गुरुवार, 8 मार्च 2012

गवाक्ष – मार्च 2012




जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा), मंजु मिश्रा (अमेरिका), सुखिंदर (कनाडा), देविंदर कौर (यू के) और नीरू असीम(कैनेडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की चौवालीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के मार्च 12 अंक में प्रस्तुत हैं समकालीन हिंदी कविता की एक प्रमुख कवयित्री इला प्रसाद की कुछ कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की पचासवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…




ह्युस्टन, अमेरिका से
इला प्रसाद की तीन कविताएं


कविता


आज फिर मैंने तुम्हारा नाम लिया
आज फिर मैंने किसी से तुम्हारी बात की

आज फिर मैंने किसी को प्यार से सहलाया
किसी को अपनी उजली हँसी से नहलाया
कोई मेरे क़रीब आया
मैं किसी के पास थी

यह कैसा वक्फ़ा था
जो मेरे और कविता के बीच में आया
तुम्हारा मेरे क़रीब होना
एक कविता-सी ही तो बात थी…।

एक दोस्त के लिए



स्नेह यदि सम्बोधित होता है स्पर्शों से
स्पर्शों की यदि कोई भाषा होती है
तो शब्दों को अनुपस्थित ही रहने दो

अनुभूतियों की कोई ज़मीन होगी
एहसासों का कोई मकान होगा
इन अनकहे अनुभवों को
उसी ज़मीन पर, उसी मकान में बसने दो

स्मृतियों की एक किताब होगी
जो तुम्हारे भी पास होगी
इन कोमल नेह पंखुड़ियों को
उसी किताब में झरने दो
ताकि बोझिल पलों में
जब भी किताब खुले
स्नेह का सुवास
तुम्हारे आसपास घुले !

अस्वीकृति

मैं तलहट-सी निकालकर
फेंक दी गई हूँ
किनारों पर

लहरों को मेरा
साथ बहना
रास नहीं आया

मैं न शंख थी
न सीपी
कि चुन ली गई होती
किन्हीं उत्सुक निगाहों से

रेत थी
रेत–सी रौंदी गई
काल के क्रूर हाथों से।
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समकालीन हिंदी साहित्य की एक प्रमुख कवयित्री-कथाकार।
एक कविता संग्रह ‘धूप का टुकड़ा’, दो कहानी संग्रह ‘इस कहानी का अंत नहीं’ और ‘उस स्त्री का नाम’ प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं/ब्लॉग्स पर कहानियाँ, कवियाएं प्रकाशित।
सम्पर्क : 12934, Meadow Run, Houston, TX 77066, U.S.A.
ई मेल : Ila_prasad1@yahoo.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 45)





