शनिवार, 20 दिसंबर 2008

गवाक्ष - दिसंबर 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले दस अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की आठ किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के दिसंबर,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – यू एस ए में रह रहे हिंदी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की नौंवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


यू.एस.ए से वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता-
कौन सी महफिलों में जाओगे

कौन सी महफिलों में जाओगे
दर्द अपना किसे सुनाओगे
मौन मानव के साथ धोखा है
सच कहोगे, तो मारे जाओगे

ज़हर सुकरात को पिलायेंगे
सूली ईसा को वे चढ़ायेंगे
कातिलों का भी फलसफा तो है
कत्ल करके मसीह बनायेंगे

बस मुखौटे ही चन्द बदले हैं
केंचुली के ही रंग बदले हैं
सांप, फन, ज़हर कुछ नहीं बदले
काटने के ही ढंग बदले हैं

वही सब ग़ज़नवी अन्दाज होगा
वतन के लूटने का काज होगा
शहीदों ने कभी सोचा नहीं था
उन्हीं के क़ातिलों का राज होगा

खुदी के सांप खुद को छल रहे हैं
घर अपने ही दियों से जल रहे हैं
बचाये आज किस को कौन किससे
यहां तो सांप घर-घर पल रहे हैं

हमारी ही वफा के पेचोखम हैं
हमारे ही किये खुद पर सितम हैं
हमीं ने दूध था इनको पिलाया कि
जिन सांपों के काटे आज हम हैं।
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धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 9)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। चैदह ।।

गुरिंदर को इंग्लैंड आने की इतनी खुशी नहीं थी, क्योंकि उसका आधा हिस्सा तो बलदेव के पास ही रह गया था। अजमेर का स्वभाव यद्यपि कुछ रूखा था पर वह उसे बेहद प्यार करता था। सतनाम भी उनके साथ ही रहता था। सतनाम की आदत उसे बहुत पसंद थी, हर समय दिल लगाये रखता।
इंग्लैंड पहुँचकर सबसे बड़ी उसकी चिंता यह थी कि उसे मैंसिज नहीं हुई थी। तारीखें निकल चुकी थीं, तारीखों के हिसाब से तो उसे राह में ही बीमार हो जाना था। उसे भय सताने लगा कि अगर कोई गड़बड़ हो गई तो वह क्या करेगी। वह तो लुट ही जाएगी, कहीं की न रहेगी। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, उसका भय बढ़ता जा रहा था। अकेली बैठी सोच रही होती तो उसे कंपकंपी छूटने लगती। फिर, उसने साहस करके फैसला किया कि वह सब कुछ सच-सच अजमेर को बता देगी। जो होना है, हो जाए। वह वापस चली जाएगी। अगर उसे बलदेव भी नहीं रखेगा, न सही, वह फिर से अपनी पढ़ाई शुरू कर देगी। इस बच्चे के सहारे ज़िंदगी काट लेगी। फिर उसने सोचा कि कुछ दिनों की गड़बड़ तो वह कर ही सकती थी। इतनी छूट तो कुदरत ने औरत को दे ही रखी थी। उसने अजमेर से कहा-
“जी, मेरी तो डेट्स निकल चुकी हैं।”
“इतनी जल्दी, अभी तो दस दिन भी नहीं हुए तुझे आई को।”
“जी, मुझे नहीं पता, कुछ करो, मुझे अभी बच्चा नहीं चाहिए।”
कह कर वह रोने लगी। उसकी हालत देखकर अजमेर बोला-
“पर मुझे तो चाहिए, जो भी बेबी आता है, आने दे। यह तो कोई ज्यादा ही उतावला लगता है, इतने उतावले को नहीं रोका करते।”
गुरिंदर का तीर चल गया था, पर जब तक शैरन का जन्म नहीं हुआ, तब तक उसके मन में धुकधुकी लगी रही थी। उसके जन्म लेने तक वह भयमुक्त न हो सकी। इस भय से बाहर आने के बाद ही उसे शैरन की आँखें बलदेव जैसी लगने लगी थीं। बलदेव की भांति शैरन का मुँह भी हँसते समय थोड़ा टेढ़ा हो जाता था। उसे बलदेव की याद आने लगती। घर में बलदेव की बातें होती रहती थीं। पहले उसने उसकी किसी बात में हिस्सा नहीं लिया था, पर अब वह विशेषतौर पर कहती कि उसका भी कुछ करो, कहीं वह गाँव लायक भी न रहे।
जब तक सतनाम का विवाह नहीं हुआ था, वह उनके साथ ही फर्न पार्क वाले घर में रहा। मनजीत के आ जाने पर भी वह कुछ दिन रहा, फिर उसने अपना अलग घर ले लिया था। घर में अप्रत्यक्ष रूप से उसके और मनजीत के मध्य एक प्रतिस्पर्धा-सी बनी रहती, पर वह मनजीत से बहुत आगे थी। सुंदरता में भी, घर के काम में भी। लेकिन जब मनजीत काम पर जाने लग पड़ी तो उसे लगने लगा कि मानो वह अब उससे आगे निकल हो। वह भी नौकरी करना चाहती थी। अजमेर से वह अपनी इच्छा व्यक्त करती तो वह उसे झिड़क बिठा देता।
अजमेर का स्वभाव ऐसा था कि वह उसे प्यार भी करता था और इज्जत उतारने में भी एक मिनट नहीं लगाता था। कई बार बैठा-खड़ा भी न देखता। सतनाम कहा करता-
“जटिये ! प्रेम चोपड़ा की आदत डाल ले। इसे यह सोचने की आदत है कि मेरा नाम है प्रेम चोपड़ा... बस, इसकी बड़ाई करती रहा कर।”
वह बड़ाई भी करती, पर अजमेर फिर भी गुस्से में आकर कुछ न कुछ बोल जाता। गालियाँ तक बक जाता। उसका मन उदास होने लगता। उसे बलदेव की याद तड़फाने लगती। वह सोचती कि काश, वह यहाँ होता।
जब से सतनाम ने अपना घर लिया था, तब से भाइयों के बीच भातृत्व प्रेम कम होने लगा था। वे एक दूसरे के शरीक बनते जा रहे थे। बात बात में प्रतिस्पर्धा होने लगी। पहले तो पत्नियों में ही प्रतिस्पर्धा थी, फिर घर को लेकर होने लगी। सतनाम ने घर ज़रा बड़ा और मंहगी सड़क पर खरीदा तो अजमेर से सहा न गया। वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहा था। सतनाम अजमेर से इस बात से भी कुछ गुस्सा था कि सोहन सिंह की तनख्वाह वही संभालता था। सोहन सिंह बर्मिंघम में अपने किसी गांववाले के पास रहा करता था और फैक्टरी में काम करता था। सतनाम कई बार बातों बातों में सुना जाता। अजमेर बहुत चिढ़ता। उसने ही सोहन सिंह को निर्भर बनाकर बुलाया था। सतनाम को भी उसने ही इधर स्थायी करवाया था, पर उसे सतनाम अकृतज्ञ लगने लगा था।
अजमेर इंडिया में रहते अपने भाइयों को पैसे भेजता। बहन के रस्म-रिवाज पूरे करता। किसी ग्रामीण के यहाँ कुछ होता तो पहुँचता। इस बात से उसे तसल्ली होती थी और इसी कारण उसकी अपने गांववालों में विशेष जगह बनी हुई थी। मिडलैंड में तो उसके गांव पंडोरी के बहुत से लोग रहते थे। उसका सभी के यहाँ आना-जाना था।
मिडलैंड में रह रहे उसके गांव के किसी व्यक्ति ने बलदेव के बारे में रिश्ते की बात की थी। अजमेर खुश था। वह सोचता कि सतनाम अब बदल गया था, उसके सारे अहसान वह भूल चुका था, पर बलदेव ऐसा नहीं लगता था। वह इंडिया जाता तो बलदेव उसे बड़े प्यार से मिलता, इज्ज़त भी पूरी करता। वह सतनाम से भिन्न था। भविष्य में यहाँ आकर बिजनेस में उसकी मदद कर सकता था। ऐसी ही बातें सोचते हुए वह इस रिश्ते के पीछे पड़ गया। लड़कीवाले ग्रेवजैंड में रहते थे। लड़की का बाप निर्मल सिंह अजमेर के गांव निवासी सरबण का खास दोस्त था। रिश्ता हो गया। बलदेव इंग्लैंड पहुँच रहा था।
जैसे बहती हुई नदी में मिट्टी का तोंदा गिर जाए तो उसकी गति में अन्तर आ जाता है, ऐसे ही गुरिंदर के साथ हुआ। उसकी ज़िंदगी की रफ़्तार में फर्क पड़ गया। बलदेव की प्रतीक्षा करती कभी वह बहुत उत्तेजित हो जाती तो कभी डरने भी लगती कि इस अच्छी-भली ज़िंदगी में कहीं कोई खलल ही न पैदा हो जाए। जिस दिन बलदेव ने पहुँचना था, वह घर की खिड़की में खड़ी होकर अजमेर की कार को जाते हुए देखती रही मानो वे अभी ही लौट आएंगे। सड़क के मोड़ पर उनका घर हुआ करता था जहाँ से पूरी की पूरी सड़क दिखाई देती थी। दूर से आती हुई कार दिखलाई दे जाती। वह घर के काम से फुर्सत पाकर खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बलदेव के पहुँचते ही अजमेर ने एअरपोर्ट से फोन कर दिया था। बहुत लम्बे इंतज़ार के बाद लाल रंग की कौरटीना आती दिखाई दी। उसका दिल धड़क उठा। उसने दिल पर हाथ रखकर उसे काबू में करने की कोशिश की। दरवाजा खुलने की आवाज सुनी, पर वह ज्यों की त्यों खड़ी रही। फिर तीनों भाई बातें करते हुए अन्दर आ गए। खिड़की से गुरिंदर ने बलदेव को देख लिया था। वह बदला-बदला-सा प्रतीत हो रहा था।
बलदेव ने गुरिंदर की ओर देखा और कुछ पल देखता रहा और फिर ‘सत्श्रीअकाल’ कहा। गुरिंदर ने सिर हिलाकर ही जवाब दिया। वे सैटी पर बैठने लगे। गुरिंदर ने पूछा-
“चाय रखूँ ?”
“जट्टिये ! चाय रहने दे, हमें पानी और गिलास ला दे।”
“नहीं गुरां, मुझे तो चाय ही बना दे।”
गुरिंदर की देह में एक लहर दौड़ गई। इतने साल हो गये उसे किसी ने गुरां नाम से नहीं बुलाया था। सतनाम कहने लगा-
“वहाँ तो तेरे ससुराल वाले थे, मैंने कुछ नहीं कहा, पर यहाँ चाय-वाय नहीं मिलेगी, सीधी तरह लाइन पर आ जा, चाहे थोड़ी ही पी।”
गुरिंदर कॉफी टेबुल पर गिलास रखती हुई बोली-
“अगर वह नहीं पीना चाहता तो रहने दो, पिलाना कोई ज़रूरी है !”
“अगर यह पियेगा नहीं तो हमारा भाई कहाँ से लगेगा। अगर इसने न पी तो यह हमारा गांववाला भी नहीं लगेगा, भाई तो दूर की बात है।”
गिलासों में पैग बनाता वह बलदेव को बताने लगा-
“मिडलैंड में एक बात मशहूर है। कोई शराबी राह में गिरा पड़ा हो तो गुजरने वाला कह देता है कि पंडोरी का होगा।”
वे सभी हँसने लगे। अजमेर के पास करने के लिए अधिक बातें नहीं हुआ करती थीं, वह इस तरह सुनने का ही आनन्द लेता। सतनाम गुरिंदर को बताने लगा-
“जट्टिये ! मैंने तो तेरे देवर को पहचाना ही नहीं था। इतने बरस हो गए इसे देखे हुए को। जब मैं घर से चला था तो इसके अभी दाढ़ी भी नहीं फूटी थी। और अब जब यह चला आ रहा था, भाई ने ही इशारा किया कि वह आ गया। मैंने सोचा, यह तो गुलजार आ रहा है, वैसी ही ऐनक, हल्की-सी मूंछें और सफाचट दाढ़ी।”
गुरिंदर हँसने लगी। बलदेव का यह रूप उसे पराया-सा लगा था। उसने पूछा-
“ऐनक कब लग गई ? निगाह कमजोर हो गई ?”
“नहीं गुरां, निगाह ठीक है, सिर दुखता रहता था, डॉक्टर ने कहा कि लगाकर देख। जब से लगाई है, तब से ठीक है।”
फिर वे कितनी ही देर बैठकर गांव की, शिंदे की, उसकी पत्नी और बच्चों की बातें करते रहे। अजमेर उसके विवाह की तैयारी के बारे में बता रहा था कि वह अपने सभी गांववालों को बरात में ले कर जाएगा।
बलदेव की गुरिंदर से अधिक बात न हो सकी। उन्हें अकेले में बात करने का अवसर तीसरे दिन जाकर मिला, जब अजमेर काम पर चला गया। बच्चे अभी सोये हुए थे। बलदेव उसके सामने खड़े होकर बोला-
“हाँ, अब बता, क्या कहना चाहती है ?”
“तू बता, तू क्या कहना चाहता है ? हर समय चोरी-चोरी मेरी ओर झांकता रहता है।” कह कर वह मुस्कराई।
बलदेव कुछ पल के लिए चुप्पी लगा गया और फिर उसकी आँखों में गहरे झांकते हुए बोला-
“गुरां, मैं तुझे खुश देखकर बहुत खुश हूँ। मुझे तेरी बहुत फिक्र थी। मैं तेरे बारे में इतना सोचता रहता था कि मुझे बुरे-बुरे सपने आने लगते। मैं सोचा करता कि तू ठीक हो।”
“अगर मुझे कुछ हो गया होता तो तुझे पता लग ही जाता।”
“मुझे तेरी बाहरी खबर ही मिलती, तेरे अन्दर की खबर का क्या पता चलता।”
“हाँ, बलदेव, अन्दर बहुत कुछ घटित हुआ। मैं कई बार मर कर जिंदा हुई हूँ, कह ले कि पुनर्जन्म हुआ है। अगर बात इधर-उधर हो जाती तो मेरी लाश ही मिलती।”
“क्यों, क्या हुआ ?”
“मैंने तुझे तब बहुत रोका था, पर तू रुका ही नहीं और मुझे तूने मुसीबत में फंसा दिया।”
“क्या मतलब तेरा ?”
“गर्भ ठहर गया था।”
“रियली !”
“और नहीं तो क्या... मैं तो मर ही गई थी।”
“फिर ?”
“फिर क्या !... मैंने रब के आगे कितनी ही अरदासें कीं कि हे रब्बा, एकबार बख्श दे, दुबारा बलदेव का मुँह नहीं देखूँगी।”
कह कर गुरिंदर हँसी। बलदेव ने कहा-
“लगता है, रब ने सुन ली, नहीं तो ये हँसी नहीं निकलती।”
“हाँ, बलदेव, सच ही सुनी गई... शैरन का वेट ज्यादा होने के कारण कई दिन ऊपर जाकर इसका जन्म हुआ और इस तरह कवर हो गया।”
“तो शैरन...?”
“हाँ...।”
तब तक तीनेक साल की शैरन उठ आई। बलदेव ने उसे उठाकर गले से लगा लिया।
(क्रमश: जारी…)

लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393
07782-265726(मोबाइल)
ई-मेल : harjeetatwal@yahoo.co.uk

