मंगलवार, 6 जनवरी 2009

गवाक्ष – जनवरी 2009



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले ग्यारह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए में रह रहे हिंदी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की नौ किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जनवरी 2009 अंक में प्रस्तुत हैं –यू एस ए से हिंदी कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की दसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


यू.एस.ए से
रेखा मैत्र की पाँच कविताएं


(1) ज़िंदगी

ख़ुशी की ख़ुशबू
पसंद थी मुझे
सो, मैंने उसे अपने
तन-मन पर
अच्छी तरह छिड़क लिया !

अचानक तुमसे मुलाक़ात हुई
तुम ग़मों की महक में
नहाये हुए थे।

तुमसे मिली थी
सो, तुम्हारी महक भी
मेरे पास चली आई ।

अब आलम ये है
कि ख़ुशी और ग़म की
मिली-जुली ख़ुशबू
मेरे बदन में गमकती है।

इस मिली-जुली ख़ुशबू को
क्या नाम दूँ
यही सोचती हूँ।

इसे ज़िंदगी कहें
तो कैसा रहे ?
00

(2) ख़ुशबू

ख़ुशबू की दुकान पर
वो देर तक भटकती रही
तरह-तरह की महक
ख़ुद पर छिड़कती रही
पसंद की ख़ुशबू मिली ही नहीं।

उसे तलाश थी
शिशु की देह की
दूधिया महक की।

उसे कोई कैसे बताता
कि शिशु के बड़े होते-होते
महक भी उड़ती चली जाती है !
00

(3) धुएं की घाटी

लॉसएंजलस का रास्ता
और बरसात के बाद की दोपहर
आकाशी रेखाओं पर
गाड़ी चलाते पाया
कि बादल तूफानी वेग से आया
और पास की सीट पर
सट कर बैठ गया !

धुएं की घाटियों में
साथ-साथ घूमते रहे
प्रकृति ने सफ़ेद सिफॉन
साड़ी पहन रखी थी
कभी दिख जाती
तो कभी ख़ुद पर
घूँघट डाल लेती !

इस लुकाछिपी में
एकाएक धूप भागती आई
और वो बादल को ले उड़ी
मैं देखती रह गई !
(सेंडिएगो से लॉसएंजलस के रास्ते में लिखी कविता। नेटिव अमेरिकन लॉसएंजलस को धुएं की घाटी कहते थे)


(4) उंगलियों की फ़ितरत
रेत पर लिखी हुई तहरीर
मिट ही जाएगी !

वक़्त के समंदर का
एक तेज़ ज्वार
जो आएगा
साहिल की सारी
इबारतें समेटता चला जाएगा।

वो और बात है
कि लिखना
उंगलियों की फ़ितरत है
मिटने के डर से
उंगलियाँ कब थमती हैं ?

उन्हें रोशनाई
मयस्सर न हो
तब भी वो लिखती हैं।

लिखना उनकी
फ़ितरत है !
00

(5) लफ्ज़ों की ख़ुशबू

परदेस में भटकते-भटकते
कहीं खो दिया था उसे
आज अचानक तुम्हारे साथ
हुई बातचीत में सुना उसे
तो मन बचपन की
गलियों में दौड़ गया !

तब हम कभी
वारिश की वजह से
‘लुकाछिपउल’ नहीं खेल पाते
तो चिढ़कर कहते-
‘आज का दिन चौपट हो गया।’

ये ‘चौपट’ लफ़्ज मुझे
खोए हुए दोस्त सा मिला
और अपने अंचल की
महक से महका गया !

अब ये ख़ुशबू
अंचल की थी
कि बचपन की
मुझे नहीं मालूम !
00

बनारस में जन्मी रेखा मैत्र ने एम ए (हिंदी) तक की शिक्षा सागर विश्वविद्यालय, मध्यप्रदेश से ग्रहण की। विवाह के बाद सन 1978 में यू एस ए प्रस्थान। रेखा जी शिकागो में रहते हुए वहाँ की जानी-मानी साहित्यिक संस्था “उन्मेष” की सदस्य रही हैं। वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से इनके अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें हाल में वर्ष 2008 में “ढ़ाई आख़र” और “मुहब्बत के सिक्के” कविता संग्रह भी शामिल हैं। इनकी अपनी एक वेब साइट है- www.rekhamaitra.com

संपर्क : 12920, Summit Ridge Terrace,
Germantown, MD 20874

फोन : 301-916-8825

ई-मेल :
rekha.maitra@gmail.com
धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 10)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
॥ पंद्रह ॥