सवारी

हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पचास ॥
कुछ दिनों पश्चात सतनाम के दुकान खोलने के समय शिन्दा बाहर खड़ा था। उसको देखकर सतनाम खुश हो गया। शिन्दे के हाथ और जुबान काँप रहे थे। वह सतनाम को देखते ही कहने लगा-
''मार दिया यार, तेरे भाई के बोलों ने। ये मुझे जीने नहीं देगा। साला शरीर का कष्ट झेला जाता है, पर रूह के ज़ख्मों की ताब नहीं झेली जाती।''
सतनाम ने दुकान खोली। अन्दर पड़ी रात की बोतल में से बची हुई व्हिस्की का एक पैग शिन्दे को बनाकर दिया। वह खुश हो गया और काम करने की तैयारी करने लगा। सतनाम ने कहा-
''शिन्दे, यह तो तुझे लग गई भई।''
''हाँ यार, पर मैं धीरे-धीरे छोड़ दूँगा। ज़रा मन चहके तो, कोई खुशी भी मिले कहीं।''
''तू मेरे पास ही रह, खुशी ही खुशी है। यहाँ तुझे कोई फालतू लफ्ज़ नहीं बोलने वाला।''
''वो लाख रुपये का रौब डाले जाता है।''
''यह भी हो जाएगा, मैं तेरा सौ पोंड उसको दे आया करूँगा, तू ज्यादा चिंता न कर।''
कुछ देर बाद अजमेर का फोन आ गया। दुकान खोलने तक शिन्दे की कमी नहीं खटकी थी। उसने उसके कमरे में देखा, शिन्दा वहाँ नहीं था, नीचे दुकान में भी नहीं। वह समझ गया था कि सतनाम की तरफ चला गया होगा। उसने सतनाम को उस वक्त शिन्दे को समझाने के लिए कहा था, जब पानी सिर से ऊपर गुज़र चुका था। उसे यह भी डर था कि सतनाम शिन्दे को समझाने की बजाय उखाड़ने का यत्न करेगा। वही हुआ। शिन्दा उसके पास चला गया। अजमेर मन ही मन कुढ़ने लगा था और सारा दिन कुढ़ता रहा था।
दोपहर को सतनाम की वैन दुकान के सामने आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही अजमेर का चेहरा तन गया। समीप खड़ी गुरिंदर ने उसका कंधा दबाया। सतनाम भी उसका रुख समझ गया और अन्दर घुसते हुए बोला-
''भाई, मुझे तो उसकी बिलकुल ज़रूरत नहीं। भला, शराबी बन्दा क्या काम कर लेगा। और फिर अब तो मेरा काम चल ही रहा है। मैं तो कहने आया हूँ कि उसको यहीं अपने पास ही रखो।''
अजमेर कुछ न बोला। गुरिंदर कहने लगी-
''अच्छी बात तो यह होगी कि उसको वापस भेज दो, अपने परिवार में जाए। यहाँ इंग्लैंड में रहा तो कोई उलाहने वाली बात ही न हो जाए।''
''वापस भेज दें तो मेरा दिया एडवांस कैसे पूरा होगा। और फिर लोग क्या कहेंगे !'' अजमेर ने कहा।
उसके चेहरे का तनाव अब तक कुछ कम हो चुका था। सतनाम ने पूछा-
''अब दुबारा कोई खास बात हो गई थी ?''
''पता नहीं अब कौन भड़काता है। कहता, मुझे खालिस्तानी बनाकर यहाँ पक्का कराओ।''
''यह नई बात कहाँ से निकाल लाया, उसे पता नहीं हमारे परिवार का, ताये का।''
''पता तो उसको सब है। कहता है, सारी दुनिया यहाँ पक्की हो रही है तो मैं क्यों नहीं। मैंने समझाया कि तेरी लीगल सिच्युएशन और है, तुझे तीसरा साल है इललीगल रहते हुए, तू अब ऐसे ही समय निकाल, जो निकलता है।''
''फिर क्या बोला ?''
''बोला, तुमने मेरा जानबूझ कर टाइम निकलवा दिया। मैंने कहा कि हम क्या तेरे दुश्मन हैं, इसी बात पर मुझे गुस्सा आ गया।''
''ये बातें इसके दिमाग में कौन डालता होगा ?''
''ये मुल्ला मुनीर और वो बामण। पर यह भी कौन-सा बच्चा है, दुनिया भर की ख़बर रखता है। मुझे लगता है कि यह काली को भी पैसे खिलाता है। तभी वो इसका पीछा करती यहाँ तक पहुँच गई। तू भी इसका ध्यान रखना।'' अजमेर ने कहा।
सतनाम जुआइस के नाम पर चुप रहा। वह जानता था कि जुआइस ऐसी नहीं थी।
सतनाम वापस अपनी दुकान में आया तो शिन्दे ने कहा-
''कर आया भाई से मीटिंग ?''
''हाँ, पर तू क्यों घबरा रहा है ?''
''क्या फैसला किया मेरी किस्मत का ?... मैं तो कहता हूँ, मुझे वापस भेज दो।''
