मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

गवाक्ष – दिसंबर 2010



“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की इकत्तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के दिसंबर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं – स्वीडन से अनुपमा पाठक की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की बत्तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

स्वीडन से
अनुपमा पाठक की कविताएँ


॥एक॥
इंसानियत का आत्मकथ्य


गुजरती रही सदियाँ
बीतते रहे पल
आये
कितने ही दलदल
पर झेल सबकुछ
अब तक अड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!

अट्टालिकाएं करें अट्टहास
गर्वित उनका हर उच्छ्वास
अनजान इस बात से कि
नींव बन पड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!

देख नहीं पाते तुम
दामन छुड़ा हो जाते हो गुम
पर मैं कैसे बिसार दूं
इंसानियत की कड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!

जब जब हारा तुम्हारा विवेक
आये राह में रोड़े अनेक
तब तब कोमल एहसास बन
परिस्थितियों सेलड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!

भूलते हो जब राह तुम
घेर लेते हैं जब सारे अवगुण
तब जो चोट कर होश में लाती है
वो मार्गदर्शिका छड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!

मैं नहीं खोयी खोया है तुमने वजूद
इंसान बनो इंसानियत हो तुममें मौजूद
फिर धरा पर ही स्वर्ग होगा
प्रभुप्रदत्त नेयमतों में, सबसे बड़ी हूँ मैं!
अटल खड़ी हूँ मैं!
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॥दो॥
ऐसा हो...!!!


मान-अभिमान से परे
रूठने-मनाने के सिलसिले सा
कुछ तो भावुक आकर्षण हो!

किनारे पर रेत से घर बनाता
और अगले पल उसे तोड़ छोड़
आगे बढ़ता सा
भोला भाला जीवन दर्शन हो!

नमी सुखाती हुई
रुखी हवा के विरुद्ध
नयनो से बहता निर्झर हो!

परिस्थितियों की दुहाई न देकर
अन्तःस्थिति की बात हो
शाश्वत संघर्ष
आत्मशक्ति पर ही निर्भर हो!

भीतर बाहर
एक से...
कोई दुराव-छिपाव नहीं
व्यवहारगत सच्चाइयां
मन प्राण का दर्पण हो!

सच के लिए
लड़ाई में
निजी स्वार्थों के हाथों
कभी न आत्मसमर्पण हो!
॥तीन॥
कविता
बनती रहे कविता
शब्द थिरकते रहे अपनी लय में
भाव नित परिमार्जित होता रहे अपने वेग से
लेखक और पाठक...संवेदना के एक ही धरातल पर हो खड़े
भेद ही मिट जाये...
फिर सौंदर्य ही सौंदर्य है इस विलय में!!!!

जीने के लिए जमीन के साथ-साथ
आसमान का होना भी जरूरी है
धरती पे रोपे कदम...सपने फ़लक पे भाग सकें
फिर सृजन की संभावनाएं पूरी हैं
हो विश्वास का आधार...हो स्नेह का अवलंब
नहीं तो नैया डूब जाती है संशय में!!!!

बहती रहे कविता सरिता की तरह
शब्द थिरकते रहे अपनी लय में
जीवन की आपाधापी में कुछ क्षणों का अवकाश हो
कुछ लम्हे एकाकी से पास हो
निहारने को आसपास बिखरी अद्भुत रश्मियाँ...
और डूब जाने को विष्मय में!!!!

यही तो सहेजा जायेगा...
और शब्दों में सजकर नयी आभा में प्रगट हो पायेगा
एक पल की अनुभूति का मर्म
विस्तार को प्राप्त हो नीलगगन की गरिमा पायेगा
ये कालजयी भावनाएं ही बच जाएँगी...
नहीं तो...यहाँ कहाँ कुछ भी बच पाता है प्रलय में!!!!
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अनुपमा पाठक जमशेदपुर से हैं और बचपन से कविताएँ लिखती रही हैं। रचनाओं का संकलन नहीं हो पाया। अभी कुछ समय से अपनी वेबसाइट “अनुशील” http://www.anusheel.in/ पर लिख रही हैं। शिक्षा जमशेदपुर में ही हुई, फिर वाराणसी से बोटनी में स्नातक की डिग्री ली और फिर बॉयो-इनफॉर्मेटिक में परास्नातक। एक वर्ष विद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया। अध्ययन –अध्यापन में रूचि है। बॉयो-इनफार्मेटिक में पी.एचडी के लिए प्रयासरत। फिलहाल, गत एक वर्ष से स्टॉकहॉम ( स्वीडन ) में रह रही हैं।
ईमेल : anupama623@gmail.com
anushil623@rediffmail.com
वेब साइट : http://www.anusheel.in/