एज़वेअर रोड पर कारें कतार में खड़ी थीं। ट्रैफिक चल ही नहीं रहा था। लाइट के ग्रीन होने पर झटका-सा लगता, और फिर रुक जाता। आस पास की सड़कों का ट्रैफिक भी आकर मेन रोड में मिल रहा था। सुबह के साढ़े आठ बजे इतने ट्रैफिक की संभावना तो होती ही है, पर सोमवार की सुबह होने के कारण कुछ ज्यादा ही भीड़ थी।
बलवंत खबरें सुन रहा था पर उसका ध्यान कहीं ओर था। वह तो यह सोच रहा था कि यह ट्रैफिक उसकी ज़िंदगी की जान था। भीड़भाड़ उसको अब कितनी पसंद आने लगी थी, इसका अहसास उसे आयरलैंड जाकर ही हुआ। आयरलैंड की ख़ामोशी, कंटरीसाइड की तन्हाई के लिए वह नहीं बना था और न ही ये सब उसके लिए। आसपास की भीड़ को देखते हुए वह मन ही मन कह रहा था - ''दैट्स वॅट आई लाइक ! आई लव दिस ! दिस' ज़ मी, राईट मिडिल इन द क्राउड।'' भीड़ में कोई अपना नहीं होता। लेकिन भीड़ के अस्तित्व का अहसास भी मायने रखता है। लंदनवाली भीड़ वहाँ कहाँ मिल सकती थी। वह अगर वहाँ रह जाता तो यह उसकी बहुत बड़ी गलती होती। लौटते वक्त शौन ने कुछ और प्रापर्टीज़ दिखलाई थीं। एक घोड़ों के फॉर्म को देखकर तो उसका मन हुआ था- खरीद लेने को। घोड़े रखना उसे सदैव ही फ़िल्मी या स्वप्नमयी लगता रहा था। और भी कुछ संपत्तियाँ देखी थीं। एक सिनेमा था, एक क्लब। बहुत सस्ते दामों पर मिल रहे थे। अच्छा हुआ वह लंदन वापस लौट आया। आज रात में वह थेम्ज़ का चक्कर लगाने जाएगा।
ऐसा ही कुछ सोचते हुए वह हाईब्री की तरफ जा रहा था। शैरन का फोन आया था कि आते ही फोन करे या घर आ जाए। गुरिंदर अब उसे शैरन से ही फोन करवाती थी। उसे भी गुरिंदर और शैरन से मिलने की उतावली थी। इतने दिन हो गए थे- दूर गए हुए को। वैसे तो इतने दिन तो बैगर मिले सहज ही गुजर जाते थे, बल्कि महीना-महीना बीत जाता लेकिन इस तरह की दूरी महसूस नहीं होती थी। वह सोच रहा था कि गुरां तो उसका बेसब्री से इंतज़ार कर रही होगी। वह गुरां से दूर रहने की कोशिश करता। गुरां कुछ अधिक ही उसकी ओर झुक जाती थी। एक प्रकार से बांहें खोल कर उसकी ओर दौड़ पड़ती। वह डर जाता कि कहीं ठीक ठाक चल रहा सबकुछ उखड़ ही न जाए। अब तो बच्चे भी सब समझते थे। अजमेर भी हर समय आसपास ही होता था। इसलिए वह फोन भी नहीं करता था। गुरां फोन पर ही शुरू हो जाती। वह डरता कि क्या मालूम दूसरी ओर कौन फोन सुन रहा हो। घर में तीन फोन थे। नहीं तो आयरलैंड से उसका दिल करता था कि वह गुरां के साथ बात साझा करे कि उसने कैसे गुरां का गीत यहाँ गाया था।
वापस लौटते समय उसने शौन के साथ अपने भविष्य को लेकर बहुत सारी बातें की थीं। कई किस्म की स्कीमें बनाई थीं, पर वह सोच रहा था कि यह सब तो यूँ ही दांत घिसाने वाली बातें थीं। वह तो कभी भी कोई प्रोग्राम बनाकर नहीं चलता था। जैसे भी ज़िंदगी उसके हाथ लगती है, वह लिए जाता है। लेकिन अब इसमें कोई संदेह नहीं था कि रहने के लिए उसे कहीं न कहीं इंतज़ाम तो करना ही पड़ेगा। जल्दी ही किराये पर कोई कमरा देखेगा या फिर कोई फ्लैट ही खरीद लेगा। किराये जितनी ही किस्त आएगी। शौन के घर वह और अधिक दिन नहीं रह सकेगा। शौन और कैरन की लड़ाई अब उस तक पहुँचने लगी थी। शौन लड़ते हुए उसे पाकि(पाकिस्तानी) कहकर गाली निकालता। बलदेव को महसूस होता कि शौन पाकि कैरन को ही नहीं कह रहा, उसमें वह भी सम्मिलित है। यह बात अलग थी कि उसी समय शौन बलदेव को सॉरी बोल देता कि यह गाली तेरे लिए नहीं है। शौन ने यद्यपि उसे अधिक कुछ नहीं बताया था, पर वह समझ गया था कि वह कैरन से निजात पाना चाहता था लेकिन उसके कथौलिक होने के कारण अड़चनें पैदा हो रही थीं।
