रविवार, 8 फ़रवरी 2009

गवाक्ष – फरवरी 2009



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले बारह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की दस किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के फरवरी 2009 अंक में प्रस्तुत हैं –कनाडा से पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं तथा यू के में रह रहे पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की ग़्यारहवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

पंजाबी कविता


कनाडा से
तनदीप तमन्ना की पाँच कविताएं
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

1
पीर


यह कलम भी
क्या-क्या उकेरती रहती है
सफ़ेद सफ़ों की छाती पर
काले हाशिये की गुलाम
अंतहीन पीड़ाएं।

और यह ब्रश भी
क्या-क्या चित्रित करता रहता है
कैनवस की
प्यासी धरती पर
सूखे गुलाबों की पत्तियाँ।

पीर तो
बगावत कर
हाशिये की क़ैद तोड़
रोम-रोम में रच-बस जाती है
पर
सूखे गुलाबों की महक
ड्राई फ्लावर अरेंजमेंट का
दायरा कभी नहीं तोड़ती !
00

2
अनलिखा शब्द

दो साँसों के बीच की
ख़ामोशी में
जो अटक कर रह गया
मैं वो शब्द हूँ
अगर लिखा जाता
तो
हज़ारों अर्थ होते।
00


3
मरुस्थल की रेत

तेरा नहीं कोई कसूर
मुमकिन ही नहीं
मेरी पहचान
मैं हूँ
मरुस्थल की रेत।

कहीं-कहीं
टीलों में उगी
रूखी –सी झाड़ियाँ
पत्थरों से
मुहब्बत पालती हैं।

वाकिफ़ हूँ
गिद्धों की चालों का
शिकार होतीं
हसरतों से।

मूल्य जानती हूँ
उस पानी के कतरे का
जिसको
सूखे नयनों में
संभाल लेती हूँ
समन्दर समझ कर।

डरती हूँ
उस हवा से
जो
दिन में कई-कई बार
बदल देती है
मेरी शक्ल-सूरत।

इस पल और हूँ
अगले पल
होऊँगी कुछ और।

तेरा नहीं कोई कसूर
मुमकिन ही नहीं
मेरी पहचान।
00


4
लंदन

अनजाने शहर में
बेमकसद-सी घूमती हूँ
दम घुटता जाता है…
किसी कोने पर
घर का पता नहीं
यहाँ मोमबत्तियों की तरह
पिघलती जाती हैं
शक्लें !
और ट्रेनों से उतर कर
ढलती जाती हैं
दूसरी वस्तुओं में।

जीने के बहाने तलाशतीं
फीकी और नकली हँसी हँसतीं।

तड़कसार
सारा शहर गहरी नींद में
सो रहा है शायद
सिर्फ़ मैं ही नहीं तन्हा
दरख़्तों का एक-एक पत्ता
ख़िज़ा की आमद पर
उदास और बेनूर है।
00

5
रंगों का कोलाज

झड़ने से पहले
पतझरी रुत में
पीले, गुलाबी, दालचीनी रंगे
पत्तों ने
कुछ कहा तो है
कि फिर आएंगे
बहार की रुत में
हरियाली लेकर
फूटेंगे
इसी दरख़्त की टहनियों में से
कभी हमें
चाँदनी रात में
रात के पहले पहर
नूरोनूर होते देखना…

फिर आएंगे
संभाल कर रखना
तब तक हमारी
गुलाबी –सी याद
अश्रु न बहाना
बस, दरख़्त को जाकर
बांहों में भर लेना
समझ लेना
रिश्तों के
रंगों की
खुशबू की कीमत

फिर आएंगे
हरियाली लेकर
पर…
अगली बहार की रुत में
तेरी आँखों में
दो नर्गिसी फूल खिले
देखना चाहते हैं।
00

पंजाबी की युवा कवयित्री। कनाडा में रहते हुए अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा अपने पंजाबी ब्लॉग “आरसी” के माध्यम से कर रही हैं। गुरुमुखी लिपि में निकलने वाले उनके इस ब्लॉग में न केवल समकालीन पंजाबी साहित्य होता है, अपितु उसमें पंजाबी पुस्तकों, मुलाकातों और साहित्य से जुड़ी सरगर्मियों की भी चर्चा के साथ-साथ हिंदी व अन्य भाषाओं के साहित्य का पंजाबी अनुवाद भी देखा जा सकता है।
“आरसी” का लिंक है- http://www.punjabiaarsi.blogspot.com/
तनदीप तमन्ना का ई मेल है- tamannatandeep@gmail.com






धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 11)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सोलह ॥

अजमेर ने यह दुकान घर बेच कर ली थी। उसने एक प्रकार से जुआ ही खेला था। दुकानदारी का उसे कुछ भी पता नहीं था। उसके गाँववाले भजन के पास दुकान थी। वह जब भी मिलता तो काफी गप्पें मारा करता। अजमेर को इतनी तसल्ली थी कि फ्री-होल्ड दुकान थी। अगर नहीं चलेगी तो घर का घर तो था ही। घर की कीमत की ही दुकान थी, पर दुकान चल निकली। सोहन सिंह भी बर्मिंघम से आ गया था। उसकी पेंशन की उम्र हो रही थी। वह दुकान में मदद करवाने लगा। फिर ऐसा हुआ कि टोनी को भी काम पर रखना पड़ा। शाम के वक्त काम अधिक हो जाता था। फिर चोरी भी बहुत होती। चोरी करने वालों में काले लड़के अधिक होते थे। इसीलिए उसने टोनी को काम पर रखा था कि काले लड़के को देखकर काले लड़के चोरी करने से झिझकेंगे। उसका कुछ फायदा हुआ भी, पर टोनी छोटे मोटे झगड़े में आगे नहीं होता था। वैसे टोनी काम के लिए बहुत बढ़िया था। वह सोहन सिंह के साथ मिलकर दुकान संभाल लेता था। अजमेर को पेपर वर्क और शॉपिंग आदि करने में कोई दिक्कत नहीं आती थी। गुरिंदर भी घर के सारे काम सहज रूप में ही कर लेती थी। उसका भी बहुत सा समय दुकान में ही निकल जाया करता।
फिर अजमेर एक और दुकान लेने के बारे में सोचने लगा। इतना तो वह जानता था कि दो दुकानें उस अकेले से संभाली नहीं जा सकेंगीं। इसलिए किसी से पार्टनरशिप के बारे में सोचता रहता और नज़र रखता कि कौन सी दुकान खरीदी जा सकती थी। कौन सी दुकान सही जगह पर थी और गलत मैनेजमेंट के कारण डाउन हुई पड़ी थी। अगर दुकान का मालिक गोरा हो या वृद्ध, तो उसके चलने के अवसर अधिक होते थे। गोरे तो अब दुकानों में अधिक रहे भी नहीं थे। एशियनों का मुकाबला न कर पाने के कारण भाग खड़े हुए थे। एशियन बड़े मार्जिन पर काम किए जाते। दुकान खोलने के घंटे भी बढ़ा देते। और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका पूरा परिवार ही मदद कर रहा था जबकि गोरे इस बात पर मार खा जाते थे।
सतनाम वाली दुकान भी अजमेर ने ही खोजी थी। वह चाहता था कि सतनाम का आधा डलवा ले। दुकान में काम सतनाम ही करे, तनख्वाह ले और मुनाफा आधा-आधा बांट लें, पर सतनाम नहीं माना। सतनाम को यह आधा मंजूर नहीं था। सतनाम ने अकेले ही दुकान ले ली और अजमेर के बराबर हो बैठा था। अजमेर कई बार सोचता कि सतनाम को उसने वह दुकान बताकर बहुत बड़ी गलती की थी। उसे आशा नहीं थी कि सतनाम इतनी जल्दी उसकी बराबरी करने लगेगा।
अब विटिंगटन अस्पताल के सामने एक दुकान बिक रही थी। इसका मालिक नायजल एक गोरा था। उत्तरी लंदन में शायद यह किसी गोरे की आख़िरी दुकान होगी। अजमेर इस दुकान के पीछे बहुत समय से पड़ा हुआ था। नायजल उसे कैश एंड कैरी में मिलता, अजमेर उससे विशेष तौर पर हैलो करने जाता और पता लगाने की कोशिश करता कि वह इस दुकान को कब बेचेगा। अब उसने अजमेर को कह दिया था कि अगर दुकान उसने लेनी है, तो पहल उसी की होगी। उसके बाद ही वह मार्किट में बेचने की बात सोचेगा। अजमेर के मन में आया था कि वह यह दुकान बलदेव के साथ मिलकर खरीद ले। यही कारण था कि वह बलदेव का इंतज़ार कर रहा था। यह दुकान छोड़ी जाने वाली नहीं थी।