''जैसी तेरी मर्जी। पर मैं तो कहूँगा कि जब तक समय लगता है, लगा ले, पर एक काम यह कर कि शराब कम कर दे। इस तरह तेरे से काम नहीं होगा।''
''जो भी हो, मैं भाजी के पास नहीं रहना चाहता।''
''तू मेरे पास रहता रह।''
''मुझे पता है, मनजीत भाभी का स्वभाव अकेले रहने का है। मुझे बलदेव के पास भेज दो। उसका पानी भी देख लें।''
''बलदेव भी दिलीप कुमार की तरह कहीं-कहीं ही दिखाई देता है... तू मेरे पास रह। मनजीत की चिंता छोड़ दे। तू उसकी हाँ में हाँ मिलाये चलना और दूसरा यह कि बैड की जगह टायलेट यूज़ करना।''
''तू भी यार कमाल करता है...।''
कहते हुए शिन्दा शरमिन्दा-सा होने लगा।
सतनाम सोच रहा था कि यदि शिन्दा शराब कम कर दे तो पहले की तरह एक बार फिर वह फुर्सत-सी पा सकता था। उसने शिन्दे को खुश रखना शुरू कर दिया। माइको सिगरेटें पीता था, शिन्दा उसके साथ खड़े होकर कभी-कभी कश लगाने लग पड़ता। उसने व्हिस्की कम कर दी। शाम के वक्त ही पीता। अब उससे ज्यादा पी भी नहीं जाती थी। वह शीघ्र ही नशे में हो जाता। सतनाम सोचता कि ज़रूर दोपहर को जुआइस के यहाँ से पी आता होगा। जुआइस उसको लगभग हर रोज़ ही घर ले जाया करती।
शिन्दे की सेहत पहले की अपेक्षा अच्छी होने लगी थी। आँखों के नीचे की थैलियाँ ठीक हो रही थीं। सतनाम सोचने लगा कि अजमेर ने शिन्दे को बर्बाद करके छोड़ दिया था। जानवर से भी प्यार से काम लिया जाता है, शिन्दा को अच्छा-भला आदमी था। उसकी देखभाल ज़रूरी थी। उसको शिन्दे का जुआइस के घर जाना अच्छा नहीं लगता था, पर रोकता कभी नहीं, बल्कि मजाक करते हुए कहता-
''हर औरत एक जैसी होती है। मेरा वास्ता मीना कुमारी से लेकर श्रीदेवी के साथ पड़ा है।''
कई बार इस बात को उलटकर भी कह देता-
''हर औरत अपनी जगह है, हरेक की अपनी एक्टिंग, अपनी अदा।''
सतनाम के लिए पहले वाले दिन लौटने लगे थे। शिन्दे ने पुन: सारा काम संभाल लिया था। अब तो वह सारी डिलीवरी अकेला ही कर देता। सतनाम तो कई बार कमर पर हाथ रखे ही खड़ा रहता। स्मिथफील्ड मीट मार्केट जाने के लिए शिन्दा तड़के ही उठ खड़ा होता और सारा काम दौड़ दौड़कर करता। सतनाम उसका सौ पौंड हर सप्ताह जाकर अजमेर को दे आता।
हाईबरी में अब गुरिंदर ही ज्यादा समय दुकान पर खड़ी होती। शैरन और हरविंदर स्कूल से लौटते तो उसकी कुछ मदद कर देते। पाँच बजे टोनी आ जाता। टोनी को भी ये गल्ले पर न छोड़ते। शाम को अजमेर होता। पहले वाली मौज अब फिर गायब हो गई थी। अजमेर सुबह समय से शॉपिंग करने निकल जाता और दुकान खोलने तक बमुश्किल लौटता। फिर अकेला ही सारा सामान वैन में से उतारता। उसके लिए यह काम बहुत हो जाता।
उस दिन सतनाम हाईबरी गया तो गुरिंदर बोली-
''मैं तुझे फोन करने वाली थी।''
''जट्टिये, मुझसे क्या काम पड़ गया ?''
''कहते हैं न कि जिस जेब में दाने हों, उस से ही हैलो की जाती है।''
''मेरी जेब में दाने कहाँ हैं ?''
''तू चालू चीज़ है। सभी भाइयों की चालाकी तेरे अकेले में है।''
''ये प्रेम चोपड़ा ?''
''वो तो यूँ ही बदनाम है। जैसे कहते है न, घुग्गी शैतान और कौआ बदनाम।''
''जट्टिये, बाज़ को घुग्गी न कह। चल तू काम की बात कर।''
''तू ना नहीं करेगा।''
''पहले कभी की है ?''
''हमें दो दिन सुबह के लिए शिन्दा चाहिए। टयूज-डे और थर्स-डे मॉर्निंग। तेरे भाजी से अब वैन लोड-अनलोड नहीं होती, पसीना आए जाता है।''
''सवेरे जब भाई ने जाना हो तो उधर से उसको पिक कर लिया करे।''
''उससे भी पूछ लेना, वो आएगा भी कि नहीं।''
''आएगा क्यों नहीं...।''