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 32)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सैंतीस ॥
कॉफी टेबल पर लोकल पेपर पड़ा था जो घरों में मुफ्त फेंका जाता था। बलदेव उठाकर पन्ने पलटने लगा। ख़बर तो ख़ास नहीं थी, बस विज्ञापनों से ही भरा पड़ा था। कारों के, घरों के और अन्य छोटी-मोटी सर्विसों के विज्ञापन। वह क्लैपहम में घरों की कीमतों का जायजा लेने लगा। उसे व्यस्त देखकर नील ने ख़बरों वाला चैनल बदलकर कार्टून लगा लिए। नील को देखकर बलदेव हँसने लगा। एलीसन ने भी नील को चैनल बदलते देख लिया था। वह बलदेव के समीप बैठते हुए बोली-
''डैरक के साथ इतने नहीं खुले थे ये, उससे डरते थे। वह मार भी देता था, पर तेरे संग तो मिक्स हो गए हैं।''
बलदेव समझ गया कि डैरक उसके पहले प्रेमी का नाम होगा। उसका मन होता था कि वह डैरक के विषय में कुछ पूछे क्योंकि शौन उसके बहुत खिलाफ़ रहा करता था, पर उसने सोचा कि अतीत में जाने का अधिक लाभ नहीं होता। एलीसन बुरा भी मान सकती थी।
एलीसन ने लोकल अख़बार 'न्यू टाइम्ज़' की ओर देखते हुए उससे पूछा-
''डेव, क्या ढूँढ़ रहा है ?''
''घर खरीदना है, देख रहा हूँ कि इस इलाके में कैसे घर हैं।''
''यहाँ तो ये विक्टोरियन जैसे घर है, पर क्लैपहम कॉमन में बहुत खूबसूरत घर हैं।''
''मेरा दिल करता है, दरिया के करीब खरीदूँ।''
''आज अचानक घर की सोच कैसे आ गई ?''
''एलीसन, मैं ज़रा सैटिल होना चाहता हूँ, बहुत देर भटक लिया।''
असल बात उसने बताई नहीं कि फेह और नील को देखकर उसे अपने बच्चे याद आते थे और सिमरन ने कहा था कि यदि लगातार लड़कियों को लेकर जाया करेगा तभी लेकर जाना। लड़कियों को लाने के लिए अपना घर भी चाहिए था। दूसरा भय उसे अपनी नौकरी का था कि छूट ही न जाए। नौकरी छूटने से पहले पहले वह घर ले लेगा तो मोर्टगेज आसानी से मिल जाएगी, नौकरी के बिना बैंक मोर्टगेज नहीं देते।
उनके बातचीत करते समय ही फोन की घंटी बजी। बलदेव फोन के करीब बैठा था। एलीसन ने कहा-
''डेव, देख तो ज़रा।''
उसने झिझकते हुए फोन उठाया। शौन का था। वह बोला-
''मैं तुझे इतने दिनों से ढूँढ़ता घूम रहा हूँ, कितनी बार ऐंडी के घर फोन किया और शैम की शॉप पर भी... चल अच्छा हुआ तू यहाँ मिल गया। एलीसन से तेरे बारे में पूछने के लिए ही फोन किया था मैंने।''
''सुना, कहाँ है ?''
''न्यूज़ीलैंड, तेरे कज़न के पास, कैराफेई।''
''क्या हाल है ग्रेवाल का और तेरा भी।''
''बहुत अच्छा। शराब का दौर चल रहा है।''
''काम करता है ?''
''काम की समस्या नहीं, काम तो मिल जाएगा। फार्मिंग के काम बहुत आसानी से मिल जाते हैं।''
''दिल लगा हुआ है ?''
''हाँ, ग्रेवाल की कम्पनी में दिल न लगे !'' कहकर शौन हँसने लगा।
फिर बलदेव ने ग्रेवाल से भी बातें कीं। उसने फोन रखा तो एलीसन बोली-
''देख, अपने दोस्त की बात, मेरे घर फोन किया और मेरे से हैलो तक नहीं की। यह पहले से ही ऐसा रहा, ख़ुदगर्ज़।''
''वह जल्दी में था, वहाँ बिल भी बहुत आता होगा।''
''यह भी ठीक है पर मैं इसे बचपन से जानती हूँ। ऐसा ही रहा है। मेरी ज़रूरत होगी तो आएगा, नहीं तो तू कौन, मैं कौन।''
''एलीसन, यूँ ही न मन खराब कर, ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है।''
''डेव, मेरा मन अब खराब नहीं होता, हो चुका जितना होना था। मैंने बहुत कठिन समय देखा है। किसी ने मेरी मदद नहीं की, बल्कि उल्टा लड़ने आ जाता था। यह मैं जानती हूँ, अपनी ज़रूरत के कारण मेरे साथ सुलह की है।'' कहती हुई वह अपने घर से भागने की, यहाँ आकर देखी तकलीफ़ों की कहानी फिर से सुनाने लगी। बलदेव ने पूछा-
''एलीसन, तेरा दिल नहीं करता वैलजी जाने को ?''
''बहुत करता है पर एक तो मेरे बच्चे कौन संभालेगा ? दूसरे वहाँ मेरा स्वागत बिलकुल नहीं होगा।''
''इन्हें तू संग ही ले जाना।''
''मुझे तो पता नहीं कि वे बुलाएँगे भी कि नहीं। मेरे बच्चों को देखकर वे वैसे ही मर जाएँगे। वे तो यह समझे बैठे हैं कि मैं उनके घर में कभी पैदा ही नहीं हुई थी।'' कहकर एलीसन चुप हो गई। वह दूर आयरलैंड जा पहुँची थी। कुछ देर बाद कहने लगी-
''डेव, वे लोग बहुत साधारण बुद्धि वाले हैं। मेरी छोटी-सी बात को इतना बड़ा हादास बनाये फिरते हैं। वे यह नहीं समझते कि लंदन में पिचहत्तर फीसदी बच्चे बिना विवाह के पैदा होते हैं। विवाह की अब कद्र ही नहीं, एक काग़ज़ का टुकड़ा हाथ में पकड़ भी लो तो बहुत जल्दी तुम उसे फाड़ने लगते हो। विवाह के बग़ैर जोड़ों में समझ अधिक बनती है।''
''एलीसन, जो कुछ भी है, यदि तेरा मन वैलज़ी जाने को करता है तो फेह और नील को मैं संभाल लूँगा।''
''यह तो तेरा बड़प्पन है। मैं तो तेरी वैसे ही बहुत शुक्रगुजार हूँ कि तू मेरी बातें सुन लेता है, इतने साल हो गए, ये बातें मैं किसी के साथ भी नहीं कर सकी। डेव, मेरा घर जाने को, सबको देखने को बहुत दिल करता है, पर वे नहीं चाहते कि मैं आऊँ। कई बार मैं फोन पर बात करना चाहती हूँ तो वे फोन कट कर देते हैं।''
''तेरी बहन है, आयरीन, वह तुझे शायद समझती हो।''
''हाँ डेव, वह समझदार है, पर उसका पति कट्टर कैथोलिक है।''
''तू तो चर्च जाती है, फॉदर एडवर्ड क्या कहता है ?''
''डेव, वह भी यही बोली बोलता है। असल में तो यह चर्च की ही शिक्षा है, वहीं से तो सारे हुक्मनामे चला करते हैं।''
बलदेव को एलीसन से बातें करना अच्छा लगता था। यद्यपि एलीसन को राजनीति की बहुत समझ नहीं थी, पर ज़िन्दगी की मारें काफ़ी खाई हुई थीं। बच्चों को स्कूल छोड़कर एक कॉफ़ी शॉप में काम करने जाया करती थी और स्कूल बन्द होने तक वहीं काम किया करती। कुछ पैसे सोशल सिक्युरिटी की तरफ़ से मिलते थे। उसका गुजारा ठीक हो रहा था। वह बलदेव को इतनी सहजता से पैसे खर्च करने नहीं देती थी।
बलदेव अब क्लैपहम से ही काम पर जाता था। यहाँ से ट्यूब का सफ़र टफनल पॉर्क से भी कम था। वही नॉर्दन लाइन पर छठा स्टेशन। काम पर वह जाता ज़रूर था पर दिल अभी भी नहीं लग सका था। अभी भी उसे स्थायी सीट नहीं मिली थी। जो भी कोई छुट्टी पर होता, उसे उसके स्थान पर ही भेज दिया जाता। उसकी लम्बी सिक का केस अभी चल रहा था। जो भी मिलता, उससे उसके केस के बारे में पूछने लगता। उसे शोकॉज़ नोटिस मिला था कि तुझे काम पर से हटा क्यों न दिया जाए। उसने यूनियन की मार्फ़त हैड ऑफिस में अपील की थी, जहाँ उसे आस थी कि मुआफ़ीनामा देकर नौकरी बच जाएगी। लेकिन उसे अब इस नौकरी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। यदि घर लेने का विचार न होता तो वह कभी का इस्तीफ़ा दे चुका होता।
घर तलाशने के लिए उसने लंदन का नक्शा खोला और साँप जैसे थेम्ज़ पर हाथ फेरने लगा। वॉलफोर्ड को उंगलियों से दरिया को छूता हुआ वह ग्रीनिच आ गया। फिर धीरे-धीरे फुल्हम आ पहुँचा। एक दिन उसने एलीसन और बच्चों को कार में बिठाया और फुल्हम के चक्कर लगाने लगा। कितनी ही सड़कें देखीं, सब एक जैसी लग रही थीं।
अगले रोज़ वह अकेला ही फुल्हम आया और कार एक तरफ़ खड़ी करके पैदल चलने लगा। पैदल चलना उसे सदैव ही अच्छा लगा करता था। वह थेम्ज़ के किनारे आ गया। यहाँ थेम्ज़ कुछ और ही तरह का लगता था। घर दरिया से हटकर थे। वह चाहता था कि उसका घर दरिया से इतना भर दूर हो कि मिनट भर में ही चलकर वह दरिया पहुँच सकता हो। यदि खिड़की से दिखाई देता हो तो सोने पर सुहागे वाली बात होगी। वह चलता हुआ एक पब के पास आ गया। पब की दीवार दरिया के साथ जा लगती थी। पानी के चढ़ने-उतरने के निशान दीवार पर दिखाई देते थे। चढ़ा हुआ दरिया यूँ प्रतीत होता होगा कि बेशक पानी चुल्लू में भर लो। यही सोचता हुआ वह पब में प्रवेश कर गया।
काफ़ी बड़ा पब था। अधिक लोग नहीं थे। जो थे भी, वे सभी चढ़ी उम्र के थे। उसने मन ही मन सोचा कि जैंटिलमैन पब होगा। वह आसपास देखता हुआ समझ गया कि इस पब में लोकल लोग ही अधिक आते होंगे। उसने लागर का गिलास भरवाया और दरिया की ओर खिड़की के पास बैठ गया। दरिया के पार रौशनियाँ जगमग-जगमग कर रही थीं। एक बड़ी किश्ती दरिया में से गुजरी। यह रौशनियों से भरी हुई थी और लोग खड़े होकर ड्रिंक कर रहे थे, आपस में बातें कर रहे थे। इसमें कोई पार्टी चल रही थी। एक बोट कुछ ड्रम-से खींचती हुई गुजरी। जैसे-जैसे शाम ढल कर रात की ओर बढी, पब भी भरने लगा।
भारी कदकाठी का एक व्यक्ति उसके सामने वाली सीट की ओर इशारा करता हुआ पूछने लगा-
''यहाँ कोई बैठा तो नहीं ?''
''नहीं।''
''बैठ सकता हूँ ?''
''क्यों नहीं।''
कहकर बलदेव उसकी ओर देखकर मुस्कराने लगा। वह व्यक्ति अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ बोला-
''मैं जैरी स्टोन हूँ।''
''और मैं डेव बैंज।''
''मैं तुम्हें पहली बार देख रहा हूँ, इसी इलाके में रहते हो ?''
''नहीं, इस इलाके में रहने की कोशिश कर रहा हूँ। इधर कहीं घर की तलाश कर रहा हूँ इसीलिए इलाका देखने आया रिवरसाइड आर्मज में आ बैठा।''
''यह बात बहुत अच्छी है, कोई इलाका देखने के लिए लोकल पब में चला जाए तो सब पता चल जाएगा। पर यहाँ लोग अन्य दूर-दराज इलाकों से भी आ जाते हैं।''
''जैरी, तुम इसी इलाके में रहते हो ?''
''हाँ, यहीं जन्मा, जवान हुआ और बूढ़ा हो रहा हूँ।'' कहकर जैरी हँसा।
बलदेव ने कहा, ''मैं दरिया के किनारे घर लेने का इच्छुक हूँ। दरिया किनारे ही मेरा काम है, ब्रिटिश रेल का हैड ऑफिस। और मेरा पहला घर जहाँ मेरी पत्नी बच्चों के संग अलहदगी के बाद रहती है, ग्रीनिच है, वो भी दरिया के बहुत करीब है।''
''हाँ डेव... पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। तुम दो दिन में तो दरिया के आदी हो जाते हो। हमारा मेन डीपू दरिया के ऐन किनारे पर है, मैं तो वहाँ बोर होने लगता हूँ।''
''क्या काम करते हो जैरी ?''
''मैं सेंट्रल गैस में साउथ ईस्ट का एरिया मैनेजर हूँ।''
''सेंट्रल गैस कौन सी ? सिलंडरगैस ?''
''हाँ, जो पेट्रोल पम्पों पर पड़े होते हैं।''
''मैं जानता हूँ। पहले मैं सोचा करता था कि घरों में तो नेचुरल गैस की सप्लाई है, ये सिलंडर कौन लेता होगा।''
''सभी ऐसा ही सोचते हैं, पर यह बिजनेस बहुत बड़ी स्केल पर चल रही है। हर एरिये में डीपू हैं इसके।''
''यहाँ किस रोड पर रहते हो ?''
''हार्ट ग्रोव पर... मेरे पिता का घर है यह। अब तो वह नहीं रहा और मैं ही मालिक हूँ। कैमला कहती है कि सफाई नहीं की जाती, घर बेचकर फ्लैट ले लेना है। और फिर मेरे सारे बच्चे चले गए, लड़की ही रहती है।''
''कितने बच्चे हैं ?''
''तीन। बड़ा लड़का, उसने अपना घर ले लिया है, काम करता है। छोटी लड़की है, वह अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ हमारे पास रहती है। उसका यह ब्वॉय फ्रेंड अच्छा नहीं है, मुझे नहीं पसन्द इसलिए मैंने उन्हें घर से चले जाने के लिए कह दिया है। इससे पहले वाला ब्वॉय फ्रेंड बहुत अच्छा था, मेरे साथ पब में भी आता था। सबसे छोटा मेरा लड़का है, उसे भी हमने घर से निकाल दिया है।''
''क्यों ?''
''क्योंकि वह सोलह साल का हो गया था, न तो वह हमें किराया देता था और न ही पढ़ता था। कैमला ने उसे चलता कर दिया।''
(जारी…)
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लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथाल, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393,07782-265726(मोबाइल)

बुधवार, 3 नवंबर 2010

गवाक्ष – नवंबर 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू।एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के नवंबर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया) की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की इकत्तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

आस्ट्रेलिया(सिडनी) से
डा. भावना कुँअर की कविताएँ

॥एक॥
दीये की व्यथा
(दीपावली पर विशेष)

शाम के वक्त
घर लौटते हुए
चौंका दिया मुझे एक
दर्द भरी आवाज़ ने
मैं नहीं रोक पाई स्वयं को
उसके करीब जाने से
पास जाकर देखा तो
बड़ी दयनीय अवस्था में
पड़ा हुआ था एक "मिट्टी का दीया"
मैंने उसको उठाकर
अपनी हथेली पर रखा
और प्यार से सहलाकार पूछा
उसकी कराहट का मर्म?
उसकी इस अवस्था का जिम्मेदार?
वह सिसक पड़ा
और टूटती साँसों को जोड़ता हुआ -सा
बहुत छटपटाहट से बोला-
मैं भी होता था बहुत खुश
जब किसी मन्दिर में जलता था
मैं भी होता था खुश जब
दीपावली से पहले लोग मुझे ले जाते थे अपने घर
और पानी से नहला-धुलाकर
बड़े प्यार से कपड़े से पौंछकर
सजाते थे मुझे तेल और बाती से
और फिर मैं
देता था भरपूर रोशनी उनको
झूमता था अपनी लौ के साथ
करता था बातें अँधियारों से
जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी को
एक साथ लाकर
कारीगर देता था एक पहचान हमें
"दीये की शक्ल"
और हम सब मिलजुलकर
फैलाते थे एक सुनहरा प्रकाश
पर अब
हमारी जगह ले ली है
सोने, चाँदी और मोम के दीयों ने
अब तो दीपावली पर भी लोग दीये नहीं
लगातें हैं रंग बिरंगी लड़ियाँ
और मिटा डाला हमारा अस्तित्व
एक ही पल में
तो फिर अब भी क्यों रखा है
नाम "दीपावली" यानी
दीयों की कतार?
आज फेंक दिया हमें
इन झाड़ियों में
तुम आगे बढ़ोगी
तो मिलेंगे तुम्हें मेरे संगी साथी
इसी अवस्था में
अपनी व्यथा सुनाने को
पर तुमसे पहले नहीं जाना किसी ने भी
हमारा दर्द, हमारी तड़प
आज वही भुला बैठे हैं हमें
जिन्हें स्वयं जलकर
दी थी रोशनी हमने
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॥दो॥
आँखें जाने क्यों

आँखें जाने क्यों
भूल गई पलकों को झपकना...
क्यों पसंद आने लगा इनको
आँखों में जीते-जागते
सपनों के साथ खिलवाड़ करना …
क्यों नहीं हो जाती बंद
सदा के लिए
ताकि ना पड़े इन्हें किसी
असम्भव को रोकना ।
॥तीन॥
स्याह धब्बे ...

आँखों के नीचे
दो काले स्याह धब्बे ...

