रविवार, 10 अगस्त 2008

गवाक्ष - अगस्त 2008



गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लाग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले सात अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की पहली छ्ह किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अगस्त,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद की कविताएं और हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की सातवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

तीन कविताएं -
इला प्रसाद, यू एस ए

मन

कोई
भी स्वर
कुछ
ही क्षणॊं के लिए
झंकृत
करता है
मन
के तार
कोई
भी स्पर्श
कुछ
ही क्षणॊं के लिए
एह्सासों
की डोर पर
थरथराता
है
फ़िर
चुक जाता है सबकुछ
जलसतह
होता है मन !

प्रवासी का प्रश्न

हम,
जो
चले गए थे
अपनी
जड़ों से दूर,
लौट
रहे हैं वापस
अपनी
जड़ों की ओर
और
हैरान हैं यह देखकर
कि
तुमने तो
हमारी
शक्ल अख्तियार कर ली है
अब
हम अपने को
कहाँ
ढ़ूँढ़ें ?

किताब

कम्प्यूटर के सामने बैठकर
पत्र, पत्रिकाएँ पढ़ते
सीधे-कुबड़े, बैठे-बैठे
जब
अकड़ जाती है देह
दुखने लगती है गर्दन
धुँधलाने लगते हैं शब्द
और
गड्ड-मड्ड होने लगती हैं तस्वीरें
तो
बहुत जरूरी लगता है
किताब
का होना ।

किताब,
जिसे
औंधे लेटे
दीवारों से पीठ टिकाए
कभी भी, कहीं भी
गोदी में लेकर
पढ़ा जा सकता था
सी ए डी¹
के तमाम खतरो को
नकारते
हुए ।

किताब
जो जाने कब
चुपके
से
गायब
हो गई
मेरी
दुनिया से
बहुत
याद आई आज !
---------------------
1- सी ए डी - कम्प्यूटर एडेड डिसीज़

झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।

कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।

छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।
"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।

कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।
सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन ।

सम्पर्क : ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA


धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 6)