अनुरोध
“गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

बुधवार, 19 नवंबर 2008

गवाक्ष - नवंबर 2008



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले नौ अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सात किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के नवंबर,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – डेनमार्क निवासी कवि-कहानीकार चाँद शुक्ला हदियाबादी की ग़ज़लें तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की आठवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


डेनमार्क से
चाँद शुक्ला हदियाबादी की दो ग़ज़लें


1
रुख़ पर उसके बहार आती है
जब वो मुझसे नज़र मिलाती है

इक नज़र गर मैं देख लूँ उसको
शमअ जैसी वो झिलमिलाती है

उसकी आवाज़ फ़ोन पर गोया
घर में ख़ुश्बू बिखेर जाती है

मेरे घर की हरेक खिड़की से
चाँदनी साफ़ झिलमिलाती है

वोह मिरे दिल की झील में अक्सर
चांदनी बन के उतर जाती है

शब के तारीक रास्तों में कहीं
इक किरन-सी भी जगमगाती है

मैं ख़यालों में उसके रहता हूँ
वो मेरे दिल में मुस्कुराती है

"चाँद" तारों की यह नावाजिश है
रौशनी जो घरों में आती है

2
ऐ हवा मुझको तू आँचल में छुपा कर ले जा
सूखा पत्ता हूँ मुझे साथ उड़ा कर ले जा

शाख से कट के तुझे टूट के चाहा मैंने
आ मेरी याद को सीने में छुपा कर ले जा

बंद आखों में मेरी झांकते रहना हरदम
अपनी पलकों में मेरा प्यार बसा कर ले जा

गुनगुनाना मेरी नज्में जब भी हो फुर्सत
मेरे गीतों को तू होठों पे सजा कर ले जा

साथ क्या लाई हो पूछेंगे जब तुझे अपने
अपने माथे पे मेरा प्यार सजा कर ले जा

सियाह रात में तुझको यह रौशनी देंगे
मांग में "चाँद" सितारों को सजा कर ले जा
00

जन्म : चाँद हदियाबादी शुक्ल का जन्म भारत के पंजाब प्रांत के जिला कपूरथला के ऐतिहासिक नगर हादियाबाद में हुआ।
शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा डलहौज़ी और शिमला में प्राप्त की।
संप्रति : बचपन से ही शेरो-शायरी के शौक और जादुई आवाज़ होने के कारण पिछ्ले पन्द्रह वर्षों से स्वतंत्र प्रसार माध्यम 'रेडियो सबरंग' में मानद निदेशक के पद पर आसीन हैं। आल वर्ल्ड कम्युनिटी रेडियो ब्राडकास्टर कनाडा (AMARIK) के सदस्य। आयात-निर्यात का व्यापार।
प्रकाशन एवं प्रसारण : दूरदर्शन और आकाशवाणी जालन्धर द्वारा मान्यता प्राप्त शायर। पंजाब केसरी, शमा (दिल्ली) और देश विदेश में रचनायें प्रकाशित। गजल संग्रह प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार - सम्मान : सन्‌ १९९५ में डेनमार्क शांति संस्थान द्वारा सम्मानित किये गये।सन्‌ २००० में जर्मनी के रेडियो प्रसारक संस्था ने 'हेंस ग्रेट बेंच' नाम पुरस्कार से सम्मानित किया
अन्य : कई लघु फ़िल्मों और वृत्त फ़िल्मों में अभिनय।

ई-मेल- chaandshukla@gmail.com


धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 8)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। तेरह ।।

कई दिन अच्छे बीते और इतवार के दिन बारिश हो गई। छुट्टीवाले दिन बारिश को लोग बुरा समझते हैं, पर इतने दिन धूप चमकती रही थी कि बारिश अच्छी लग रही थी।
सतनाम ने कार ‘सिंह वाइन्ज’ के सामने ला खड़ी की। संयोग से उसे वहाँ जगह मिल गई। कार में से बाईं ओर से मनजीत निकली और पिछली सीटों से बच्चे उतर कर दुकान की ओर दौड़ पड़े। गुरिंदर ‘टिल्ल’ पर खड़ी थी। सोहन सिंह काउंटर के पीछे कुर्सी पर बैठा था। टोनी नित्य की तरह काम में व्यस्त था। सतनाम ने अंदर घुसते ही कहा-
“तगड़ी हैं न जट्टिये ? और बापू तू कैसा है ?”
“आ भई, तू सुना कैसा है ?” सोहन सिंह बोला। गुरिंदर मुस्कराई और फिर मनजीत का हालचाल पूछने लगी। बच्चे चॉकलेट उठाने लग पड़े। सतनाम कहने लगा-
“हेमा मालिनी कहती थी कि बहन से मिलना है। मैंने कहा, चल, गोली किसकी और गहने किसके !”
“तेरा काम कैसा है भई ?”
“भाइया, काम ठीक नहीं। गरमी बहुत पड़ती है, लोग मीट नहीं खाते, ये ड्रिंक पीते हैं, तुम तो बिजी होगे ?”
“हाँ, आज बारिश के कारण स्लो है।”
“और भाइया, तू सुना, तेरी दाल में घी होता है कि नहीं ? रात में दूध मिलता है ?” कह कर उसने तिरछी नज़र से गुरिंदर की तरफ देखा। गुरिंदर गुस्से में बोली-
“तुझे कितना मिलता है घी ?... तुझे कितना दूध मिलता है ?... बता तो ज़रा।”
“ए जट्टी ! मेरी तो अभी बहुत उम्र पड़ी है पर भाइये के खाने-पीने और जीने के यही दिन हैं।”
“अगर तुझे बापू की इतना ही फिक्र है तो ले जा अपने संग, कर बूढ़े की सेवा, पता लग जाएगा !”
“देख जट्टी ! हेमा मालिनी से काम कहीं होता है... यह धमिंदर ही भूखा रह जाता है... मैं तो मजाक करता हूँ, जट्टी की बराबरी कौन कर सकता है ?”
गुरिंदर अपनी प्रशंसा सुनकर खुश होने लगी। सतनाम ने सोहन सिंह की कमीज़ टटोली और पूछा-
“ओ भाइया, यह तो बता, कपड़े तुझे आज प्रेस किए मिले थे ?”
गुरिंदर ने फिर मुँह बनाया। मनजीत बोली-
“आओ बहिन जी, हम ऊपर चलें।”
“इसे तू ही झेले जाती है, मैं तो एक दिन न काट सकूं।”
कह कर गुरिंदर ने सतनाम की तरफ देखा। सतनाम ने कहा-
“यह तो ज्यादती है जट्टी ! मेरे मुकाबले जट्ट ज्यादा चालू है। मैं यों ही तो नहीं उसे प्रेम चोपड़ा कहा करता हूँ।”
“यह ठीक है, तेरी हेमा मालिनी और मेरा प्रेम चोपड़ा।”
“वह है कहाँ ?”
गुरिंदर से पहले ही सोहन सिंह कहने लगा-
“राम और श्याम आए हुए हैं।”
मुनीर और प्रेम का नाम राम और श्याम सतनाम ने ही रखा हुआ था। वह एक साथ बाहर निकले थे। विदरिंग रोड सतनाम की दुकान के निकट ही पड़ती थी। वे उसके पास भी चले जाया करते थे। कई बार शाम को हिस्सा डालकर पीने भी बैठ जाते।
मनजीत और गुरिंदर ऊपर चली गईं। स्टोर रूम में लगे शीशे के पास से गुजरीं तो गुरिंदर ने एक नज़र शीशे में मारी। वह मनजीत से किसी भी तरह से कम नहीं थी। पर मनजीत से अपने आप को बहुत कम आंका करती थी वह। मनजीत के पास नौकरी थी। वह कार चला कर जहाँ चाहती, जाती। वह बाहर की दुनिया में घूमती-फिरती थी और वह थी कि इस चारदीवारी में कैद थी। ऊपर जाकर बच्चे शैरन और हरविंदर के संग खेलने लगे। गुरिंदर के बच्चे मनजीत के बच्चों से आयु में बड़े थे, पर वे उन्हें अपने संग खिला लेते थे। सतनाम पब की ओर चला गया। उसके जाने के बाद सोहन सिंह टोनी से बोला-
“माई दिस सन, टू मच यैपी-यैपी... वन सन इंडिया, वैरी गुड।”
टोनी सतनाम के स्वभाव को जानता था। वह गुरिंदर और सतनाम के बीच हुई बात को समझ तो नहीं सकता था, पर वह जानता था कि उनके बीच नोंक-झोंक हो रही थी इसलिए मंद-मंद मुस्कराये जा रहा था।
अजमेर ने सतनाम की कार देखते ही उसके लिए गिलास भरवा लिया। सतनाम, मुनीर और प्रेम से बड़ी गर्मजोशी से मिला। अजमेर ने मुनीर की चांगलो कबीले वाली कहानी, वांगली खेल और वांगलू को फाड़ने वाली सारी कथा सतनाम को सुनाकर उससे उसकी राय पूछी। बात सुनकर सतनाम हँसने लगा। इतना हँसा कि सभी को उसका साथ देना पड़ा। मुनीर खीझ-सा गया। सतनाम ने कहा-
“इस खेल का लॉजिक तो बाद की बात है, मुझे तो ये नाम ही चाइनीज़ से लगते हैं। कहीं कोई चाइनी कबीला तो नहीं था वह ?”
“भाई जान, मैं तो उनके बीच रह कर आया हूँ।”
“मुनीर मियां, मुकाबला हमेशा दो ग्रुपों या दो प्लेयरों में होता है, कई तरह की कशमकश होती है, टेंशन होती है।”
“टेंशन तो यहाँ भी जे, पर जे कि पहले वांगलू को कौन फाड़सी, पर बहुत बारी प्लेयर मिल जासण।”
“वही कि उनका मुकाबला तो वांगलू या नगाड़े के साथ हुआ।”
“वो तो हो सी।”
“मैं नहीं मानता।”
“मन जासी, इक दिन मन जासी।”
फिर मुनीर ने सोचा कि बात को बदला जाए। उसने पूछा-
“भाई जान, हलाल भी रखा करो, हमको कश्मीरियों के जाणा पैसी।”
“किन कश्मीरियों के जाते हो ? गफूर के ?”
“नहीं साईम के, उसके मामा का लड़का ही है।”
“हाँ, अब तो बहनोइया भी है।”
“हाँ, स्ट्राउड ग्रीन में कश्मीरियों की बहोत चढ़त होसी।”
“शक्लें भी सभी की एक जैसी हैं।”
“हाँ, फिर रिश्तेदार जो होसी।”
“इतनी मिलती जुलती कि जैसे एक ही टीके के कटड़ू हों।”
उसकी बात पर सभी हँसने लगे। अब दो बज रहे थे। पब बन्द करने की घंटी बज गई। उन्होंने अपने गिलास शीघ्रता में खाली किए और उठकर चल पड़े। मुनीर और प्रेम दोनों अपने घरों की ओर चल दिए। अगर सतनाम ना आया होता तो रुक भी लेते। अब वे समझते थे कि उन्होंने कोई पारिवारिक बात करनी होगी। नहीं तो कई बार वे पब से उठने के बाद दुकान में आकर खड़े हो जाते थे।
दुकान में आकर अजमेर ने मोटा-सा हिसाब आज की सेल का लगाया और बोला-
“आज तो बारिश ने काम डाउन कर दिया।”
फिर उन्होंने व्हिस्की की बोतल उठाई और ऊपर चले गये। उनके पहुँचने तक सोहन सिंह ने अपने लिए ब्रांडी डाल ली थी। सतनाम और अजमेर आर्सनल की फुटबाल टीम की बातें करने लग पड़े। वे दोनों ही आर्सनल के फैन थे और इस बार आर्सनल ने दोहरी जीत हासिल की थी। एफ.ए. फाइनल भी जीता था और चैम्पीयन लीग भी। अब तीसरी जीत पर नज़रें टिकाये बैठे थे। पूरे युरोप की विजयी टीमों के फाइनल की जीत की भी आस थी उन्हें। अजमेर और सतनाम के पास जब बातें खत्म हो जाती थीं तो फुटबाल की बातें बहुत बढि़या समय व्यतीत कराती थीं।
गुरिंदर ने यों ही आदत के अनुसार खिड़की में खड़े होकर राउंड-अबाउट की ओर देखा। कोई इक्का-दुक्का कार ही आ जा रही थी। बारिश ने दिन को बहुत ही धुंधला-सा बना दिया था। फिर वह अजमेर से बोली-
“रोटी कब खाओगे ?”
“जब मर्जी ले आना, पर पहले अल्मारी में से बहन बंसों वाली चिट्ठी निकाल कर इसे दे।”
गुरिंदर ने चिट्ठी सतनाम को थमायी। वह पढ़ने लगा और फिर बोला-
“इंडिया वाले सोचते हैं कि यहाँ पैसे दरख्तों में लगते हैं, तोड़ो और उन्हें भेज दो। अभी पिछले साल तो हजार पोंड भेजा था।”
“कहते हैं कि वह तो घर की छत डालने में मदद थी और अब तो लड़की का ब्याह है।” अजमेर गुस्से में बिफरा बैठा था। उसने आगे कहा-
“इतने पैसे कहाँ से निकालते रहें। उधर शिंदे का संदेशा आया हुआ है कि ट्रैक्टर खराब पड़ा है।”
“शिंदा भी साला शक्ति कपूर बना घूमता है। पहले ट्रैक्टर लेकर दो, फिर रिपेयर भी करवाओ और वह खुद बांह लटकाये गाँव में घूमता फिरता है। वहाँ बैठे-बैठे आर्डर दिए जाता है।”
“शिंदे वाली प्रॉब्लम तो बाद में है, पर इसका क्या करें, यह सोचो। अगर लड़की का ब्याह है तो उसने पूरे खर्चे की इधर से आस रखनी ही है।”
अजमेर का गुस्सा कुछ कम हुआ था। सतनाम समझता था कि इस खर्चे में वह उससे हिस्सा डलवाना चाहता था। इसीलिए गुस्सा दिखा रहा था कि वह गुस्सा दिखलाए, कुछ बोले। बंसो ने चिट्ठी के शुरू में अजमेर की बढ़-चढ़कर तारीफें की थीं। उसे राजी करने के लिए इतनी ही बात काफी थी। सतनाम ने जानबूझ कर दूसरा ही टोना लगा दिया। वह कंधे पर हाथ रखते हुए सोहन सिंह से कहने लगा-
“भाइया, तू नजीर हुसैन की तरह यों ही हँसता रहता है। इतनी पेंशन लेता है, बंसो को पैसे भेज।”
अजमेर को उसकी यह बात तीर की भांति लगी। सोहन सिंह बोला-
“जैसा मरजी कर लो, उधर शिंदा भी है। यही, ट्रैक्टर का संदेशा आया हुआ है।”
अजमेर गुस्से में भरा हुआ बैठा था। उसे गिला था कि सतनाम अच्छी तरह जानता था कि सोहन सिंह की पेंशन को वह साझे तौर पर गाँव वाले घर के लिए इस्तेमाल किया करता था। सतनाम भी उसका मूड समझ गया और उसे खुश करने के लिए कहने लगा-
“असल में ये चिट्ठियाँ भाई की दरियादिली के कारण आती हैं।”
फिर उसने बात बदलने के लिए गुरिंदर से कहा-
“जट्टी ! तेरे लाड़ले देवर का क्या हाल है ? कोई खैर-खबर है कि नहीं?”
“मैंने शौन के घर फोन किया था। उसकी वाइफ कहती थी कि उसके साथ आयरलैंड गया हुआ है।”
सोहन सिंह जैसे सपने में से उठा हो, कहने लगा-
“इस लड़के ने भी खून पी रखा है, घर में नहीं घुसता, बस गोरे के पीछे घूमता फिरता है।”
“भाइया, तेरा लाड़ला जो ठहरा।”
अजमेर का मूड कुछ बदला। उसने कहा-
“होस्पीटल के सामने दुकान बिक रही है। ठिकाने की दुकान है। मैंने सोचा था कि ले लेते हैं, टिक कर बैठेगा, पर उसका पता ही नहीं कि कब वापस लौटेगा।”
“कहीं आयरलैंड में ही न टिक जाए ?”
“कुछ कह रहा था क्या ?”
“कहता तो नहीं, पर मलंग आदमी का क्या भरोसा ?”
उनकी बात सुनकर गुरिंदर के मुँह से आह निकली। वह बोली-
“तुम्हारा भाई है, भटकता घूमता है, कुछ करो उसका, उसे समझाओ।”
“वह समझने वाली चीज नहीं, जट्टिए।”
“शौन की वाइफ को फोन करके कह कि लौटते ही घर को आए।”
सोहन सिंह ने अपनी बात बताते हुए कहा-
“अगर वह समझने वाला होता तो अपना टब्बर छोड़ कर इस तरह न घूमता फिरता। मैंने बहुत कहा कि घर में झगड़ा न डाल, पर ये नहीं माना।”
“भाइया, वो लड़की इतनी बुरी नहीं, यही पृथ्वीराज के जमाने का बना फिरता है। कहता है- यह न पहनो, वो न पहनो। और लड़की है कि श्रीदेवी वाला माडल।”
(क्रमश: जारी…)
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अनुरोध

गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

रविवार, 28 सितंबर 2008

गवाक्ष - सितंबर 2008



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले आठ अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सात किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के सितंबर,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की सातवीं किस्त का हिंदी अनुवाद तथा डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं…

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 7)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


बारह

गुरां ने सोचा कि अब विवाह तय हो गया है और वह बलदेव से पीछा छुड़वा लेगी, पर बलदेव था कि अब अधिक याद आने लगा था। उसे अपने आप पर गुस्सा आता कि उसने बलदेव के दिल की सदा सुनी क्यों नहीं। फिर बलदेव पर गुस्सा आने लगता कि वह मुँह से कुछ बोला क्यों नहीं। जैसे-जैसे विवाह नज़दीक आ रहा था, उसे लग रहा था कि यह ठीक नहीं हो रहा। फिर उसे अपने गरीब माँ-बाप का खयाल आता तो सोचती कि यही ठीक था। वह तो बहुत किस्मत वाली थी कि इंग्लैंड से आया लड़का मिल गया था, नहीं तो उनके घर की हैसियत को ऐसा रिश्ता कहाँ नसीब होना था। उसका मन होता कि किसी के संग वह अपने दिल की बात साझी करे, पर इतनी करीबी सहेली कोई थी ही नहीं। फिर अब तो विवाह में तीन दिन ही शेष थे। किसी को दिल की बात बता कर करेगी भी क्या। फिर इससे भी अधिक अनसोचा घटित हो गया। बलदेव दूल्हे के पीछे सरबाला बना खड़ा था। यह देखकर गुरां को झटका-सा लगा। उसने मन ही मन सोचा कि रब्ब उससे किस जन्म के बदले ले रहा है। असल में, अब उसे महसूस हो रहा था कि वह बलदेव के साथ कितना जुड़ गई थी।
बलदेव का बड़ा भाई अजमेर इंग्लैंड से विवाह करवाने इंडिया आया तो उसने कितनी ही लड़कियाँ देखीं। कोई उसे पसंद नहीं आती थी तो कोई उसे ना कर देती। आख़िर में किसी बिचौलिये ने गुरां के रिश्ते की बात की और साथ ही कहा कि लड़की लड़के को नहीं दिखानी है, कोई दूसरा बेशक लड़की को देख ले। इस पर उनकी बड़ी बहन बंसो जाकर लड़की देख आई और पसंद भी कर आई। अजमेर को जल्दी लौटना था इसलिए विवाह की भी जल्दी थी। बलदेव और शिंदा अजमेर के आने की खुशी में शराब निकालने में जुटे हुए थे, इसलिए उन्होंने अधिक ध्यान ही नहीं दिया। जब बलदेव को पता चला कि लड़की चक्क से है तो एकबार उसके दिल को कुछ हुआ। फिर जब बारात लेकर गए और वहाँ अपनी क्लास की कुछ लड़कियों को घूमते देखा तो उसे शक होने लगा। फिर एक लड़की ने आकर उसे बुला ही लिया। कहा-
“दूल्हा तेरा सगा भाई है ?”
“हाँ।”
“इधर जो लड़की है, वह गुरां है, पता है तुझे ?”
बलदेव ‘नहीं’ भी नहीं कह सका था। उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि लड़की के बारे में पहले जानने की कोशिश क्यों नहीं की। फिर वह सोचने लगा कि अगर जान भी जाता तो क्या करता। क्या विवाह रुकवा देता। गुरां से उसका इकतरफा लगाव था, इतने से लगाव के सहारे वह कैसे हिम्मत दिखा सकता था। ऐसा सोचते हुए वह संभल गया और विवाह का आनन्द लेने लगा।
अजमेर जब लड़की लेने उनके घर गया तो वहीं उसे मालूम हो गया कि गुरां और बलदेव दोनों क्लास-फैलो रहे थे। अजमेर ने कहा-
“तूने मुझे बताया क्यों नहीं ?”
“मुझे क्या पता था ? हमने कौन-सा लड़की देखी थी। और फिर, गुरां ने कालेज में अधिक किसी को बताया भी नहीं था कि उसका विवाह होने जा रहा है।”
“कैसी है लड़की ?”
“अब तो जैसी भी है, ठीक है। वैसे भाजी एक बात बताऊँ कि ऐसी लड़की किस्मत वालों को ही मिलती है।” कहकर उसने अजमेर से हाथ मिलाया तो अजमेर बागोबाग हो गया।
बलदेव इस हादसे में से सहजता से निकल आया। उसने अपने आप को संभाल लिया था। कभी-कभी अपने पराजित होने का अहसास जागता तो वह उसी समय अपने आप को तसल्ली देने लगता कि वह अगर हारा है, तो अपनों से ही हारा है, गैरों से नहीं। इस हार में भी उसकी जीत थी। कालेज में दोस्त भाई की शादी की पार्टी मांगते तो वह खुशी-खुशी सबकी सेवा कर देता। किसी को उसने अपना उदास चेहरा नहीं दिखलाया था। घर में भी पहले की भांति ही हँसता-खेलता रहता।
गुरां से उसकी कोई बातचीत साझी नहीं हो सकी। जब कभी कहीं इकट्ठे बैठे होते तो वे दोनों नज़रें चुराकर एक दूसरे की ओर देखते, पर बोलते नहीं थे। शाम को जब तीनों भाई बैठकर पीने लगते तो बलदेव कुछ खुलकर बातें करने लग पड़ता, लेकिन गुरां से फिर भी उसकी कोई बात न होती। विवाह के बाद अजमेर महीनाभर रहा और फिर वापस इंग्लैंड जाने की तैयारी करने लगा। उसने गुरां का पासपोर्ट बनने के लिए दे दिया था, जिसके बनने में अभी कुछ महीने लगने थे। एक दिन गुरां की माँ अजमेर से पूछने लगी-
“बेटा, गुरां को कालेज से हटा लें ?”
“किसलिए माता, जाने दो, घर में भी क्या करेगी !”
“यहीं चक्क से जाती रहे ?”
“जैसा चाहो कर लो, पर वहाँ से बलदेव को भी जाना होता है, उसके संग ही चली जाया करेगी।”
एक दिन गुरां तैयार होकर अपने कमरे से बाहर निकली। बाहर बलदेव खड़ा था। उसने गुरां को देखा और देखता ही रह गया। इस दौरान उसने गुरां को गौर से देखा ही नहीं था। हल्के से मेकअप में वह अप्सरा लग रही थी। उसके कानों में गुरां का गीत गूंजने लगा। कुछ दिनों से यह गीत बंद हुआ पड़ा था। गुरां उसके करीब से इस तरह निकल गई मानो वह वहाँ हो ही नहीं। पर आगे बढ़कर उसने मुड़कर बलदेव की तरफ देखा। वह कुछ कहना चाहती थी, पर क्या कहना था, यह वह भी नहीं जानती थी। उस दिन गुरां कालेज जाने के लिए बलदेव की मोटर-साइकिल के पीछे पहली बार बैठी थी। मोटर-साइकिल हिला तो उसने बलदेव के कंधे पर अपना हाथ रख लिया। बलदेव के जिस्म में एक सिहरन-सी दौड़ गई। एक झटके से मोटर-साइकिल आगे बढ़ी तो गुरां पूरी की पूरी उसके साथ लग गई। बलदेव आनंदित-सा हो उठा। उसने बात करने का साहस करते हुए कहा-
“ध्यान से बैठना, कहीं कुछ हो न जाए। भाई को क्या मुँह दिखाऊँगा मैं !”
“अगर इतनी ही चिंता है तो ध्यान से चलाना।”
यह उनके बीच पहला वार्तालाप था। कालेज पहुँचकर बलदेव ने शैड में मोटर-साइकिल खड़ी करते हुए कहा-
“कैसा रहा सफर ?”
“बहुत खूब ।”
“डर तो नहीं लगा ?”
“डराने वाला कोई काम करता, तभी न डर लगता।”
बलदेव सोच में पड़ गया कि वह क्या कहना चाहती होगी। उसने फिर कहा-
“लौटने के समय यहीं आ जाना।”
“अब तू मेरे साथ नहीं चलेगा ?”
“तेरे साथ चलते शर्म आती है।”
“अच्छा ! तेरे भाई ने तो तुझे मेरे साथ मेरी देखभाल करने के लिए भेजा है, पर तू है कि तुझे शर्म आ रही है।”
“चल बाबा चल।”
वह गुरां के साथ-साथ चलने लगा। कुछ दूर जाकर गुरां लड़कियों के झुंड में जा मिली और बलदेव अपने यार-दोस्तों में जा खड़ा हुआ। लौटते समय दोनों ही एक-दूसरे से शरमाते रहे। अधिक बात नहीं की, पर एक-दूजे की निकटता का सुख अनुभव करते रहे।
अजमेर के वापस जाने तक वह खुलकर बातचीत करने लगे थे। कालेज में भी किताबें उठाये एक-साथ चलते। गुरां बलदेव के दोस्तों के झुंड में आ खड़ी होती। वह राह में आते-जाते कालेज की, दोस्तों की बातें करते, पर घर में चुप-चुप रहते।
कालेज जाने के समय एक दिन गुरां मोटर-साइकिल के पीछे बैठी वह गीत गुनगुनाने लगी। पहले तो बलदेव ने सोचा कि यह गीत उसके कानों को वैसे ही सुनाई देने लगा है जैसे पहले हुआ करता था, पर फिर उसे लगा- नहीं, यह तो गुरां ही गा रही थी। उसने मोटर-साइकिल रोक ली। गुरां ने गाना बंद कर दिया। बलदेव ने कहा-
“चुप क्यों हो गई ?... गा।”
“क्यों गाऊँ ?... तेरा भाई तो मेरे गाने को बंद कर गया है। उसे जब मेरे गाने का पता चला तो बोला था कि खबरदार, अगर फिर से यह मिरासियों वाला काम किया।”
“तू मेरे लिए गा। तेरे इस गीत में मेरा बहुत कुछ है गुरां।”
“बहुत कुछ क्या है ?”
“तेरे इस गीत में मेरी सांसें हैं, मेरी ज़िंदगी है।”
“बहुत समय से बता रहा है !”
कहते हुए गुरां मोटर-साइकिल से उतरकर उसके सामने खड़ी हो गई। उसने गुरां के दोनों हाथ थाम लिए और आँखें नम करके बोला-
“गुरां, मैं तुझसे कुछ कहना चाहता हूँ।”
“मेरे हाथ छोड़, चलती राह है, कोई देख लेगा... हिजड़ा-सा ! कहता है, मैं कुछ कहना चाहता हूँ... अब जब सबकुछ हो चुका तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ... कहने का जब समय था, तब कहाँ चला गया था ? जब सारी दुनिया कहती घूमती थी तो तू कहाँ छिपा फिरता था।”
रोष में आकर बात करती गुरां ने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया।
“आय एम सॉरी गुरां, मैं तेरे गुस्से से डर गया था।”
“और अब किस डॉक्टर ने कह दिया कि कह ?”
“तेरे इस गीत ने मुझे हिम्मत दी।”
गुरां आगे कुछ न बोली और गुस्से में भरी दूर कहीं देखती रही। कुछ देर बाद बलदेव बोला-
“मुझे माफ कर दे।”
गुरां ने उसकी तरफ देखा। दोनों की आँखें नम थीं। बलदेव ने कुछ कहे बिना मोटर-साइकिल स्टार्ट किया और गुरां पीछे बैठ गई। रास्ते भर दोनों कुछ न बोले। बोल ही नहीं सके। कालेज पहुँचकर भी वे गुमसुम से घूमते रहे। लेकिन, दोनों को ढेर तसल्ली थी। उन्होंने कुछ पा लिया था। वापस लौटते हुए गुरां ने प्रश्न किया-
“कैसा है अब तू ?”
“मैं ठीक हूँ, तू कैसी है ?... मुझे माफ कर दिया ?”
“बलदेव, तू एकबार कहता तो सही। मैं सब समझती थी, प्रतीक्षा भी करती थी।”
“हौसला नहीं हुआ।”
“तेरे इस हौसले ने सबकुछ बिगाड़ कर रख दिया।”
“जो भी हो गुरां, बट आय लव यू सो मच... स्टिल आय लव यू...।”
“आय लव यू टू बलदेव, मेरे दिल का तो किसी को पता ही नहीं। तुझे विवाह में देखकर तू क्या जाने, मेरी क्या हालत हुई थी।” कहते हुए गुरां की आँखें भर आईं।
अब वे हमेशा इकट्ठे रहते। घर में भी और कालेज में भी। शिंदे ने एकदिन बलदेव से कहा-
“बलदेव, यह अपने भाई की अमानत है। अगर कोई ऐसी-वैसी बात हो गई तो भाई को मुँह दिखलाने योग्य नहीं रहेंगे।”
“तू फिक्र न कर, मुझे सब पता है।”
“तुझे पता है या नहीं, पर यह जो तू मोटर-साइकिल फर्राटे से निकाल ले जाता है और पीछे वो बैठी होती है, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता, डर लगने लगता है।”
बलदेव ने उसे बाहों में भर लिया।
“यकीन कर यार, मैं तेरा ही भाई हूँ, अगर तू मेरी जगह हो तो क्या ऐसी-वैसी बात सोच लेगा !”
“मैं तेरी जैसी जमातें जो नहीं पढ़ा।” कहकर शिंदा हँसने लगा।
गुरां मोटर-साइकिल के पीछे बैठती तो एकदम बलदेव से लगकर बैठती। उसके काने के पास मुँह ले जाकर गुनगुनाना आरंभ कर देती। बलदेव को नशा चढ़ने लगता। वह कहता-
“अगर भाई न होता तो मैं तुझे कभी भी दूर न होने देता।”
“तेरा भाई तो विलैतिया है, और बहुत मिल जाएंगी।”
“अगर हिम्मत है तो रहे जा, जो होगा, देखा जाएगा, मैं खुद झेल लूंगा।”
गुरां उसकी ठोढ़ी पकड़कर कहती-
“मुंडा जवान हो गया।”
इन्हीं दिनों में गुरां का पासपोर्ट बनकर आ गया। उसने बलदेव से कहा-
“बता, कब जाऊँ ?”
“अगर जाना ही है तो जब मर्जी चली जा। पर जाने से पहले एक बार गीत सुना जा ताकि जब मेरा दिल करे, उसे सुन सकूँ। तुझे नहीं पता, यह गीत मेरा आसरा है।”
उसकी बात सुनकर गुरां भावुक होते हुए बोली-
“यह गीत तेरा, यह गुरां तेरी मेरा राजा।”
बलदेव ने उसे आलिंगन में ले लिया।
चक्क वे जाते रहते थे। छोटा-सा घर था। घर की एक बैठक थी, गली से थोड़ा हटकर। वहीं बलदेव बैठा करता था। वही उसकी शराब पड़ी होती। घर में अकेली माँ ही हुआ करती। उसका बाप और भाई तो खेतों में होते। उस दिन भी वे चक्क चले गए। माँ बहाना करके बाहर निकल गई। बलदेव ने बोतल उठाई। गुरां बोली-
“इसकी क्या ज़रूरत है ?”
बलदेव ने बोतल एक तरफ रख दी। गुरां ने पलंग पर नई चादर बिछाई और बैठ गई। एक सिरहाना टांगों के नीचे रखा और एक पीठ के पीछे और बलदेव से बोली-
“तुझे इस गीत के मायने भी पता हैं ?”
“मुझे इसके मायने से कुछ नहीं लेना-देना। मेरा मतलब तो गीत से है, तुझ से है, तेरी आवाज़ से है और तेरी शीशे की बनी गर्दन से है।”
गुरां ने घुटनों को हाथों के घेरे में लिया और गला साफ करते हुए गीत गाने लगी- “भट्ठी वालिये... चंबे दीये डालिये नीं...।”
गुरां गाती गई। बलदेव उसकी ओर देखता रहा। पहले गुरां ने आँखें मूंद रखी थीं, ठीक वैसे जैसे कालेज में गाया करती थी। फिर उसने आँखें खोल लीं और बलदेव की आँखों में आँखें डालकर गाने लगी। बलदेव बुत बनकर उसकी तरफ देखता रहा।
गुरां ने गीत खत्म किया तो उसने उसकी गर्दन पर चुम्बन दिया और फिर उसके होंठ चूमने लगा।