आकर ठहर गए

और नाम ही नहीं लेते जाने का...
न जाने क्यों उनको
पसंद आया ये अकेलापन।
0

॥चार॥
दस हाइकु

1-भटका मन
गुलमोहर वन
बन हिरन।

2-नन्ही चिरैया
गुलमोहर पर
फुदकी फिरे।

3-जुगनुओं से
गुलमोहर वृक्ष
हैं झिलमिल।

4-था पल्लवित
मन मेरा -देखा जो
गुलमोहर।

5-मखमली सा
शृंगार किये,खिले
गुलाबी फूल।

6-झूम ‍ गाते हैं
खेत खलिहान भी
आया बंसत।

7-नटखट -सी
चंचला,लुभावनी
ऋतु बसन्त ।

8-दुल्हन बनी
पृथ्वी रानी,पहने
फूलों के हार।

9-खेत है वधू
सरसों हैं गहने
स्वर्ण के जैसे ।

10-रंग बिरंगी
तितलियों का दल
झूमता फिरे ।

00
डॉ० भावना कुँअर
शिक्षा - हिन्दी व संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि, बी० एड०, पी-एच०डी० (हिन्दी)
शोध-विषय - ' साठोत्तरी हिन्दी गज़लों में विद्रोह के स्वर व उसके विविध आयाम'।
विशेष - टेक्सटाइल डिजाइनिंग, फैशन डिजाइनिंग एवं अन्य विषयों में डिप्लोमा।
प्रकाशित पुस्तकें - 1. तारों की चूनर ( हाइकु संग्रह)
2. साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर
प्रकाशन - स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, गीत, हाइकु, बालगीत, लेख, समीक्षा, आदि का अनवरत प्रकाशन। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अंतर्जाल पत्रिकाओं में रचनाओं एवं लेखों का नियमित प्रकाशन, अपने ब्लॉग http://dilkedarmiyan.blogspot.com पर अपनी नवीन-रचनाओं का नियमित प्रकाशन तथा http://drbhawna.blogspot.com/ पर कला का प्रकाशन अन्य योगदान
स्वनिर्मित जालघर - http://drkunwarbechain.blogspot.com/
http://leelavatibansal.blogspot.com/
सिडनी से प्रकाशित "हिन्दी गौरव" पत्रिका की सम्पादन समिति में
संप्रति - सिडनी यूनिवर्सिटी में अध्यापन
अभिरुचि- साहित्य लेखन, अध्ययन,चित्रकला एवं देश-विदेश की यात्रा
करना।
सम्पर्क - bhawnak2002@yahoo.co.in

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 31)



सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
(चित्र : अर्पणा कौर)

॥ छत्तीस ॥
तड़के आँख खुलते ही बलदेव को अहसास हो गया था कि एलीसन उसके संग ही लेटी थी। मैरी के शरीर से एलीसन की भिन्नता कुछ पल के लिए महसूस हुई, फिर उसे लगा जैसे बस वह इसी जिस्म को ही जानता हो। उसने एलीसन के चेहरे पर से बाल एक तरफ किए। एलीसन बहुत सुन्दर दिख रही थी। शौन की बात सच थी कि उसकी बहन सूरत और सीरत दोनों पक्ष से खूबसूरत थी। उसने एलीसन को जगाया। वह मानो गहरे आनन्द में हो। फिर वह बातें करने लगी। वैलज़ी की, माँ, भाई और बहन की। बलदेव सबको जानता ही था। एलीसन अपने गाँव के बारे में बहुत कुछ तो भूल ही चुकी थी। सालों के साल गुजर गए थे उसे गाँव से आए हुए। वह बलदेव को वहाँ के बारे में सवाल पर सवाल पूछती जा रही थी। फिर वह अपने बचपन के विषय में बताने लगी। घर से भागने की कहानी उसने अपने हिसाब से सुनाई। वह सारा दोष अपनी माँ या शौन पर मढ़ रही थी। उसे अपना गाँव, अपना घर और आसपास का वातावरण बहुत याद आते थे। फॉर्म वाला केस जो वे हारे थे, उसका एलीसन को भी बहुत दुख था।
अचानक दरवाजा खुला। फेह और नील अन्दर आ घुसे। बलदेव ने पूछा-
''तूने दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं किया था ?''
''नहीं, बच्चों के कारण। ये कभी भी जाग जाते हैं, बाथरूम जाना होता है या कई बार सपना आने पर उठ खड़े होते हैं।''
एलीसन ने बच्चों की तरफ देखा और फिर बलदेव की ओर और हँसने लगी। उसकी हँसी में ताज़गी थी मानो पहली बार हँसी हो। उसके बोलने के लहज़े में लंदन का स्पर्श था। नील पूछने लगा-
''डेव, तू और मम सैक्स करते थे ?''
बलदेव एकदम शर्मिन्दा हो गया। एलीसन ने हँसते हुए मुँह कम्बल के अन्दर दे लिया। फेह चुप खड़ी मुस्कराए जा रही थी। बलदेव को फेह की आँखों में से अनैबल और शूगर झांकती प्रतीत हुईं। उसका मन उतावला पड़ने लगा। उसने फेह और नील से कहा-
''चलो, तुम टेली देखो, तुम्हारी मम्मी अभी आती है।''
बच्चे चले गए। बलदेव उठकर कपडे पहनने लगा।
एलीसन बोली-
''अभी तो बहुत समय पड़ा है, पड़ा रहता।''
''एलीसन, मुझे ज़रा जल्दी जाना है।''
''ठीक है, चल मैं चाय बना देती हूँ।'' कहती हुई वह भी उठ खड़ी हुई।
चाय खत्म करके बलदेव उठकर चल पड़ा। एलीसन ने रोक कर घर की एक चाबी देते हुए कहा-
''डेव, फिक्र करना छोड़ दे, यहाँ मजे से रह, जब तक दिल करे, तनाव मुक्त हो।''
''एलीसन, मैं तनाव मुक्त ही ज्यादा रहता हूँ, बल्कि मेरी यही समस्या है कि मैं किसी बात को गंभीरता से नहीं लेता।''
''फिर, अब किधर भाग चला है ?''
''मुझे कोई बात याद आ गई।''
''शाम को आएगा ?''
''हाँ, एलीसन अब कुछ दिन तेरे पास रहूँगा।''
''कुछ दिन ही ?''
जवाब में बलदेव हँसा और बाहर निकल गया। कार में बैठते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा। फेह और नील उसे हाथ हिला रहे थे। उससे उनकी तरफ देखा नही गया। पता नहीं कितनी बार अनैबल और शूगर ऐसे ही सिमरन के कमरे में जाती होंगी। उसने तो कभी अपनी बेटियाँ देखने तक की कोशिश नहीं की थी। अब तक तो उन्हें याद भी नहीं रहा होगा कि उनका वह डैडी भी था कि नहीं। शायद किसी अन्य को डैडी कहने लग पड़ी हों। फिर वह अपने दिल को तसल्ली देने लगा कि सिमरन ऐसी नहीं थी। उसने घड़ी देखी। अभी सात ही बजे थे। उसका दफ्तर तो नौ बजे खुलना था। उसके मन में आया कि क्यों न एक नज़र दोनों लड़कियों को देख ही आए। फिर उसी वक्त उसे ख़याल आया कि वह इतना कमज़ोर नहीं। उसे अपनी मजबूती संभालकर रखनी चाहिए।
क्लैपहम के साथ ही वाटरलू था। मुश्किल से पन्द्रह मिनट की ड्राइव पर। ट्रफिक भी नहीं था। वह दफ्तर के आगे पहुँच गया। वहाँ कुछ भी नहीं था। अभी बहुत समय था। उसके मन में विचार आया कि क्यों न सिमरन से मिलकर बेटियों से मिलने के विषय में सोचे। यदि उनसे मिलेगा तो जान-पहचान बनी रहेगी। सिमरन से मिलने में कोई नुकसान नहीं था। उससे तो अब उसका कोई वास्ता नहीं था। कोई तेर-मेर नहीं रही थी। वह जो चाहे करती घूमे और बलदेव जहाँ चाहे जाता रहे। उसने कार आगे बढ़ाई और वॉलफोर्ड की ओर चल दिया। टॉवर ब्रिज पार करके सिटी एअरपोर्ट के साइन पकड़े। ब्लैकवैल टनल दायीं ओर रह गया। अब ट्रैफिक कुछ बढ़ना शुरू हो गया था।
सिमरन का स्वभाव था- सीधी बात करने का, बगैर किसी फ़रेब के। ली हारवे के संग संबंधों के विषय में भी वह संक्षिप्त-सा उत्तर देकर पीछा छुड़ाने लगती थी। शायद बात वैसी हो ही न जैसा कि बलदेव सोचे बैठा था। वह अब अपने काम पर भी देखा ही करता था कि स्त्रियाँ दूसरे पुरुषों के साथ कितनी छूट ले लिया करती थीं जब कि उनका कोई खास मतलब नहीं होता था। यदि किसी के संग टेबल अथवा ड्यूटी की निकटता हो, फिर तो अधिकांश समय इकट्ठे ही बीतता है। वह स्वयं भी पैम के साथ कितनी-कितनी देर बैठा बातें करता रहता था। लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं निकलता था। ऐसी बातें सोचते हुए उसका दिल ज़ोर से धड़कने लग पड़ा। उसने घड़ी देखी। साढ़े आठ बजे थे। वह अंदाजा लगा रहा था कि सिमरन घर से निकल चुकी होगी। उसने अख़बार खरीदी और कार में बैठकर पढ़ते हुए सिमरन की प्रतीक्षा करने लगा। अख़बार में उसका ध्यान नहीं था। वह रह-रहकर बैंक के कार पॉर्क की तरफ़ देखता कि सिमरन अभी आई कि आई। एक बार कार पॉर्क का चक्कर भी लगा आया और फिर स्वयं ही अपने उतावलेपन पर हँसने लगा। उसने सोचा कि शायद सिमरन ने कार बदल ली हो। सिमरन को कारों से बेहद प्यार था। बलदेव के जन्म दिन पर उसने उसे यह वाली कार लेकर दी थी। याद आते ही बलदेव ने स्टेयरिंग पर हौले-हौले हाथ फेरना शुरू कर दिया।
वह इंतज़ार करता रहा। सिमरन कहीं भी आती हुई दिखाई न दी। शायद वह मिस कर गया हो। बहुत मुश्किल से साढ़े नौ बजे। बैंक खुला। ग्राहकों की लम्बी कतार थी। काउंटर के पीछे सिमरन उपस्थित नहीं थी। उसने इन्कुआरी पर जाकर घंटी बजाई। एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आया जिसके बैज पर लिखा हुआ था- याकूब सुमरो। बलदेव ने पूछा-
''कैन आई सी मिस बैन्ज़ ?''
''हैलो जी, आप मि. बैंस हैं ?''
याकूब सुमरो ने पंजाबी में बात की। बलदेव बोला-
''हाँ, आप सिमरन को बुला सकते हैं ?''
''आओ जी, बताओ क्या पियोगे ? चाय या ठंडा ?''
''शुक्रिया, अगर आप उसे बुला दें तो...''
''वो तो जी छुट्टियों पर गई हुई है, कनेरी आयलैंड, ली हारवे के साथ।''
बलदेव पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह संभलता हुआ बोला-
''कब वापस आ रही है, कुछ पता ?''
''एक मिनट जी, पूछ कर बताता हूँ।''
उसने वहीं खड़े होकर काउंटर पर बैठी गोरी से पूछा-
''बारबरा, सिम और ली छुट्टियों से कब वापस आ रहे हैं ?''
''अगले सोमवार।''
बारबरा ने याकूब की तरफ तिरछा-सा देखते हुए कहा।
याकूब व्यंग्य में मुस्कराते हुए बलदेव से बोला-
''जी नेक्सट मंडे, क्या हाल है आपका ? आप कभी आया करो टाइम निकाल कर।''
(जारी…)