दुकान में से निकलता सतनाम बड़बड़ा रहा था, ''प्रेम चोपड़ा तो बाहर रहकर गोल कर गया !''
सतनाम का अधिक कुछ नहीं बिगड़ा था। शिन्दा सिर्फ़ दो दिन ही उधर जाता था, वह भी ग्यारह बजे तक लौट आता। सतनाम ने अपनी शॉपिंग के दिन बदल लिए थे। परन्तु उसको एक खीझ-सी चढ़ी रहती थी। वह सोचता कि दो दिन की तनख्वाह भी अजमेर ही दे, पर वह मुँह से कुछ नहीं कहता था।
जिस दिन शिन्दा अजमेर के यहाँ से आता तो बहुत खुश होता। वह बताने लगता-
''आज तो जट्टी ने हमारे पहुँचने से पहले ही आलू के परांठे बनाए हुए थे और साथ ही मैंगो लस्सी। बोली- खा लो पहले, फिर वैन में से सामान उतारना। भाजी उलटकर गुस्से में बोला- अगर वार्डन टिकट काट गया तो ?''
एक दिन शिन्दा बोला-
''भाजी तो मेरा कुछ ज्यादा ही फिक्र किए जाता है। कहता है, हाथ न कटवा लेना।''
सतनाम पहले ही ईर्ष्या में भरा पड़ा था, बोला-
''तब उसका फिक्र कहाँ गया था जब सारी-सारी रात तुझ पर शराब उंडेलता था।''
सुनकर शिन्दा झेंप गया और आगे कुछ न बोला। रात को रोटी खाता सतनाम मनजीत से बोला-
''बात सुन मेरी स्मिता पाटिल, ये तेरा देवर निरा ही असरानी बना घूमता है। इसे प्रेम चोपड़ा संजीव कुमार दिखाई देता है।''
आहिस्ता-आहिस्ता सभी को यह रूटीन मंज़ूर हो गया। शिन्दा इतवार को भी अजमेर के साथ काम करवाने जाता। सवेरे उठकर सतनाम की दुकान में आ जाता। हौर्नज़ी रोड की इस परेड में शिन्दे को सभी जानने लग पड़े थे। वह खाली होता तो यूँ ही किसी दूसरी दुकान में जा खड़ा होता। सब जानते थे कि वह सतनाम का भाई है। अब्दुला की दुकान पर बोतल लेने भी वही जाता। कभी कांती पटेल की दुकान से भी ले आता। अब्दुला उसको रोक लेता और कहता-
''सरदार जी, अपनी दुकान छोड़कर दूसरी पर क्यों जासों।''
''खान साहिब, मैं तो बैलेंस रखने की कोशिश कर रहा हूँ। पचास बोतलें तुमसे और एक वहाँ से। और फिर वह मीट भी हमसे ही लेता है।''
''मैंने तो पहले ही सतनाम से कहा था कि हलाल रखा करो।''
''जिन्होंने हलाल रखा हुआ है, उनका भी मुझे पता है।''
''देखो जी, हमें हलाल का कहकर देंगे तो सारी जिम्मेदारी उनकी ही होसी।''
''ऐसे तो हम भी हलाल का फट्टा लगा लेते हैं।''
कहकर शिन्दा चलने लगता तो अब्दुला उसके बैग में बियर का डिब्बा डाल देता, पर शिन्दा कांती पटेल की दुकान में जा घुसता।
एक दिन पैट्रो सतनाम को बताने लगा-
''सैम, मुझे लगता है, शैनी टिल में से हर रोज़ पाँच का नोट लेता है। पहले तो मैं सोचता था कि यह मेरा शक है। पर फिर मैंने ध्यान से चैक किया। पाँच पौंड लेकर फिर बाहर से शराब पी आता है।''
''तभी जल्दी शराबी हो जाता है।... चलो, कोई बात नहीं, पाँच पौंड ही हैं।''
''सैम, तू मालिक है, जो मर्जी कह। मैंने तो सोचा था कि अपने पैसे कम होते देख तू किसी और को न पकड़ता फिरे।''
कहकर पैट्रो ने कंधे हिलाये और दुबारा काम करने लग पड़ा। सतनाम बाहर से तो मुस्करा रहा था, पर अन्दर से वह जल-भुन गया। पाँच पौंड की बात नहीं थी, बात तो चोरी करने की थी। कहीं सच में ही जुआइस को पैसे न खिलाता हो। फिर वह उस बात की ओर से अपना ध्यान हटाते हुए अपने को दिलासा देने लग पड़ा।
अगले दिन शिन्दा अजमेर के साथ शॉपिंग करवाकर नहीं लौटा। वैसे वह ग्यारह बजे तक लौट आता था। पर बारह बज चुके थे। फिर एक बज गया। सतनाम याद करने लगा कि रात में कोई बात तो नहीं हुई थी उसकी। याद करने पर वह सबकुछ समझ गया। उसने नशे में शिन्दे को कहा था-
''बड़े ज्वैल थीफ़ ! अगर पाँच से गुज़ारा नहीं होता, तो पाँच और ले लिया कर।''
(जारी…)
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