देखना होता था। गुरां साइकिल पर जा रही होती और वह मोटर साइकिल धीमी करके उसके करीब से निकल जाता। अब तक गुरां भी उसके मोटर साइकिल की आवाज़ पहचानने लग पड़ी थी। पास आते ही आवाज बदलने लगती।
फिर वह इस आवाज़ की प्रतीक्षा करने लगी। अगर आवाज़ न सुनाई देती तो उसे बेचैनी होने लगती। फिर वह बलदेव को क्लास में आते-जाते देखने लगी और मन ही मन हँसती कि इतना बड़ा आदमी है, पर ज़रा-सी बात करने की हिम्मत नहीं। कभी-कभी उसका दिल करता कि वह स्वयं ही बलदेव को बुला ले, पर ऐसा वह नहीं कर सकती थी। ऐसा उसने नहीं करना था। अब इतना अवश्य हो गया था कि अगर वह गाने के लिए स्टेज पर चढ़ती तो सबसे पहले उसकी नज़रें बलदेव को खोजने लगतीं और आखिर एक कोने में बैठे को वे खोज ही लेतीं। वह पहले की भांति आँखें मूंदकर गाती और बीच-बीच में आँखें खोलकर बलदेव की तरफ देखती। बलदेव की आँखों की प्यास उसके अंदर उथल-पुथल मचाने लगती। कई बार उसका ध्यान भी उखड़ जाता और वह कुछ गलत भी गा जाती, जिसके बारे में बाद में कोई सहेली या मैडम उसे बताती। वह उनकी बात सुनने के बजाय बलदेव के बारे में सोचने लगती।
एक दिन अपने घर में खड़ी वह अपने आंगन को देख रही थी कि यह आंगन कहीं बलदेव के लिए छोटा तो नहीं पड़ जाएगा। वह उसी वक्त अपने आप को झिड़कने लगी कि वह यह क्या फिजूल का सोचे जा रही थी।
उसे बलदेव के ख़याल रह-रह कर आने लगते। जितना वह खुद को बरजती या रोकती, उतना ही अधिक तंग होती। कई बार वह पसीने-पसीने हो जाती। उसे भय सताने लगता कि कोई बीमारी ही न लगा बैठे। उसका दिल करता कि इस बारे में किसी सहेली से ही मिलकर बात करे ताकि मन का बोझ हल्का हो सके। लेकिन वह डर जाती कि बात कहीं फैल ही न जाए। बलदेव को ही न मालूम हो जाए। कई बार यह भी सोचती कि क्यों न बलदेव से ही सारी बात करे। उसे सबकुछ बताए। शायद इसके अच्छे नतीजे ही निकलें। सोच-सोच कर वह पागल होने लगती। और एक दिन उसकी सारी समस्याओं का हल निकल आया। उसके माँ-बाप ने उसके लिए कोई लड़का पसंद कर लिया था और विवाह भी दस दिन बाद का रख दिया था।
(क्रमश: जारी…)

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