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रविवार, 10 अक्तूबर 2010

गवाक्ष – अक्तूबर 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की उन्तीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अक्तूबर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया) की कविताएं तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…
आस्ट्रेलिया से
डा. हरदीप कौर संधु की पाँच कविताएं

माँ मेरी ने चादर काढ़ी…

माँ मेरी ने
इक चादर काढ़ी
उस पर डालीं
फूल-पत्तियाँ
पलंग पर
जब बिछाऊँ चादर
माँ तुझको
तकती हैं अँखियाँ

फूल हैं चादर के
तेरा चेहरा माँ री
पत्तियाँ लगें तेरे पपोटे
बड़ी रीझ से चादर काढ़ी
दी बेटी को प्यार पिरोके

जब भी उठती हूक कलेजे
झट चादर पर जा बैठती
निहार-निहार कर फूल-पत्तियाँ
संग तेरे दो बातें कर लेती
खोल कर तुम भी बाहें अपनी
मुझे बुक्कल में हो भर लेती।

नन्हीं नन्हीं सी बातें

बचपन में
नन्हों की
नन्हीं नन्हीं सी बातें
टोकरी ले
छोटी सी छड़ी से
थोड़ा टेड़ा करते
छड़ी को
एक लम्बी रस्सी बाँधते
टोकरी के नीचे
रोटी का चूरा
मुट्ठी भर दाने
थोड़ा -सा पानी रखते
‌फिर किसी कोने में
चुपके से जा छुपते
शोर मत करना
साथियों को कहते
पक्षी उड़ते -उड़ते
देख कर रोटी
दाना..... पानी
बिन टोकरी देखे
जैसे ही करीब आते
अपनी समझ में
हम फुर्ती दिखाते
धीरे से...
रस्सी खींचते
टोकरी गिरते ही
पक्षी उड़ते....
चिड़िया फुर्र....र..र
कबूतर फुर्र....र..र
पक्षी फु्र्र कर जाते
हाथ मलते हम रह जाते
बिन साहस हारे
दोस्तों के सहारे
फिर टोकरी रखते
कभी- न- कभी
कोई- न- कोई
कबूतर - चिड़िया
पकड़ी जाती
पंखों को कर
हरा गुलाबी
छोड़ देते
खुले आकाश में
लगा कर अपने-अपने
नाम की परची
ये मेरी चिड़िया.....
वो तेरा कबूतर....



रब न मिला

पूजा के उपरान्त
अगरबत्ती की राख ही
हाथ आई थी मेरे

बहुत ढूँढा....बहुत ही ढूँढा
रब न मिला मुझे
एक दिन मन में
रब को मिलने की ठानी

खाना न मैं खाऊँगी
मैं भूखी ही मर जाऊँगी
जब तक रब को न पाऊँगी

तभी एक भिखारी ने
मेरे द्वार आ दस्तक दी
भूखा था वो शायद
माँग रहा था वो खाना
मैने कहा अभी नहीं
मैं तो रब को खोज रही हूँ
थोड़ी देर बाद तुम आना

फिर एक कुतिया ने
मेरे सामने आ ‘चऊँ –चऊँ’ करने लगी
भूखी होगी वो भी शायद
पर मैने उसे भी फटकारा

थोड़ी देर बाद...
एक बूढ़ी अम्मा आकर बोली
बेटी रास्ता भूल गई हूँ
और सुबह से भूखी भी हूँ
क्या थोड़ा खाने को दोगी
मैने कहा .....
जा.. री.. जा...
जा... री... अम्मा
रास्ता नाप तू अपना
मैं तो कर रही हूँ

इन्तज़ार अपने रब का

तभी आसमान में
गूँजी एक आवाज़
किस रब का
है तुझे इन्तज़ार
मैं तो आया
तीन बार तेरे द्वार
पर तूने मुझे
ठुकराया बार-बार
अगर रब को है तुमने पाना
छोड़ दे तू इधर-उधर भटकना

मैं तो हर कण में हूँ
और रहता तेरे पास ही हूँ
ज़रा अपने मन की
खोल तू आँखें
पाओगी मुझे
हर प्राणी में



आटे की चिड़िया

मुन्नी जब रोए
आटे की चिड़िया से
माँ पुचकारे
चिड़िया जब मिली
मुन्नी के चेहरे पर
मुस्कान खिली
आँखें हैं भरी
अभी भी लबा-लब
हँसी भी छूटी
कोमल लबों पर
पकड़ कर चिड़िया
बोली नन्ही गुड़िया-
'' माँ...ओ...माँ...
ये तैसी है...
चिरिया छोती सी
न उदती है...
न करती चीं-चीं...

खाकर नोती
और.....दाने
पीकर दुधू
और....पानी
बदी हो जाएगी
चिरिया नानी
बदी होतर
फुर्र...र हो जाएगी
फिर तिसी के
हाथ न आएगी
जब मैं बुलाऊँ
उदती आएदी

मीथे-मीथे...
गीत सुनाएगी
चीं-चीं कर....
मुझे जगाएगी
दादी की कहानी वाली
चिरिया बन जाएगी!!''

दस हाइकु

माँ और बेटी
दु:ख सुख टटोलें
टैलीफोन से ।
अँधेरी रात
देती सदा पहरा
बापू की खाँसी ।
कर्म से सजे
सबसे सुन्दर हैं
सर्जक हाथ
रक्षा का धागा
बहन ने भाई की
कलाई बाँधा।
कच्चा ये धागा
भाई-बहन बीच
प्रेम प्रतीक
ऊँचे मकान
रेशम के हैं पर्दे

उदास लोग
दादी का ख़त
कैसे वो पढ़ पाए
हिन्दी न आए
चाटी की लस्सी
गाँव जाकर माँगी
अम्मा हँसती

गए बटोही
वे देश अनजान
छोड़ निशान
प्रवासी ढूँढ़े घर
धीरे धीरे जड़ जमाए
रोपा गया जो पौधा

डा. हरदीप कौर संधु
जन्म: बरनाल़ा (पंजाब)
सम्प्रति निवास: सिडनी (आस्ट्रेलिया)
शिक्षा: बी.एससी., एम.एससी(बनस्पति विज्ञान), एम. फिल(प्लांट इकोलोजी), पी.एच-डी. (बनस्पति विज्ञान)
कार्य: अध्यापन
ई मेल :hindihaiku@gmail.com
हिंदी ब्लॉग : http://hindihaiku.wordpress.com/
पंजाबी ब्लॉग : http://punjabivehda.wordpress.com/