सवारी
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। ग्यारह ।।

सुबह उठते ही शौन बलदेव से कहने लगा–
“डेव, तू मैत्थू के संग कौर्क हो आ, बलारनी स्टोन को चूम लेना।”
“तू नहीं चलेगा ?”
“नहीं, मैं किसी और से मिलना चाहता हूँ। तू वहाँ बोर होगा। तुम्हारे लौटने तक मैं भी आ जाऊँगा।”
बलदेव को पता था कि शौन बहुत सारी बातें उससे छुपा लिया करता था। उन बातों को जानने का उसका कोई हक नहीं बनता था। लेकिन, दोस्ती में ऐसा होना उसे चुभता। वह कौर्क जाने के लिए मन बनाने लगा। ‘बलारनी स्टोन’ के बारे में उसने काफी कुछ सुन रखा था कि इसे चूमने से आदमी के बोलने की शक्ति बढ़ती है। ज्यादा बोलने वाले को ‘बलारनी ब्वॉय’ इसी मिथ के तहत कहा जाता है।
और कोई बात होती तो शौन बलदेव से परदा न रखता, पर यह सब कैरन के बारे में था, इसलिए वह उसे कुछ बताना नहीं चाहता था। कैरन और बलदेव का रंग एक था, इसलिए उसे कई बार वहम हो जाता था कि ये दोनों कहीं आपस में मिल न जाएं, कि बलदेव कैरन की मदद न करने लग पड़े। यद्यपि उसे पता था कि कैरन बलदेव को पसन्द नहीं करती थी। बलदेव साल भर से उसके फ्लैट में रह रहा था, पर कैरन कभी भी उसे सीधे मुँह नहीं बुलाती थी। कैरन को उसका फ्लैट में रहना भी पसन्द नहीं था। यह शौन ही था जो कि बलदेव को कहीं और नहीं जाने देता था, क्योंकि उसे किराया आता था। जितना बलदेव उसे किराया देता, लगभग उतना ही कौंसल के फ्लैट का किराया था। अर्थात शौन मुफ्त में रह रहा था। अब हालात बदल रहे थे। उसके और कैरन के बीच झगड़ा बहुत बढ़ चुका था, इसलिए बलदेव को किसी अन्य जगह चले ही जाना चाहिए था।
कैरन से विवाह करवाकर वह बहुत बड़ी गलती कर बैठा था। ऐसी गलती जो सुधारी नहीं जा सकती। कैरन का अंहकार बहुत ऊँचा था, यह बात वह पहले से ही जानता था। भारतीय पत्नीवाली तो उसमें एक भी बात नहीं थी। इतना अंहकार तो बलदेव की पत्नी सिमरन में भी नहीं था। वह लौट पड़ती थी पर कैरन तो लौटती ही नहीं थी। जैसा कि वह कहा करती थी, उसका बाप मिनिस्टर था या बहुत अमीर था, यह कोई ऐसी बड़ी बात भी नहीं थी। वह स्वयं मॉरीसस जाकर देख आया था। कैरन जब वापस चली गई थी तो वह मॉरीसस गया था और उसे विवाह के लिए राजी करके ले आया था। विवाह के पश्चात् महीना भर वह ठीक रही, फिर उसने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया था। अगर शौन पूरब में चलने के लिए कहता तो वह पश्चिम की ओर जाती। वह हर समय लड़ने का कोई न कोई बहाना खोजती रहती। पिछले दो वर्षों में वह तीन बार अपने देश भी घूम आई थी। शौन सोचता, अपने घरवालों से बिछुड़ने का दु:ख होगा। पहले पहल शौन को लगता था कि शायद घर में अकेली रहने के कारण वह बोर हो जाती होगी, इसलिए लड़ती होगी। वह चाहता था कि कैरन अपनी बहन के पास हो आया करे या फिर कोई सहेली ही खोज ले। लेकिन इन्हीं दिनों में वह गर्भवती हो गई। पैटरशिया का जन्म हुआ तो शौन को कुछ आशा बंधी कि बच्ची की देखभाल में कैरन बदल जाएगी, परन्तु वह बदली नहीं बल्कि और अधिक चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई। पैटरशिया की क्रिश्चिनिंग की रस्म पर शौन के कुछ दोस्त इकट्ठे हुए तो कैरन ने किसी छोटी-सी बात पर खफ़ा होकर सभी का अपमान कर दिया।