(क्रमश: जारी…)

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भगत धवन की कविताएं
मीठी स्मृति
मीठी स्मृति
चंदन चमेली-सी महक
जब भी आए
आत्मसात करे
कड़वी स्मृति
सीले मौसम की सुलगती अग्नि
जब भी आए
तन मन तड़पाये
स्मृति तो है
एक रोशन द्वीप
जब भी आएमन चमकाए।
0
चिंता
चिंता से भाग कर
कहाँ जायेंगे
भाग कर देखें
भागते भागते
हाँफ जायेंगे
आत्म संतोष के लिए
मुड़ कर झांकें
वो पीछे नहीं
हमसे भी प्रथम
हमारे आगे
नए परिवेश में
हमारी प्रतीक्षा में रत
मत भागो इस से
हर्ष से मिलें इसको
कभी आगे, कभी पीछे
कभी हमारे भीतर
साथ न त्यागने वाला
अटूट प्रतिबिम्ब है यह।
0
जीवन है प्रवाह
जीवन है प्रवाह
बूंद-बूंद छलके
जैसे फूटे अमृत-धारा
सौन्दर्य का
शीतलता का
पर्वतों में बहता
लुप्त होता
समुन्दर में हो जाता विलीन
खारा-खारा सा
नमक रहितट
कराये पर्वतों से
हवा के कन्धों पे सवार
रूप धार कर बादल का
कर नूतन अभियान
नन्हीं-सी आशा और उमंग
जल तरंग हास रंग
वेदना से भरपूर
जीवन है प्रवाह।
0
मानव
मानव हो कर
दानव बनना
अपने को मानव कहलाना
ठीक नही है

पुत्र हो कर
बने कपूत
कैसे कहलाये फिर पूत
ठीक नही है

पैदा किया ईश्वर ने मानस
मानस बन जाए बनमानस
अपने को मानस कहलाये
ठीक नही है
पैदा किए उसने इंसान
और वो बन जायें हैवान
कहलायें ख़ुद को भगवान
ठीक नही है ।
0

जन्म : २ फरवरी, १९५६, लुधियाना (पंजाब) पिछले बीस वर्षों से डेनमार्क में निवास प्रकाशन व प्रसारण : चार पुस्तकें पंजाबी भाषा में, "जीवन जाच" "चेतना दे आर पार" "सगल मनोरथ" “किरण किरण मेरी कविता रानी" हिन्दी पुस्तक "दर्पण" का पंजाबी में अनुवाद, हिन्दी में कविता प्रकाशाधीन, डेनमार्क में अनेक "भारतीय राजदूतों" द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सम्मानित "रेडियो सबरंग डेनमार्क" में पंजाबी भाषा में कार्यक्रम प्रसारित "अनेकता में एकता" पर अटूट विश्वास


अनुरोध
गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

रविवार, 10 अगस्त 2008

गवाक्ष - अगस्त 2008



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले सात अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली छ्ह किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अगस्त,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की सातवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

तीन कविताएं -
इला प्रसाद, यू एस ए

मन

कोई
भी स्वर
कुछ
ही क्षणॊं के लिए
झंकृत
करता है
मन
के तार
कोई
भी स्पर्श
कुछ
ही क्षणॊं के लिए
एह्सासों
की डोर पर
थरथराता
है
फ़िर
चुक जाता है सबकुछ
जलसतह
होता है मन !

प्रवासी का प्रश्न

हम,
जो
चले गए थे
अपनी
जड़ों से दूर,
लौट
रहे हैं वापस
अपनी
जड़ों की ओर
और
हैरान हैं यह देखकर
कि
तुमने तो
हमारी
शक्ल अख्तियार कर ली है
अब
हम अपने को
कहाँ
ढ़ूँढ़ें ?

किताब

कम्प्यूटर के सामने बैठकर
पत्र, पत्रिकाएँ पढ़ते
सीधे-कुबड़े, बैठे-बैठे
जब
अकड़ जाती है देह
दुखने लगती है गर्दन
धुँधलाने लगते हैं शब्द
और
गड्ड-मड्ड होने लगती हैं तस्वीरें
तो
बहुत जरूरी लगता है
किताब
का होना ।

किताब,
जिसे
औंधे लेटे
दीवारों से पीठ टिकाए
कभी भी, कहीं भी
गोदी में लेकर
पढ़ा जा सकता था
सी ए डी¹
के तमाम खतरो को
नकारते
हुए ।

किताब
जो जाने कब
चुपके
से
गायब
हो गई
मेरी
दुनिया से
बहुत
याद आई आज !
---------------------
1- सी ए डी - कम्प्यूटर एडेड डिसीज़

झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।

कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।

छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।
"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।

कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।
सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन ।

सम्पर्क : ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA


धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 6)

सवारी
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। ग्यारह ।।

सुबह उठते ही शौन बलदेव से कहने लगा–
“डेव, तू मैत्थू के संग कौर्क हो आ, बलारनी स्टोन को चूम लेना।”
“तू नहीं चलेगा ?”
“नहीं, मैं किसी और से मिलना चाहता हूँ। तू वहाँ बोर होगा। तुम्हारे लौटने तक मैं भी आ जाऊँगा।”
बलदेव को पता था कि शौन बहुत सारी बातें उससे छुपा लिया करता था। उन बातों को जानने का उसका कोई हक नहीं बनता था। लेकिन, दोस्ती में ऐसा होना उसे चुभता। वह कौर्क जाने के लिए मन बनाने लगा। ‘बलारनी स्टोन’ के बारे में उसने काफी कुछ सुन रखा था कि इसे चूमने से आदमी के बोलने की शक्ति बढ़ती है। ज्यादा बोलने वाले को ‘बलारनी ब्वॉय’ इसी मिथ के तहत कहा जाता है।
और कोई बात होती तो शौन बलदेव से परदा न रखता, पर यह सब कैरन के बारे में था, इसलिए वह उसे कुछ बताना नहीं चाहता था। कैरन और बलदेव का रंग एक था, इसलिए उसे कई बार वहम हो जाता था कि ये दोनों कहीं आपस में मिल न जाएं, कि बलदेव कैरन की मदद न करने लग पड़े। यद्यपि उसे पता था कि कैरन बलदेव को पसन्द नहीं करती थी। बलदेव साल भर से उसके फ्लैट में रह रहा था, पर कैरन कभी भी उसे सीधे मुँह नहीं बुलाती थी। कैरन को उसका फ्लैट में रहना भी पसन्द नहीं था। यह शौन ही था जो कि बलदेव को कहीं और नहीं जाने देता था, क्योंकि उसे किराया आता था। जितना बलदेव उसे किराया देता, लगभग उतना ही कौंसल के फ्लैट का किराया था। अर्थात शौन मुफ्त में रह रहा था। अब हालात बदल रहे थे। उसके और कैरन के बीच झगड़ा बहुत बढ़ चुका था, इसलिए बलदेव को किसी अन्य जगह चले ही जाना चाहिए था।
कैरन से विवाह करवाकर वह बहुत बड़ी गलती कर बैठा था। ऐसी गलती जो सुधारी नहीं जा सकती। कैरन का अंहकार बहुत ऊँचा था, यह बात वह पहले से ही जानता था। भारतीय पत्नीवाली तो उसमें एक भी बात नहीं थी। इतना अंहकार तो बलदेव की पत्नी सिमरन में भी नहीं था। वह लौट पड़ती थी पर कैरन तो लौटती ही नहीं थी। जैसा कि वह कहा करती थी, उसका बाप मिनिस्टर था या बहुत अमीर था, यह कोई ऐसी बड़ी बात भी नहीं थी। वह स्वयं मॉरीसस जाकर देख आया था। कैरन जब वापस चली गई थी तो वह मॉरीसस गया था और उसे विवाह के लिए राजी करके ले आया था। विवाह के पश्चात् महीना भर वह ठीक रही, फिर उसने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया था। अगर शौन पूरब में चलने के लिए कहता तो वह पश्चिम की ओर जाती। वह हर समय लड़ने का कोई न कोई बहाना खोजती रहती। पिछले दो वर्षों में वह तीन बार अपने देश भी घूम आई थी। शौन सोचता, अपने घरवालों से बिछुड़ने का दु:ख होगा। पहले पहल शौन को लगता था कि शायद घर में अकेली रहने के कारण वह बोर हो जाती होगी, इसलिए लड़ती होगी। वह चाहता था कि कैरन अपनी बहन के पास हो आया करे या फिर कोई सहेली ही खोज ले। लेकिन इन्हीं दिनों में वह गर्भवती हो गई। पैटरशिया का जन्म हुआ तो शौन को कुछ आशा बंधी कि बच्ची की देखभाल में कैरन बदल जाएगी, परन्तु वह बदली नहीं बल्कि और अधिक चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई। पैटरशिया की क्रिश्चिनिंग की रस्म पर शौन के कुछ दोस्त इकट्ठे हुए तो कैरन ने किसी छोटी-सी बात पर खफ़ा होकर सभी का अपमान कर दिया।
शौन के स्थान पर कोई और होता तो चुप होकर एक तरफ़ हो जाता। पर वह कैथोलिक था। तलाक उसके मज़हब में नहीं था। कैरन से छुटकारा पाना कठिन हो गया था। फादर जोय ने उसके विवाह की रस्म निभाई थी। उसने फादर से बात की। लेकिन फादर जोय कैरन का पक्ष ही लेने लगता। कैरन भी फादर जोय को जानती थी। उसके पास आती-जाती रहती थी। जब शौन ने शिकायत लगाई तो उसने कैरन को बुलाकर अकेले में सारी बात की थी। लेकिन फादर जोय को उसमें कोई बड़ा दोष नज़र नहीं आता था। शौन के लिए कैरन इतनी बड़ी समस्या थी कि आयरलैंड आने की झिझक, जो कि ऐलिसन के कारण या फॉर्म के छिन जाने के कारण उसके अन्दर घर कर गई थी, भी उसको रोक नहीं सकी थी।
शौन के पास कैरन से मुक्ति का एक ही तरीका था कि कैरन खुद ही उसे छोड़कर कहीं चली जाए। लेकिन वह जाती नहीं थी। बहुत सोच-विचार के बाद उसने एक अन्य तरीका सोचा कि यह विवाह ही रद्द कर दिया जाए। बाइबिल में से उसने यह बात खोजी थी कि कैथोलिक धर्म में तलाक नहीं है, पर विवाह कैंसिल किया जा सकता है। जहाँ विवाह में कोई धोखा हो, वहाँ विवाह को खत्म किया जा सकता है। शौन इसी नुक्ते को लेकर विवाह कैंसिल करवाने के चक्कर में था। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि कैरन ने सिर्फ़ पासपोर्ट लेने की खातिर उससे विवाह करवाया है, सिर्फ़ ब्रतानिया में टिकने के लिए। उसने फादर जोय को इस बाबत यकीन दिलाने का यत्न किया, पर असफल रहा। अब वह फादर जोह्नसन से मिलकर इस बारे में बात करना चाहता था। फादर जोह्ननसन बहुत प्रसिद्ध पादरी था। उसकी राय को बड़े-बड़े लोग मानते थे। फादर जोय ने तो मानना ही था। फादर जोह्नसन मशहूर पादरी सेंट पैटरिक के खानदान में से था। यह वही सेंट पैटरिक था जिसने आयरलैंड में से साँप भगाये थे और आयरिश लोग जिसका दिन हर वर्ष बहुत धूमधाम से मनाते थे। फादर जोह्नसन धार्मिक व्याख्या में एक अथॉरिटी था।
शौन तैयार होकर वॉटरफोर्ड के रास्ते होता हुआ डबलिन पहुँच गया। उसने फादर जोह्नसन से चिट्ठी लिखकर पहले ही समय ले रखा था। समय सुनिश्चित नहीं था कि किस दिन और कितने बजे मिलना है। फादर जोह्नसन ने लिखा था कि ये दो हफ्ते वह लोकल स्टेशन पर ही होगा, वह जब चाहे आ जाए। वह रास्ते भर उन्हीं बातों को और उन्हीं नुक्तों को दोहराता रहा, जिन्हें उसे फादर जोह्नसन के सम्मुख रखना था। उसने पूरी तैयारी की हुई थी।
वह डबलिन के मेन चर्च में पहुँचा तो पता चला कि फादर बाहर गया हुआ था, शाम तक लौटेगा। शौन अपने आने की सूचना एक नोट लिखकर छोड़ आया और पुन: आने की संभावित तारीख भी।
वापस लौटते हुए जहाँ उसे वक्त के व्यर्थ जाने का दुख था, वहीं कुछ राहत भी थी कि अच्छा हुआ, फादर जोह्नसन नहीं मिला। वह बहस-मुबाहसे से बच गया। वह जानता था कि विवाह कैंसिल करवाना इतना सरल नहीं था। इस नुक्ते पर उसने कभी कोई विवाह कैंसिल होते नहीं देखा था। फिर भी, बाइबिल में से लिए ये नुक्ते उसे वजनदार प्रतीत होते थे। वैलज़ी के करीब आया तो वह बलदेव के बारे में सोचने लगा कि इस वक्त तो वह मैथ्यू के संग किसी पब में ही होगा।
बलदेव और मैथ्यू कौर्क गए। ‘बलारनी स्टोन’ को उन्होंने चूमा और वापस लौट आए। बलदेव ने इस स्टोन को जीभ लगाने की कथा सुनी हुई थी, पर यह नहीं मालूम था कि इतनी मुश्किल से जीभ लगेगी या चुम्बन लेना संभव हो सकेगा। किसी लम्बी चारपाई के नीचे लेट कर आगे बढ़ो तो चूमो। पर लोग दूर-दूर से आ रहे थे। पत्थर चूमनेवालों की लाइन लगी हुई थी। उसने मैथ्यू से कहा–
“मैथ्यू, बलारनी ब्वॉय बनना इतना सरल नहीं।”
वे दोनों कौर्क से लौटते समय राह में कई पबों में रुकते आए थे और दोपहर तक ज़ोज़ी के पास पहुँच गए। कौर्क नज़दीक ही था। एक घंटा आने में और एक घंटा जाने में। ज़ोज़ी के पास जाने से पहले मैथ्यू उसे कहीं दूसरी और ले चला था। सड़क किनारे एक झुग्गी के समीप कार खड़ी करते हुए पूछने लगा–
“तू क्रिक ग्रेन को जानता है ?”
“नहीं।”
“हैनरी ग्रेन को, जो शौन का खास दोस्त है, बहुत अमीर है।”
“हाँ, हैनरी ग्रेन जिसकी कपड़े की बहुत बड़ी फैक्ट्री है।”
“हाँ, क्रिक ग्रेन उसका बाप है और यह हट उसी की है।”
“पर यह तो बहुत साधारण दीखती है।”
“हाँ, यह अपने बेटे से नाराज हो गया और राह में यह हट डालकर बैठ गया, समाज में उसकी बेइज्जती करने के लिए कि बेटा इतना अमीर है और बाप इस छोटी-सी हट में रह रहा है।”
“नाराज हो गया ? किस बात पर ?”
“हैनरी ने अपनी मर्जी से विवाह करवा लिया था।”
बलदेव मन ही मन हँसा कि ये लोग आयरिश नहीं, निरे पंजाबी ही हैं। छोटा-सा कमरा था। ऊपर सरकण्डों की मोटी छत और ठिगनी-सी दीवारें। क्रिक ग्रेन उन्हें प्यार से मिला। मैथ्यू ने जब बताया कि यह शौन का दोस्त है और लंडन से आया है तो वह और भी खुश हो गया और गीनस की बोतलें उन्हें पेश कीं।
ज़ोज़ी के पब में उसकी स्थानीय लोगों से बातचीत हुई। शौन के दोस्त भी आ गए। शाम की महफिल हैनरी ग्रेन ने अपने घर में रख ली। वहाँ करीब पंद्रह मित्र एकत्र हो गए। हँसी-मजाक चलता रहा। सभी उससे मोह जता रहे थे। बहुत से लतीफ़े बलदेव की समझ में नहीं आ रहे थे। एक तो मुहावरा गहरा आयरिश था और दूसरी बात यह कि लतीफ़े उसे क्लिक भी न करते। फिर, वहीं शौन भी आ गया। पहले वह पब गया था– ज़ोज़ी वाले। वहीं से पता चला कि महफिल यहाँ लगी थी। शौन आते ही पादरियों से जुड़े लतीफ़े सुनाने लगा।
शौन ने बलदेव को अधिकांश आयरलैंड घुमा दिया था। आयरलैंड देखने में इंग्लैंड या स्कॉटलैंड जैसा ही था। कुछेक बातें भिन्न नज़र आती थीं। गोरों के राज की कई निशानियाँ अभी भी कायम थीं। हो सकता था कि उन्हें जानबूझ कर यूँ ही रहने दिया गया हो। उसे हैरानी काउंटी गैलवे जाकर हुई जहाँ कि गेयलिक बोली जाती थी। वह हैरान था यह जानकर कि अंग्रेजी पूरी आयरिश जुबान को खा गई और गेयलिक एक कोने में कैसे बची रही।
एक दिन शौन ने पूछा–
“डेव, आयरलैंड कैसा लगा ?”
“बहुत बढि़या। सच बात तो यह है कि मैं यहाँ आना नहीं चाहता था और अब वापस नहीं जाना चाहता। लोग बहुत ही मिलनसार और प्यारे हैं।”
“फिर एक बात कहूँ ?”
“कह।”
“क्यों न यहीं बस जाएं। तू भी सिमरन से भाग रहा है और मैं कैरन से... वापस लंदन लौटकर क्या करेंगे। सोच कर देख।”
“यहाँ क्या करेंगे ?”
“बिजनेस करेंगे। पंद्रह हज़ार तेरे पास है और पंद्रह हज़ार मेरे पास। बहुत हैं कारोबार शुरू करने के लिए।”
बलदेव चुप हो गया। पिछले साल उन दोनों ने मिलकर अमेरिकन शेयर खरीदे थे। शेयरों की कीमत एकदम बढ़ गई थी और उन्हें पंद्रह-पंद्रह हज़ार पौंड मिल गए थे।