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 30)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पैंतीस ॥
बलदेव काम पर से बाहर निकला तो पानी बरस रहा था। बारिश के कारण ठंड भी बहुत थी। उसने सिर पर कैप लगा ली ताकि ऐनक बारिश से बची रहे। बड़ी जैकेट के कॉलर खड़े किए और थेम्ज़ के किनारे की तरफ चल पड़ा। थेम्ज़ के साथ-साथ चलता वह सोचने लगा कि यह दरिया इस समय चढ़ रहा था या उतर रहा था। एक तो वैसे ही अँधेरा अच्छी तरह उतर चुका था, फिर बारिश इर्द-गिर्द की रोशनियों को रोक रही थी। दरिया की गति का कुछ पता न चल सका। हल्की-सी लहरें चमकतीं और एक-दूसरी में समा जातीं। दरिया किनारे इस वक्त कोई भी नहीं था। कारें गुजर रही थीं जो कि थोड़ा हटकर थीं। और वह अपने आप को बहुत अकेला पा रहा था।
मैरी ने टैड और मिच्च के आने की ख़बर सुनाई तो वह उसी वक्त अगले पड़ाव के लिए तैयार होने लगा था। सारा दिन काम पर इन्हीं सोचों में गुम हुआ घूमता रहा था। मैरी का इसमें कोई कसूर नहीं था। वह तो आयरलैंड से लौटते ही उसे इशारे करने लग पड़ी थी। जैसे वह कई बार स्थिति को स्पष्ट करने से झिझकता था, इसी तरह मैरी ने किया। जो कुछ भी हुआ, पर एक बार फिर वह हार गया था। इस हार को लेकर वह कहाँ जाए। गुरां के पास तो वह जाएगा ही नहीं। गैरथ का फ्लैट उसे पसन्द नहीं था, बदबू जो मारता था। शौन भी यहाँ नहीं था। शौन ने तो पलटकर फोन तक नहीं किया था कि कहाँ था वह और किस हालत में था।
बारिश कुछ तेज हो गई। उसने वैस्ट मनिस्टर ब्रिज पार कर लिया और अंडर ग्राउंड स्टेशन में जा घुसा। यहाँ गरमाहट थी। जैकेट उतार कर पानी झाड़ा। कैप को भी उतार कर फटका। ऐनक साफ की और एस्कालेटर से नीचे उतर गया। ट्यूब पकड़कर वह टफनल पॉर्क आ गया। उसने डार्टमाउथ हाउस की तरफ चलना आरंभ कर दिया। बरसात थम चुकी थी। एस्टेट के अन्दर आकर उसने मैरी के फ्लैट की ओर देखा। बत्तियाँ जल रही थीं। टैड और मिच्च आ गए होंगे। वह शीघ्रता से अपनी कार में बैठ गया। यह शुक्र था कि किसी ने उसे देखा नहीं था। कार स्टार्ट करके वह मेन रोड पर आ गया। अब स्टेयरिंग किसी तरफ नहीं घूम रहा था। गर्मी के दिन होते तो वह पहले की भांति कार पॉर्क में जाकर सो जाता। उसे ख़याल आया कि कोई बैड एंड ब्रेकफास्ट ही खोजा जाना चाहिए। वह कैमडन रोड पर आ गया। यहाँ कुछ बैड और ब्रेकफास्ट थे। कई लोगों ने विक्टोरियन हाउसिज़ को तब्दील करके होटल बना लिए थे। कैमडन रोड के घर कुछ-कुछ क्लैपहम हाई रोड के घरों से मिलते जुलते थे। यहाँ एलीसन रहती थी। फिर उसने सोचा, क्यों न वह एलीसन को फोन करे। शौन के विषय में ही पूछे। उसने एक टेलीफोन बूथ के आगे कार रोकी। पहले कुछ 'बैड एंड ब्रेकफास्ट' को फोन करके उनसे रात के लिए कमरे का किराया पूछा और हफ्तेभर के किराये के बारे में भी पूछताछ की। सभी मंहगे थे। फिर उसने एलीसन को फोन घुमा दिया।
''एलीसन, मैं डेव, शौन का दोस्त।''
''हाँ, शौन का फोन आया था, तेरे बारे में पूछता था।''
''कहाँ है वो ?''
''अमेरिका में ही है अभी वह। न्यूजीलैंड जाने की तैयारी में है।''
''मैं शौन के बारे में सोच रहा था कि तेरा ख़याल आ गया।''
''मैं तो तेरे फोन का बहुत दिनों से इंतज़ार कर रही थी। अगर मेरे पास तेरा नंबर होता तो मैं कर लेती। एक तो तेरी डाक आई पड़ी है, दूसरा यदि तेरा रहने का इंतज़ाम अभी नहीं हुआ हो तो तू यहाँ अस्थायी तौर पर रह सकता है।''
''डाक लेने कब आऊँ ?''
''आज ही आ जा।''
''तेरे लिए अब लेट तो नहीं ?''
''नहीं, लेट कैसा... तेरी मर्जी है।''
फोन रखकर वह सोचने लग पड़ा कि नया दरवाजा खुलता प्रतीत हो रहा है। उसकी कार एलीसन के घर की तरफ दौड़ती रही और वह सोचता रहा कि वह एलीसन के यहाँ ही रुक जाए या कोई दूसरा प्रबंध करे। एलीसन के द्वार तक पहुँचते-पहुँचते वह पूरी तरह तय नहीं कर सका था कि उसे क्या करना चाहिए। उसने बेल बजाई। फेह ने दरवाजा खोला और पूछने लगी-
''तुम डेव हो ?''
''हाँ, तुम्हें कैसे पता ?''
''उस दिन शौन अंकल के साथ आए थे तो मम्मी भी तेरे बारे में बातें करती थी।”
तभी, रसोई में से एलीसन भी आ गई और टेलीविजन के सामने से उठकर नील भी। एलीसन बोली-
''तू तो बहुत ही थका थका-सा लगता है। ठीक तो है ?''
''हाँ, मैं ठीक हूँ। तू कैसी है ?''
''मैं भी ठीक हूँ। आ बैठ जा। मैं कैटल ऑन करती हूँ।''
कुछ ही मिनट में वह चाय बना लाई। कप उसके हाथ में थमाते हुए बोली-
''संग कुछ खाएगा ?''
''नहीं।''
''डिनर करेगा ?''
''तुमने खा लिया ?''
''बच्चे तो खा चुके हैं। तू बता, खाना है तो चिप्स और पाई हैं।''
''हाँ, खा लूँगा।''
बलदेव चाय की चुस्कियाँ लेने लगा। एलीसन ने पुन: पूछा-
''डेव, तू ठीक तो है ?''
बलदेव अपने हाथों की ओर देखता हुआ कहने लगा-
''हाँ, मैं ठीक हूँ। यह मौसम खराब है।''
''रहने की समस्या है तो एक कमरा खाली ही है।''
''एलीसन, मैं यहाँ सैटी पर ही काम चला लूँगा।''
''नहीं, तू ऊपर आराम से सोना। मैं तो पहले से ही बच्चों के कमरे में ही सोती हूँ।'' कहती हुई वह उठ कर ऊपर चली गई। कुछ देर बार लौटकर आई और बोली-
''तेरा कमरा तैयार है, तू जब चाहे जाकर सो सकता है।''
''और शौन क्या बात करता था फोन पर ?''
''कुछ खास नहीं, तेरे भाई के घर उसने फोन करके तेरे बारे में पूछा था। तेरी बहुत फिक्र करता था।''
''दोस्त जो हुआ, हम बहुत समय से इकट्ठे हैं।''
''डेव, देख उसकी बदकिस्मती... कैसी पत्नी मिली। कैरन तेरे मुल्क की ही है न ?''
''नहीं, मॉरीशस की है। हाँ, मेरे रंग की ज़रूर है।''
''एक ही बात है... शौन बताता था कि वहाँ भी सब इंडियन ही हैं।''
''हाँ।''
''डेव, असल में मैं कैरन की समस्या को थोड़ा-थोड़ा समझती हूँ, उसे शौन पर बहुत आशाएँ थीं।''
''हाँ, शौन ने भी उसके लिए बहुत कुछ किया है, उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश की है।''
''डेव, मुझे लगता है, कैरन को इस विवाह से जो वह चाहती थी, उसे मिला नहीं।''
''एलीसन, यह भी हो सकता है पर दोनों के स्वभाव की समस्याएँ भी हैं।''
''जो भी हो, पर देख शौन की तकदीर, कहाँ-कहाँ भटकता घूम रहा है इस वक्त, अपना घरबार छोड़कर। उसकी बेटी की बेकद्री हो रही है।''
कहते हुए एलीसन ने आँखें भर लीं। वह शौन की चिंता करती जा रही थी या फिर पैटर्शिया की। कैरन से उसकी अधिक हमदर्दी नहीं थी। एलीसन पूछने लगी-
''तू कैरन से कभी मिला है ?''
''नहीं।''
''डेव, मैं कैरन से मिली थी। शौन कहता था कि सब कुछ देखकर आऊँ। फॉदर जॉअ उसकी मदद कर रहा है। शौन में ही सब लोग दोष निकाल रहे हैं। वह अपनी जिम्मेदारी से भाग गया, यह सच्चे क्रिश्चियन को शोभा नहीं देता। मैं तो यही प्रार्थना करती हूँ कि वह अपने घर लौट आए।''
कहकर वह उठी और बच्चों को सोने की हिदायतें देनी लगी। तीन चार बोतलें लाकर बलदेव के सामने रखते हुए कहने लगी-
''ये सब शौन की पड़ी हैं, मैं तो पीती नहीं, तूने जो पीनी है, पी ले।''
''मैं नहीं पीता, कोई साथ अगर दे तो कभी कुछ ले लेता हूँ।''
''तेरा साथ ज़रूर दूँगी पर बहुत छोटी ड्रिंक के साथ।''
गिलासों में वोदका उंडेलता बलदेव एलीसन के बारे में सोचने लगा। मैरी से काफ़ी भिन्न थी वह। शरीर उससे अधिक गुदगुदा था। पीछा भी मैरी जितना तराशा हुआ नहीं था। घुंघराले भूरे बालों को कर्ल डाले हुए थे। एक लट रह-रह कर उसके चेहरे पर गिर रही थी जिसे वह झटक देती। बलदेव उसकी तरफ चोर निगाहों से देखता तो उसे अपनी ओर गौर से देखता हुआ पाता। बलदेव के मन में बेचैनी-सी होने लगती। मैरी का चेहरा उसके मन में से गायब हो रहा था। उसकी जगह एलीसन की सूरत उभरने लगी। वह हैरान था कि यह तो स्विच ऑन-ऑफ़ करने भर की ही देर लगी थी। शायद, यह नशे का सुरूर भी हो। जो भी था उसे अच्छा लग रहा था। उसने एलीसन से कहा-
''मैं नहीं जानता था कि शौन की बहन इतनी खूबसूरत है।''
''तू तब आया तो था।''
''पर मैं तेरी तरफ ध्यान से देख नहीं सका था।''
एलीसन कुछ शरमाकर कहने लगी-
''शौन, मेरा भाई मुझ पर बहुत हुक्म चलाता है। जिस दिन तुम दोनों आकर लौट गए थे, उस दिन गुस्से से भरा फोन आया कि मैं तेरे लिए इतना सुन्दर मर्द खोजकर लाया और तूने उसे ठीक से बुलाया भी नहीं। अब फोन पर भी यही झगड़ा करता था कि मुझे तेरे से अच्छा मर्द नहीं मिल सकता।''
''तू क्या कहती है फिर ?''
''ठीक है, देखने में तो ठीक है, दिल को लुभाता है पर इतनी जल्दी मैं क्या कह सकती हूँ।''
बलदेव के वह एकदम सामने बैठी थी। बलदेव ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया। उसने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। बलदेव ने उसे खींच कर अपने संग बिठा लिया और कहा-
''एलीसन, अब बता मेरे बारे में और क्या सोचती है ?''
''अभी मेरा कोई तर्जुबा नहीं, कल बताऊँगी।''
(जारी…)
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शनिवार, 11 सितंबर 2010

गवाक्ष – सितम्बर 2010



“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा, कैनेडा निवासी पंजाबी कवि डा. सुखपाल की कविता, यू.एस.ए. में अवस्थित हिंदी कवयित्री डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कविताएं, यू.एस.ए. में अवस्थित पंजाबी कवि-कथाकार प्रेम मान की पंजाबी कविताएं, इकबाल अर्पण की एक ग़ज़ल और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की अट्ठाइसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के सितम्बर 2010 अंक में प्रस्तुत हैं - कैनेडा निवासी सुश्री मीना चोपड़ा की कविताएं तथा यू.के. निवासी पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की उन्तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…
कैनेडा से
मीना चोपड़ा की तीन कविताएं
(कविताओं के संग सभी चित्र : मीना चोपड़ा)

दुशाला

अँधेरों का दुशाला
मिट्टी को मेरी ओढ़े
अपनी सिलवटों के बीच
खुद ही सिमटता चला गया
और कुछ झलकती
परछाइयों की सरसराहट,
सरकती हुई
इन सिलवटों में
गुम होती चली गयी
मेरी नज़रों में सोई हुई
सुबह के कुछ आंसू
आँखों के किनारों से छलक पड़े

देखो तो सही
पूरब की पेशानी से उगती
मखमली रोशनी के उस टुकड़े ने
हरियाली के हसीन चेहरे पर
यह कैसी शबनम बिखेर दी है?
शाम के वक़्त
जो शाम के प्याले में भरकर
अँधेरी रात के नशीले होंठों का
जादूई जाम बना करती है

सर्द सन्नाटा

सुबह के वक़्त
आँखें बंद कर के देखती हूँ जब
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकल जाता है
सूरज की किरणे चूमती हैं
जब भी इस को
तो खिल उठता है यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर

सर्द सन्नाटा
कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है
कभी गीत बन कर
होठों पे रुक भी जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़
गुनगुनाता है
फिर शाम के
रंगीन अँधेरों में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर
सर्द सन्नाटा

मेरे करीब
आ जाता है बहुत
बरसों से मेरा हबीब
सन्नाटा
मुट्ठी भर आरज़ू

जीवन ने उठा दिया
चेहरे से अपने
शीत का वह ठिठुरता नकाब
फिर उसी गहरी धूप में
वही जलता सा शबाब
सूरज की गर्म साँसों में
उछलता है आज फिर से
छलकते जीवन का
उमड़ता हुआ रुआब

इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच
कहीं यह ज़िंदगी के आयने की
मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?

किनारों को समेटे जीवन में अपने
कहीं यह मुट्ठी भर आरज़ू तो नहीं?
००
मीना चोपड़ा
जन्म : नैनीताल (उत्तर प्रदेश)।
शिक्षा : बी.एस सी. (लखनऊ), टेक्सटाइल डिज़ाइनिंग में शिक्षा ।
प्रकाशन : पहला अंग्रेज़ी कविताओं का संकलन ’इग्नाइटिड लाईन्स’ १९९६ में इंग्लैंड में लोकार्पित हुआ। कविताओं का अनुवाद जर्मन भाषा में । कविताएँ अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
कला और अन्य गतिविधियाँ : एक कवयित्री होने के साथ-साथ एक चित्रकार भी हैं। अब तक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर २५ से अधिक कला-प्रदर्शनियाँ लगा चुकी हैं। इन्होंने २००२ में ’साऊथ एशियन ऐसोसिएशन ऑफ़ रीजनल कोऑपरेशन’ द्वारा आयोजित कलाकारों की सभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
मीना चोपड़ा कला-क्षेत्र में हमेशा से ही बहुत क्रियाशील रही हैं। भारत में "पोइट्री क्लब" की सचिव रही हैं। इसके अतिरिक्त कई व्यापारिक एवं कला संस्थाओं की सदस्या भी रह चुकी हैं। भारतवर्ष में इनका व्यवसाय "एडवर्टाइज़िंग" रहा है, जहाँ यह अपनी एडवर्टाइज़िंग एजेन्सी का संचालन करती रही हैं।
कैनेडा आने के बाद इन्होंने कई कलाकारों और कला प्रेमियों को संगठित कर एक कला संस्था का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य भिन्न-भिन्न, जन-जातियों के लोगों को कला के द्वार समान स्थल पर लाकर जोड़ना, आपस की भावनाओं और कामनाओं को कला के द्वारा समझना और बाँटना है। कला जो हमेशा से सीमाओं में बंधती नहीं, उसे सीमाओं से आगे ले जाना ही इस संस्था का उद्देश्य है। इस संस्था को "क्रॉस-करंट्स इंडो-कनेडियन इंटरनेशनल आर्टस’ के नाम से जाना जाता है। यह संस्था २००५ से लगभग दस से अधिक कला समारोह एवं प्रदर्शनियाँ आयोजित कर चुकी है।
मीना चोपड़ा के बनाये हुए चित्र भारत तथा कई अन्य देशों में सरकारी, व्यवसायिक तथा संग्रहकर्ताओं के कला संग्रहों में हैं।
टेलीफोन : 905 819 8142
वेबसाइट्स :
http://meenasartworld.blogspot.com
http://childrens-art-competition.blogspot.com/
http://starbuzz-starbuzz.blogspot.com/
http://learnaheartland.blogspot.com/

