बुधवार, 21 दिसंबर 2011

गवाक्ष – दिसंबर, 2011


जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू।एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा) और देविंदर कौर (यू के) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की इकतालीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के दिसंबर, 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – कनाडा में रह रहीं पंजाबी कवयित्री सुरजीत की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की बयालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


टोरंटो, कनाडा से
सुरजीत की तीन पंजाबी कविताएं
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

पागल मुहब्बत

मेरी मुहब्बत को ही
यह पागलपन क्यों है
कि तू रहे मेरे संग
जैसे रहते है मेरे साथ
मेरे साँस

तसव्वुर में तू है
इंतज़ार में तू है
नज़र में तू है
अस्तित्व में भी तू !

मेरी मुहब्बत को
यह कैसा पागलपन है
कि मेरे दुपट्टे की छोर में
तू चाबियों के गुच्छे की तरह बंधा रहे !

मेरे पर्स की तनी की भाँति
मेरे कंधे पर लटका रहे !

मैंने ही क्यूँ ऐसे इंतज़ार किया तेरा
जैसे बादवान
हवा की प्रतीक्षा करते है
जैसे बेड़े
मल्लाहों का इंतज़ार करते हैं!

मेरी ही सोच क्यूँ
तेरे दर पर खड़ी हो गई है
मेरी नज़र ही क्यूँ
तेरी तलाश के बाद
पत्थर हो गई है !

तस्वीरें और परछाइयाँ

मैं जो
मैं नहीं हूँ
किसी शो-विंडों में
एक पुतले की तरह
ख़ामोश खड़ी हूँ !
कुछ रिश्तों
कुछ रिवायतों से मोहताज !

बाहर से ख़ामोश हूँ
अन्दर ज़लज़ला है
तुफ़ान है
अस्तित्व और अनस्तित्व के

इस पार, उस पार खड़ा एक सवाल है-
कि मैं जो मैं हूँ
मैं क्या हूँ ?

पु्स्तकालय से समाधी तक
इस सच को तलाशते हुए
सोचती हूँ
मैं जिस्म हूँ
कि जान हूँ !
मेजबान हूँ
कि मेहमान हूँ !!

ज़िन्दगी
मौत
रूह
और मोक्ष
शब्दों के अर्थ तलाशती
सोचती हूँ
आख़िर मैं कौन हूँ !

तस्वीरों की जून में पड़कर
ख़ामोश ज़िन्दगी को व्यतीत करते
कई बार
अहसास होता है
कि मैं केवल
हारे-थके रिश्तों की
मर्यादा हूँ !!

या शायद
मैं कुछा भी नहीं
न रूह, न जिस्म
न कोई मर्यादा-
केवल एक
जीता जागता धड़कता
दिल ही हूँ !

तभी तो जब
रिश्ते टूटने का अहसास होता है
तो निगल जाता है
मेरा दिल
मेरा विवेक !!

मैं जो मैं नहीं हूँ
अपने आप को
रिश्तों की दीवार पर
टिका रखा है !

मैं जो मैं हूँ
इन तस्वीरों के
तिड़के शीशों में से निकल कर
परछाइयों की जून पड़ गई हूँ !!

फाइलों से जूझता शख्स

रोज़ सूरज
समुन्दर में जा गिरता है
रोज़ चन्द्रमा
रात से मिलता है
रोज़ पखेरू
पंख फड़फड़ाता हुआ
घर को लौटता है !

एक शख्स
अभी भी
दफ्तर की
फाइलों से जूझता
भूल गया घर का रास्ता।
00


पंजाबी की चर्चित कवयित्री।

प्रकाशित कविता संग्रह –‘शिरकत रंग’

वर्तमान निवास : टोरोंटो (कनैडा)

संप्रति : टीचिंग।

ब्लॉग – सुरजीत (http://surjitkaur।blogspot.com)

ई मेल : surjit.sound@gmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 42)



सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सैंतालीस ॥
बलदेव ने दरवाज़ा खोला। सामने एक नौजवान खूबसूरत हल्की हैसियत वाली गोरी लड़की खड़ी थी। उसको देखते ही बोली-
''तुम डेव बेंज हो ?''
''हाँ, और तुम लिज़ क़ैंट ?''
''हाँ, मैंने कमरे के लिए फोन किया था।''
''और मैं तेरा ही इंतज़ार कर रहा था। अन्दर आ जाओ।''
लिज़ क़ैंट बलदेव के पीछे-पीछे कमरे में आ गई। वह उसको फ्लैट दिखाने लगा। पहले उसने कमरा दिखाया जिसे किराये पर देना था। अन्दर घुसते ही बायीं ओर बड़ा कमरा था। साथ ही, बलदेव का अपना कमरा और फिर लिविंग रूम, किचन, बाथ और डायनिंग रूम। फ्लैट दिखलाता वह सोच रहा था कि वह इसको कमरा नहीं देगा। यह नौजवान थी और खूबसूरत भी। मुरली भाई की हिदायत थी कि खूबसूरत लड़की को कमरा देने से गुरेज करना, क्योंकि इन्हें कमरा देने से कई प्रकार की मुश्किलें खड़ी हो सकती थीं। जिस दिन से कमरा किराये पर लगाया था, तब से कई लोग इसे देखने आ चुके थे। कोई बच्चे वाला जोड़ा था, कोई एडवांस देने को तैयार नहीं था और कोई हिप्पी-सा दिखाई देता लड़का था। बलदेव इन सबको तरीके से मना करता आया था। किरायेदार की पृष्ठभूमि जानने के लिए उसके पास रेफ्रेंसिस का होना ज़रूरी था। मुरली भाई की सलाह के अनुसार इसके बग़ैर किरायेदार का कुछ पता नहीं चलता था कि वह किस तरह का व्यक्ति होगा।
लिज़ क़ैंट ने पूरा फ्लैट देखा और फिर उस कमरे में आ खड़ी हुई जो किराये के लिए उपलब्ध था। बोली-
''किराया बहुत मांग रहे हो।''
''कमरा भी तो देख कितना बड़ा है। और फिर दुकानें नज़दीक हैं, ट्यूब स्टेशन करीब है और यह रहा थेम्ज़... इससे बड़ी सुविधाएँ तुम्हें कहीं नहीं मिल सकतीं और वह भी सिर्फ ढ़ाई सौ पौंड महीने में। पूरे फुल्हम में ऐसा कमरा नहीं मिलेगा।''
लिज़ क़ैंट ने बलदेव की बात सुनकर मजबूरी-सी में कंधे उचकाये और कुछ पेपर बलदेव को देते हुए बोली-
ये मेरे क्रेडिट कार्ड्स हैं, यह मेरे घर का पता, यह मेरे कालेज का एडमिशन लैटर, यह मेरे डैडी का बिजनेस कार्ड, और बताओ क्या चाहिए।''
बलदेव पेपरों को उलट-पलट कर देख रहा था तो लिज़ ने जेब में से पौंड निकाले और कहा-
''पूरे पाँच सौ हैं, महीने का एडवांस और महीने का डिपोज़िट।''
बलदेव ने नोट देखे तो मानो उसको गरमी-सी आ गई। पाँच सौ पौंड ही उसको यार्ड के डिपोज़िट के लिए चाहिए था। उसने पैसे एकदम जेब में डाल लिए। लिज़ क़हने लगी-
''खुश है न !... अब मेरी कुछ बातें ध्यान से सुनो।''
''तुमने मेरी कुछ कंडीसन्स तो सुनी ही नहीं।''
''चलो, पहले तुम बताओ।''
''कितने जने होंगे यहाँ ?''
''मुझे पार्टनर तो ढूँढ़ना ही होगा, इतना किराया मेरे से नहीं दिया जाएगा।''
''सिर्फ एक पार्टनर ही, कोई दूसरा मेहमान रात में नहीं रह सकेगा।''
''ठीक है, कुछ और ?''
''रसोई, लिविंग रूम साझा है, इस्तेमाल करोगी तो सफाई करनी होगी।''
''यह तो आम बात है, पर तू मेरी बात सुन... मैं कमरे में अपनी मर्जी के पोस्टर लगाऊँगी और मैं कभी भी कमरे की सफाई नहीं करूँगी। जब छोड़ूंगी, तभी करूँगी।''
''तुझे गंद में रहना अच्छा लगता है ?''
''नहीं, पर सफाई करनी अच्छी नहीं लगती, कुक करना भी पसन्द नहीं, छह महीने रहूँगी, उसके बाद अगर मुझे पसन्द नहीं होगा तो मैं बदल लूँगी। अगर तुझे मेरा रहना पसन्द नहीं आया तो बता देना। अब ला, कंट्रेक्ट साइन कर दूँ।''
''मैं कंट्रेक्ट फार्म तो अभी लाया ही नहीं, कल ले आऊँगा। तुमने तो बहुत ही जल्दी कर दी।''
''मेरा यही तरीका है जीने का, धीमापन मुझे पसन्द नहीं। इसीलिए लंदन, न्यूयार्क, टोक्यो मुझे पसन्द है और आस्ट्रेलिया को मैं नफ़रत करती हूँ। एक साल रहकर आई हूँ, जैसे जेल में रही होऊँ।''
कहते हुए इतवार को मूव हो जाने का कहकर वह चल पड़ी। दरवाजे में जाकर बोली-
''एक बात बता, मालिक तुम ही हो ?''
''हाँ।''
''लगता नहीं, मकान मालिक तो बूढ़े होते हैं।''
बलदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस मुस्कराया। लिज़ क़े जाने के बाद सोचने लगा कि वह लड़की थी या आंधी। उसने जेब में पड़े पाँच सौ पौंड पर हाथ रखकर उन्हें महसूस करके देखा। उसको एजेंट ने पाँच सौ पौंड जमा करवाकर यार्ड की चाबी ले जाने के लिए कहा हुआ था। वह सोच रहा था कि सवेरे जल्दी ही एजेंट की तरफ निकल जाएगा।
बैटरसी रेलवे स्टेशन की इंडस्ट्रीयल एस्टेट में उसको यार्ड मिल गया। पहले यहाँ कारें बेचने का काम होता था। वह कम्पनी बन्द हो जाने के कारण जगह खाली पड़ी थी। बीस फुट चौड़ा और साठ फुट लम्बा यह यार्ड गैस के सिलेंडरों के लिए बहुत उपयुक्त था। सुरक्षा के लिहाज से भी ठीक था। चारों ओर लोहे की तार थी। आगे बड़ा-सा गेट। छह बाई छह का उठा हुआ दफ्तर था। बलदेव ने गेट में अपना ताला लगा दिया। सेंट्रल गैस का नुमाइंदा आकर अपनी मापजोख करके चला गया। उसको काउंसलर की ओर से डेढ़ सौ सिलेंडर रखने की इजाज़त मिल गई, मतलब - दो टन गैस। अगले दिन ही सिलेंडरों की भरी हुई लॉरी आ गई। लॉरी पूरी की पूरी यार्ड के अन्दर चली जाती थी।
बलदेव द्वारा यार्ड खोलने पर सेंट्रल गैस वाले बहुत प्रसन्न थे। यहाँ उनका कोई विक्रेता नहीं था जबकि अन्य सभी गैसों जैसे कि नॉर्थ गैस, कैलर गैस, सी-गैस आदि के एजेंट यहाँ पर थे। इसलिए उन्होंने अधिक लिखत-पढ़त में पड़ने की बजाय गैस ला धरी थी। उनका मकसद दूसरी कम्पनियों से मुकाबला करना था। एक दिन एक रैप आकर कह भी गया-
''डेव, तू तैयार हो जा, हम तेरी पूरी मदद करेंगे।''
बलदेव को तीन महीने के उधार की सुविधा मिल गई। अर्थ यह कि गैस बेचकर पैसे दे, लोकल अखबारों में उसकी मशहूरी थोड़े-से शब्दों में करवा दी, उसको बिजनेस कार्ड छपवा कर दे दिए गए। सिलेंडरों के कम-ज्यादा की सहूलियत भी दे दी। नहीं तो कम्पनी वाले खाली सिलेंडरों के बदले ही भरे हुए सिलेंडर देते थे, अगर कम हो जाएँ तो आपको पैसे देने पड़ सकते थे। उसने सिलेंडरों की सप्लाई वाले दफ्तर में दो कुर्सियाँ लाकर डाल दीं। फोन लगवा लिया और पूरा बिजनेस-मैन बनकर बैठ गया। यह सब जैसे पलक झपकते ही हो गया हो।
सेंट्रल गैस की डिपो में जाकर पता चला कि जैरी स्टोन तो उनका बड़ा बॉस था। उसके अधीन साउथ ईस्ट के सारे डिपो आते थे। एक बार तो बलदेव को अपना आप छोटा लगने लगा, पर जैरी की ओर से उसको कभी ऐसा व्यवहार देखने को नहीं मिला। वह वैसे ही शाम के वक्त पब में मिला करते। खबरों को लेकर बहसें करते। जैरी अब उसके फ्लैट में भी आने लगा था। उसको सेंट्रल गैस की राजनीति से भी परिचित करवाने लगा था।
जिस कारोबार को बलदेव बहुत आसान समझे बैठा था, उसे करने पर पता चला कि वह तो बहुत कठिन था। पहली बात तो सिलेंडर भारी ही बहुत थे। खाली सिलेंडर पन्द्रह किलो का होता और भरा हुआ तीस का। लॉरी भरी हुई आती तो सौ सिलेंडर उतार कर सौ खाली सिलेंडर ऊपर चढ़ाने होते। उसकी टें बोल जाती। कई सिलेंडर इससे भी भारी थे, पर वह गिनती में अधिक न होते।
फिर दो सप्ताह तक कोई ग्राहक गैस लेने भी नहीं आया। वह सवेरे जाकर यार्ड खोलकर फोन के सामने बैठ जाता और पूरी तरह बोर होकर शाम को लौट आता। उसको लगता कि वह फंस गया था। वह तो यहाँ तक सोचने लगता कि इससे छुटकारा पाने में कितना नुकसान झेलना पड़ेगा। जिस दिन सिलेंडर डिलीवर करने का पहला आर्डर आया तो उसकी खुशी का कोई अन्त नहीं था। चलो, कुछ करने के लिए तो हुआ। फिर कुछ और फोन आ गए। वह कार में सिलेंडर रखता और छोड़ आता। लौटकर ऑनसरिंग मशीन चैक करता कि कोई फोन तो नहीं आया था पीछे से।
कुछेक दिन मौसम ठंडा हुआ था और फिर धूप पड़ने लगी थी। अक्तूबर का महीना था और तापमान बीस डिगरी तक पहुँच रहा था। वह फिर से खाली बैठने लगा। वह डिपो में गया और दिल की बात मैनेजर मैलकम हाईंड से साझा की। मैलकम कहने लगा -
''डेव, उतावला न हो, देख हम भी खाली बैठे हैं। यह बिजनेस मौसम के साथ जुड़ा हुआ है, सो ठंड का इंतज़ार कर।''
''मैलकम, मेरा तो किराया भी नहीं निकल रहा।''
''मैं कल ही फिलिप को तेरे पास भेजता हूँ, सेल्ज़ मैनेजर है। तुझे कोई न कोई सलाह देगा।''
अगले दिन फिलिप आया और यार्ड देखकर कहने लगा-
''डेव, तू तो लक्की है। इतनी बढ़िया जगह किसी के पास नहीं होगी।''
''फिलिप, तू शायद ठीक कहता है, पर यह ठिकाना लोग खोज नहीं पाते। एक दिन एक आदमी कई बार फोन करके यह जगह ढूँढ़ पाया।''
''ठीक है, तू काम शुरू कर, फिर जगह बदल लेना।''
फिर वह आसपास देखते हुए कहने लगा-
''डेव, तेरी पिकअप कहाँ है ?''
''पिकअप तो मेरे पास है नहीं।''
''फिर डिलीवर कैसे करता है ?''
''कार में ही।''
''ऐसे ठीक नहीं... यह सही ढंग नहीं। सही ढंग यह है कि एक पिकअप खुद खरीद, छह फुट चौड़ी वाली बहुत है। उस पर अपना नाम लिखवा, उसको सिलेंडरों से हमेशा भर कर रख, लोग तुझे गाड़ी चलाते हुए आते-जाते देखें, तेरा फोन नंबर नोट करके तुझे रिंग करें। एक आदमी भी रख काम पर। तेरी गर्ल फ्रेंड या वाइफ़ है तो उसे ही बिठा दे और खुद डिलीवर करने पर रह।''
''फिलिप, यह तो सिरदर्दी बहुत बढ़ जाएगी।''
''डेव, बिजनेस का दूसरा नाम सिरदर्दी ही है, अगर काम चलाना है तो सिरदर्दी लेकर ही चलेगा। फुल्हम हाई रोड पर देख कितनी दुकानें हैं, सभी पर अपना कार्ड छोड़कर आ, देखना, ज़रा ठंड बढ़ी नहीं कि तेरा फोन पर फोन बजा नहीं। उधर चैलसी रोड पर सैनुअल की दुकान है, उससे मिल, वह कोई टिप देगा।''
बलदेव ने कठिन से कठिन काम के लिए खुद को तैयार कर लिया। सबसे पहले बात पिकअप खरीदने की थी। फिलिप की बात सही थी। कार कोई गैस के सिलेंडर ढोने वाली गाड़ी है क्या? इसके लिए तो पिकअप ही चाहिए थी। पिकअप कैसे खरीदे। पास में जो पैसे थे, सब खर्च हो चुके थे। जो बचे थे, वे पिकअप लायक नहीं थे। उसने कार बेच दी और टोयटा पिकअप खरीद लाया। कार को उसने बहुत भारी मन से बेचा। यह सिमरन ने उसको जन्मदिन के तोहफे के तौर पर दी थी। पिकअप में एक सवारी और ड्राइवर की सीटें थीं। पीछे पैंतालीस सिलेंडर आ जाते थे। नौ सिलेंडर लम्बाई में और पाँच चौड़ाई में। डाले तीन तरफ खुलते थे। तीनों तरफ ही उसने कम्पनी का नाम लिखवा लिया - 'ए.एस. गैस'। उसने 'ए' एनैबल से लिया था और 'एस' शूगर से। इसी नाम का बैंक में अकाउंट भी खुलवाया था। पहले दिन ही गाड़ी सिलेंडर से भरकर निकला तो दस सिलेंडर बेच आया। सभी मेन रोड पर पड़ने वाली दुकानों पर अपने कार्ड भी छोड़ता गया। वापस यार्ड में लौटा तो पाँच आर्डर डिलीवरी के आए पड़े थे। दो ग्राहक भी गैस लेने आ गए। उसकी दिहाड़ी बन गई थी। उसको उम्मीद बंध गई थी कि काम चल पड़ेगा।
अगले दिन मौसम कुछ ठंडा था। उसको उम्मीद थी कि कल की तरह ही उसकी दिहाड़ी बन जाएगी। वह पिकअप पर सिलेंडर रख रहा था कि फिलिप आ गया। उसकी तरफ देखता हुआ बोला-
''अब लगता है असली गैस मैन, परन्तु तेरे कारोबार में अभी भी बहुत बड़ी कमी है।''
''वह क्या ?''
''कल मैं दो बार आया था, तेरा यार्ड बन्द मिला। मेरे खड़े खड़े कई ग्राहक आकर लौट गए। तू दो काम एक साथ नहीं कर सकता। या तो गैस डिलीवर करेगा या यहाँ यार्ड में बैठेगा। इसके लिए जैसे मैंने पहले कहा था, किसी को काम पर रख।''
(जारी…)

लेखक संपर्क :

67, हिल साइड रोड,

साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड

दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)

बुधवार, 2 नवंबर 2011

गवाक्ष – नवंबर 2011



जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की चालीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के नवंबर 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – यू के से पंजाबी कवयित्री डा. देविंदर कौर की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की इकतालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

यू.के. से
डा. देविंदर कौर की कविताएं
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाब के कपूरथला ज़िले में 20 अक्तूबर 1948 को जन्मी डा. देविंदर कौर पंजाबी की चर्चित कवयित्री-लेखिका हैं। ये अंग्रेजी और पंजाबी साहितय में एम.ए. हैं और पंजाबी कविता पर इन्होंने पी.एच.डी. की है। दिल्ली यूनिवर्सिटी कालेज से सन् 1970 में अध्यापन शुरू करके यू.के. में बिलस्टन कम्युनिटी और वुलवरहैम्पटन कालेज में लेक्चरर पदों पर रहीं। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'इस तों पहिलां कि', 'नंगियां सड़कां दी दास्तान', 'अगन चोला'(काव्य संग्रह), 'क्रिया-प्रतिक्रिया', 'पंजवा चिराग़', 'वीरसिंह काव्य दा रूप-विज्ञानक अध्ययन', 'विविधा', 'युकलिप्टस ते हैमिंगवे', 'अमृता प्रीतम दी गल्प ते काव्य चेतना', 'ब्रितानवी पंजाबी साहित दे मसले', 'देव', 'शब्द ते सिरजना' आदि(साहित्यिक आलोचना संबंधी पुस्तकें) हैं। इसके अतिरिक्त वर्ष 1990 से 1993 तक पंजाबी की साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्यिक सूरज’ का संपादन तथा आजकल पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका 'प्रवचन' का सम्पादन। पंजाबी अकादमी, दिल्ली से वार्तक अवार्ड, हरियाणा अकादमी और कलाकार लेखक मंडल की ओर से 'साहित्य सेवा अवार्ड', इंडो-कैनेडियन टाइम्ज़ ट्रस्ट तथा केन्द्रीय लेखक सभा की ओर से आलोचना के क्षेत्र में अवार्ड के साथ-साथ अनेक अन्य अवार्डों से सम्मानित। वर्तमान में यू.के. में रह कर पंजाबी साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अमूल्य योगदान दे रही हैं। डा.देविंदर कौर की यहां प्रस्तुत कविताएं तनदीप तमन्ना के बहुचर्चित पंजाबी ब्लॉग 'आरसी' पर पंजाबी में प्रकाशित हैं, वहीं से लेकर इनका हिंदी अनुवाद किया गया है और 'गवाक्ष' के हिंदी पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है।


समर्पण
वह बहुत कुछ कह सकती थी
शायर को खोजते-खोजते
शायरी को लिखते-लिखते
पर वह कुछ नहीं उच्चारती...