अगले दिन शौन उसे एस्टेट एजेंटों के पास ले गया। सम्प​त्तियाँ बहुत सस्ती थीं। लंदन के मुकाबले तो बहुत ही सस्ती। कई बार तो उसका जी ललचाने लगता। उन्होंने सौ एकड़ का एक फॉर्म देखा। उसमें पचास एकड़ का एक खेत बिलकुल समतल था, पंजाब के खेतों जैसा। उसे देखकर तो एक बार उसके अन्दर का किसान उछलकूद मचाने लग पड़ा था। फिर उसने सोचा कि नहीं, उसके रहने के लिए यहाँ कुछ भी नहीं था। और लंदन में बहुत कुछ था। वहाँ थेम्ज़ थी, वहाँ गुरां थी।

शौन एक दिन फिर बहाना बनाकर डबलिन में फादर जोह्नसन से मिलने चला गया। लम्बा चोगा पहने और सिर पर टोपी लगाए पादरी चर्च के बगीचे में घूम रहा था। शौन ने उसे पहचान लिया।
उसने उसकी तस्वीर देख रखी थी। उसने पादरी का हाथ थाम कर चूमा। पादरी उसे अन्दर अपने कमरे में ले गया। शौन ने कहा–
“फादर, मैं एक संकट में फंस गया हूँ। आपकी सलाह और मदद लेने आया हूँ।”
“हाँ, मैंने तेरी चिट्ठी में पढ़ा था। मुझे अफसोस है कि उस दिन हम नहीं मिल सके।”
“यह कोई बड़ी बात नहीं, पर अब मेरी मदद करो।”
“ज़रूर करूँगा। वैसे मैं तेरे दादा को जानता था। तेरे बाप को भी एक बार मिला था। तेरे दादा की बहुत धूम थी, बहुत ही समर्पित आदमी था, देश के लिए और मनुष्यता के लिए।”
“जी हाँ, पर मेरे जन्म से पहले ही इस दुनिया से चले गए।”
“आमीन ! यही तो चीज़ है, जिस पर किसी का वश नहीं है। हाँ, हम अपनी बात की ओर लौटते हैं। क्या मसला है तेरा ?”
“किसी विदेशी औरत ने मुझे विवाह में फंसा लिया।”
“तू कैसे कह सकता है कि उसने तुझे फंसा लिया ?”
“उसने विवाह के समय बहुत सारा झूठ बोला, वह क्रिश्चियन भी नहीं थी।”
“क्रिश्चियन न होना तो बड़ा गुनाह नहीं, गुनाह है क्रिश्चियन होकर सच्चे क्रिश्चियन का न होना।”
“ठीक है फादर, उसने विवाह सिर्फ़ पासपोर्ट लेने के लिए करवाया, इन देशों में टिकने के लिए। नहीं तो वह विवाह नहीं चाहती थी।”
“हाँ, यह बात तो सोचने वाली है।”
“फादर, अब बताओ कि मैं इस गलती को कैसे सुधार सकता हूँ।”
“पर यह गलती तेरी तो नहीं हुई, उसकी हुई।”
“पर फंस तो मैं गया न विवाह के बंधन में। मुझे इससे मुक्त करो।”
“विवाह किसने करवाया था ?”
“फादर जोय ने, क्रिकलवुड लंदन के मेन चर्च...।”
“फादर जोय से बात की थी ?”
“जी हाँ, वह कई बातों में स्पष्ट नहीं थे।”
“ठीक है... कितना समय हो गया विवाह हुए को ?”
“दो साल से ऊपर हो गए।”
“कोई बच्चा तो नहीं ?”
“जी, एक बच्ची है साल भर की।”
“यह बच्ची रजामंदी से थी ?”
शौन कोई जवाब न दे सका। फादर ने फिर पूछा–
“उसने कभी बच्ची से निजात पाने की कोशिश तो नहीं की ?”
शौन ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया। फादर जोह्नसन कुछ देर सोचता रहा और फिर कहने लगा–
“भाई शौन मरफी, यह बहुत गम्भीर मसला है। दोनों पक्षों की बात सुनकर ही फैसला हो सकता है। मेरी सलाह है कि तू वापस घर जा और सच्चे क्रिश्चियन की तरह अपने फर्ज़ निभा। मैं फादर जोय को चिट्ठी लिखूँगा और सारे हालात जानकर ही सलाह देने के काबिल होऊँगा। इस वक्त मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकता। फिर भी, अगर ज़रूरत पड़े तो हिचकिचाना नहीं, सीधा मेरे पास आ जाना…
(क्रमश: जारी…)

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अनुरोध

गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

बुधवार, 9 जुलाई 2008

गवाक्ष- जुलाई 2008


गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले छह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव और दिव्या माथुर की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली पांच किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जुलाई,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – शारजाह(यू ए ई) निवासी कथाकार-कवयित्री पूर्णिमा वर्मन की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की छठी किस्त का हिंदी अनुवाद…

दस कविताएं
पूर्णिमा वर्मन, शारजाह, यू ए ई


गीत –

बज रहे संतूर

बज रहे संतूर बूँदों के
बरसती शाम है


गूँजता है
बिजलियों में
दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं
फिर मल्हारों के
सुखद पद
मन मुदित नभ भी धनकता ढोल
मीठी तान है


इस हवा में
ताड़ के करतल
निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित
सागरों के लहर
संयम तज रहे हैं
उमगते अंकुर धरापट खोल
जग अनजान है



क्षणिकाएँ-

एक

किस अगन से था बुझा वह तीर
जो आकाश से गुज़रा
हवा से जूझ कर बिखरा
लड़ा वह बिजलियों से
बादलों से वह भिड़ा
देखते ही देखते
नीलाभ नभ गहरा गया
लो -
ग्रीष्म का पहरा गया

दो

कुछ तो था उस हवा में जो
झूम कर
उठ चली थी
इस शहर भर घाम में
वह एक
मिश्री की डली थी


तीन

बस वही बकवास,
गुस्सा
और बरसना
सुबह से इन बादलों ने
घर नहीं छोड़ा

चार

घटा, तो फिर घटा थी
दूब चुनरी, झाँझ बिजली
फूल-सी मुस्कान
और
आशीष रिमझिम


पाँच

राम जी,
बाढ़ ने इस तरह घेरा
घर गया, अपने गए,
सपने गए
हर तरफ़ से दर्द बरसा
गया डेरा

छ्ह


शहर में चुपचाप बारिश
कांच पर
रह-रह बरसती है
कि जैसे
दर्द पीकर
ज़िंदगी
सपने निरखती है।


सात

सड़क है, शोर भी है
और बारिश साथ चलती है
हवा है साँस में नम सी
खुली छतरी
हाथ की बंद मुट्ठी में
और लो
आ गई गुमटी चाय की


आठ

बुलबुले ही बुलबुले
बहते हुए
भरे पानी, मुदित चेहरे
नाव कागज़ की
पुराने दिन


नौ

खिली फिर
खिलखिला कर
धूप बारिश की
दरख्तों से टपकती
बूँद में कुछ
झिलमिलाती सी
0


जन्म : 27 जून 1955
शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।
संप्रति : पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह : वक्त के साथ (वेब पर उपलब्ध)
ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com



धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 6)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। दस ।।