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 29)


सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चौंतीस ॥

लॉरी से सामान उतरवा कर सतनाम और शिन्दा खड़े हुए ही थे कि मगील आ गया। दूर से ही बोला-
''सॉरी सैम, आज मुझे पता था कि शैनी भी आ जाएगा, काम थोड़ा ही हिस्से में आएगा, पर मेरे से पहुँचा नहीं गया।''
''क्या बात हो गई ?''
''मरीना... मेरी बेटी मरीना ने सारी रात मुसीबत डाले रखी।''
''क्या ?''
''बगैर किसी बात के झगड़ा। तू तो जानता ही है न इन औरतों को... जिन दिनों में इन्हें गुस्सा आता है, बस वही दिन चल रहे हैं। और उसका ब्वॉय फ्रैंड कई दिन से आया ही नहीं, बस यही मुसीबत है।''
''यू आर बास्टर्ड लौरल !... गेट लॉस्ट एंड डू समथिंग।''
सतनाम ने उसे धमकाते हुए काम पर लगा दिया।
शिन्दे का आज पहला दिन था सतनाम की दुकान पर। मगील उसका गाईड बन गया। छुरियाँ तीखी करने से लेकर आरी चलाने तक की ट्रेनिंग देने लगा। उसे था कि शिन्दे को अंग्रेजी नहीं आती। वह मुँह से कम बोलता और इशारे ज्यादा करता। वह उंगलियाँ दिखाते हुए बोला-
''छुरी ध्यान से... नहीं तो ये गईं... ये दो उंगलियाँ बहुत ज़रूरी, किसी को 'फक ऑफ' कहने के लिए... बीचवाली उंगली गुदा दिखाने के लिए।''
शिन्दा उसकी एक्टिंग पर हँसने लगा। मगील ने कहा-
''हँस मत। ध्यान से समझ, नहीं तो ग्राहक लैंब के साथ-साथ तेरी उंगलियाँ भी पका लेंगे।''
''मगील, तू मेरी ज्यादा चिंता मत कर।''
शिन्दे ने अंग्रेजी में कहा। मगील भड़कता हुआ बोला-
''मेरी इतनी मगजमारी यूँ ही करवाई। अगर तू समझता था तो बताया क्यों नहीं?''
पैट्रो ने शिन्दे को अपने पास बुलाते हुए कहा-
''शैनी, तू इधर आ, एक दिन में कुछ नहीं सीखा जाता, जल्दी मचाने की कोई ज़रूरत नहीं।''
फिर पैट्रो उसे मीट काटने के प्रारंभिक गुण बताने लगा कि मीट जोड़ों पर से आसानी से काटा जाता है। हड्डी वाले मीट पर इस तरह वार करना है कि एक ही वार में हड्टी कट जाए। सूअर की कटाई अलग और बीफ़ तथा लैंब की कटाई अलग। चिकन अलग। गर्दन और पूछ की कटाई में कैसे फर्क होता है,आदि। शिन्दा कहने लगा-
''पैट्रो, यह तो बहुत कारीगिरी का काम है।''
''और नहीं तो क्या। आज कल बुच्चरों की कमी इसी कारण ही है। यह बहुत स्किल्ड जॉब है।''
शराब की दुकान से यह काम बिलकुल अलग था। शिन्दे को अच्छा नहीं लग रहा था। लहू-मांस की बदबू नाक को चढ़ रही थी। हाथ भी लिबड़े से रहते। सफ़ेद रंग का कोट जल्द ही लाल रंग से भर जाता। कुछ दिन घिन्न-सी आती रही और फिर सब कुछ ठीक हो गया। दुर्गन्ध आनी भी बन्द हो गई। काम हालांकि अजमेर की दुकान से अधिक था, पर माहौल बहुत बढ़िया था। कोई किसी को चुभती हुई बात नहीं कहता था। कोई रौब नहीं डालता था। दिन भर हँसी-मजाक चलता रहता।
दोपहर को जुआइश आकर अपनी ही हाय-तौबा मचाने लगी। पहले दिन शिन्दे को उसने गाहक ही समझा था। जुआइश को देखते ही मगील कहने लगा था-
''सैनोरीटा, तेरे दुख के दिन दूर हो गए, अब तू खुश हो जा।''
''सैनिओर, तू मेरे लिए क्या खोजकर लाया है ?''
''ये देख, जवान लड़का, शैनी, सिर्फ़ तेरे लिए मंगवाया है।''
''पर सैनिओर, मैं तो तुझे पसन्द करती हूँ।''
''पर मेरा हरम इस वक्त भरा पड़ा है, शैनी से ही काम चला। देख इसकी जवानी।''
कहते हुए मगील शिन्दे की बाजू की मछलियों पर हाथ फेरने लगा। जुआइश शिन्दे से बोली-
''मैंने तुझे ऐंडी की दुकान पर देखा हुआ है।''
''मेरा बड़ा भाई जो है।''
''पर उसका स्वभाव सैम से एक दिन उलट है, हर वक्त खीझा ही रहता है।''
शिन्दे ने जुआइश की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। जुआइश मिनट भर प्रतीक्षा करके बोली-
''मैं नोइल रोड पर रहती हूँ, होर्नज़ी रोड से ऑफ़ है, ब्रिज के बाद। दोपहर-शाम यहाँ सफाई करती हूँ, सवेरे भी।''
कहकर वह अपने काम में लग गई थी।
पहले दिन ही सतनाम ने शिन्दे का हाथ देख लिया था कि वह काम में तेज था। वह सोचने लग पड़ा था कि अगर शिन्दा दुकान संभाल ले तो वह काम को थोड़ा बढ़ा ले। कुछ और रेस्ट्रोरेंट वगैरह को माल सप्लाई करने लग पड़े। वह पूरा दिन ही डिलवरी कर सकता था। होलसेल के काम के विषय में भी सोचा जा सकता था। साथ ही फ्रोजन मीट का भी काम चल सकता था। अब उसे पीछे की चिंता सताने लगी थी कि दुकान में सब ठीक ही हो। माइको को जुआ खेलने की आदत होने के कारण उसके द्वारा टिल्ल में से पैसे निकाल लेने का डर बना रहता। यद्यपि पैट्रो वहाँ था, फिर भी सतनाम को पीछे की फिक्र रहती ही थी। शिन्दा अब टिल्ल संभाल सकता था। वह सोच रहा था कि यदि शिन्दा टिक जाए तो उसके कितने ही मसले हल हो जाएँ।
दुकान बन्द करके सतनाम शिन्दे को अजमेर की ओर छोड़ने चला गया। अजमेर के साथ यही फैसला हुआ था कि शिन्दा अजमेर के पास ही रहता रहेगा। इतवार को उसकी दुकान संभालेगा। सतनाम तो पहले ही शिन्दे को अपने पास नहीं रख सकता था। मनजीत इन्कार किए जाती थी। उसे पता था कि मनजीत आई पर आ जाए तो अपनी बात मनवा कर ही हटती थी। सतनाम की दुकान से ही शिन्दा थका हुआ था। लेकिन वह दुकान में घुसते ही शैल्फों को भरने लग पड़ा। फ्रिज को देखने लगा कि ड्रिंक का कौन सा डिब्बा बिका ताकि उसकी जगह नया रख दे। टोनी बोला-
''शैनी, तू फिक्र न कर। मैंने सारा काम किया हुआ है।''
अजमेर अधिक खुश नहीं था। शिन्दा भी जानता था कि वह उसे सतनाम की ओर भेजकर दुखी था। उसे पचास पाउंड में ही इस्तेमाल करना चाहता था। सतनाम उसके मूड को ठीक करने के मकसद से कहने लगा-
''भाई, शिन्दा पुत तो बन गया पूरा झटकई, अब बेशक माहिलपुर के अड्डे में दुकान डाल ले। भाइया आज होता तो कितना खुश होता। उस नज़ीर हुसैन ने ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करने से ही बाज नहीं आना था।''
''हाँ, तुम मुझे झटकाई बनाकर ही खूब खुश किए जाओ।''
अजमेर का मूड ज़रा-सा बदला पर फिर सख्त हो गया। अब तक शिन्दा भी समझ चुका था कि अजमेर कैसी बातों से मूड में आया करता है। उसने कहा-
''झटकाई तो कोट वाला रतना बाज़ीगर है, कभी उसने बकरी नहीं बनाई, सदा बकरा ही झटकेगा... भाई के विवाह पर भी बकरे उससे ही लिए थे।''
''उस समय तो बताते हैं, तुमने बकरे ही कई झटक दिए थे।'' कहते हुए सतनाम ने अजमेर की तरफ देखा।
''भाई का विवाह था, झटकने ही थे, झटके भी हमने शर्तें लगा-लगा कर कि देखें एक ही वार में गर्दन कौन उतारता है।''
''उतारी किसी ने ?''
''नहीं, बलदेव ने कई वार किए, बकरा ‘में-में’ करके चीखे, मैंने दो वार करके उतार दिया था। इस भाई ने तो सींगों पर ही किरपाण जड़ दी।''
''यूँ ही शराबी हुए शरारतें करते थे, और क्या।'' अजमेर बोला।
सतनाम कहने लगा, ''तुमने विवाह पर खर्चा ही बहुत कर दिया। ड्रम शराब का निकाल लिया, ठेके से भी बोरियाँ मंगवा लीं, गाँव के सारे कुक्कड़ खत्म कर दिए। इतनी भी भला क्या ज़रूरत थी।''
''ओ एक ही बार तो विवाह करवाना था। अगर तू भी वहाँ विवाह करवाता तो ऐसे ही धूमधाम से करते। इस शिन्दे का ज़रा पहले करना पड़ा, नहीं तो उस वक्त भी पटाखे बजाने थे।''
अजमेर अब पूरे रौ में था। शिन्दा कहने लगा-
''मैंने तो उस वक्त भाई को कहा था भई गाने वाली बुला लेते हैं, ऐसी क्या बात है।''
अजमेर ने फ्रिज में से टेनंट का डिब्बा निकाला और सबको थमाते हुए बोला-
''अपना रेपुटेशन है यार, ताया ने नाम कमाया हुआ है, ये गाने वाली तो हल्का टेस्ट है।''
फिर वह शिन्दे से कहने लगा-
''तू जा कर सो जा, सवेरे फिर जल्दी उठेगा।''
''नहीं भाई, कुछ नहीं होता। घंटे भर बाद ठहर कर पड़ लूँगा।''
शिन्दे के कहने पर अजमेर और भी खुश हो गया। सतनाम को तसल्ली थी कि अजमेर ने सब मंजूर कर लिया था। अजमेर ने कहा-
''गिलास पीना है ?''
''नहीं भाई, चलता हूँ, वहाँ भी जनता पार्टी इंतज़ार करती होगी। श्रीदेवी तो ललिता पवार बन जाएगी।''
शिन्दा अभी भी अजमेर के विवाह में फंसा बैठा था। वह कहने लगा-
''मैंने तो बलदेव से कहा था कि भाई चल, इंडिया चल मेरे साथ, तेरा विवाह भी ऐसा करेंगे कि एक बार तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी, पर वह मानता ही नहीं।''
सतनाम और अजमेर ने शिन्दे की बलदेव वाली बात नहीं सुनी थी। वे दोनों फिंचली वाले पब को लेकर बातें करने लगे थे।
(जारी…)
००
लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-८५७८०३९३
07782-265726(मोबाइल)