वापस लौटते ही वे दोनों किराये का मकान देखने के लिए निकले थे। जब कहीं भी कोई कमरा पसंद नहीं आया तो शौन ने कहा-
''डेव, एक बात मैं बहुत दिनों से कहना चाहता हूँ पर शायद तुझे पसंद न आए या फिर समझ में ही न आए।''
''तू कह, मैं कोशिश करुँगा।''
''तू एलिसन को तो जानता है, मेरी बहन को।''
''तेरे विवाह पर मिला था, अब तो शक्ल भी याद नहीं रही।''
''तुझे उसकी कहानी भी सुनाई थी कि मैं तो यहाँ उसे ही खोजने आया था।''
''हाँ।''
''उसके घर में कमरे का इंतज़ाम हो सकता है। क्लैपहैम रहती है। काम पर आना भी आसान, और तेरा थेम्ज़ दरिया भी दूर नहीं।''
कहकर शौन ज़रा-सा हँसा था। वह जानता था कि थेम्ज़ दरिया का कुछ ज्यादा ही मोह पाले घूमता था बलदेव। बलदेव कुछ नहीं बोला। शौन ने एक बार फिर कहा-
''मेरा लालच यह है कि जिस आदमी के साथ एलिसन रह रही है, वह मुज़रिम किस्म का आदमी है और कैथोलिक भी नहीं है। यह मुझे गवारा नहीं। अगर तू वहाँ रहेगा तो वह चला जाएगा। इतने बड़े आदमी के आगे कौन टिकेगा।''
बलदेव को मैथ्यू की कही बात याद आने लगी। यह सब शौन ने पहले ही सोच रखा था कि बलदेव एक दिन ऐसे ही एलिसन से विवाह करवा लेगा और वे गाँव में फिर से इज्ज़तदार लोग हो जाएंगे। बलदेव ने अंदाजा लगा लिया था कि शौन अभी भी वैलजी के लोगों से मिलते हुए झिझकता था कि कोई एलिसन वाली कहानी को लेकर ताना ही न मार दे।
शौन ने उसे एलिसन का फोन नंबर भी लिखवा दिया ताकि वक्त पड़ने पर कर ले। साथ ही साथ अपनी बहन की तारीफें भी करता रहा। फिर सलाह देते हुए शौन बलदेव से बोला-
''अमरजैंसी में तो भाइयों को भी इस्तेमाल किया जा सकता है। और भाई होते भी किस काम के लिए हैं। तू थोड़े दिन अपने भाइयों के यहाँ भी तो रह सकता है।''
''नहीं शौन, वहाँ मेरा दम घुटता है। वहाँ रहना होता तो मैं पहले ही रह लेता।''
थोड़ा-बहुत उसने शौन को पहले ही बता रखा था कि सतनाम के घर तो वह बिलकुल परायों की तरह होता है। उसकी पत्नी मनजीत का स्वभाव कुछ अधिक ही अंहकार से भर गया था। सतनाम उससे मसखरी करते हुए चापलूसियाँ करता था। मनजीत चुप रहती। उसकी चुप कई बार साथ बैठे व्यक्ति को अपमानित-सा करने लगती। उधर अजमेर का स्वभाव भी कुछ ऐसा था। अपने आप को आगे रखते-रखते वह दूसरे की इज्जत उतार कर रख देता। इधर फिर गुरां भी थी जिससे वह दूर ही रहना चाहता था।
वह अपने ख़यालों में उलझा अभी भी ऐज़वेअर रोड पर ही था। रेडिया बार-बार वही खबरें दे रहा था लेकिन उसे वे सब ताज़ी लगती रही थीं क्योंकि गौर से तो सुनी ही नहीं थीं। कोई बात एक बार सुनी जाती तो कोई दूसरी बार। धीरे-धीरे थैलसाइज रोड आ गई। वह बाईं ओर मुड़ गया। आगे ट्रैफिक कुछ कम था। फिर भी सतनाम की दुकान तक पहुँचने में उसे पौने दस बज ही गए। उसने सोचा कि अजमेर की दुकान तो दस बजे खुलेगी, इसलिए पहले सतनाम की तरफ़ चला गया। सतनाम दुकान में नहीं था। डिलीवरी करने गया हुआ था। पैट्रो और माइको ने उसे हैलो कहा। मगील उसे देखते ही हाथ ऊपर उठा कमर हिलाते हुए घूम गया। बलदेव यह सोच कर कि पता नहीं सतनाम कब लौटे, अधिक देर वहाँ नहीं रुका।