वे उससे पूछते हैं
तेरी सोच
तेरा मिज़ाज कहाँ है ?
वह बताती है-
वह गवां आई है
अपने आप की तलाश में

शायर को
खोजते-खोजते
शायरी को
लिखते-लिखते
अपने आप को तलाशते
वह बेगानी हो गई एक दिन
और
शायरी के देश में से
पता नहीं किस वक्त
चल पड़ी
बच्चों के देश
फूलों, पत्तियों के देश
जहाँ फूलों जैसी हँसी
मासूम आँखों में से
उड़ती फाख्ताएं
उसको मिलने आईं
और वह हो गई
सारी की सारी
उन फाख्ताओं के हवाले

धड़कन
अरदास उदास है
उसमें बोले जा रहे शब्द
उसको स्मरण कराते हैं
अपनी माँ की
बेरहमी के साथ
मर रही हसरतें
अपनी नानी के
सिकुड़ रहे शरीर में से
घुट-घुट जाती रूह

कभी कभी जब वह
मन के गुरुद्वारे में बैठकर
‘कीर्तन सोहिले' का
पाठ करती है
कर लेती है मन शांत

फिर भी...
उसको लगता है
शांति में से निकल रहे
सेक की भाप
वह अपनी अन्दर ही
कहीं भरती रहती है

कितना कुछ
सह सकती है वह
अपने हिस्से की उदासी
या सारे गाँव की अरदास में से
फैल रही धुएं से भरी हवा

शांति तो बस
निरी 'ओम शांति' है
अरदास तो निरी शांति है
और
वह...
रूह की धड़कन
तलाश रही है !

जश्न
न ख़त की प्रतीक्षा
न किसी आमद का इंतज़ार
न मिलन-बेला की सतरंगी पींग के झूले
न बिछुड़ने के समय की कौल-करारों की मिठास...

वह होता है...
रौनक ही रौनक होती है
वह नहीं होता तो
सुनसान रौनक होती है
रौनक मेरी सांसों में धड़कती है

मेरी मिट्टी में से एक सुगंध
निरंतर उठती रहती है
मैं उस सुगंध में मुग्ध
सारे कार्य-कलाप पूरे कर
घर लौटती हूँ

लक्ष्मी का बस्ता खूंटी पर टांगती हूँ
मेनका की आह से गीत लिखती हूँ
पार्वती के चरणों में अगरबत्ती जलाती हूँ
सरस्वती के शब्दों के संग टेर लगाती हूँ

इस तरह
अपने होने का जश्न मनाती हूँ।
00

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 41)




सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ छियालीस ॥
बलदेव अलॉर्म बजने से पहले ही जाग गया। अलॉर्म वह लगाता अवश्य था, पर बजने कम ही देता। सुबह छह बजे उठने की आदत बन चुकी थी। अब उसको काम पर नहीं जाना होता था, पर वह उठ जाता। वह उठा। वाशरूम में गया और रसोई में आकर चाय बनाने लग पड़ा। लैटरबॉक्स में से कुछ गिरने की आवाज़ हुई। अख़बार इस समय तक आ जाती थी। अपने फ्लैट में आकर सबसे पहले उसने अख़बार लगवाई। अख़बार की सुर्खियाँ देखीं और तैयार होने लगा।
तैयार होते हुए उसके मन में आया कि उसे जाना तो कहीं भी नहीं था, फिर तैयार क्यों हो रहा था। वह सोचने लगा कि तैयार होना ज़िन्दगी के रूटीन का एक हिस्सा है। इस रूटीन को वह बरकरार रखना चाहता था। तैयार होकर और कुछ नहीं तो समाचार ही देखेगा। कोई दूसरा प्रोग्राम देख लेगा। कहीं किसी नौकरी की तलाश में निकल जाएगा। कुछ न कुछ करेगा ज़रूर। करने के लिए कुछ न होना भी अच्छे चिह्न नहीं हैं ज़िन्दगी के।
यह उसका खाली होने का दूसरा सप्ताह था। उसने काम पर से इस्तीफ़ा दे दिया था या देना पड़ा था। यूनियन का रैप मोहन मिस्त्री उसको भीतरी बात बता गया था कि उसको सैक देने की तैयारी कर ली गई है। सैक हो गई तो दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। मैनेजमेंट के साथ यूनियन ने उसका समझौता करवा दिया था कि उसके रिकार्ड में कोई खराब टिप्पणी नहीं अंकित की जाएगी, अगर वह स्वयं इस्तीफ़ा लिखकर दे दे। सो, उसने लिख दिया। नौकरी छूटने का उसको कोई दुख नहीं था। अपितु खुशी थी। तसल्ली भी थी कि नौकरी के कारण ही मोर्टगेज़ मिल गई थी। उसे आशा थी कि कोई न कोई नौकरी जल्दी ही मिल जाएगी।
मुश्किल तो अब होनी ही थी, रोज़मर्रा के खर्च की। पहले हज़ार पौंड महीने का सीधे बैंक में चला जाया करता था। उसी में से किस्त जानी थी और अन्य खर्चे भी निकलने थे, पर अब तो बैंक में एक भी पैनी नहीं जाएगी। उसके पास कुछ पैसे थे, ऐसी इमरजैंसी के लिए, पर वे कब तक चलेंगे। शौन कहा करता था कि पैसा ज़रूर आता रहना चाहिए, नहीं तो कुऑं भी खाली हो जाता है। उसने सबसे पहले पब जाना बन्द किया। कार इस्तेमाल करनी भी छोड़ दी। एक अख़बार का ही फिज़ूल खर्च था अब। अख़बार को वह ज़रूरी समझता था। टी.वी. वाले सही समाचार नहीं देते। गार्जियन की राय उसको सही लगती।
अस्सी हज़ार का फ्लैट लिया था। अब दो हज़ार उसने अपने आप से भी छुपा कर रखा था। दूसरा सप्ताह खाली बैठे बीता तो उसका हाथ वहाँ भी न पहुँचा। काम की तलाश के लिए भाग दौड़ उसने और तेज़ कर दी। मज़दूरी अब उससे होने वाली नहीं थी। किसी दफ्तरी नौकरी की तलाश में ही था।
उसके घर से निकलते मेन रोड पर एक न्यूज़ ऐजेंट की दुकान पड़ती थी। यहीं से उसकी अख़बार जाती थी। दुकान में जाता तो दुकानदार मुरली भाई पूछने लगता-
''क्यों भैया, बनी कुछ बात काम की ?''
''न मुरली भाई, अभी नहीं। बनेगी एक दिन, करने वाले को काम की कमी नहीं।''
एक दिन मुरली भाई कहने लगा-
''एक रूम किराये पर क्यों नहीं दे देते।''
''बात तो ठीक है, इसका सिस्टम क्या होता है, मुझे कुछ पता नहीं।''
''इधर विंडो में ऐड लगाओ। एक महीने का डिपोजिट, किराया एक महीने का एडवांस, ढाई सौ एक महीने का किराया मांगो।''
''इतना मिल जाएगा ?''
''अरे, मैं लेता हूँ। दुकान के ऊपर तीन कमरे हैं। एक एक का ढाई सौ लेता हूँ। ये फुल्हम है भैया !''
उसने मुरली के कहे अनुसार एक नोट लिखकर उसकी खिड़की में लगे नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। ऐसी छोटी-छोटी मशहूरियों के नोट दूसरे भी कई लगे हुए थे। इसका मुरली थोड़ा-सा किराया लेता था, पचास पैनी हर रोज़ की। मुरली ने पूरे सप्ताह के साढ़े तीन पौंड अख़बार के बिल में ही जोड़ दिए। उसी दिन ही बलदेव सोशल सिक्युरिटी के दफ्तर जाकर बेरोज़गारी भत्ते के लिए भी फॉर्म भर आया। इस प्रकार उसे उम्मीद हो गई कि कुछ न कुछ अवश्य आएगा।
वह दिन भर घर में अकेला ही होता। शाम को कई बार एलीसन की तरफ जाया करता, पर लगातार नहीं। शौन को उसको अपने फ्लैट का नंबर दे दिया था, वह उसको वहीं फोन कर लिया करता या फिर बलदेव घुमा लिया करता। गुरां की उसको बहुत याद आती, पर उधर कभी गया नहीं था। अजमेर के बर्ताव को लेकर उसका दिल करीब दो दिन खराब रहा, पर फिर उसने मन को समझा लिया कि ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है। कोई भी आता-जाता तुम्हें खामख्वाह गलत बोल जाए तो इसको बड़ा इशु नहीं बना लेना चाहिए। कितने गोरे नस्लवादी गालियाँ निकाल कर भाग जाते हैं, कितने सिरफिरे किसी राह जाते शरीफ बन्दे को मार पीट कर दौड़ जाते हैं, पर ज़िन्दगी रुकती नहीं। अब उसको अजमेर भी ऐसे ही लोगों में शामिल लगा, जिसका काम दूसरे को गलत बोल कर अपने लिए मानसिक संतुष्टि खोजना था। परन्तु, गुरां उसकी याद में हर वक्त रहती। उस दिन फ्लैट में आई भी थी, पर बहुत खुश नहीं लौटी थी। उसने इसका कारण खोजने के लिए बहुत सोचा था और उस दिन के बाद वह उसको अच्छी तरह मिल भी नहीं सका था कि पूछ सके। अच्छी भली खुश-खुश आई थी और फिर एकदम बीमार हो गई। गीत भी पूरा न कर सकी। फिर वह कंधे उचकाता स्वयं से कहने लगा कि इतनी औरतों से वास्ता पड़ने के बाद भी वह उनकी समस्याओं को समझ नहीं सका था।
उस दिन उसने सवेरे ही टेलीविज़न लगा लिया। अहम ख़बर यह थी कि रूस का राष्ट्र्पति ब्रितानिया की यात्रा पर आया हुआ था। उसको पश्चिम वाले अपना समर्थक बनाने के यत्न में थे। बलदेव को रूस और पश्चिम के आपसी तनाव में सदैव ही दिलचस्पी रही थी और उसकी सहानुभूति पहले दिन से ही रूस के साथ थी। वह समाचार देखते-देखते इनके बीच के तथ्यों के विषय में सोच रहा था। यदि शौन होता तो उसके साथ खूब बहस होती। शौन सदैव ही पश्चिम का पक्ष लेता। सोवियत यूनियन के टूटने की बात तो पश्चिम का सारा मीडिया एकसुर होकर किया करता था। जिस प्रकार गोर्बाचोव पश्चिम की ओर मुड़ रहा था, इससे यही प्रतीत होता था कि कोई गड़बड़ होने की संभावना थी। यहाँ के मीडिया के अनुसार बहुत बड़ी लॉबी पश्चिम वाली आर्थिकता की वकालत करती उभर रही थी। बलदेव पब में भी कई दिनों से नहीं गया था। वह जानता था कि जैरी स्टोन भी ऐसी ही बातों के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा।
उस दिन वह घूमने के मूड में घर से निकला और दरिया की तरफ चल पड़ा। किनारे-किनारे चलता हुआ वह वैस्ट मनिस्टर की ओर हो गया। दरिया भरा हुआ था। उसके बायीं ओर सड़क थी और दायीं ओर दरिया। दरिया में किश्ती और सड़क पर कार एक बराबर दौड़ रही थीं। दूर तक घूम कर जब वह मुड़ा तो दरिया एकदम नीचे उतर चुका था। इतना नीचे कि कार में बैठे हुए किश्ती दिखाई नहीं देती थी। वह एक पल के लिए रुका और सोचने लगा कि इतने घंटे दरिया किनारे घूम कर वह कौन से फैसले पर पहुँचा था। बरमिंघम रहते हुए उसके मित्र तरसेम वैद ने उसके लिए कोई नौकरी देखी थी। उसका कहना था कि बरमिंघम मूव हो जाए। वहाँ ज़िन्दगी आसान थी, घर सस्ते थे। और रहन-सहन का स्तर भी आसानी से सह सकने वाला था। वह घूमता हुआ लंदन और बरमिंघम के फ़र्क के बारे में ही सोचता रहा। उसने एक बार थेम्ज़ की ओर देखा और कहा-
''तेरे बग़ैर मैं अब कहीं नहीं बस सकूँगा।''
वह अपनी रोड पर मुड़ा तो हरे रंग की गरनाडा उसके पास आकर रुक गई। उसने झुककर देखा, जैरी स्टोन था। वह बोला-
''हैलो डेव, कहाँ रहते हो ? इतने दिन हो गए, पब में नहीं आया ?''
''हैलो जैरी, क्या हाल है तेरा ? मैं ज़रा बिजी हो गया था।''
''तेरी कार भी कई दिन से वैसे की वैसे खड़ी रहती है, सब ठीक तो है न ?''
''सब ठीक है जैरी। वैसे भी मैं ज्यादा समय घर के अन्दर ही होता हूँ।''
''फिर आज पब आ जा। तेरे साथ बहुत सारी बातें करनी हैं, तेरे साथ बैठना अच्छा लगता है।''
''ठीक है जैरी, आज आऊँगा। घर में बैठा मैं भी बोर हुआ पड़ा हूँ, आज आऊँगा।''
''मैं तेरा इंतज़ार करूँगा।'' कहकर जैरी कार दौड़ा ले गया। बलदेव सोच रहा था कि शायद जैरी ने भी गार्जियन में छपा प्रसिद्ध कॉलमिनिस्ट रौजर मार्टिन का लेख पढ़ लिया होगा जिसमें उसने लिखा था कि अमेरिका का राष्ट्रपति रेगन सिर्फ इसलिए लोकप्रिय है कि उसके बयान युद्ध को उकसाते रहते हैं, जो कि इस वक्त अमेरिकी साइकी को पसन्द है और माग्रेट थेचर का अमेरिका के प्रति झुकाव का कारण एक औरताना फितरत है। ये बातें पहले बलदेव ने जैरी से कही थीं तो वह भड़क उठा था। मेज़ ठोक कर विरोध कर रहा था।
बलदेव करीब आठ बजे पब में पहुँच गया। जैरी हमेशा वाली जगह पर बैठा बाहर दरिया की ओर देख रहा था। बलदेव ने अपना गिलास भरवाया और उसके सामने जा बैठा। ‘हैलो’ के बाद कहने लगा-
''सितम्बर के हिसाब से तो मौसम बहुत गरम है।''
''हाँ डेव, पर ठंड तो पड़ेगी ही, अगर न पड़ी तो हमारे बिजनेस का क्या होगा ?''
''हाँ, जिस प्रकार गरमी लेट तक चल रही है, ठंड भी इसी तरह चलेगी, हो सकता है।''
''डेव, तू बीमार है ?''
''नहीं तो, तू कैसे कह सकता है ?''
''तेरे चेहरे से लग रहा है... अगर कोई बात है करने वाली तो कर ले, शायद तेरे काम आ सकूँ।''
''जैरी, मेरी नौकरी चली गई। मैं अब दूसरे काम की तलाश में हूँ।''
''सॉरी डेव, इस मामले में मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकता।''
''कोई बात नहीं जैरी, मिल जाएगी।''
''हाँ, नौकरी के बिना कुछ नहीं। पर आजकल अच्छी नौकरियाँ मिलती भी मुश्किल हैं। कोई बिजनेस देख ले। तू कह रहा था कि तेरे भाई बिजनेस में हैं।''
''हाँ जैरी, पर मुझे किसी बिजनेस का अनुभव नहीं।''
''हमारे बिजनेस में आ जा, ज्यादा अनुभव की ज़रूरत नहीं।''
''मैं तेरा मतलब समझा नहीं।''
''गैस के बिजनेस में आ जा, लोग ठीक पैसे कमा रहे हैं।''
''मुझे तेरे बिजनेस के बारे में तो कुछ भी नहीं पता। दुकान तो अभी फिर भी...।''
''यह तो इतना सरल बिजनेस है कि शायद इतना आसान कोई ही दूसरा हो, एक तरफ से सिलेंडर लेकर दूसरी तरफ बेचते रहना है और कमिशन तेरा।''
''पर सिलेंडर रखने वाली दुकान की ज़रूरत पड़ेगी, स्टॉक के लिए पैसों की भी बहुत ज़रूरत पड़ेगी। मेरे पास जो कुछ था, मैंने फ्लैट में खर्च कर दिया।''
''नहीं डेव, स्टॉक के लिए कोई गारंटी चाहिए। तेरी गारंटी मैं दे दूँगा और इस काम के लिए दुकान की ज़रूरत नहीं होती, यार्ड की ज़रूरत है, किसी इंडस्ट्रियल एस्टेट में मिल जाएगा। किसी भी पिछली रोड पर काम चल सकता है। यह काम एडवरटाइज़मेंट के सिर पर चलता है, हमारी कम्पनी सीज़न आने पर पूरे लंदन की लोकल प्रैस में एड देती है, उसी में तेरे इलाके में तेरा भी नाम दे देंगे।''
''सुनने में तो बहुत आसान लगता है।''
''करने में भी इतना ही आसान होगा, यकीन कर। करीब तीन पौंड एक सिलेंडर के पीछे बचता है। अगर खुद डिलीवर किया करे तो एक पौंड और रख ले।''
ऐसा लग रहा था मानो जैरी उसको व्यापार करवाने पर तुला बैठा हो। बलदेव को सोच में पड़ा देखकर वह बोला-
''सोच ले अच्छी तरह, इसमें गंवाने के लिए कुछ नहीं, पर इतना भी है कि यह सीज़नल बिजनेस है, सिर्फ सर्दियों का, गर्मियों में कुछ नहीं होता। गर्मियों में कुछ और कर लेना।''
''जैरी, अगर तू इतने विश्वास से कह रहा है तो मैं ज़रूर करूँगा, मेरी हाँ है। बता, अगला स्टैप क्या होगा ?''
''अगला स्टैप यह है कि तू कल ही एस्टेट एजेंटों के पास जाकर यार्ड देखने शुरू कर दे। मैं तुझे कल बताऊँगा कि साउथ ईस्ट के किन इलाकों में हमारे एजेंटों की कमी है।''
(जारी…)
00
लेखक संपर्क :67, हिल साइड रोड,

साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड

दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

गवाक्ष – सितम्बर 2011




जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू।एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की उनतालीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के सितम्बर 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – कनाडा से पंजाबी कवि सुखिंदर की कविता तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की चालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

कनाडा से
सुखिंदर की कविता

छठा दरिया
हिन्दी रूपांतर : सुभाष नीरव


पंजाबियों को पंजाब के
पाँच दरियाओं से मोह है…

पर, अब जो छठा दरिया भी
बह रहा है
उसका क्या करेंगे?

यह छठा दरिया
नशों का दरिया है
जिसमें डूब रहा है
हर कोई अपनी ही
मन-मर्जी से

शाम होते ही
रंगीन होने लगता है माहौल
छलकने लगते हैं गिलास
फिर, देखते ही देखते
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध
सब कुछ डूब जाता है
बह रहे छठे दरिया में

पंजाबियों को, पंजाब के
पाँच दरियाओं के मोह है
पर, छठे दरिया के पानियों का
आकर्षण ही कुछ ऐसा है
कि देश-विदेश के अनेक
बहु-चर्चित ‘कबड्डी खेल मेले’
महज़, ‘ड्रग स्मगलिंग मेले’
बनकर रह गए हैं
और खिलाड़ी
कबड्डी के खेल में जीत हासिल करने की जगह
‘ड्र्ग स्मगलर’ बनकर
चर्चा का विषय बन रह हैं…

पंजाबियों को पंजाब के
पाँच दरियाओं से मोह है –
पर छठे दरिया के पानियों का जादू
अपनी विद्वता का पांडित्व
दिखाने के उतावलेपन में गुम
अनेक क्रांतिकारियों की चेतना में उभरे
पता नहीं कितने
राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक इंकलाब
झाग बनकर तैरने लगते हैं
अध-भरे व्हिस्की के गिलासों में

और फिर
जैसे ही नशा अपना असर दिखाता है
उनको लगता है –
बस, इंकलाब आया कि आया
मानो, इंकलाब कमरे के बाहर कहीं
दहलीज़ पर खड़ा हो…
00
सुखिन्दर
कैनेडा में एक कैनेडियन पंजाबी लेखक के तौर पर सन् 1975 से सक्रिय। कैनेडा से पंजाबी में छपने वाले खूबसूरत मैगज़ीन “संवाद” के सन् 1989 से संपादक। टोरंटो (कैनेडा) के पंजाबी रेडियो प्रोग्राम “जागते रहो” के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और होस्ट। कविता, फिक्शन और विज्ञान विषयों पर अब तक 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। सन् 1975 में हरियाणा भाषा विभाग द्वारा ‘बेस्ट बुक अवार्ड’ से सम्मानित। इसके अतिरिक्त ऑन्टारियो आर्टस कौंसल ग्रांट, कैनेडा (1986 और 1988 ), द कैनेडा कौंसल ग्रांट(1995), इंटरनेशल अवार्ड (1993 और 1996) प्राप्त।
सम्पर्क : Box 67089, 2300 Yonge St.,
Toronto ON M4P 1E0 Canada
Tel. (416) 858-7077
Email:
poet_sukhinder@hotmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 40)




सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पैंतालीस ॥

शिन्दे के वापस आ जाने पर अजमेर बहुत खुश था। वह जानता था कि सतनाम को इससे काफ़ी तकलीफ़ हुई होगी। सतनाम भी तो दांव लगाकर शिन्दे को ले गया था। पचास की जगह सौ पौंड देकर। शिन्दे के कारण ही सतनाम की सेल बढ़ने लग पड़ी थी। उसकी साप्ताहिक बिक्री अजमेर के बराबर आ पहुँची थी, जबकि उसका मुनाफ़ा अजमेर के मुनाफ़े से दोगुना था। सतनाम के मीट के कारोबार में से लाभ चालीस प्रतिशत तक पहुँच जाता, जबकि अजमेर का मुनाफ़ा पंद्रह से बीस प्रतिशत ही होता था। सिगरेटों और व्हिस्की की बोतलों में से तो पाँच प्रतिशत ही रह जाता। यही कारण था कि मनजीत ने नई कार ले ली थी। सतनाम ने भी दुकान को फ्री-होल्ड खरीदने के लिए लैंडलॉर्ड के साथ बात करनी शुरू कर दी थी। ऐसे तो वह अजमेर से आगे निकल चला था। शिन्दे को वापस ले आना एक बार तो अजमेर को ऐसा लगा मानो उसने सतनाम का प्लग ही खींच दिया हो। मन ही मन कहता कि भाग कहाँ तक भागता है।
टोनी वाली पूरी तनख्वाह बचने लग पड़ी। शिन्दा सवेरे उठता और गई रात सोता। वह अकेला ही काम चला सकता था। कठिन समय के लिए गुरिंदर भी घर ही होती। अजमेर भी आस पास ही रहता। शाम को भीड़ के समय अजमेर गल्ला संभालता और शिन्दा ऊपर का काम। टोनी का छुट्टियों पर चले जाना उन्हें एक बार भी नहीं अखरा था। अपितु वह सोचता था कि इस स्कीम पर पहले क्यों नहीं अमल किया।
काम को इतना आराम से चलता देख अजमेर एक बार फिर अपने बिजनेस को बढ़ाने के सपने लेने लग पड़ा था। टोनी ने लौटकर शाम के वक्त शिन्दे के साथ खड़े होना ही था। अजमेर ने एक बार फिर खाली होना था और वह कोई दूसरी दुकान आदि ले सकता था। अब तो बच्चे भी बराबर के होने वाले थे। और कुछ वर्ष में शैरन दुकान में खड़ी होने योग्य हो जाने वाली थी और उसके पीछे ही हरविंदर भी। लोगों के बच्चे छुट्टियों में बाहर काम करने जाते हैं, उनके लिए घर की दुकान थी।
कभी-कभी अजमेर को ढिंचली वाले पब की याद हो आती तो उसको बहुत दुख होता। उसने उधर जाकर देखा था। पब अब खुल चुका था। लिया भी किसी इंडियन ने ही था और भीड़ भी खूब रहती थी। उसको सतनाम पर गुस्सा आने लगा कि आधे में उसके संग क्यों खड़ा नहीं हुआ। आधे में खड़ा होना तो एक तरफ़, उसको भी उसने दिल गिराने वाली सलाह दी थी। यदि वह पब खरीद लिया होता तो अजमेर आज कहीं का कहीं होता। पंडोरी के यहाँ आए लोगों में से शायद उसका नाम सबसे ऊपर होता।
जैसा कि स्वभाव का वह सूफी था, अधिक बात नहीं करता था। शिन्दे के साथ तो बिलकुल ही नहीं, डिब्बा पीकर खुलने लगता। दो डिब्बे पीकर सीधे सवाल करता, पूछता-
''कैसे ? खुश है ?''
''खुश क्या, मैं खुश ही हूँ।''
''मैंने कहा, अगर अब भी खुश न हुआ तो फिर तू कभी खुश नहीं होगा। तू लखपति हो गया, मिंदो के नाम पर दो लाख से ऊपर है।''
''भाजी, सब तुम्हारे कारण ही है।''
''बुच्चर की शॉप की अपेक्षा यहाँ आराम है तुझे... देख, सारा दिन बाहें लटकाये फिरता है। वहाँ मीट की बू से ही भरा फिरता था।''
''भाई, वहाँ काम भी ज्यादा है। सवेरे-सवेरे तो काम का प्रैशर ही बहुत होता है।''
अजमेर खुश हो जाता और बियर का एक डिब्बा पकड़ा देता। शिन्दे का उसने सीधा-सा हिसाब रखा हुआ था कि शाम के सात बजे उसको बियर का एक डिब्बा देता और दूसरा दस बजे। एक बड़ा पैग रोटी खाते के समय। अपनी तरफ़ से शिन्दे की शराब पर नियंत्रण रखा हुआ था। मिंदो ने भी कहकर भेजा था कि उसको ज्यादा पीने न देना। अजमेर को स्वयं भी महंगा न पड़े इसलिए भी ध्यान रखता।
शिन्दे को सुबह जल्दी उठने की आदत पड़ गई थी। वह सवेरे उठकर दुकान में झाड़ू-पौचा लगाता। रात के खाली पड़े बॉक्स तोड़ तोड़कर या फिर दूसरा फालतू सामान कूड़ेदान में डालता। टोनी यह सारे काम रात को ही किया करता था, पर उसको ये सब बहुत दौड़-दौड़ कर करने पड़ते। शिन्दा रात को मजे से काम करता और यह ऊपरवाला काम सवेरे उठ कर निपटाता और दस बजने से पाँच मिनट पहले ही दुकान खोल लेता। अजमेर उसकी यह फुर्ती देखकर खुश हो जाता। मंगलवार और शनिवार दुकान की शॉपिंग करनी होती। शिन्दा अजमेर को किसी भी काम को हाथ न लगाने देता, वह पूरी वैन खुद ही लदवाता और उतरवाता।
अजमेर को एक दिन बोतलों के पीछे ऐश-ट्रे में सिगरेट के टोटे दिखाई दे गए। यह ऐश-ट्रे टोनी इस्तेमाल करता था। वह कई बार स्टॉक रूम में खड़े होकर सिगरेट पिया करता था। सिगरेट के टुकड़े देखकर अजमेर बोला-
''ये सिगरेटें तू पीता है ओए ?''
''नहीं भाजी।''
''फिर ये ऐश ट्रे में टुकड़े कहाँ से आ गए ?''
''टोनी के होंगे।''
''टोनी को गए तो कई दिन हो गए। और वह तो ऐश ट्रे साफ करके गया था, मैंने खुद देखा।''
''नहीं भाजी, तुम्हें भ्रम हो रहा होगा।''
''भरम का कुछ लगता, क्यों झूठ बोले जा रहा है... कहीं बुच्चर ने कुछ सिखा कर तो नहीं भेजा !''
''उसने मुझे क्या सिखाना है ?''
''यही कि जाकर मुझे ज़मीन पर लगा, वह मुझे देखकर खुश जो नहीं है।''
शिन्दा कुछ न बोला। अजमेर ही चुप हो गया, पर उसके मन में यह बात बैठ गई। रात को खाना खाते समय फिर इसी बात को लेकर बड़बड़ाने लगा। शिन्दे ने अपना पैग पिया और रोटी खाये बग़ैर ही सो गया।
अजमेर सुबह को इस तरह था जैसे कुछ हुआ ही न हो। शिन्दे ने भी रात की बात का जिक्र न किया। पर अजमेर सोच रहा था कि ढाई पौंड की डिब्बी थी, अगर रोज़ की एक डिब्बी भी पी जाए तो बात कहाँ पहुँचती थी। सिगरेटों में से तो पहले ही कुछ नहीं बचता था। उसने दुबारा सिगरेट के टुकड़े कहीं न देखे। करीब दो दिन शिन्दा चुप रहा और फिर ठीक हो गया।
एक दिन अजमेर को लगा कि शिन्दा सही नहीं चल रहा। अजमेर बोला-
''ओ... तूने दिन में ही पी ली ?''
''नहीं भाजी...वैसे ही थकावट सी है। रात को आँख खुल गई, दुबारा नींद ही नहीं आई।''
अगले दिन अजमेर ने शिन्दे की ओर ध्यान से देखा तो उसकी आँखें कुछ लाल-सी प्रतीत हुईं। अजमेर ने कहा-
''आज फिर शराबी लग रहा है।''
''नहीं भाजी, नजला हो रखा है कल से।''
अजमेर ने करीब होकर सूंघकर देखा और बोला-
''तेरे से तो स्मैल ही बहुत आ रही है।''
''रात वाली होगी। मैंने जल्दी में सवेरे कपड़े जो नहीं बदले, तभी।''
अजमेर सोचने लगा कि यह सवेरे जल्दी उठता है, कहीं उसी समय ही दाव न लगाता हो। सवेरे जब शिन्दा डस्टबिन भरकर हटा तो अजमेर ने उसके अन्दर हाथ मारकर देखा। बियर के दो ताज़े डिब्बे पिये हुए मिल गए और एक व्हिस्की की खाली की गई पव्वे वाली बोतल भी। अजमेर का गुस्सा तो सातवें आसमान पर जा चढ़ा। वह चीखता हुआ बोला-
''सौ पौंड तेरी तनख्वाह, ये सौ पौंड की तू चुरा कर पी जाता है, फिर तेरा कपड़ा, खाना-पीना सब फ्री... तू तो मुझे तीन सौ पौंड हफ्ते का पड़ता है। टोनी तो तेरे से मुझे बहुत सस्ता पड़ता है। और तो और मैं गलती से तेरी तनख्वाह एडवांस में दे आया... ऐसा कर, अपने पैसे पूरे कर दे और जा, बाहर जाकर जहाँ मर्जी काम कर और जहाँ चाहे रह, फिर तू इतनी पी कर दिखा और सौ पौंड बचा कर भी...।''
शिन्दे ने उस दिन फिर खाना नहीं खाया और चुपचाप जाकर सो गया।
धीरे-धीरे अजमेर को लगा कि शिन्दा तो उसके लिए एक समस्या बनता जा रहा था। इस हिसाब से वह उसको बहुत महंगा पड़ता था। शराब पीकर दुकान में खड़े होकर गलतियाँ भी करता होगा। वह गुरिंदर के साथ बात करते हुए कहने लगा-
''शिन्दा तो फिश बोन बनकर गले में अटक गया है।''
''मुझे तो पहले ही पता था, मैं इसके कपड़े मशीन में जब धोती हूँ, बू मार रहे होते हैं।''
''तूने बताया नहीं ?''
''तुम कहते कि भाई की चुगली करती हूँ।''
''तू अब इसको समझा, समझा इसको।''
''मैं क्या समझाऊँ, तुम्हारा भाई है, तुम ही समझाओ। और फिर, इंडिया वाली ने भी तुम्हारी ही ड्यूटी लगा रखी है।''
उसके व्यंग्य पर अजमेर जल-भुन गया, पर कुछ बोल न सका। वह गुस्से में आया, अपने हाथ में मुक्के मारने लग पड़ा। गुरिंदर फिर बोली-
''प्यार से समझाओ, ज़रा धीरज से। तुम तो अगले को ऐसे पड़ते हो कि जिसने समझना हो, वह भी न समझे।''
''मैं धीरज कहाँ से लाऊँ। जिसका इतना नुकसान हो रहा हो, वह धीरज से कैसे काम ले।''
''सतनाम को कहो इसको समझाये।''
''वो बुच्चड़ तो इसको और सीख देकर जाएगा, मुझे पता है, यह उसी का उठाया हुआ है... मैं एक बात बता दूँ, अगर समझ गया तो समझ गया, नहीं तो बहुत बुरा होगा। मैं पुलिस को एक फोन करके इसको उठवा कर इंडिया फिकवा दूँगा।''
''ऐसा न सोचो, कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा।''
''इसे समझाओ फिर।''
''बलदेव इसके साथ बात कर सकता था, उसकी बात यह समझ भी लेता, पर उसको तुमने नाराज़ कर लिया।''
''नाराज़ कैसा, ला, अभी फोन कर लेते हैं। वो ही एक बार समझा कर देख ले, नहीं तो मैं इसको वापस भेज दूँगा।''
अजमेर बलदेव को उसके काम पर फोन करने लगा। फोन वापस रखते हुए गुरिंदर से बोला-
''बलदेव ने तो वहाँ से काम छोड़ दिया।''
(जारी…)
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मंगलवार, 19 जुलाई 2011