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

गवाक्ष – अगस्त 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा, कैनेडा निवासी पंजाबी कवि डा. सुखपाल की कविता, यू.एस.ए. में अवस्थित हिंदी कवयित्री डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कविताएं, यू.एस.ए. में अवस्थित पंजाबी कवि-कथाकार प्रेम मान की पंजाबी कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सत्ताइसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अगस्त 2010 अंक में प्रस्तुत हैं –(स्व.) इकबाल अर्पण की एक ग़ज़ल तथा यू.के. निवासी पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की अट्ठाइसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

कैनेडा से
(स्व.) इकबाल अर्पण की एक ग़ज़ल


हम दुआ मांगे जिनकी ख़ुशी के लिए
वो ही बोलें हमें ख़ुदकुशी के लिए

सांस रुक रुक के चलती रही उम्र भर
बहुत तरसा हूँ मैं ज़िन्दगी के लिए

ग़म के सांचे में ढलकर जीएं किस तरह
कुछ तो सामने हो दिलकशी के लिए

नस्ले-आदम के खूं पे आमादा हैं क्यूँ
हाथ उठते थे जो बन्दगी के लिए

शहर आ कर अँधेरों में जो खो गया
निकला गाँव से था रोशनी के लिए

सब के पीने के पीछे कोई राज़ है
कोई पीता नहीं मयकशी के लिए

आदमी बहुत कुछ बन गया है मगर
ना बना आदमी आदमी के लिए।
00

इकबाल अर्पण
जन्म : 15 जून 1938, निधन : 15 जून 2006
जगराओं(पंजाब) छोड़कर इकबाल अर्पण अफ्रीका, इंग्लैंड, अमेरिका में रहे और बाद में वह कैलगरी, कैनेडा में बस गए थे। वह पंजाबी के बहुत अच्छे कवि और कथाकार रहे। उनके दो कविता संग्रह ‘सुनत्था दर्द’(1977), ‘कब्र दा फुल’(1980), चार कहानी-संग्रह –‘गुआचे राह’(1980), ‘मौत दा सुपना’(1983)। ‘आफ़रे होये लोक’(1984) और ‘चानण दे वणजारे’(2006), एक उपन्यास – ‘पराई धरती’ (1980) छप चुके हैं।

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 28)



सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ तैंतीस ॥

सतनाम ने घर के आगे लाकर वैन खड़ी कर दी और आहिस्ता से उतरा। आहिस्ता से ही दरवाजा खोला। दरवाजे का खटका सुनते ही परमजोत और सरबजोत दौड़े आए। उसने उन्हें नित्य की तरह 'हैलो छांगू एंड मांगू' नहीं कहा और जल्दी से सैटी पर बैठ गया। परमजोत बोली-
''डैड, यू आलराइट ?''
''हाँ हाँ, ठीक हूँ। जाओ, बोतल लाओ। गिलास और पानी लाओ।''
उसने सरबजोत का कंधा थपथपाते हुए कहा। सरबजोत बोला-
''मैं बोतल लाऊँ कि पानी ?''
''जो मर्जी ले आ, पर हरी अप।''
रसोई में से मनजीत ने उसकी ओर देखा और पास आकर बोली-
''ज्यादा पी ली ?''
''नहीं सितारा बाई। आज तो वैसे ही हो गया, पता नहीं उम्र हो गई।''
''क्या हो गया ?''
''बहुत ही थकावट हो गई। शरीर गर्म-सा लगता है। सवेरे डिलीवरी आनी है।''
''फिर शराब न पियो, गोली खा लो और आराम करो।''
''अगर आराम आया तो शराब से आएगा, गोली से कभी आता है ?''
''तुम्हें दौड़भाग जो बहुत रहती है, आदमी कोई ढंग का तुम रखते नहीं।''
''आदमी मिलते ही कहाँ है, साले लौरल हार्डी जैसे ही घूमते फिरते हैं।''
''कोई अच्छा-सा बुच्चर देख लो और थोड़ी रैस्ट किया करो।''
''आज तो कुछ ज्यादा ही मीना कुमारी बनी फिरती हो... बुच्चर तो है एक आर्थर, पैसे बहुत मांगता है। इतने अफोर्ड नहीं होते।''
''तुम तो कहते थे कि इललीगल से बहुत मिल जाते हैं।''
''वो यहाँ नहीं, साउथाल में लगता है मेला, लुधियाने वाले लेबर चौक की तरह।''
एक पैग पीकर उसका मूड ठीक होने लगा और थकावट भी कम हो गई। बच्चे उसका मूड देखकर करीब आ बैठे।
परमजोत बोली-
''डैड, स्क्रैच माय बैक।''
''हाउ टू से ?''
''प्लीज डैड।''
''दैट्स बैटर।'' कहता हुआ वह उसकी पीठ पर खाज करने लगा। कुछ देर बाद परमजोत ने कहा-
''दैट्स इट।''
''वट ?''
''थैंक्यू डैडी।''
''दैट्स बैटर।''
वह बच्चों को 'प्लीज़' और 'थैंक्स' सिखाने के चक्कर में ही रहता है। परमजोत उठकर गई तो सरबजोत पीठ पर खाज करवाने आ बैठा। मनजीत बोली-
''तुम्हें तो कभी थकावट हुई नहीं, आज क्या हो गया ?''
''शायद मैंटली टायर्ड हो गया।''
''ऐसा क्या हो गया ?''
''आज प्रेम चोपड़ा ने मेरा बहुत सिर खाया, प्रैशर भी डाला, इसी कारण। जो वहाँ पेट्रो के साथ दो पैग लगाए उनका तो मेरे पर कोई असर हुआ ही नहीं था। यह काम करने लगी है।'' वह हाथ में पकड़े पैग की तरफ इशारा करते हुए बोला और फिर कहा-
''प्रेम चोपड़ा एक पब ले रहा था। किसी गोरे के साथ मिलकर। गोरा पॉल पार्टनर उसे सूट नहीं करता और अब वह मुझे अपने संग मिलाना चाहता है।''
''मिल जाओ।''
''मैं तो गोरे पॉल से दूसरे स्थान पर हो गया न, उसकी पहली च्वाइस पॉल था। पॉल के पास पैसे न होने के कारण अब मुझे कहता है कि आ जाऊँ।''
''तो क्या हुआ। आखिर उन्होंने तुम्हें अपने संग शेयर करने के लिए कहा है। पहले कह दिया या बाद में।''
''जानी, अपना भी कोई स्टैंडर्ड है।''
मनजीत को उसकी बात अधिक समझ में नहीं आई। उसकी दिलचस्पी भी नहीं थी। रोटी खाता सतनाम फिर कहने लगा-
''मैंने प्रेम चोपड़ा को कहा- भाई, तू अकेला ही ले ले, कौन सी ऐसी बात है। पता क्या कहता ?''
''क्या ?''
''कहता है कि मैं डरता हूँ, कहीं घाटा न पड़ जाए। मैंने दिल में सोचा कि रहा न - वही का वही। मुझे यह पार्टनर घाटे के सौदे का ही बनाना चाहता है। अगर इसे मालूम हो कि प्रोफिट होगा तो मुझे पार्टनर क्यों बनाए।''
''तुमने तोड़कर जवाब तो नहीं दे दिया ? आखिर भाई है।''
''नहीं, तोड़ कर देना ही पड़ेगा। वह तो कहे जाता था कि मैंने तुझे कभी कुछ करने को नहीं कहा, मेरे कहने पर इस पब में हिस्सा डाल।''
''तुम सोच लो। अगर ठीक लगता है तो डाल लो।''
''ठीक तो लगता है, मैं पब भी देख आया हूँ पर यह बिजनेस मेरे लिए बिलकुल नया है। और फिर इधर से ही फुर्सत नहीं मिलती। असल में असरानी जैसे के आ जाने से वो हो गया खाली-सा, अब ऐसी बातें सोचता रहता है। एक तरफ तो कहे जाता है कि शिन्दा किसी काम का नहीं, और दूसरी तरफ सारा दिन उसे रगड़े जाता है।''
''अगर शिन्दा भाजी उसके काम का नहीं तो तुम ले आओ।''
उस वक्त सतनाम कुछ न बोला पर सवेरे उठते ही कहने लगा-
''मेरी श्रीदेवी, बात तो तेरी बहुत बढ़िया है। रातोंरात मैंने सोच लिया कि क्या करना है। प्रेम चोपड़ा शिन्दे को पचास में रगड़ना चाहता है, क्यों न मैं सौ का ऑफर करूँ, उसे वही सुविधाएँ देकर।''
''देखो, मैंने घर में नहीं रखना किसी को।''
''क्यों ? मेरा भाई है।''
''ठीक है, भाई है, पर मेरे से गैर आदमी घर में नहीं रखा जाता। हमने घर में सौ बार लड़ना-झगड़ना, मर्जी से उठना-बैठना होता है। किसी दूसरे के होने पर आदमी बंध जाता है।''
''बन गई न मिनट भर में ही हीरोइन से वैम्प। अगर भाई ही भाई के घर में नहीं रहेगा तो कहाँ रहेगा।''
''रहेगा वो भाजी के घर में ही।''
''इसका मतलब, जट्टी तेरे से लाख दर्जे अच्छी है।''
''मुझे अच्छा बनने की ज़रूरत नहीं। मुझे अपना घर भी लुक-आफ्टर करना है। वह तो सारा दिन घर में ही रहती है और मुझे जॉब भी करनी होती है।''
''तू मेरी बनी-बनाई खेल खत्म करेगी। मैं साला मुफ्त में ही तुझे नंबर वन बनाए बैठा हूँ। शिन्दा आएगा और यहीं रहेगा, तू लिख ले कहीं।''
मनजीत कुछ न बोली। सतनाम कहने लगा-
''साला, एक प्रॉब्लम का हल खोजें तो दूसरी आ खड़ी होती है।''
फिर सतनाम सोचने लगा कि यह तो बाद की प्रॉब्लम है। पहले अजमेर को बातों में घेर कर शिन्दे को हथियाया जाये ताकि काम का बोझ कम हो।
सुबह दुकान में गया। दुकान शुरू करवा कर वह अजमेर की तरफ निकल गया। उसने बाहर से ही देखा कि दुकान में शिन्दा और टोनी खड़े थे। टोनी को जल्दी बुलाने का अर्थ था कि अजमेर कहीं गया हुआ होगा। फिर उसने घूमकर वैन देखी। वैन भी नहीं थी। वह दुविधा में ही था कि रुके या नहीं कि शिन्दे ने उसकी वैन देख ली और अन्दर आ जाने के लिए हाथ हिलाने लगा। उसके पहुँचने पर शिन्दा बोला-
''तू तो भाई मिलने से ही गया, उधर बलदेव कहीं छिप गया और इधर तू भी।''
''संडे को मैं आया करता हूँ, पर तू आसपास देखता ही नहीं।''
''क्या बताऊँ भाई, मेरा तो बुरा हाल है। बस, चलो ही चल है। ऊपर से भाई भी डांट मारने में मिनट नहीं लगाता। गिरेगा खोते(गधे) पर से और गुस्सा मेरे पर।''
''चल, अच्छा है। जट्टी का बचाव हो जाता होगा, नहीं तो हर वक्त उसकी ही जान के पीछे लगा रहता था।''
''भाई, वो भी कम नहीं, बस चुप ही भली है। तू बता, आज किधर ?''
''प्रेम चोपड़ा कहाँ है ?''
''बैंक गए हैं दोनों, क्या काम है ?''
''मैं तुझे मांगने आया हूँ।''
''फिर से ?''
''हाँ, फिर से, साला मुकरी न हो तो। तुझे एक बार मुश्किल से मांगा था। मैं तो कहता हूँ, अगर उसे तेरी ज़रूरत नहीं तो मेरे संग आ जा।''
''ले जा यार, मुझे इस नरक से भाई बनकर ले जा। वहाँ किसी से ओए नहीं कहवाई थी और यहाँ ओए के बग़ैर और कुछ कोई कहता ही नहीं।''
''वो तो कहता है कि तू निकम्मा है।''
''वो बड़ा भाई है, जो मर्जी कहे।''
''यह पचास देता है, मैं सो दूँगा।''
सौ सुनकर शिन्दे का चेहरा खिल उठा। बोला-
''तुम दोनों भाई आपस में सलाह कर लो, मेरा क्या है, बैल ने तो पट्ठे ही खाने हैं।''
तब तक अजमेर की वैन दुकान के सामने आ रुकी। गुरिंदर बाहर निकली और अजमेर गाड़ी खड़ी करने चला गया। सतनाम ने पूछा-
''जट्टिए, प्रेम चोपड़ा ने वापस आना है कि कहीं और चला गया ?''
''मेरा प्रेम चोपड़ा और तेरी परवीन बॉबी।''
''वो अब श्रीदेवी हो गई है, ज़रा-सी तरक्की कर गई।''
''तू आज दिन में कहाँ घूमता फिरता है ?''
''उसके साथ बात करने आया हूँ कोई। तुम किधर से आ रहे हो ?''
''बैंक जाना था इन्होंने, मुझे ज़रा घर की शॉपिंग करनी थी।''
अजमेर हाथ में दो बैग थामे आ गया। बैग गुरिंदर को पकड़ाते हुए सतनाम से बोला-
''कैसे, सलाह बदली फिर ?''
''किसकी ?''
''पब वाली।''
''नहीं भाई, मैंने सोचा, यह सब ठीक है, प्रोपर्टी मंहगी नहीं मिल रही पर इस वक्त रेट ऑफ इंटरेस्ट भी बहुत है, फिर प्राइज़िज का भी कुछ पता नहीं, अगर गिर पड़ीं तो ?... तुम्हारी दुकान तो बोझ उठा लेगी पर मेरी ने फालतू बोझ नहीं उठाना।''
अजमरे कुछ नहीं बोला और घड़ी देखने लगा। गुरिंदर बोली-
''टैम न देखो, ऊपर आ जाओ, चाय पियो, पब नहीं जाना अब।''
अजमेर ने गुरिंदर की बात का उत्तर नहीं दिया। कुछ देर की चुप के बाद कहने लगा-
''अगर तू साथ खड़ा हो जाता तो मैं भी रिस्क ले सकता था। न भी खोलते, बिल्डिंग ऐसे ही पड़ी रहती।''
''हाँ, पर किस्त तो देनी ही पड़ती।''
''किस्त तो देनी ही है। पर प्रापर्टी का मालिक भी तो बनेगा तू।''
''यही मैं कहता हूँ कि दुकान किस्त का बोझ नहीं उठा सकती। तुम्हारी दुकान फ्रीहोल्ड है, मुझे किराया भी देना पड़ता है और दुकानों की हालत यह है कि जितने ओवर हैड्ज़ कम हों, उतना ही ठीक है।''
गुरिंदर ऊपर चली गई और वे दोनों फिर पब में जा बैठे। पॉल राइडर उनसे उतने उत्साह से नहीं मिला। अजमेर सतनाम से पूछने लगा-
''शिन्दा कहता था कुछ ?''
''नहीं तो, क्यों ?''
''वैसे ही, ये टोनी से खीझता रहता है। टोनी ने तो एक दिन कह दिया था कि तुझे ये पचास भी मेरी तनख्वाह में से कट कर मिलते हैं।''
बात सुनकर सतनाम खुश हो गया। गाड़ी खुद-ब-खुद पटरी पर आ गई थी। सतनाम बोला-
''भाई, वैसे काम में वह अब कैसा है ?''
''निकम्मा !... मुझे तो इसकी ज़रूरत भी नहीं। टोनी पेपरों में काम करता है, उसे कैसे हटा दूँ ? मैं हूँ, गुरिंदर भी है, दुकान भला कितने बन्दे संभालेगी। इसलिए मैं तो पचास पाउंड ही दे सकता हूँ। वो भी तो इसके बचते ही हैं। सारा खर्चा मैंने उठा रखा है।''
''भाई, अगर शिन्दे की तुम्हें ज़रूरत नहीं तो मैं रख लूँ ?''
बात सुन कर अजमेर की हालत पतली हो गई। सतनाम ने फिर कहा-
''मुझे है आदमी की ज़रूरत।''
''तेरा काम तो चल ही रहा है। और फिर यह तेरे काम का नहीं। तेरा काम है हैवी, इससे नहीं होगा। भारी काम करने लायक यह है नहीं।''
''देखा जाएगा, मगील से तो बुरा नहीं यह।''
''वैसे, दुकानों में बन्दे कभी फालतू भी नहीं होते।''
अजमेर ने शिन्दे को देने से आनाकानी-सी करते हुए कहा। सतनाम बोला-
''मैं इसे पाउंड भी सौ देता रहूँगा।''
''यह सौ के लायक नहीं, सौ देकर इसकी आदत न बिगाड़।''
(जारी…)
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रविवार, 11 जुलाई 2010