शौन के स्थान पर कोई और होता तो चुप होकर एक तरफ़ हो जाता। पर वह कैथोलिक था। तलाक उसके मज़हब में नहीं था। कैरन से छुटकारा पाना कठिन हो गया था। फादर जोय ने उसके विवाह की रस्म निभाई थी। उसने फादर से बात की। लेकिन फादर जोय कैरन का पक्ष ही लेने लगता। कैरन भी फादर जोय को जानती थी। उसके पास आती-जाती रहती थी। जब शौन ने शिकायत लगाई तो उसने कैरन को बुलाकर अकेले में सारी बात की थी। लेकिन फादर जोय को उसमें कोई बड़ा दोष नज़र नहीं आता था। शौन के लिए कैरन इतनी बड़ी समस्या थी कि आयरलैंड आने की झिझक, जो कि ऐलिसन के कारण या फॉर्म के छिन जाने के कारण उसके अन्दर घर कर गई थी, भी उसको रोक नहीं सकी थी।
शौन के पास कैरन से मुक्ति का एक ही तरीका था कि कैरन खुद ही उसे छोड़कर कहीं चली जाए। लेकिन वह जाती नहीं थी। बहुत सोच-विचार के बाद उसने एक अन्य तरीका सोचा कि यह विवाह ही रद्द कर दिया जाए। बाइबिल में से उसने यह बात खोजी थी कि कैथोलिक धर्म में तलाक नहीं है, पर विवाह कैंसिल किया जा सकता है। जहाँ विवाह में कोई धोखा हो, वहाँ विवाह को खत्म किया जा सकता है। शौन इसी नुक्ते को लेकर विवाह कैंसिल करवाने के चक्कर में था। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि कैरन ने सिर्फ़ पासपोर्ट लेने की खातिर उससे विवाह करवाया है, सिर्फ़ ब्रतानिया में टिकने के लिए। उसने फादर जोय को इस बाबत यकीन दिलाने का यत्न किया, पर असफल रहा। अब वह फादर जोह्नसन से मिलकर इस बारे में बात करना चाहता था। फादर जोह्ननसन बहुत प्रसिद्ध पादरी था। उसकी राय को बड़े-बड़े लोग मानते थे। फादर जोय ने तो मानना ही था। फादर जोह्नसन मशहूर पादरी सेंट पैटरिक के खानदान में से था। यह वही सेंट पैटरिक था जिसने आयरलैंड में से साँप भगाये थे और आयरिश लोग जिसका दिन हर वर्ष बहुत धूमधाम से मनाते थे। फादर जोह्नसन धार्मिक व्याख्या में एक अथॉरिटी था।
शौन तैयार होकर वॉटरफोर्ड के रास्ते होता हुआ डबलिन पहुँच गया। उसने फादर जोह्नसन से चिट्ठी लिखकर पहले ही समय ले रखा था। समय सुनिश्चित नहीं था कि किस दिन और कितने बजे मिलना है। फादर जोह्नसन ने लिखा था कि ये दो हफ्ते वह लोकल स्टेशन पर ही होगा, वह जब चाहे आ जाए। वह रास्ते भर उन्हीं बातों को और उन्हीं नुक्तों को दोहराता रहा, जिन्हें उसे फादर जोह्नसन के सम्मुख रखना था। उसने पूरी तैयारी की हुई थी।
वह डबलिन के मेन चर्च में पहुँचा तो पता चला कि फादर बाहर गया हुआ था, शाम तक लौटेगा। शौन अपने आने की सूचना एक नोट लिखकर छोड़ आया और पुन: आने की संभावित तारीख भी।
वापस लौटते हुए जहाँ उसे वक्त के व्यर्थ जाने का दुख था, वहीं कुछ राहत भी थी कि अच्छा हुआ, फादर जोह्नसन नहीं मिला। वह बहस-मुबाहसे से बच गया। वह जानता था कि विवाह कैंसिल करवाना इतना सरल नहीं था। इस नुक्ते पर उसने कभी कोई विवाह कैंसिल होते नहीं देखा था। फिर भी, बाइबिल में से लिए ये नुक्ते उसे वजनदार प्रतीत होते थे। वैलज़ी के करीब आया तो वह बलदेव के बारे में सोचने लगा कि इस वक्त तो वह मैथ्यू के संग किसी पब में ही होगा।