गवाक्ष – जुलाई 2011




जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की अड़तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जुलाई 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – इंग्लैंड से हिंदी कवयित्री डॉ. वन्दना मुकेश की कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की उनतालीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

इंग्लैंड से
डॉ. वन्दना मुकेश की पाँच कविताएँ


डैफ़ोडिल

सुन दोस्त, उधर देख-
गुदगुदी वातानुकूलित गाड़ियाँ
क्यों दिखती हैं
थकी, उकताई-सी।
धीरे-धीरे सरकती, ऊँघती सी...
और उनमें बैठे लोग
बेज़ार, थके, मायूस
कुछ खीजे से, कुछ रीते से।
सुन दोस्त, बजा सीटी,
बुला उन्हें, कर इशारा।
आ बैठें हिलमिल
दरख्तों के साये में,
खिलखिलाएँ कुछ पल
खुले आसमां के नीचे।

घर

घर और मकान की क्या परिभाषा?
मकान की
चार सपाट दीवारों में,
गूँज नहीं पाते हैं-
घर के हास-परिहास,
आशा- निराशा।

यूरोप

दबे पाँव दाखिल होते हैं
शहर में
कि खामोशी सहमा देता हमें
इंसानी हजूमों से नदारद
इस शहर में
क्या
दिल धड़कता है कहीं?


स्पर्श

कभी,
ह्रदय के अंतरतम बिंदु तक
वीणा के तारों-सा
झंकृत करता
वह स्पर्श...
भीष्म की शैया का
स्मरण कराता...

टाइम-मशीन

पिता को अंधाश्रम से घर ले आया हूँ।
क्योंकि कल ही टाइम-मशीन में,
अपना भूत औ भविष्य देख आया हूँ।


उम्मीद

जिनके पसीने से बनते हैं-
शराब के साथ के पकौड़े
बुझे पड़े हैं उनके घरों के
कई दिनों से चुल्हे।
बापू कहता है-
फसल अच्छी होगी तो
लल्ली की शादी होगी...
गोटू सोचता है
फसल अच्छी होगी तो शायद बन सकेंगे
उसके घर में भी
एक प्लेट पकौड़े...

या बापू उसे भी खेलने दे
गेंद और बल्ला,
फिर अपने चूल्हे की तो बात क्या
साँझे चूल्हे की खुशबू से
महक उठेगा मोहल्ला।
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जन्म- भोपाल 12 सितंबर 1969 शिक्षा- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से स्नातक, पुणे विद्यापीठ से अंग्रेज़ी व हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पी.एचडी की उपाधि। इंग्लैंड से क्वालिफ़ाईड टीचर स्टेटस।भाषा-ज्ञान- हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू एवं पंजाबी।लेखन एवं प्रकाशन- छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत। 1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता 'खामोश ज़िंदगी' प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक पुस्तकों, वेब पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयों पर कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित। 'नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन'- 2002 में प्रकाशित शोध प्रबंधप्रसारण- बी.बी.सी. वैस्ट मिडलैंड्स, आकाशवाणी पुणे से काव्य-पाठ एवं वार्ताएँ प्रसारितविशिष्ट उपलब्धियां-
छात्र जीवन से ही अकादमिक स्पर्धाओं में अनेक पुरस्कार, भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान
यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011, में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान
भारत सरकार एवं गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011 की संयोजक सचिव।
22वें अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में प्रपत्र वाचन
2005 में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषीय सम्मेलन की संयोजक सचिव
इंटीग्रेटेड काउंसिल फ़ॉर सोश्यो-इकनॉमिक प्रोग्रेस दिल्ली द्वारा 'महिला राष्ट्रीय ज्योति पुरस्कार' 2002
1997 से भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कवि- सम्मेलनों का संयोजन-संचालन
गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से संबंद्ध।
संप्रति- इंग्लैंड में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन
संपर्क: vandanamsharma@yahoo.co.uk

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 39)




सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव



॥ चौवालीस ॥

सुबह दुकान के शटर उठाते हुए अजमेर गुस्से से भरा पड़ा था। शिन्दा फिर सतनाम की तरफ चला गया था। जाते समय कुछ बताकर नहीं गया था। एक दो दिन और रुक जाता तो क्या फ़र्क पड़ जाता। टोनी भी आज तीन बजे काम पर आने के लिए कहकर गया हुआ था। अजमेर को लगा कि दुकान से जैसे सभी ऊबे पड़े हैं। गुरिंदर भी बहुत अच्छी तरह बात नहीं कर रही थी। बच्चों ने भी उसके इंडिया से लौटने पर कोई चाव नहीं दिखाया था।
अजमेर अभी काम करने के मूड में नहीं था। वह अभी इंडिया के सुरूर में ही था। उसको मिंदो की हँसी की टनकार अभी भी सुनाई दे रही थी। उसको गाँव की गलियों के गोबर की खुशबू अभी भी महसूस हो रही थी। धूप की चुभन भी चुभ रही थी। विवाह में जो उसकी गुड्डी चढ़ी थी, उसकी खुशी उसके अन्दर पहले की भाँति ही तारी थी, पर शिन्दे ने उसको ये दुकान खोलने में लगा दिया था। वह इतनी जल्दी इस रूटीन में नहीं घुसना चाहता था।
उसने दुकान खोली। गल्ले पर खड़ा होकर मिंदो के बारे में सोचने लगा। वह कितनी जल्दी तैयार हो गई थी और पहले दिन ही उसको जीत लिया था। बदले में अजमेर ने भी उसको खुश कर दिया था। शिन्दे की कमाई तो उसको दी ही थी और साथ ही, एक लाख एडवांस भी दे दिया जिसे शिन्दे की तनख्वाह में से उसे काटते रहना था। ट्रैक्टर बेचकर सारे पैसे उसके नाम जमा करवा दिए और और भी बहुत कुछ। भान्जी के विवाह की सारी चौधर भी मिंदो के पास ही थी। वापस लौटते अजमेर के पास तो गिनती के पौंड ही बचे थे। वह खड़ा दुकान में था लेकिन उसका मन पंडोरी में ही घूम रहा था। एक ग्राहक दुकान में आया तो उसका ध्यान टूटा। ग्राहक ने चोरी करने की कोशिश की तो अजमेर ने आगे बढ़कर रोक दिया। एक और ग्राहक आया तो वह वाइन की बोतल की कीमत को लेकर झगड़ पड़ा और जाते हुए उसको 'पाकि' की गाली दे गया। अजमेर अब इंडिया से वापस वर्तमान में लौटने लगा। तभी, एक गोरा चोरी की शराब बेचने आ गया। उसके साथ भाव तय करता हुए अजमेर पूरी तरह अपने वर्तमान में वापस आ चुका था।
उसने सेल बुक चैक की। सेल कुछ कम हुई थी पर अधिक नहीं जैसा कि उसे डर था। फिर कागज उठाकर खत्म हुई वस्तुओं की सूची बनाने लग पड़ा। कल उसे शॉपिंग के लिए जाना था। माल डिलीवर करवाना मंहगा पड़ रहा था।
जब वह लिस्ट बना रहा था, गुरिंदर नीचे आ गई। वह बहुत गुस्से में थी। अजमेर ने पूछा-
''तेरा मुँह क्यों सूजा हुआ है ?''
''जैसे तुम्हें पता ही न हो।''
''कुछ बोलो भी।''
''रात में बलदेव को क्यो अपसेट किया ?''
''मैंने उसे क्या अपसेट करना है, अपसेट तो वह मुझे करता घूमता है। हमेशा ही पराया बनकर रहता है। मेरी तरफ ऐसे देखेगा जैसे पहली बार देख रहा हो।''
''यह भी कोई तरीका था कहने का कि वो दरवाज़ा है... आख़िर तुम्हारा छोटा भाई है।''
''अगर छोटा भाई है तो मेरी किसी बात का गुस्सा नहीं करेगा।''
''भाई के साथ-साथ शरीक भी है। तुम्हें ज़रा सोच समझकर बात करनी चाहिए। तुमने उसको नाराज़ कर दिया। उसके जाने के बाद सभी दुखी हो गए थे और तुम्हें कोई फिक्र ही नहीं, एक ड्रिंक और लिया और जाकर बैड पर लेट गए।''
गुरिंदर का गला भर गया। अजमेर उसको खुश करते हुए बोला-
''तू जैसा कहे कर लेता हूँ। उसे सॉरी कह देता हूँ। उसको जाकर मना लाता हूँ। मुझे उसका एड्रेस बता, मैं आज ही होकर आता हूँ या फोन कर लेता हूँ, पर तू गम न कर।''
''मुझे उसके फोन का नहीं पता, न ही उसका एड्रेस मालूम है।''
''तू तो उसका फ्लैट साफ करने गई थी।''
''वही मुझको ले गया था और छोड़ गया था, फुल्हम में है कहीं।''
''चल, तू कूल डाउन हो जा। मैं उसके आफिस में कंटेक्ट कर लूंगा।''
''मैं कैसे कूल डाउन हो जाऊँ। बच्चे भी गुस्से में हैं, बलदेव उनका फेवरेट चाचा जी है।''
''मेरे साथ तो उन्होंने अच्छी तरह हैलो भी नहीं की।''
''हैलो कैसे करते, वे तो तुम्हारे संग विवाह पर जाना चाहते थे।''
''पर उस समय क्यों नहीं बोले। अगर कहते तो मैं ले ही जाता।''
''मैंने तुमसे कहा तो था, पर तुमने मेरी कोई बात सुनी ही नहीं। क्या मालूम तुम्हारे सफ़र में कोई विघ्न पड़ता हो, उनके संग जाने से।''
अजमेर को लगा कि गुरिंदर ने कोई बात ताने के रूप में कही थी। उसने टालते हुए कहा-
''या तो यहाँ मेरे साथ कोई काम कर, या फिर ऊपर जाकर रोटी का इंतज़ाम कर, रात में भी कुछ नहीं खाया।''
गुरिंदर ऊपर चली गई। अजमेर शिन्दे को लेकर सोचने लगा। अब शिन्दे को उसके साथ ही काम करना चाहिए था। वह उसकी एडवांस तनख्वाह जो दे आया था। इसके अलावा अब उसको शिन्दे पर पहले से ज्यादा मोह आने लगा था। उसके लौटते समय मिंदो ने कई ताकीदें की थीं। अजमेर ने मिंदो के बेटे गागू के बारे में भी सोचना था और लड़कियों के बारे में भी। अब शिन्दे का किसी दूसरे के लिए काम करना उससे देखा नहीं जाएगा। सतनाम के लिए काम करता तो वह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था। जब से शिन्दा सतनाम के साथ काम करने लगा था, सतनाम तो खाली ही हो गया था। कई कई चक्कर तो हाईब्री कॉर्नर के ही लगाता। दुकान के सामने से गुज़रता हॉर्न बजाकर जाता। उसने काम भी बढ़ा लिया था। यह सब शिन्दे के कारण ही था। शिन्दा के दुकान पर खड़े होने से चोरी के चांस कम हो जाते होंगे। इसलिए सतनाम ज्यादा देर तक बाहर रह सकता था। यदि शिन्दा उसके साथ काम करता है तो वह सौ पौंड भी दे सकता है। टोनी को किसी तरह हटा देगा।
उसने टोनी को हटा देने के बारे में पहले भी सोचा था। अपने अकाउंटेंट से इस बात को लेकर सलाह की तो उसने कहा था कि चूंकि टोनी उसके साथ काफ़ी समय से कानूनन काम कर रहा है, इसलिए रिटैंडैंसी देकर ही हटाया जा सकता था, जो कि काफ़ी बन जाती। यदि टोनी स्वयं छोड़ता था तो कुछ नहीं देना पड़ता। वह मन ही मन सारी योजना बनाता दुकान में इधर-उधर घूम रहा था। यदि टोनी काम छोड़ता है तो वह सतनाम से शिन्दे को आसानी से मांग सकता था। नहीं तो सीधे किसी बहाने के बगैर ऐसा करना कठिन था।
टोनी आया। वह बात को घुमाकर छुट्टियों पर ले आया और पूछने लगा-
''छुट्टियों पर कब जा रहा है टोनी ?''
''ऐंडी, कैसी छुट्टियाँ। मेरे खर्चे ही पूरे नहीं होते। मेरी यह गर्ल फ्रेंड खर्चीली है, पैसे लिए बिना किसी काम को हाँ नहीं करती। फिर मेरे फ्लैट का किराया, दूसरे बिल और किस्तें... कुछ न पूछ... फिर शैनी(शिन्दे) के आने पर तुमने मेरा ओवर टाइम भी बन्द कर दिया था।''
''टोनी यदि मेरी सलाह माने तो तेरे सारे मसले हल हो सकते हैं। छुट्टियाँ भी काट लेगा और तेरा हाथ भी खुला हो जाएगा।''
''वह कैसे ?''
''तू डोल (बेकारी) पर चला जा, पहली बीवी का खर्च भी बन्द हो जाएगा, फ्लैट का किराया और रेट भी मुआफ... सोशल सिक्युरिटी भी मिलेगी और शाम को मेरे साथ काम भी करता रह... हिसाब लगाकर देख, इस तरह तू बहुत सुखी रहेगा।''
टोली हिसाब लगाने लगा। अजमेर ने पेपर-पेन उठाया और लिखकर उसको समझाने लगा। वाकई, उस तरीके से काम न करके टोनी की जेब में पैसे ज्यादा पड़ते थे। टोनी ने कहा-
''रिटैडैंसी मनी कितनी देगा ?''
''वह मैं तुझे ज्यादा नहीं दे सकता। हाँ, छुट्टियों का खर्चा दे दूंगा।''
टोनी के लिए छुट्टियाँ एक सपने की भाँति थीं। अफ्रीका का टिकट, फिर वहाँ के लिए खर्चा आदि, कहाँ से निकाल सकता था यह सब। उसका मन ललचाने लगा। कुछ सोचते हुए उसने कहा-
''अगर तू रिटेंडैंसी नहीं देगा तो इसका मतलब मैं खुद काम छोड़ूंगा ?''
''नहीं, मैं तुझे सैक दूंगा(बर्खास्त करूँगा), पेपरों में तू मुझे बिना बताये अफ्रीका चला जाएगा, इसी कारण मैं तुझे काम से निकाल दूंगा और तू सोशल सिक्युरिटी के दफ्तर में जाकर क्लेम कर देना।''
''ऐंडी, इंडिया में बैठा तू यही सोचता रहा है ?''
''टोनी, मैं तो तेरा सदा ही फायदा सोचता हूँ, इंडिया में होऊँ या यहाँ।''
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रविवार, 19 जून 2011

गवाक्ष – जून 2011



जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सैंतीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – अमेरिका से हिंदी कवयित्री मंजु मिश्रा की कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की अड़तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

कैलिफोर्निया(यू.एस.ए.) से
मंजु मिश्रा की पाँच कविताएँ

परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं

ऊँचाइयों तक उड़ने के लिए
परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं
सपनों का आकाश,
और कल्पनाओं के पंख
कुछ कम तो नहीं
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टुकड़ा-टुकड़ा सी धूप

ज़िन्दगी किन अजीब राहों से
जाने कब-कब कहाँ से गुजरी है
जैसे कच्चे मकान की छत से,
टुकड़ा-टुकड़ा सी धूप उतरी है
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खुद को पर्वत समझते हैं

कहने दो उन्हें - जो कुछ और कहते हैं,
तुम !
उनसे हज़ार गुना बेहतर हो,
जो, दूसरों के कन्धों को
सीढ़ी बनाकर,
ऊपर चढ़ते हैं,
और फिर
सीना तान कर
खुद को पर्वत समझते हैं।
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मैं

मै,
एक,
रास्ते का मील पत्थर !
जाने कितने,
युग आए, और चले गए
मैं आज भी,
जहाँ जैसा था वैसा ही हूँ स्थिर ।
इस स्थायीत्व की पीड़ा, कोई क्या जानेगा
अपने घर आप प्रवासी बनना कोई क्या जानेगा
हम यहीं खड़े कितना भटके,
बहती नदिया का पानी क्या जानेगा ।
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मै एक पत्ता
मै एक पत्ता ....
शाख पर रहूँ ,
या शाख से अलग
क्या फर्क पड़ता है !
टूटा तो भी सूखा
न टूटता तो भी सूखता
मुझे तो अपनी जड़ से उखाड़ना ही था !
हाँ, अगर किसी किताब के पन्ने मे, दबा होता
तो...
शायद कभी इतिहास की तरह
उल्टा-पुल्टा जाता
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मंजु मिश्रा
जन्म : 28 जून 1959, लखनऊ(उत्तर प्रदेश)।
शिक्षा : एम. ए.(हिन्दी)
सृजन : कविताएँ, हाइकु, क्षणिकाएँ, मुक्तक और ग़ज़ल।
सम्प्रति : व्यापार विकास प्रबंधक, कैलिफोर्निया (यू.एस.ए.)
ब्लॉग : http://manukavya.wordpress.com
ईमेल : manjushishra@gmail.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 38)



सवारी
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ तेंतालीस ॥

इतवार की दोपहर। मौसम यद्यपि बढ़िया नहीं था, पर फिर भी हाउस खचाखच भरा पड़ा था। एक बड़ा टेबल तो अजमेर वगैरह ही घेरे बैठे थे। कल वह इंडिया से वापस लौटा था और आज सभी मिलने आ गए थे। गुरिंदर के पामर्ज़ ग्रीन से रिश्तेदार सामान लेने आए हुए थे। दो ग्रामीण भी वहाँ से गुज़रते हुए आ गए थे। सतनाम, मुनीर और प्रेम शर्मा भी थे। बलदेव भी था। अजमेर अपने इंडिया में हुए अनुभव साझे कर रहा था। विवाह में उसकी अच्छी-खासी शोभा हुई थी। वहाँ लोग आमतौर पर कहते सुने जाते थे कि लड़की का मामा विवाह करने के लिए विलायत से आया है। विवाह में हिस्सा बेशक सतनाम और शिन्दे ने भी डाला था, पर सारा श्रेय अजमेर के खाते में ही चढ़ गया। बलदेव से दुखी होकर ही अजमेर इंडिया गया था, क्योंकि उसने कोई पैसा इस विवाह के लिए नहीं दिया था। उसने बहाना बना दिया था कि वह फ्लैट ले रहा है और उसके पास पहले ही पैसे की कमी हो रही थी। अब पब में बैठते ही मुनीर ने अजमेर की तारीफ़ों के पुल बांध कर उसको बियर खरीदने लायक कर रखा था। सतनाम और मुनीर की यह बात निरी मिरासीपना लगती। वह मुनीर पर खीझा पड़ा था, पर चुप था।

लेकिन सतनाम ने मुनीर को तंग करने के लिए वांगली वाली बात फिर शुरू कर दी। मुनीर इतने देर बाद भी अपनी बात पर अड़ा बैठा था। सतनाम अपने 'ना मानूँ' वाले अंदाज में खुश था। बलदेव को मुनीर कहने लगा-

''ले यारा, ये तो अनपढ़ लाणा ही है, तू बता क्या मैं गलत होसी ?''

''मीयां, उन प्लेयरों में मुकाबला तो है, डायरेक्ट या इनडायरेक्ट... उन दोनों में से तेज़ धीमे तो होंगे ही... यह भी हो सकता है कि उनका मकसद वांगलू फाड़ने का न हो, पर उनका मुकाबला वांगलू के फटने पर आकर खत्म होता हो।''

''यही तो मैं कह रहा था, प्लेयर एक दूसरे की ओर वेखसण और ताकत फड़सन, पर अजीब बात यह होसी कि अगर वांगलू न फटे तो दोनों हार मनसण, अगर फट गया तो दोनों जितसण। इनाम शिनाम दोनों को एक जैसा होसी।''

''मीयां, वांगलू ने तो फटना ही फटना है। आदमी अपनी आई पर आ जाए तो वांगलू क्या चीज़ है।''

''बलदेव, यह बात एक गेम की होसी ना कि आदमी की ताकत की...।''

फिर किसी ने बोर होते हुए पंजाब की सियासत के बारे में बात छेड़ दी। अजमेर जगह-जगह पुलिस के नाकों की बातें बताने लगा और नाकों पर होती ज्यादतियों की भी। मुनीर ने कहा-

''भाई जान, यह बताओ कि खालिस्तान कब बणसी ?''