दुकान तो शायद वह अकेला भी ले लेता अगर उस रात दुकान में झगड़ा नहीं हुआ होता। कुछ लड़के-लड़कियाँ चोरी करने के इरादे से आ घुसे थे। सोहन सिंह ने उन्हें रोकने का यत्न किया तो उन्होंने उसे पीट दिया और भाग खड़े हुए। अजमेर खुद उस वक्त दुकान में नहीं था। वह सोच रहा था कि यदि वह दुकान में होता तो वह घटना न घटी होती। वह सोचता, उसे स्वयं अपनी दुकान में रहना चाहिए था।
बलदेव को आया देख वह खुश हो गया और उसी समय नायजल को फोन करके दुकान देखने चला गया। बलदेव भी संग ही था। अजमेर बलदेव को बता रहा था-
''यह दुकान बहुत मौके की है, अस्पताल के सामने। पासिंग बाई ट्रेड भी है। और फिर नायजल क्या मेहनत करेगा, बीस साल हो गए इसे यहाँ, यह तो वैसे ही फैड-अप हुआ पड़ा है।''
वैन खड़ी कर वे दोनों दुकान के अंदर चले गए। नायजल और उसकी पत्नी जुआइना ने उनके साथ हाथ मिलाया। नायजल दुकान की तारीफ करते हुए जानकारी देने लगा-
''ऐंडी, मेरा मार्जिन देख, मैं कोई कट प्राइस नहीं करता, किराया भी बहुत कम है, लीज अभी हाल ही में नई करवायी है। अगर मैं दुकान मार्किट में लगा दूँ तो हाथोंहाथ बिक जाएगी।''
''तेरी सही टेकिंग कितनी है और शो कितनी कर रहा है ?''
''टेकिंग मेरी तीन से ऊपर है, कभी बत्तीस सौ, कभी तैंतीस सौ, पर मैं शो पन्द्रह सौ करता हूँ।''
''हम दुकान में खड़े होकर देख सकते हैं ?''
''क्यों नहीं ? यह भी मेरी गारंटी है कि तुम्हारी टेकिंग डबल हो जाएगी। मैं तो पूरे समय खड़ा ही नहीं होता। वैसे मैंने इसे बेचना नहीं था, यह तो फ्रैंक नहीं मानता। वह कहता है कि मैं उसके साथ मिल जाऊँ। वह सी-साइड में बड़ा स्टोर ले रहा है।''
अजमेर ने बलदेव से कहा-
''यह पच्चीस हजार मांग रहा है, हम कम ऑफर करेंगे, बीस में बात बन जाएगी। थोड़ा हाथ फेरने से ही टेकिंग बढ़ जाएगी। ना रखनी हुई तो बेच देंगे।''
''भाजी, इसके ऊपर रहने के लिए नहीं है। लॉक-अप है। मुझे रहने के लिए भी जगह चाहिए।''
''आस पास कोई फ्लैट ले लेना।''
''इतने पैसे मेरे पास नहीं हैं।''
''पैसों का फिक्र न कर।''
उसे लगा, बड़ा भाई कुछ अधिक ही दयालु हो रहा था। बलदेव को सन्देह भी हुआ और अच्छा भी लगा। फैसला यह हुआ कि बलदेव दुकान में खड़े होकर देखेगा कि जितनी सेल नायजल बता रहा था, उतनी होती भी है कि नहीं। अजमेर उसे दुकान में छोड़कर स्वयं चला गया। जुआइना बताने लगी-
''हम बहुत बिजी हो सकते हैं, हम दुकान की तरफ ध्यान नहीं दे पाते, खास तौर पर तब से जब से फ्रैंक ब्राइटन चला गया है। अब हमारा दिल भी वहीं जाकर बस जाने को हो रहा है। अब एक बड़ा स्टोर मिल भी रहा है, फ्रैंक चाहता है कि हम उसके साथ हिस्सेदारी करें, इसलिए बेच रहे हैं। हम चाहते हैं कि जल्दी बिक जाए और हम जाएँ।''