गवाक्ष – जुलाई 2010


“गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएँ और चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी कवि सुखिन्दर की कविताएं, कनाडा निवासी पंजाबी कवयित्री सुरजीत, अमेरिका अवस्थित डॉ सुधा धींगरा, कनाडा में अवस्थित हिंदी- पंजाबी कथाकार - कवयित्री मिन्नी ग्रेवाल की कविताएं, न्यूजीलैंड में रह रहे पंजाबी कवि बलविंदर चहल की कविता, कैनेडा में अवस्थित पंजाबी लेखिका बलबीर कौर संघेड़ा की कविताएं, इंग्लैंड से शैल अग्रवाल की पाँच कविताएं, सिंगापुर से श्रद्धा जैन की ग़ज़लें, इटली में रह रहे पंजाबी कवि विशाल की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की एक लघुकथा, कैनेडा निवासी पंजाबी कवि डा. सुखपाल की कविता, यू.एस.ए. में अवस्थित हिंदी कवयित्री डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की छब्बीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जुलाई 2010 अंक में प्रस्तुत हैं – यू.एस.ए. में अवस्थित पंजाबी कवि-कथाकार प्रेम मान की पंजाबी कविताएं तथा यू.के. निवासी पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की सत्ताइसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

यू.एस.ए. से
प्रेम मान की तीन पंजाबी कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

रिश्ते

कुछ रिश्ते स्वयं ही उगते हैं
कुछ रिश्ते उगाये जाते हैं

रिश्ते स्वयं नहीं पलते
रिश्ते पाले जाते हैं

रिश्ते खुद नहीं समझते
इन्हें समझाना पड़ता है

रिश्तों को जिंदा रखने के लिए
लेने से अधिक
देना पड़ता है

रिश्ते आग हैं
ये जला भी सकते हैं
ये गर्मराहट भी देते हैं

रिश्ते बर्फ़ की तरह हैं
खूबसूरत भी लगते हैं
इस जिस्म को
जमा भी सकते हैं

रिश्ते दो-तरफा
सड़क की तरह हैं
इन्हें इकतरफा
समझकर
ज़लील होने वाली बात है

रिश्ते रूह की
खुराक भी बन सकते हैं
और ज़हर भी

रिश्ते खुदगर्ज भी
हो सकते हैं
और नाखुदगर्ज भी

रिश्ते वफ़ा भी
हो सकते हैं
और बेवफ़ा भी

रिश्ते निभाने ही कठिन नहीं
रिश्तों की बात करना भी
कठिन हो रहा है।
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भिन्नता

मेरे दोस्त कहते हैं
मैं दूसरों से
बहुत भिन्न हूँ

मुझे कच्चे अनार
अच्छे लगते हैं

मुझे धूपों से डर लगता है

मुझे मूसलाधार बारिश
तेज बहती हवायें
और आँधियों से
बहुत मोह है

मुझे पूरनमासी की रात से अधिक
अमावस्या की रात के गले लगकर
बहुत गर्माहट मिलती है

मुझे पक्के रास्तों से अधिक
कच्ची राहों की
उबलती धूलों पर
नंगे पैर चलना
और पैरों में पड़े
छालों की पीर में खुश होना
दिलचस्प लगता है

मुझे खूबसूरत लोगों से अधिक
बदसूरत लोगों को
आलिंगन में कस कर
अधिक आनन्द मिलता है

कुछ बिगड़ने पर
मैं किस्मत से अधिक
अपने आप को इल्ज़ाम देना
अधिक पसन्द करता हूँ

दोस्त कहते हैं
मैं अजीब इन्सान हूँ
पता नहीं क्यूँ
मैं बहुत से लोगों से
इतना भिन्न हूँ।
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पता

जब मैं
अपना घर
और देश छोड़कर
एक अनजाने और
बेगाने मुल्क में
किस्मत आजमाने के लिए चला था
तो मेरे एक दोस्त ने
कहा था
'अपनी नई जगह का
पता तो बता जा
चिट्ठी-पतरी के लिए।'
मैंने उसकी ओर
गहरी और उदास
नज़रों से देखकर
कहा था-
'दोस्त, बेघर लोगों का
कोई पता नहीं होता।'

आज अपने पुराने देश में
जाते समय सोचता हूँ-
बेघर लोगों का
सचमुच कोई भी
पता नहीं होता।
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प्रेम मान सन् 1970 से 1975 तक पंजाबी साहित्य में काफ़ी सक्रिय रहे। सन् 1970 में इनका कहानी संग्रह 'चुबारे की इट्ट' और सन् 1972 में ग़ज़ल संग्रह 'पलकां डक्के हंझु' प्रकाशित हुए। पंजाबी की मासिक पत्रिका 'कविता' का अप्रैल 1973 अंक दो जिल्दों में 'कहानी अंक' के रूप में इनके संपादन में प्रकाशित हुआ। पंजाब यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स की एम.ए. करके इन्होंने गुरू गोबिंद सिंह कालेज, चंडीगढ़ में 1971 से 1975 तक अध्यापन किया। सितम्बर 1975 में जब हिंदुस्तान को अलविदा कहा तो पंजाबी साहित्य से भी विलग गए। इंग्लैंड में फिर इकनॉमिक्स की एम.ए. करने के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, लास ऐंजल से पी.एच.डी. की और संग-संग पाँच साल कैलीफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में पढ़ाया। 1986 से यह ईस्टर्न कनैटीकट स्टेट युनिवर्सिटी में इकनॉमिक्स पढ़ा रहे हैं जहाँ वर्ष 1994 से विभागाध्यक्ष भी हैं। इन्होंने अपने विषय पर अनेक किताबें लिखी हैं जो कई देशों की बहुत सारी युनिवर्सिटीज़ में कोर्स के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। वर्ष 2004 में यह न्यूयार्क के कुछ पंजाबी साहित्यकारों की संगत में आने पर पुन: साहित्य के जुड़े हैं।
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