सतनाम सड़क पर निकला तो आगे ट्रैफिक मिल गया। उसने घड़ी देखी। नौ बजने वाले थे। यह आठ से नौ बजे का समय ट्रैफिक का ही होता था। वह सोचने लगा कि अगर वह पंद्रह मिनट और रुक जाता तो बेहतर रहता। उसने वैन को सेवन-सिस्टर्स रोड की ओर मोड़ ली यह सोचकर कि पहले सैपरीऐट रेस्ट्रोरेंट को माल दे देगा। कुल मिलाकर उसे दस रेस्ट्रोरेंट्स को मीट देना था। भारतीय रेस्ट्रोरेंट तो ग्यारह बजे ही खुलते थे। उन्हें बेशक बाद में माल दे, पहले दूसरे रेस्ट्रोरेंट्स के पास पहले हो आए। काम खत्म करके उसे लौटने की भी जल्दी होती। बाहर निकलने पर एक चक्कर घर का भी लगा आता। घर इस वक्त सूना होता और चोरी-चकारी का भय बना रहता था। मनजीत कईबार कहती कि अर्लाम लगवा लो, पर वह आलस्य कर जाता। कईबार मनजीत के दफ्तर का चक्कर लगाने भी चला जाता। वह कांउसल में काम करती थी। उसके मन के किसी कोने में पड़ा डर उसे उस तरफ ले जाया करता। जब कभी मनजीत चुप-सी हो जाती, उस वक्त यह डर उसके अन्दर अधिक फैलने लगता। दफ्तर में कितने ही रंग-बिरंगे मर्द काम करते थे, न जाने क्या-क्या सपने दिखाते होंगे। मीट के काम को वह पसंद भी तो नहीं करती थी। कईबार वह मन ही मन हँसता रहता कि कहीं किस्सा गुमराह ही न हो जाए, मैं अशोक कुमार ही न बन जाऊँ।
वह वापस दुकान में लौटा तो अन्दर से मीट के भुनने की खुशबू आ रही थी। थोड़ी-सी धूप निकलती तो पैट्रो मीट को भूनने लग पड़ता। कोयलों पर भुना हुआ मीट उन सबको पसंद था। आज जैसा मौसम होता तो इसी का लंच किया करते।
सतनाम ने माइको से पूछा–
“कैसा है काम ?”
“बहुत ढीला, पांच ग्राहक भी नहीं आए होंगे।”
उसने उंगलियाँ खड़ी करके दिखलाईं। फिर बोला–
“गवना, मैं ब्रेक पर जा रहा हूँ।”
सतनाम ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। इस तरह वे बारी-बारी से ब्रेक किया करते थे। सतनाम कम ही छुट्टी करता। अगर पैट्रो मीट न भूनता तो वह साथ वाले कैफे से सैंडविच मंगवा लेता और काम करते-करते खाता रहता।
मगील बियर का डिब्बा खोजने लगा। पिछले दिनों उसके पेट में दर्द उठा था तो डॉक्टर ने उसकी शराब बंद करवा दी थी। उसने शराब छोड़कर बियर पीनी आरंभ कर दी, पर ज्यादा बियर पीकर उतना भर नशा फिर कर लेता। जब सतनाम उसे रोकता तो वह कहता–
“मेरा डॉक्टर ज्यादा सयाना नहीं है, गलती से शराब की मनाही कर गया। और फिर, उसने बियर की रोक तो लगाई नहीं।”
मगील सतनाम को कहने लगा–
“गवना, मुझे बियर मंगवा दे, बहुत प्यास लगी है।”
“तू खुद मंगवा कर पी... जा कर ले आ।”
“तू मुझे पिला। देख, मैंने तेरे लिए कितना काम किया है। यह देख, आगे से भी भीग गया और पीछे से भी।”
कहकर वह अपने गुप्तांगों पर हाथ लगाकर दिखाने लगा। सतनाम ने कहा–
“जुआइश आने वाली है, वही देखेगी, तू कहाँ से भीगा है।”
“मैं अब जुआइश के काम का नहीं रहा। और फिर तू मुझे उसके बराबर न रखा कर। उसने तो एक घंटे के लिए आना है और मुझे तो सारा दिन तेरे पास रहना है।”
तब तक जुआइश भी आ गई। बियर के दो डिब्बे उसके पास थे। एक डिब्बा मगील को पकड़ाते हुए बोली–
“अमीगो... पी। मैंने सोचा, तू थका होगा।”
जुआइश ने अपना डिब्बा खोलकर दो घूंट भरे और फिर एक तरफ रखते हुए अपने काम में लग गई। पहले ब्रूम से सारी फ्लोर साफ की, फिर बकट में गरम पानी और ब्लीच डालकर पोचा लगाने लगी। काम के साथ-साथ ऊँचे स्वर में बातें भी करती रही। आराम से तो वह काम कर ही नहीं सकती थी। वह अपना काम समाप्त करके चली गई।
दोपहर ढले ग्राहक निरंतर आने लगे। सतनाम और माइको सर्व कर रहे थे। जितना कोई मीट मांगता, वे काट देते। एक ग्रीक बुढ़िया आकर उधार मांगने लगी। पैट्रो उसे अपनी भाषा में कुछ कहने लगा जो कि सतनाम की समझ में नहीं आ रहा था। अगर माइको रेस के घोड़े जीतता था तो उसे अपनी जेब से मीट ले देता था। पैट्रो उसे ना किए जा रहा था, पर वह बहुत ही मिन्नतें करने लगी। वह खीझकर बोला–
“निक्की ने इसकी आदत खराब कर दी थी। अब मैं कितनी बार लेकर दे सकता हूँ, इसके पास तो हमेशा ही पैसे नहीं होते।”
उस औरत ने पैट्रो की बात सुने बग़ैर ही मांगने का हंगामा-सा खड़ा कर दिया। सतनाम कहने लगा–
“पैट्रो, थोड़ा-सा मीट देकर चलता कर, कह दे फिर न आए।”
“कितनी बार कह चुका हूँ।”
खीझा हुआ पैट्रो उसके लिए मीट काटने लगा। मीटवाला बैग उसके हाथ में थमाते हुए बोला–
“गवने का शुक्रिया अदा कर।”
वह सतनाम को दुआएं देती हुई चली गई। कुछ देर बाद एक गोरी ने आकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया। सतनाम ने पूछा–
“मैडम, आज तुम्हारी क्या समस्या है ?”
“आज फिर मीट खराब है। मैं तेरा मीट खाकर बीमार हो गई हूँ।”
“तू मेरा मीट खाकर बीमार क्यों होती है ! उस दिन भी हो गई थी।”
“तेरा मीट खराब निकला है, मुझे दूसरा मीट दे।”
“नहीं मैडम, आज यह बहाना नहीं चलेगा। उस दिन मैंने तुझे पूरा चिकन दे दिया था। तेरी हेराफेरी और नहीं चलेगी।”
“मैं तेरी शिकायत करूँगी, तेरी दुकान बन्द करवा दूँगी।”
वह बहुत गुस्से में बोल रही थी। मगील बोला–
“मदाम, तुझे यकीन है कि तू हमारे ही मीट से बीमार हुई है ?”
“हाँ, बिलकुल।”
“सोच ले, कहीं ऐसा न हो कि तेरी पति ने तुझे ज़हर दे दिया हो।”
“तुम पाकि मुझे समझते क्या हो ? अगर तुम्हें वापस पाकिस्तान न भेजा तो मुझे कहना।”
वह फिर नस्लवादी गालियाँ बकती हुई चली गई। मगील सतनाम से पूछने लगा–
“गवना, यह पाकिस्तान इंडिया में ही है ?”
“लौरेल, तू यह फिक्र छोड़कर काम में लग जा।”
“गवना, अगर तू मेरी तनख्वाह बढ़ा दे तो रब तुझे ऐसी बदरूहों से बचाए रखे।”
“तेरी तनख्वाह क्या बढ़ाऊँ, कभी तेरा अगला गीला हो जाता है, कभी पीछा।”
सतनाम की बात पर सभी हँस दिए। मगील नाचने की मुद्रा में कमर हिलाने लगा, जिसका अर्थ था कि मुझे किसी की क्या परवाह है।
लगभग छह बजे तक सभी खाली-से थे। कोई ग्राहक आ जाता तो सर्व कर देते, नहीं तो बैठे रहते। पैट्रो ने माइको और सतनाम से तीन-तीन पोंड पकड़े और बोतल लेने चला गया। काम का थका पैट्रो थोड़ा झुककर चल रहा था, पर जब व्हिस्की की बोतल लेकर लौटा तो तनकर चल रहा था। माइको ने कहा–
“देखो, बुडढ़ा व्हिस्की के नाम पर कैसे होशियार हो जाता है।”
पैट्रो ने उसकी बात सुनी तो ज़रा-सा मुस्कराया और फिर एक-से तीन पैग बनाए। उनमें बर्फ़ की दो-दो डलियाँ डाल दीं।
सतनाम ने घर में फोन घुमाया। पहले मनजीत से और फिर परमजोत और सरबजीत से बातें कीं। परमजोत अब स्कूल जाती थी और सरबजीत अभी नर्सरी में था। वह इस साल से ही बड़ी मुश्किल से जाने लगा था। उन्हें छोड़ने और लाने की जिम्मेदारी मनजीत की ही थी। वह सवेरे काम पर जाते समय छोड़ देती और तीन बजे जब काम से लौटती, उन्हें ले आती।
सातेक बजे अब्दुला आ गया। अब्दुला का इसी परेड में आफ-लायसेंस था। वह आते ही बोला–
“सा सरी अकाल सरदार जी।”
“आओ खान साहिब, क्या हाल है ?”
“हमारा हाल ये कच्छी खराब करने पर तुला है, सरदार जी।”
“क्या हो गया ?”
“इसने आफ लायसेंस के लिए अप्लाई कर छडिया सू, असीं(हम) सीधे ही अफेक्टिड होसां।”
“यह तो खराब बात है, आबजेक्शन कर दो।”
“हसीं तां करसां, पर तुहीं वी करो।”
“खान साहिब, हमारा कोई लेना-देना नहीं शराब की दुकान से। हम तो करेंगे अगर कोई मीट की दुकान खोलेगा।”
“हमारी ही मदद कर छड्डो।”
“पर हम किस ग्राउंड पर करेंगे ?”
“यही कि इस परेड में एक ही आफ-लायसेंस काफी होसी।”
सतनाम सोच में पड़ गया और फिर बोला–
“खान साहिब, कांती पटेल हमारा ग्राहक भी है... मैं सोचूँगा, पर प्रोमिस नहीं।”
“सरदार जी, गाहक को तो असीं वी तुहां दे बन सां, पर हलाल किया करो। हलाल मीट की खातिर हमें स्ट्राउड ग्रीन जाना पड़ता है।”
अब्दुला कुछ देर खड़ा रहा और अपने रोने रोता हुआ चला गया। दुकान बन्द करने का वक्त हो रहा था। पैट्रो ने ओवरआल उतारा और बैग उठाकर चल दिया। माइको भी। जुआइश और मगील ही रह गए थे। सतनाम ने उन्हें बियर के पैसे दिए और दुकान बन्द करके वैन में जा बैठा। उसके मन में हलाल मीट ही घूमे जा रहा था।
स्ट्राउड ग्रीन की हाई रोड पर अब बहुत सारी दुकानें पाकिस्तानियों की हो गई थीं। अधिकतर मीट की ही थीं। हलाल मीट लेनेवाले यहीं आते। यहीं गफूर की दुकान थी। वह सतनाम को स्मिथफील्ड मीट मार्किट में मिला करता था। वह होलसेल का काम करना चाहता था। सतनाम के साथ प्राय: विचार-विमर्श करने लगता। वक्त-बेवक्त सतनाम उससे माल भी ले आया करता था। खासतौर पर चिकन। गफूर के दो और भाई दुकान पर काम करते थे। उसने अच्छा-खासा बिजनेस चला रखा था। उसके काम की तरफ देखकर सतनाम सोचा करता कि अगर घर में एक से ही दो-तीन आदमी हों तो काम कहाँ का कहाँ पहुँच सकता है।
उसने वैन को गफूर की दुकान के सामने जा खड़ा किया। गफूर उसे देखकर खुश होते हुए बोला–
“हई शाबा शे सरदार जी, किधर राह भूल गए ?”
“मैं कहा, भाई जान को हैलो कह चलूँ।”
“जम जम के कहो जी... अन्दर आ जाओ। जी आया नूं(स्वागत है)। बताओ क्या पियोगे ? कुछ ठंडा, चाय या व्हिस्की मंगाऊँ ?”
“कुछ नहीं पीना, एक छोटी-सी बात पूछनी है।”
“पूछो जी पूछो, बल्कि हुक्म करो जी।”
“यह हलाल कहाँ से लेते हो ?”
सवाल सुनकर गफूर हँसने लगा और बोला–
“यह कैसी तफ़सीस करने बैठ गए।”
“मैंने कहा कि इतना समय हो गया इस बिजनेस में। हलाल के बारे में मुझे कुछ जानकारी नहीं।”
“हलाल करने का इरादा है ?”
“सोच रहा हूँ।”
“ना सोचो। बिलकुल ना सोचो। पहली बात तो यह कि एक सिंह पर कौन-सा मुसलमान यकीन करेगा कि यह हलाल का है। दूसरा अगर हलाल का बोर्ड लगा भी बैठो तो कोई गोरा अन्दर नहीं घुसने वाला, दोहरी मार पड़ेगी।”
“तेरी बात तो गफूर बिलकुल ठीक है, पर कई पूछा करते हैं।”
“दो-चार गाहकों की खातिर खतरा मोल नहीं लेना।”
“पर यह हलाल कौन-सी कम्पनी करती है ?”
“हैं बहुत-सी कम्पनियाँ। अगर ज़रूरत पड़ेगी तो नम्बर दे दूँगा। स्मिथ फील्ड मार्किट में ही मिलता है।”
कहकर गफूर मंद-मंद मुस्कराया। सतनाम ने कहा–
“मैंने तो कभी देखा नहीं।”
“तुम्हें नहीं दिखाई देगा, मुझे देगा।”
“अच्छा !”
“सरदार जी, क्यों भोले बन रहे हो। यह हलाल तो सारी यकीन की बात होगी। इन चिकन की गर्दनों पर टक लगेंगे तो हलाल होंगे।”
(क्रमश: जारी…)

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अनुरोध

“गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

रविवार, 15 जून 2008

गवाक्ष- जून 2008



“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले पाँच अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा की कविताएं तथा रचना श्रीवास्तव की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली चार किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – लंदन निवासी कथाकार-कवयित्री दिव्या माथुर की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की पांचवी किस्त का हिंदी अनुवाद…

दस कविताएं
दिव्या माथुर (लंदन)
चित्र : अवधेश मिश्र

पहला झूठ
नई बत्ती को जलाए रखने के लिये
देर तक आग दिखानी होती है
जली हुई रुई की बत्ती
बडी आसानी से जल जाती है
पहला झूठ भी बडी मुश्किल से फूटता है।


अँधेरा

सच को न तो
ओढ़नी चाहिये
न ही कोई बिछौना
झूठ ही ढूँढता है
एक काली चादर
और छिपने के लिए
एक अँधेरा कोना।

अकेलापन

सोचती हूँ
सच बोलना छोड़ दूँ
कम से कम
अकेलापन तो जाएगा भर
अंतर में सुलगती रहे
चाहे अँगीठी
आत्मा की जली कुटी
सुनने से
कहीं बेहतर होंगी
दुनिया की बातें
मीठी मीठी।

मेरी ख़ामोशी

मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ
एक दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ कि
तुम सा नकार जाओगे
इससे अपना रिश्ता
यदि मुकर न भी पाये तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर बरी कर देगा
पर तुम
भूल के भी न इतराना
क्यूंकि मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ।


विसर्प

अपने बदन से
उतार तो दिया
उस विसर्प को
जो पला किया
मेरे खून पर
किंतु उसके छोड़े
निशानों का क्या करूं
जो जब तब
उभर आते हैं
और रिसने लगते हैं
छूतहे खून से।

सती हो गया सच

तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हें
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गये
तुम मेरी ओट लिये
साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच।

बासी-बासी

हर रात मैं
मैं अपने पलंग की चादर
और तकिऐ के गिलाफ
बदलती हूं
हर रात तुम लौटते हो
बासी-बासी।

अपेक्षा


अन्दर से टूटी फूटी थी स्वयं
पर जोड़ती रही
सबको, सब चीज़ो को
दूसरो से सच की अपेक्षा करती रही
अपने मन मे झूठ छिपाये।

सुनामी सच

तुम्हारे एक झूठ पर
टिकी थी
मेरी गृहस्थी
मेरे सपने
मेरी खुशियाँ
तुम्हारा एक सुनामी सच
बहा ले गया
मेरा सब कुछ।

सहारा

एक सच की तलाश मे
तलवों के रिस रहे है घाव
और हथेलियों मे उग आए है कांटे
कौन ग़म बांटे
एक झूठ का सहारा था
लो वो भी छूट गया!
(उपर्युक्त दस कविताओं का चयन कवयित्री द्वारा “झूठ” पर लिखी गईं सीरीज़ कविताओं में से किया गया है)

शिक्षा : एमए (अंग्रेजी) के अतिरिक्त दिल्ली एवं ग्लास्गो से पत्रकारिता में डिप्लोमा। आइ टी आई दिल्ली में सेक्रेटेरियल प्रैक्टिस में डिप्लोमा एवं चिकित्सा आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन।
कार्यक्षेत्र : रॉयल सोसायटी आफ आर्टस की फेलो दिव्या का नेत्रहीनता से सम्बंधित कई संस्थाओं में योगदान रहा हैं। वे यू के हिंदी समिति की उपाध्यक्ष कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष भी रही हैं। आपकी कहानियां और कविताएं भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण के अतिरिक्त इनकी कविताओं कहानियों व नाटकों का मंचन प्रसारण व ब्रेल लिपि में प्रकाशन हो चुका है। दिव्या जी को पदमानंद साहित्य एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है।