जुआइना एक तरफ हट गई तो बलदेव ग्राहकों को सर्व करने लगा। सर्व करने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी। अजमेर की दुकान पर कई बार खड़ा होता था। दुकानों की जो बात उसे अच्छी लगती थी, वह यह थी कि रंग-बिरंगे लोगों के साथ वास्ता पड़ता था। अजमेर की दुकान के बनस्पित यहाँ कुछ अलग किस्म के ग्राहक थे। इनमें से अधिकतर अस्पताल से आने वाले लोग थे जैसे कि नर्सें, डॉक्टर या फिर मरीजों के रिश्तेदार। बलदेव उनसे छोटी-मोटी बात भी करता।
इन ग्राहकों में उसे सबसे जुदा मैरी लगी। मैरी ने आकर सिगरेट की डिब्बी मांगी। उसका आयरिश उच्चारण बिलकुल शुद्ध था, लंदन के किसी मिश्रण के बगैर। बलदेव ने पूछा-
''आयरलैंड से नई नई आयी लगती हो ?''
''हाँ, पर तुम कैसे कह सकते हो ?''
''तेरे एक्सेंट से। मुझे विशुद्ध आयरश एक्सेंट की पहचान हो गई है।''
''वह कैसे ?''
''क्यों कि मैं परसों ही आयरलैंड से लौटा हूँ।''
''यह बहुत खूब रहा। मैं भी परसों ही डैरी से आयी हूँ।''
''मैं वैलज़ी गया था, वाटरफोर्ड के पास।''
''कैसी लगी जगह ?''
''बहुत बढ़िया ! लोग भी बहुत पसंद आए।''
दुकान में इस प्रकार बातें करना जुआइना को पसंद नहीं था। उसके चेहरे के बदलते हाव-भाव देखकर बलदेव चुप हो गया। उसे खामोश देखकर मैरी बोली-
''अच्छा दोस्त, तेरे संग बातें करना अच्छा लगा।''
वह चली गई। बलदेव को जाती हुई मैरी बहुत सुन्दर लगी। बाहर खड़ी होकर उसने हाथों की ओट करके सिगरेट सुलगाई और सड़क पार कर अस्पताल में जा घुसी। बलदेव का मन हो रहा था कि वह भी बाहर निकल जाए और उसके साथ बातें करे। वह सोच रहा था कि मैरी में अवश्य कोई खास बात थी जिसके कारण वह उसकी ओर आकर्षित हो रहा था। नहीं तो इतना समय हो गया था उसे अकेले रहते, किसी भी औरत ने उसके मन को इस तरह नहीं छुआ था।
वह लगभग एक घंटा दुकान में रहा। वह सोचने लगा कि वह तो व्यर्थ ही वहाँ खड़ा था। पहले उसे यह फैसला करना चाहिए था कि उसने दुकान खरीदनी भी है कि नहीं। उसने सोचा, क्यों न पहले किसी से सलाह-मशवरा ही कर ले। शोन से या फिर सतनाम से ही। उसे अजमेर एकदम ही इधर ले आया था। इस दुकान के बारे में सोचने के लिए अभी वह तैयार नहीं था। सब जल्दबाजी में हो रहा था। वह जुआइना से शाम को आने का वायदा करके चला आया।
बाहर निकला तो देखा, अस्पताल की दीवार पर बैठी मैरी सिगरेट पी रही थी। वह अकेली थी। अवश्य किसी परेशानी में थी। बलदेव उसकी तरफ जाते हुए पूछने लगा-
''मैंने तो तुम्हें अस्पताल जाते हुए देखा था, सब ठीक तो है?''
''हाँ, क्या नाम है तेरा ?''
''डेव... तेरा ?''
''मैं मैरी हूँ, डैरी से। अपने भाई को देखने आयी हूँ। ग्रांट बहुत बीमार है, उसे कैंसर है।''
''यह तो बहुत दुख की बात है। डॉक्टर क्या कहते हैं ?''
''उन्होंने क्या कहना है। कहते हैं कि मर रहा है वो, शायद कुछ हफ्ते या महीने दो महीने।''