''मीयां, खालिस्तान तुम्हारे जेहनों में ही बणसी।''

अजमेर की बात पर सभी हँस पड़े। मुनीर को लगा कि अजमेर झूठ बोल रहा था और वह कम्युनिस्टों का हमदर्द होने के कारण संकीर्ण सोच रखता था। मुनीर कहने लगा-

''असल में तुम्हारा ताया तुम्हें उल्टी दिशा में जो डाल गया होसी।''

दो बजे दुकान बन्द करके शिन्दा भी आ गया। वह पब में कम ही आया करता था, पर आज मेहमानों के आया होने के कारण अजमेर उसको आने के लिए कह आया था। शिन्दे को देखते ही प्रेम शर्मा ने कहा-

''शिन्दे से पूछ लो वांगली के बारे में।''

पास से ही सतनाम बोला, ''शिन्दे को वांगली बारे नहीं, बांगण के बारे में पता है।''

सभी हँसे। मुनीर कहने लगा-

''शिन्दा तो हमारा बहुत शरीफ भ्रा होसी, बिलकुल वांगलू की तरह !''

एक बार फिर हँसी बिखर गई। पब बन्द करने की घंटी बार-बार बज रही थी। वे सभी एक दूसरे को अलविदा कहते हुए उठे और वहीं से अपनी-अपनी राह पर पड़ गए। पामर्ज़ ग्रीन वाले रिश्तेदार दसेक मिनट घर आकर बैठे और फिर वे भी चले गए। अब वे चारो भाई ही रह गए थे। बोतल खुली पड़ी थी। जल्दी ही नीचे चली गई। अजमेर ने शिन्दे से कहा-

''जा, लीटर वाली ही उठा ला।''

शिन्दा उठकर गया तो सतनाम बोला-

''भाई, मिंदो भाभी ने अच्छी सेवा की लगती है।''

अजमेर मुस्कराया और उसके चेहरे का रंग उसकी पगड़ी के रंग जैसा बिस्कुटी हो गया। सतनाम ने बलदेव को आँख मारकर बोला-

''तुझे बहुत कहा था, पर तू गया नहीं। नहीं तो भाई वाली सेवा तेरी होनी थी... पर तुझे अब गोरियों की आदत पड़ गई है।''

अजमेर उसकी बात काटते हुए बलदेव से कहने लगा-

''तेरे बारे में सभी फिक्र करते हैं, बंसो बहन ने तेरे लिए कितनी ही लड़कियाँ देख रही हैं, एक बार जा तो सही, अब तो तूने फ्लैट ले लिया है।''

सतनाम ने अजमेर की बात की हामी भरी और कहा-

''मैं तो इसे यही समझाता हूँ कि गोरी औरतें तो रबड़ होती हैं, रबड़ चबाने से पेट नहीं भरते।''

शिन्दा बोतल ले आया। मनजीत और गुरिंदर भी उनके बीच आ बैठीं। गुरिंदर बोली-

''यह तो भाइयों की खास मीटिंग लगती है।''

''जट्टी ! तेरे लाडले को समझाने बैठे हैं कि विवाह करवा ले, नहीं तो छड़े को तो भाई भी बुलाना छोड़ देते हैं, गड़बड़ से डरकर। हाँ, तुझे बताऊँ !''

बलदेव भी जवाब देने के मूड में आ गया और कहने लगा-

''मैं तो कुछ और ही देखता-सुनता आया हूँ कि अपने तो ब्याहते ही एक भाई को थे, भाभी के तीन-चार तो वैसे ही होते थे, पर यहाँ तुम तीन-तीन विवाहित होकर मुझ एक को ही फालतू बनाये जाते हो।''

सभी हँसने लगे। सतनाम बोला-

अरे ओ रांझे, तेरे में हिम्मत नहीं, तू लक्ष्मण की तरह देखता है पैरों की तरफ। देख, ये बैठी है माधुरी दीक्षित, कभी इसकी तरफ सीधा झांक कर भी दिखा।''

''रोयेगा सतनाम सिंह, रोयेगा, जिस दिन माधुरी दीक्षित को पता चलेगा कि उसने इतने साल गुलशन ग्रोवर के साथ ही काट लिए और सन्नी देओल तो इधर घूमता है तो तू बहुत रोयेगा।''

चारों ओर हँसी का ठहाका बिखर गया। बच्चों को उनकी बातों की कोई समझ नहीं आ रही थी। शैरन उठकर आई और गुरिंदर से पूछने लगी-

''मॉम, वट'स दा जोक ?''

''कुछ नहीं, अपने चाचा से पूछ ले।''

शैरन बलदेव की तरफ जाते हुए बोली'

''वट'स दा जोक चाचा जी ?''

''यू कांट गैट इट, इट'स इंडियन साईकी'ज़ जोक।''

मनजीत ने अजमेर से कहा-

''भाजी, हमें भी कोई इंडिया की बात सुनाओ।''

''हाँ, मैं गागू को लेकर तुम्हारे गाँव भी गया था, मिंदो के गाँव भी। लगभग सबसे मिलकर आया हूँ।''

''विवाह कैसा हुआ ?''

''विवाह बढ़िया हो गया। लड़का टीचर और लड़की भी।''

''गागू तो अब बड़ा हो गया होगा ?''

''पन्द्रहवें में है, मोटर साइकिल दौड़ाये फिरता है, ट्रैक्टर भी। ट्रैक्टर तो मैंने बिकवा दिया, पैसे मिंदों के नाम रख दिए हैं। सोचा कि अगर ज़रूरत पड़ गई तो फिर ले लेंगे।''

सतनाम पूछने लगा-

''गागू मुंडीर(लड़कों की टोली) में तो नहीं बैठता। किसी गलत सोसायटी में न हो, पीला पटका ही न बांधे घूमता हो।''

''वो तो सारा पंजाब मारे डर के बांधे घूमता है। जिधर जाओ, पीली चुन्नी या पीली पगड़ी। पर ये सब टेम्परेरी है। मैं गागू को समझाकर आया हूँ कि वह जितना चाहे पढ़े और फिर घर को संभाले। लड़कियाँ बराबर की हो चली हैं।''

शिन्दा उसकी बातें सुन सुनकर खुश हो रहा था। धीरे-धीरे सभी को व्हिस्की को असर होने लगा। पहले पब में भी पीकर आए थे। अजमेर बोला-

''आज तुम सभी इकट्ठे बैठे हो, बलदेव के साथ बात करो, पूछो कि यह क्या चाहता है ? हमारे संग शामिल क्यों नहीं होता?''

''भाजी, शामिल, शामिल कैसे नहीं मैं... शामिल हूँ तभी तो बैठा हूँ।''

''यह बैठना भी कोई बैठना हुआ, हम सबका कहना मान। यह देख इतने बन्दे बैठे हैं, पूरा टब्बर, ये जो फैसला कर दे, वहाँ खड़ा हो... विवाह करवा, रैडिंग वाली लड़की अच्छी-भली थी। कोई दूसरी देख देते हैं, नहीं तो इंडिया ही हो आ।''

कहकर अजमेर ने गुरिंदर की ओर और फिर बार-बार सबकी ओर देखा। सभी उससे सहमत थे। बलदेव बोला-

''भाजी, मुझे भी अकेले घूमना अच्छा नहीं लगता, पर हर बात का अपना हिसाब होता है और हर बात अपना टाइम लेती है।''

''चल, ये तेरा पर्सनल मामला है। दूसरी बात जो ज्यादा इम्पोर्टेंट है वो यह कि तू घर के किसी कार्य-व्यवहार में हमारे साथ नहीं खड़ा होता, हमेशा ही भागता है।''

''यह तो भाजी, तुम्हारा मुकाबला करना मेरे लिए मुश्किल है। तुम हो दोनों बिजनेस मैन और मेरी छोटी सी नौकरी है जिसमें मेरा गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से होता है।''

''अगर मुश्किल होता है तो नौकरी छोड़कर बिजनेस कर ले। उस वक्त कितना अच्छा मौका तूने गवां दिया, तुझे मैं लेकर दे रहा था वो गोरे वाली शॉप।''

''भाजी, यह अहसान मुफ्त में मेरे सिर न चढ़ाओ। तुम मुझे नहीं लेकर दे रहे थे, तुम तो हिस्सा डालकर मुझे तनख्वाह पर रखना चाहते थे। तनख्वाह तो मैं अब भी ले रहा हूँ।''

बलदेव की इस बात ने अजमेर को गुस्सा दिला दिया। लेकिन वह चुप रहा। सतनाम को पता था कि यह चुप साधारण नहीं थी। उसने बात को संभालने के लिए कहा-

''तनख्वाह को तू खर्च कहाँ करता है ? गोरियों की गिनती कम कर दे।''

''गोरियों के लिए मैं क्या महाराजा पटियाला हूँ।''

''पता नहीं साली क्या बात है तेरे में... मैं तेरे से ज्यादा सुन्दर हूँ, मेरे ऐनक भी नहीं लगी, इतने साल हो गए मेरे पर कोई गोरी नहीं मरी।'' सतनाम हैरानी प्रकट करते हुए कह रहा था।

अजमेरे ने अपना पैग एक साँस में पिया और बोला-

''दैट्स योर आउन प्रॉब्लम्ज़... मेरी बात यह है कि मैंने इसके संग एक ही बात करनी है। मैं इसका हिसाब कर देता हूँ। यह अपना हिस्सा दे, और दे भी अभी ही।''

''कौन सा हिसाब ?''

''भाइये के फ्यूनरल का, उस वक्त बंसे को पैसे भेजे, अब ब्याह किया, सबने हिस्सा डाला, तूने पैनी नहीं दी। पहले यह हिस्सा दे और आने वाले सब खर्चे जो इंडिया के हैं, वे भी देने पड़ेंगे। अपने शेयर से तू भाग नहीं सकता।''

''भाजी, मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। फिर मुझे ये खर्च इतने ज़रूरी नहीं लगते। भाइये के फ्यूनरल के लायक तो उसकी पेंशन आती थी, बंसो बहन का हम सारी उम्र बोझ नहीं उठा सकते... तुम ब्याहे गए हो, बड़े बने हो तो खर्च भी कर दो। मैंने अभी-अभी फ्लैट लिया है, मेरे पास फिजूल खर्च करने के लिए कोई पैसा नहीं।''

''सौ बातों की एक बात, अगर हमारा भाई है तो यह हिस्सा हर हालत में देना पड़ेगा, नहीं तो...।''

''नहीं तो क्या ?''

''वो दरवाज़ा है और वो सीढ़ियाँ।''

(जारी…)

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