प्रकाशित रचनाएं : ‘अंत:सलिला’ ‘रेत का लिखा’ ‘ख्याल तेरा’ ‘आक्रोश’ ‘सपनों की राख तले’ एवं ‘जीवन ही मृत्यु’।
संप्रति : नेहरू केन्द्र (लंदन में भारतीय उच्चायोग का सांस्कृतिक विभाग) में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी।

संपर्क : 3-A Deacon Road,
London NW2 5NN
E-mail : divyamathur@aol.com

धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 5)

सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। आठ ।।

शौन का मन काम में लगने लगा। उसे अब लंदन में बस जाना ही अच्छा लगता। उस दिन जब उसने ऐलिसन को उसके साथ वापस आयरलैंड लौट चलने के लिए कहा था तो उसके मन में कुछ हुआ था कि वह स्वयं तो वापस लौटने का कोई इरादा नहीं रखता था। आयरलैंड जाने के बारे में सोचते ही उसके मन को कुछ होने लगता। वह सोचता कि यदि कभी आयरलैंड जाना भी पड़ा तो वाटरफोर्ड या कौर्क में जा बसेगा। वैलज़ी तो वह तभी जाएगा जब उसमें उतना ही बड़ा फॉर्म हाउस खरीदने की ताकत आ जाएगी।
काम पर उसका भिन्न-भिन्न लोगों के साथ वास्ता पड़ता था। भिन्न-भिन्न देशों के लोगों से। सियासत में रुचि रखने के कारण वह हर समय अपनी जेब में टाइम्ज़ अखबार रखा करता था। दुनियाभर की ख़बरें पढ़ता और फिर उसके बारे में बात करने के लिए किसी न किसी की तलाश में रहता। रोडेशिया जिम्बावे बनकर दुनिया के सामने आया तो उसे गैरी फ्लिंट बातें करने के लिए मिल गया। जब भी ब्रेक होती या कहीं मिल बैठते तो इसी विषय पर बहस करने लगते। गैरी इंग्लिस था। यह बात शौन को लंदन में आकर समझ में आ गई थी कि इंग्लिस लोग आयरश लोगों के प्रति अच्छा नज़रिया नहीं रखते। उत्तरी आयरलैंड में चल रहे आतंकवाद ने समूचे आयरलैंड का अक्स बदल कर रख दिया था। अंग्रेजों को इस बात से सरोकार नहीं था कि कौन-सा आयरस उत्तरी आयरलैंड की लहर से सहमत था और कौन-सा नहीं। वे सभी आयरशों को नफ़रत की निगाह से देखते। अंग्रेजों के मुकाबले एशियन और अफ्रीकन लोगों का व्यवहार बहुत दोस्ताना था।
शौन की मेजर सिंह के साथ निकटता बढ़ने लगी थी। उसे भारत की राजनीति की अधिक समझ नहीं थी। केन्द्र सरकार में तो एक ही पार्टी थी, पर प्रांतों में कई-कई पार्टियां थीं। जल्दी-जल्दी गिरती-बनती सरकारों की ख़बरें उसकी पकड़ में नहीं आ रही थीं। पंजाब में हुई हलचल के बारे में भी उसे अधिक जानकारी नहीं थी। मेजर सिंह इस मामले में उसके बहुत काम आया। मेजर सिंह से ही उसे सिक्ख धर्म की विशालता के बारे में पता चला। मेजर सिंह उसे पंजाब में सिक्खों के संग हो रहे बर्ताव के बारे में विस्तार से बताता।
मेजर सिंह से दोस्ती बढ़ी तो उसने उसके घर भी जाना प्रारंभ कर दिया। उसे मेजर सिंह का सिक्खी मर्यादा में रहना अच्छा लगता था। उसका घर बहुत अच्छी तरह सजा हुआ होता। उसकी पत्नी घर में ही रहती और बच्चों व घर की देखभाल करती। शौन को यह बात बहुत अच्छी लगती। वह मेजर सिंह को बताने लगता–
“मिस्टर सिंह, यही फिलोसफी क्रिश्चियन धर्म की है, पति काम करेगा, पत्नी घर संभालेगी। असल में, ईश्वर ने मनुष्य को बनाया ही इस तरह है कि आदमी बाहर का काम करे और औरत अंदर का।”
“पर शौन, आज की दुनिया ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। औरत को ज़रूरत से ज्यादा हक दे दिए हैं। ये जो स्त्रियाँ आदमी के बराबर काम करने लग पड़ी हैं, इसने बहुत काम खराब किया है।”
“ज़िन्दगी नार्मल नहीं रही, ज़िन्दगी का मज़ा पहले जैसा नहीं रहा। यह अप्राकृतिक ज़िन्दगी है, पर करें भी क्या।”
“तू विवाह कैसी लड़की से करवायेगा ?”
“घरेलू लड़की से। मैं चाहता हूँ कि लड़की मेरी बात सुने, मेरा कहना माने।”
“यह तो फिर इंडियन लड़की ही ऐसा कर सकती है। कोई इंडियन लड़की ढूँढ़ ले।”
“अभी कोई प्रोग्राम नहीं है, अगर विवाह का इरादा हुआ तो सोचूंगा।”
मेजर सिंह के घर जाते हुए उसने नोट किया कि उसकी पत्नी उसकी हर बात मानती थी। एक दिन उसने उससे पूछा–
“मिसेज सिंह, तुम्हारा दिल नहीं करता कि तू काम पर जाए ?”
“यह तो इनकी मर्जी है। अगर इन्हें पसंद है तो मुझे भी पसंद है। नहीं तो नहीं। मेरे साथ की कई स्त्रियाँ काम करती भी हैं, पर यह नहीं चाहते।”
शौन कहता कि भारतीय पत्नी को वोट तो पति से पूछकर ही डालनी है, पर वह टॉयलट भी पूछकर जाती है। कहने को तो किसी भी लहजे में कह जाता, पर दिल से उसे यह बात पसंद थी। आहिस्ता-आहिस्ता वह सोचने लगा था कि क्यों न किसी भारतीय लड़की से दोस्ती की जाए। उसने मेजर सिंह से पूछा–
“मिस्टर सिंह, यहाँ इंडियन पब कहाँ है ?”
“ये साऊथाल में बहुत से पब इंडियन ही हैं, हम कई बार गए हैं।”
“पर इनमें इंडियन लड़कियाँ तो होती नहीं।”
“इंडियन लड़की तुझे इस तरह पब में नहीं मिलेगी, ज़रा और मेहनत करनी पड़ेगी। अगर पब में आई लड़की मिल गई तो शायद वो वैसी न हो, जैसी तुझे चाहिए। पब में आने वाली लड़की इंडियन नहीं होती।”
शौन ने कई बार कोशिश की, पर किसी भी भारतीय लड़की से उसका सम्पर्क न हो सका। उसे भारतीय लोग बहुत ही कट्टर दिखाई देते। कई बार उसे मेजर सिंह की बातें भी संकीर्ण लगने लगतीं।
इन्हीं दिनों में ही बलदेव काम पर आ लगा। शौन वाले टेबल पर ही वह ट्रेनिंग पर आया था। लम्बा कद, महीन मूंछें और नाक पर ऐनक वाला यह भारतीय शौन को पहली नज़र में ही अच्छा लगा था, पर जब उसने सियासत के बारे में बातें शुरू कीं तो वह और अधिक दिलचस्प प्रतीत हुआ। मेजर सिंह से उसके विचार बिलकुल भिन्न थे। उसे सिक्खों की कोई समस्या नहीं दिख रही थी। दुनिया की राजनीति के बारे में भी उसके विचार मेजर सिंह से बहुत अलग थे। मेजर सिंह के उलट उसको ब्रितानवी सियायत में भी गहरी दिलचस्पी थी। अब उसकी दोस्ती बलदेव के साथ बढ़ने लगी। उसमें एक ही नुक्स था कि वह धार्मिक नहीं था।
बलदेव शौन का हमउम्र भी था, जबकि मेजर सिंह बड़ी उम्र का था। अब वे दोनों ही इकट्ठे घूमा करते। बलदेव कईबार शौन के फ्लैट में चला जाता। शौन को अब कांउसल की ओर से रहने के लिए फ्लैट मिला हुआ था। शौन भी बलदेव के घर जाता रहता था। यही नहीं, उसके रिश्तेदारों के घर भी चला जाता। उसके घर का माहौल भी मेजर सिंह वाले घर से अलग था। उसकी पत्नी सिमरन बैंक में काम करती थी। यहाँ की जन्मी भारतीय लड़की में और गोरी(अंग्रेज लड़की) में कोई फ़र्क दिखाई नहीं देता था। वह सोचने लगता कि अगर वह यहाँ की जन्मी इंडियन लड़की से विवाह करवाएगा तो मसले वही रहेंगे। इससे तो बेहतर है कि वह किसी आयरश लड़की के साथ ही ज़िन्दगी गुजारे। रंग का मसला भी नहीं होगा और न ही धर्म का। आगे बच्चों के लिए भी कोई कठिनाई पैदा नहीं होगी।
क्रिकलवुड ब्रोड-वे पर नेशनल नाईट क्लब था। बहुत बड़ा हाल था इस क्लब का। हर वीक-एंड पर यहाँ डिस्को होता। इस क्लब का मालिक आयरश था। यहाँ आयरश संगीत चलता और अधिकतर आयरश लोग ही हुआ करते। शौन यहाँ नियमित रूप से जाता था। कोई अस्थायी लड़की मिल भी जाती, पर ऐसी नहीं मिली थी जिसके साथ लम्बे समय के लिए संबंध बना सके। कभी-कभार बलदेव भी उसके संग चला जाता लेकिन वह रहता बहुत दूर था। ग्रीनविच, दरिया के दूसरी तरफ। उसके लिए वापस लौटना कठिन हो जाता।
एक दिन शौन क्लब गया तो उसे एक इंडियन लड़की दिखलाई दी। वह हैरान होता हुआ उसकी तरफ लपका। उसे वह बहुत सुंदर लगी। उसके करीब जाकर शौन कहने लगा–
“मैंने तुझे पहले भी कहीं देखा है, कहाँ...।”
“नहीं, मैं इस इलाके में नहीं रहती। मैं तो छुट्टियाँ बिताने आई हूँ।”
“हाँ, तू अलिज़बब टेलर-सी दिखती है, इसलिए... तू बहुत खूबसूरत है। किस देश से आई है ?... इंडिया से ?”
“शुक्रिया। नहीं, इंडिया से नहीं, मारीशस से हूँ, वैसे ओरिजिन इंडिया का है।”
“अकेली हो ?”
“नहीं, मेरा ब्वाय-फ्रेण्ड साथ है।”
ब्वाय-फ्रेण्ड के नाम पर शौन की फूक निकल गई। उसने उस लड़की की ओर गौर से देखते हुए सोचा कि यह लड़की तो छीनकर ली जाने वाली है। उसने फिर कहा–
“क्या नाम है तेरा ? कितनी देर ठहरोगी ?”
“कैरन... तेरा ?”
“मेरा शौन...। मेरे साथ बैठकर बियर पीना और बातें करना पसंद करेगी ?”
“मैं बियर नहीं पीती।”
“जूस ही ले लेना।”
शौन ने उसे कंधे से पकड़कर अपने संग ले लिया। शौन ने कहा–
“कहाँ है तेरा ब्वाय-फ्रेण्ड ? और तूने बताया नहीं कि कितनी देर रुकेगी ?”
“यहीं कहीं होगा। मैं महीना भर ठहरूंगी, फिर चली जाऊँगी।”
तभी एक सुकड़ा-सा एशियन उनके पास आ धमका। शौन उसकी तरफ देखकर मन ही मन हँसा। बातें करते हुए उसने कैरन से फोन नंबर भी ले लिया। उसके बारे में और बहुत सी बातें पूछ लीं। ब्वाय-फ्रेण्ड का नाम राजा था। वह असल में ब्वाय- फ्रेण्ड नहीं था। जहाँ वह ठहरी थी, उन्हीं का लड़का था। शौन ने उसके संग डांस भी किया और उसके दोनों हाथ पकड़कर दबाये भी। उसने कान में कहा–
“मैं तेरे साथ और अधिक समय बिताना चाहता हूँ।”
“कल फोन करना।”
फिर उनकी मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया। कैरन उसके फ्लैट में जाने लग पड़ी। कैरन वहाँ के किसी मिनिस्टर की बेटी थी। उसने अभी हाल ही में अपनी पढ़ाई खत्म की थी और वापस लौटकर पिता का कारोबार संभालना था। शौन को कैरन पसंद थी, वह उसके साथ विवाह भी करवाना चाहता था, पर कहीं कुछ रड़क रहा था। फादर जॉय से कैरन के धर्म के बारे में बात की। कैरन हिंदू थी पर क्रिश्चियनिटी के अनुसार विवाह के लिए धर्म कोई रोड़ा नहीं था। चुभने वाली बात के बारे में अधिक सोचने पर पता चला कि कैरन में अंहकार बहुत था। इतने अंहकार वाली लड़की उसके लिए ठीक नहीं थी। उसे तो मेजर सिंह की पत्नी जैसी लड़की की तलाश थी। फिर भी असमंजस की स्थिति में उसने कैरन से विवाह के बारे में पूछ लिया। कैरन उससे विवाह करवाने के लिए तैयार हो गई। उसने बड़ी मुश्किल से अपने पिता को राजी किया। कैरन की बड़ी बहन जो इसी प्रकार यहाँ सैर करने आने आई थी, ने भी यहीं विवाह करवा लिया था। उसने विवाह तो किसी मारीशियन के साथ ही करवाया था लेकिन वह रुतबे में कैरन के पिता से बहुत छोटा था। कैरन के पिता को इसका बहुत दुख लगा था। इससे उसके अंहकार को गहरी चोट पहुँची थी। बाद में यह विवाह तलाक में बदल गया। पिता को हार्ट-अटैक हो गया था। इस बार कैरन के पिता को इतनी भर तसल्ली थी कि अपने से छोटे आदमी से विवाह नहीं हो रहा था। कैरन को या उसके पिता को भी आयरश और अंग्रेजों के बीच के फर्क के बारे में जानकारी नहीं थी। उसे गोरा रंग ही दिखलाई दे रहा था। उसने वापस अपने देश जाना स्थगित कर दिया।
एक दिन बलदेव शौन से कहने लगा–
“मेरा इंडिया का प्रोग्राम बन रहा है, चल चलें।”
शौन तैयार हो गया। वह सोच रहा था कि शायद वहाँ विवाह के लिए कोई अच्छी लड़की मिल जाए। अगर ढंग की लड़की मिल गई तो फिर कैरन से उसने क्या लेना था। वह इंडिया घूम आया, पर कहीं कोई बात नहीं बनी। इन दिनों में विवाह के बारे में उसने इतना सोचा कि अब वह विवाह करवाने को बहुत उतावला था। यूँ भी ज़िन्दगी के बहुत सारे फैसले वह उतावलेपन में ही करता था। वह सोच रहा था कि इस वर्ष विवाह करवा लिया तो करवा लिया, नहीं तो उम्रभर विवाह नहीं करवाएगा। आयरलैंड में विवाह न करवाना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक उम्र के बाद बहुत सारे मर्द विवाह का ख़याल छोड़ देते थे।
इंडिया वह कैरन को बताकर ही गया था। वापस लौटते ही उसके अंदर कैरन के लिए बेतहाशा मोह जागने लगा। वह इंडिया से उसके लिए कई प्रकार के तोहफे लेकर आया था। वह उससे मिलकर जल्दी ही विवाह के बारे में निर्णय पक्का करना चाहता था। उसने कैरन के ठिकाने पर फोन किया। फोन उसी लड़के ने उठाया जिसे शौन ने नेशनल में देखा था। उसने बताया– “कैरन तो हमेशा के लिए वापस चली गई है।”