इतना कहकर वह रोने लगी। बलदेव उसके करीब बैठ गया। उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला-
''मैरी, मैं तुझे जानता तो नहीं हूँ, पर फिर भी अगर मैं तेरे लिए कुछ कर सकता होऊँ तो...।''
''कोई कुछ नहीं कर सकता, इस बीमारी के आगे किसी का जोर नहीं।''
मैरी ने आँखें पौंछीं और बोली-
''यह तेरी दुकान है ?''
''नहीं, मैं तो इसे खरीदने की सोच रहा हूँ। यूँ ही देखने के लिए खड़ा था।''
''तुम्हारे लोग दुकानों पर बहुत हैं। डैरी में भी हैं।''
''वे अब करें भी क्या ! अच्छी नौकरी देने में ये गोरे झिझकते हैं।''
''झिझकते ही नहीं, बल्कि देते ही नहीं। अब हमें देख, रंग भी इनके जैसा है पर फिर भी फर्क करते हैं।''
''तुम्हारे साथ तो इसलिए करते हैं कि तुम लोगों ने इनकी नाक में दम किया हुआ है।''
''तू तो बहुत दिलचस्प आदमी लगता है। उत्तरी आयरलैंड की सियासत समझने वाला लगता है। तुझसे मिलकर बहुत खुशी हुई।''
''कितने दिन लंदन में रहोगी ?''
''अभी तो यहीं पर हूँ, ग्रांट की हालत ठीक नहीं।''
''कहाँ रहती हो ?''
''टफनल पॉर्क स्टेशन के साथ ही, टफनल रोड पर, डार्ट माऊथ एस्टेट में ग्रांट का फ्लैट है, वहीं रहती हूँ।''
''कभी मेरे संग पब में चलना पसंद करोगी ?''
''क्यों नहीं... मैं तो वैसे भी लंदन आकर बोर हुई पड़ी हूँ। कोई भी परिचित नहीं है।''
बलदेव ने शाम को सात बजे नॉर्थ स्टार में मिलने का वायदा करके मैरी को अलविदा कहा और बस पकड़ ली। उसकी कार हाईब्री में खड़ी थी। पर वह हाईब्री न जाकर हौलोवे स्टेशन के पास उतर गया। वह सोच रहा था कि सतनाम उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। उसे उसके आने की खबर हो चुकी होगी। वह दुकान में गया तो सतनाम दूर से ही बोला-
''आ भई धीदो... तू तो बिलकुल मिलने से भी रह गया... आजकल कौन सी भैंसें चराता है।''
''मैं पहले भी आया था।''
''मुझे लग गया पता। छह महीने बाद आकर रौब दिखाता है! मैंने जट्टी को फोन किया था, बता रही थी दुकान के चक्कर में घूम रहा है।''
''सोचता हूँ कि ले लूँ... तेरी क्या सलाह है ?''
''दुकान तो ले ले, है भी मौके की। मुझे प्रेम चोपड़ा ने बताई थी सारी बात। फोन किया था मैंने। कहता था कि तूने फ्लैट भी लेना है।''
''हाँ, पर एक टाईम पर एक ही चीज ले सकता हूँ, मेरे पास पन्द्रह ही है।''
''यह तू अकेले ही लेना चाहता है कि आधे में उसके साथ ?''
''मैं किसी के साथ आधा नहीं करना चाहता, यह दुकान एक ही आदमी के लायक है।''
''तुझसे उसने बात नहीं की ?''
''नहीं तो, कौन सी बात ?''
''मेरे हिसाब से तो वह तुझे आधे पर रखकर काम पर लगाना चाहता है, तू तो जानता ही है प्रेम चोपड़ा को। तुझे अकेले को लेने भी नहीं देगा कभी, उसके अपने इंटरेस्ट सामने होते हैं, तुझे तो पता ही है। तू क्या उसे जानता नहीं।''
00
(क्रमश: जारी…)

लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
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