उसने हाईब्री कॉर्नर पहुँचकर पीछे वाली सड़क पर कार खड़ी की। दुकान के सामने पहुँचा तो सोहन सिंह शटर उठा रहा था। उसे देखते ही खुश हो उठा-
''आ भई जेंटलमैन, बहुत देर बाद दर्शन दिए, कहाँ रहता है ?''
''कैसे हो भाइया, ठीक हो ?''
''तू सुना कैसा है ? सुना है, आयरलैंड गया था ?''
''हाँ।''
''कैसा रहा सफर ?''
''ठीक था... टोनी नहीं आया अभी ?''
''नहीं, वो टूज़डे-थरसडे ही आता है... उसकी ज़रूरत नहीं होती। सुबह बिजी नहीं होता।''
''भाजी, ऊपर ही है ?''
''नहीं, वो तो सवेरे ही कहीं निकल गया। बैंक को गया है शायद।''
तब तक दुकान पूरी तरह खोल कर वे अंदर आ गए थे। सोहन सिंह ने कहा-
''जा, हो आ ऊपर। भाभी तेरी ऊपर ही है। चाय वाय पी ले।''
बलदेव ऊपर की तरफ चल दिया। स्टोर-रूम के शीशे के सामने एक पल के लिए रुका। चश्मा ठीक किया, कमीज़ के कॉलर सीधे किए और फ्लैट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। गुरिंदर रसोई में से भाग कर सीढ़ियों तक आई और उसे देखकर रुक गई। उसकी तरफ देखती रही। वह सीढ़ियाँ चढ़कर उस तक पहुँच गया। उसने गुरां से कहा-
''हाँ जी, कैसा मिजाज़ है ?''
''अब क्या करने आया है। रहता वहीं पर...।''
कहती हुई वह उसकी छाती में मुक्के मारने लगी। बलदेव ने उसे बांहों में कस लिया और कहने लगा-
''तू तो यूँ ही उदास हो जाती है।''
''तू बता कर भी तो जा सकता था। फोन करने में कितना भार लगता है।''
''मुझे तो जाना ही नहीं था, बस यूँ ही जल्दबाजी में प्रोग्राम बन गया।''
''तुझे पता भी है कि मुझे कितना फिकर था... तू एक दिन मेरी जान लेकर रहेगा। कसम से, मैं अब ज्यादा सहन नहीं कर सकती। शैरन रोज़ पूछती थी कि चाचा जी लौट कर नहीं आए।''
''सॉरी बाबा, गलती हो गई। दुबारा नहीं होगी।''
कह कर बलदेव ने उसका चुम्बन लिया। गुरां कुछ शांत हुई। उसका हाथ पकड़ कर फ्रंट रूम में ले जाते हुए पूछने लगी-
''कोई काम था वहाँ ?''
''नहीं, बस खाली था और चल पड़ा।''
''काम पर अभी भी सिक पर ही हो ?''
''हाँ, अब दिल भी सिक पर ही है।''
''इससे तो कोई शॉप ही ले ले। तेरे भाजी ने कोई देख रखी है। इससे तू आकुपाई भी रहेगा और दूसरा, नज़रों के सामने भी होगा।''
''गुरां, तेरा क्या ख़याल है कि मैं तेरे से दूर रह कर खुश हूँ।''
कहते हुए वह उसकी तरफ़ लगातार देखने लगा। गुरां बोली-
''इस तरह न देख। मेरे मन को कुछ हो रहा है।''
''यह कैसी भूख है जो इतने सालों में भी पूरी नहीं हो रही।''
''यह भूख है !... भूख तो दिन में दो बार लगती होगी, मेरे लिए तो तू मेरी ज़रूरत है, साँस लेने जैसी।''
''गुरां, फील मुझे भी ऐसा ही होता है, पर काबू रखा कर।''
''मैंने तो काबू कर लिया था पर ऐसे तुझे अकेले फिरते भी नहीं देख सकती। ऐसा कर, विवाह करवा ले।''
''विवाह का काम बहुत लम्बा है, पहले तलाक होगा फिर विवाह।''
''फिर तलाक ले ले, अगर तूने सिमरन के साथ नहीं रहना है तो...।''
''अब उसके साथ रहने का तो प्रश्न ही नहीं। और अब गैप भी पड़ गया है।''
''यही तो मैं कह रही हूँ कि दूसरा विवाह करवा ले।''
''विवाह का तो पता नहीं।''
''क्यों ?''
''गुरां मिलेगी तो विवाह करवाऊँगा।''

(क्रमश: जारी…)

लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393
07782-265726(मोबाइल)
ई-मेल : harjeetatwal@yahoo.co.uk


अनुरोध
“गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com