।। नौ ।।

तड़के ही एक बड़ी-सी लॉरी ‘बैंस मीट मार्किट’ के बाहर आ खड़ी हुई। लॉरी का ड्राइवर बिग जॉन छलांग लगाकर नीचे उतरा। लम्बे-चौड़े जिस्म के कारण उसे सभी बिग जॉन कहते थे। लॉरी की फ्रिज़ चल रही होने के कारण शोर हो रहा था। तड़के के चुप्पी में यह शोर कुछ अधिक ही महसूस हो रहा था।
बैंस मीट मार्किट का दरवाजा खुला और सतनाम ओवरआल पहनते हुए बाहर निकल आया। उसके पीछे-पीछे ही मगील था। उन्हें देखते हुए जॉन ने कहा–
“मार्निंग सैम, मार्निंग सनिओर।”
“मार्निंग जॉन, लगता है आज दिन बहुत गरम होगा।”
“हाँ, कहते तो हैं पैंतीस प्लस। मैं भी इसीलिए जल्दी काम खत्म कर लेना चाहता हूँ। फिर पब में बैठकर बियर पिऊँगा।”
“तू बहुत लक्की है जॉन।”
बियर का नाम सुनकर मगील बोला। सतनाम ने कहा–
“लौरेल, तू फिजूल की ना सोच। आ काम खत्म करें।”
उसे पता था कि अगर बियर के बारे में और बातें कीं तो मगील का अभी मूड बन जाएगा। यह डिलीवरी उतारनी ज्यादा ज़रूरी थी। फिर सोमवार होने के कारण सामने बिजी दिन खड़ा था। सतनाम उसे लौरेल कहा करता। लौरेल-हार्डी वाली प्रसिद्ध हास्य जोड़ी वाले लौरेल के कारण।
यह लॉरी ‘कंटीनेंटल मीट’ वालों की थी जो कि गाय और सूअर के मीट में स्पेशियलिस्ट माने जाते थे। इनकी कीमतें अन्य होलसेलरों की बनस्बित ठीक होती थी और सर्विस भी बढि़या होती। उधार भी पूरे दो महीने का कर लेते थे। बिग जॉन लॉरी में चढ़कर मांस के बड़े-बड़े पीस सतनाम और मगील को पकड़ाने लगा। वे उन्हें दुकान के पीछे बने कोल्ड-रूम में रख आते। कोल्ड रूम में साइज के हिसाब से हैंगर बने हुए थे। अंग्रेजी के अक्षर ‘एस’ की शक्ल के। तेज सूए वाले। वे मीट के पीस उनमें फंसा आते। गाय की पूरी टांग या फिर पूरा सूअर काफी भारे हो जाते। उठाने वाले की हिम्मत जवाब दे जाती। मगील की बारी आती तो वह कहता–
“जॉन, हल्के वाला देना।”
“क्या सनिओर... तनख्वाह कम मिलती है ?”
“तनख्वाह को तू कम कहता है। ये तो बहुत ही कम देते हैं। काम देख ले कितना हार्ड है, इसे कह– मेरे पैसे बढ़ाये।”
“सैम, तू सनिओर की तनख्वाह बढ़ा। देख, कैसे टांगे टेढ़ी करके चल रहा है।”
“जॉन, यह सनिओर हमारा लौरेल है। यह यहाँ काम करने कहाँ आता है, यह तो कामेडी करने आता है। अगर यह थोड़ी-बहुत कामेडी न करे तो इसे इतने भी न मिलें। काम के वक्त तो यह टॉयलेट में जा घुसता है।”
हँसते हुए सतनाम ने कहा तो मगील बोला–
“जितनी तनख्वाह तू देता है, उससे तो बंदा टॉयलेट में ही घुस सकता है।”
कहते हुए मगील एक ओर होकर हांफने लगा। जॉन ने कहा–
“सनिओर, इस हिसाब से तू शुक्रिया अदा किया कर कि तुझे तनख्वाह मिलती है। अगर कोई और होता तो दुकान में खड़े होने के तेरे से पैसे लेता।”
“तू भी जॉन लॉरी चलाने के सिवा कुछ नहीं जानता। तू क्या जाने मेरी स्किल को। मैं लंदन का बहुत बढि़या बूचड़ हूँ। चालीस साल का तजु‍र्बा है मेरा, पूरे चालीस साल का। स्पेनिश मीट काटने में मेरा कोई सानी नहीं।”
“तेरा चालीस साल का तुजु़‍र्बा है, पैदा होते ही छुरी पकड़ कर खड़ा हो गया था ?”
“बावन साल की उम्र है मेरी, देखने में ही मैं जवान लगता हूँ।”
कहते हुए मगील नखरे से चलने लगा। आर्डर पूरा उतर गया था। जॉन ने डिलीवरी नोट सतनाम के हाथ में थमाकर कहा–
“कुछ फालतू पीस हैं, अगर कैश चाहिए तो...।”
अर्थात वह चोरी का कुछ मीट बेचना चाहता था जिसे वह सस्ता दे दिया करता था। डिलीवरी करते हुए हेरा-फेरी करके या फिर पीछे फैक्टरी में से ही अधिक मीट लॉरी में रखवा लाता और सतनाम को या किसी अन्य विश्वासपात्र को बेच देता। अधिकतर ड्राइवर ऐसा ही करते थे। सतनाम ने नकद पैसे देकर वह मीट भी उतरवा लिया।
बिग जॉन लॉरी लेकर चला गया। मगील का सांस अभी भी सम पर नहीं आया था। उसने कहा–
“मैं यूं ही भारी काम को हाथ लगा लेता हूँ, मेरे वश का नहीं।”
“तुझे तो मैंने कहा था कि तू ऐंजला के साथ लिपटकर सोया रह, मैं खुद ही मायको को बुला लाता।”
मगील मायको के नाम पर कुछ न बोला। यह ओवर टाइम वह स्वयं ही करना चाहता था। इस तरह कुछ पैसे वह ऐंजला से चुराकर रख सकता था। कुछ देर बाद भी सांस सम पर न आया तो बोला–
“यहाँ बियर पड़ी थी, कहाँ गई ?”
“दूसरे कोल्ड रूम में पड़ी है। पर अगर तू अभी ही पीने लग पड़ा तो दिन कैसे गुजरेगा?”
“सैम, मैं इतना थक गया हूँ कि एक डिब्बा पीकर ही काम कर सकता हूँ। चिंता न कर, बस एक डिब्बा ही पिऊँगा।”
“देख मगील, कितना काम है, डिलीवरी संभालनी है, रेस्ट्रोरेंटों का आर्डर मुझे लेकर जाना है, मेरा वक्त तो वहीं बीत जाएगा।”
“तू फिक्र न कर, पैट्रो को आ लेने दे, देखना काम कैसे खत्म होता है।” कहकर वह अंदर से बियर लेने चला गया। सतनाम ने घड़ी देखी। अभी छ: ही बजे थे। पैट्रो ने आठ बजे आना था। दो घंटों में काफी काम किया जा सकता था। वह नये आए मीट को हिसाब से काटने लगा। मगील भी बियर खत्म करके आ गया। आठ बजे तक वे बगै़र कोई बात किए काम में लगे रहे। आठ बजे पैट्रो आ गया। पैट्रो ग्रीक बूढ़ा था। काम में तो अब वह ढीला पड़ चुका था पर था तजु़बे‍र्कार बुच्चड़। सतनाम को उसी ने ट्रेंड किया था। पैट्रो ने ओवरआल पहना और उनके साथ काम में जुट गया।
मगील और पेट्रो के अलावा माइको भी काम करता था। लेकिन शायद वह मूडी-सा आदमी था। उस पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता था। काम पर भी आ गया तो आ गया, नहीं तो अधिकतर छुट्टी मार जाता था। इसी तरह पैसों के मामले में भी था। घोड़े लगाने का शौकीन था। इस दुकान के पहले मालिक निक्की के ज़माने में उसने बहुत ऐश की हुई थी, सारा हिसाब उसी के पास हुआ करता था। कई फालतू के शौक पाल बैठा था। अब तंग हो रहा था। सतनाम को उसकी ज़रूरत रहती थी, इसलिए कई बार माइको के अनुसार ढल जाता था। लेकिन उसे टिल्ल(गल्ले) पर नहीं जाने देता था। वह जानता था कि अगर माइको का मूड सही हो तो काम में वो बहुत तगड़ा था। सतनाम सोचता था कि इसकी जगह कोई रैगुलर आदमी मिल जाए तो वह इसे हटा देगा। वह नये बुच्चड़ की तलाश में था। बुच्चड़ तो मिलते थे पर तनख्वाह पूरी मांगते थे।
पैट्रो के ठीक बाद माइको भी आ गया। सतनाम को कुछ तसल्ली हुई। वह मगील को संग लेकर रेस्तरांओं के आर्डर वैन में रखने लगा। बहुत सारे भारतीय और ग्रीक रेस्तरांओं को वह मीट की सप्लाई करता था। दुकान की परचून की ग्राहकी से डिलवरी का काम कहीं अधिक आसान था।
तीनेक साल होने को थे सतनाम को इस दुकान में। हौलोवे स्टेशन के सामने ही होर्नजी रोड पर स्थित परेड में थी यह दुकान। इसके पहले मालिक निक्की की अचानक मौत हो गई थी। उसकी पत्नी मारिया काम को चलाने में असमर्थ थी। ये पैट्रो और माइको ही काम करते थे उसके साथ। सबकुछ माइको ही था जो मारियो के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ने देता था। उसे दुकान का किराया चुकाना भी कठिन हो गया। उसने दुकान को सेल पर लगा दिया। सतनाम ने थोड़ी-सी पगड़ी देकर खरीद ली। खरीद कर पहले तो वह बहुत पछताया। मीट के काम को उसे कोई अनुभव नहीं था। फिर पैट्रो ने उसे काम सिखलाया। सतनाम जल्द ही समझ गया कि बहुत सारे ग्राहक तो पैट्रो के कारण ही दुकान से जुड़े हुए थे, खासतौर पर ग्रीक ग्राहक। इसी तरह ग्रीक रेस्तरांओं के जो आर्डर मिले हुए थे, वे सब पैट्रो के कारण की टिके रह सकते थे इसलिए उसने पैट्रो को काम नहीं छोड़ने दिया जबकि पैट्रो की उम्र रिटायर होने की हो रही थी। पैट्रो के लिए भी ठीक था कि अपनी मर्जी से काम करके तनख्वाह लिए जा रहा था।
मीट का काम बहुत मेहनत मांगता था। सतनाम का पहला सबक तो यह था कि हर कौम के लोग अलग तरह से मीट काटते हैं और खाने के लिए जानवर का अलग-अलग हिस्सा पसंद करते हैं। किसी को जांघ का मांस पसंद है, किसी की टांग का तो किसी को सीना। मगील को उसने स्पैनिश तरीके से मीट काटने के लिए ही रखा था।
सतनाम के स्टाफ में एक जुआइश भी थी। जुआइश अफ्रीकन औरत थी जो कभी अंग्रेज के संग ब्याही हुई थी। उस अंग्रेज के दो बच्चे भी थे। होर्नज़ी रोड में से निकलती लॉयल रोड पर रहती थी। वह दुकान में सफाई करती। दिन में दो बार आती थी। एक बार दोपहर को और एक बार शाम के वक्त दुकान बन्द करने के समय। मीट की दुकान में सफाई का खास ध्यान रखना पड़ता था, नहीं तो हैल्थ वाले जुर्माना कर जाते थे।
दुकान में काम करने का माहौल बहुत सहज था। हर वक्त हँसी-मजाक चलता रहता। सतनाम का स्वभाव भी कुछ ऐसा था कि वह किसी के सिर पर खड़ा नहीं होता था। रौब डाले बिना ही अपना काम निकलवा लेता। हर शाम हिस्सा डाल कर व्हिस्की की बोतल लाई जाती। थोड़ी-बहुत बियर हर वक्त फ्रिज़ में रखे रखते। जुआइश व्हिस्की नहीं पीती थी, वह सिर्फ़ बियर ही पीती। बियर भी स्ट्रांग जैसे कि टेनंट या स्पेशल ब्रू।
पैट्रो वुडग्रीन में रहता था। दुकान के सामने से ही बस जाती थी। कई बार सतनाम छोड़ भी देता। माइको हौलोवे रोड पर पड़ने वाले फ्लैटों में रहता था। पैदल का पांच मिनट का रास्ता। मगील का होर्नज़ी रोड पर ही कुछ और आगे जाकर घर था। सतनाम की अपनी रिहायश मुज़वैल हिल थी। आठ बजे दुकान बन्द करने का समय निश्चित किया हुआ था। साढ़े सात बजे ही काम समेटना आरंभ कर देते और आठ बजे काम के साथ-साथ व्हिस्की भी समाप्त कर देते और दुकान के शटर खींच देते थे। फिर एक-दूजे को अलविदा कह कर अपनी-अपनी राह पकड़ लेते थे।
मीट का काम करने के बारे में सतनाम ने सोचा भी नहीं था। वह काफी समय से दुकान तलाश रहा था पर आफ लायसेंस, न्यूजपेपर शाप या ग्रोसरी आद की दुकान। मीट का काम उसे बुरा लगा करता था, पर यही काम करना पड़ा। इसके पीछे यह कारण था कि यह दुकान बहुत सस्ती मिल गई थी। किराया भी ठीक था, फिर मीट में मार्जिन अन्य वस्तुओं से अधिक था। पहले पहले उसे मीट की कटाई का काम बहुत कठिन लगता था। हर समय हाथ कटने का भय बना रहता। पर अब वह पूरा बूचड़ बन चुका था।
यह दुकान बहुत बड़ी नहीं थी। दुकान का एरिया कम ही था। थोड़ी-सी राह छोड़कर दुकान जितनी चौड़ाई में फ्रिज़ काउंटर बनाया हुआ था। इस फ्रिज़ में नमूने का ही मीट होता था, शो-केस में रखने की तरह। ज्यादातर मीटर तो पिछले कोल्ड रूम्स में ही रखा होता। ग्राहक आर्डर करता और वे निकालकर ले आते और उसके सामने काट देते।
मीट का ध्यान भी रखना पड़ता था। यह खराब भी जल्दी हो जाता था, खासतौर पर गर्मियों में। खराब मीट मुसीबत भी खड़ी कर देता। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। एक अंग्रेजी स्त्री मीट लेकर गई और घंटे भर बाद ही लौट आई। वह गुस्से से भरी हुई थी। दुकान में घुसते ही बोली–
“दुकान का मालिक कौन है ?”
“मैं हूँ ।”
मगील को आगे बढ़कर कहा। वह स्त्री उससे कहने लगी–
“यह देख तेरा मीट, तू लोगों को गंदा मीट बेच रहा है।”
मगील तुरन्त सतनाम की ओर संकेत करता हुआ बोला–
“असली मालिक वो है।”
“मालिक कोई भी हो, मैं तुम्हारी शिकायत करने जा रही हूँ। तुम लोग बासी मीट बेच रहे हो, तुम्हें पब्लिक की सेहत का ज़रा-भी ख़याल नहीं। मैं तुम्हें कचेहरी में घसीटूंगी।”
(क्रमश: जारी…)


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