बलदेव और मैथ्यू कौर्क गए। ‘बलारनी स्टोन’ को उन्होंने चूमा और वापस लौट आए। बलदेव ने इस स्टोन को जीभ लगाने की कथा सुनी हुई थी, पर यह नहीं मालूम था कि इतनी मुश्किल से जीभ लगेगी या चुम्बन लेना संभव हो सकेगा। किसी लम्बी चारपाई के नीचे लेट कर आगे बढ़ो तो चूमो। पर लोग दूर-दूर से आ रहे थे। पत्थर चूमनेवालों की लाइन लगी हुई थी। उसने मैथ्यू से कहा–
“मैथ्यू, बलारनी ब्वॉय बनना इतना सरल नहीं।”
वे दोनों कौर्क से लौटते समय राह में कई पबों में रुकते आए थे और दोपहर तक ज़ोज़ी के पास पहुँच गए। कौर्क नज़दीक ही था। एक घंटा आने में और एक घंटा जाने में। ज़ोज़ी के पास जाने से पहले मैथ्यू उसे कहीं दूसरी और ले चला था। सड़क किनारे एक झुग्गी के समीप कार खड़ी करते हुए पूछने लगा–
“तू क्रिक ग्रेन को जानता है ?”
“नहीं।”
“हैनरी ग्रेन को, जो शौन का खास दोस्त है, बहुत अमीर है।”
“हाँ, हैनरी ग्रेन जिसकी कपड़े की बहुत बड़ी फैक्ट्री है।”
“हाँ, क्रिक ग्रेन उसका बाप है और यह हट उसी की है।”
“पर यह तो बहुत साधारण दीखती है।”
“हाँ, यह अपने बेटे से नाराज हो गया और राह में यह हट डालकर बैठ गया, समाज में उसकी बेइज्जती करने के लिए कि बेटा इतना अमीर है और बाप इस छोटी-सी हट में रह रहा है।”
“नाराज हो गया ? किस बात पर ?”
“हैनरी ने अपनी मर्जी से विवाह करवा लिया था।”
बलदेव मन ही मन हँसा कि ये लोग आयरिश नहीं, निरे पंजाबी ही हैं। छोटा-सा कमरा था। ऊपर सरकण्डों की मोटी छत और ठिगनी-सी दीवारें। क्रिक ग्रेन उन्हें प्यार से मिला। मैथ्यू ने जब बताया कि यह शौन का दोस्त है और लंडन से आया है तो वह और भी खुश हो गया और गीनस की बोतलें उन्हें पेश कीं।
ज़ोज़ी के पब में उसकी स्थानीय लोगों से बातचीत हुई। शौन के दोस्त भी आ गए। शाम की महफिल हैनरी ग्रेन ने अपने घर में रख ली। वहाँ करीब पंद्रह मित्र एकत्र हो गए। हँसी-मजाक चलता रहा। सभी उससे मोह जता रहे थे। बहुत से लतीफ़े बलदेव की समझ में नहीं आ रहे थे। एक तो मुहावरा गहरा आयरिश था और दूसरी बात यह कि लतीफ़े उसे क्लिक भी न करते। फिर, वहीं शौन भी आ गया। पहले वह पब गया था– ज़ोज़ी वाले। वहीं से पता चला कि महफिल यहाँ लगी थी। शौन आते ही पादरियों से जुड़े लतीफ़े सुनाने लगा।
शौन ने बलदेव को अधिकांश आयरलैंड घुमा दिया था। आयरलैंड देखने में इंग्लैंड या स्कॉटलैंड जैसा ही था। कुछेक बातें भिन्न नज़र आती थीं। गोरों के राज की कई निशानियाँ अभी भी कायम थीं। हो सकता था कि उन्हें जानबूझ कर यूँ ही रहने दिया गया हो। उसे हैरानी काउंटी गैलवे जाकर हुई जहाँ कि गेयलिक बोली जाती थी। वह हैरान था यह जानकर कि अंग्रेजी पूरी आयरिश जुबान को खा गई और गेयलिक एक कोने में कैसे बची रही।
एक दिन शौन ने पूछा–
“डेव, आयरलैंड कैसा लगा ?”
“बहुत बढि़या। सच बात तो यह है कि मैं यहाँ आना नहीं चाहता था और अब वापस नहीं जाना चाहता। लोग बहुत ही मिलनसार और प्यारे हैं।”
“फिर एक बात कहूँ ?”
“कह।”
“क्यों न यहीं बस जाएं। तू भी सिमरन से भाग रहा है और मैं कैरन से... वापस लंदन लौटकर क्या करेंगे। सोच कर देख।”
“यहाँ क्या करेंगे ?”
“बिजनेस करेंगे। पंद्रह हज़ार तेरे पास है और पंद्रह हज़ार मेरे पास। बहुत हैं कारोबार शुरू करने के लिए।”
बलदेव चुप हो गया। पिछले साल उन दोनों ने मिलकर अमेरिकन शेयर खरीदे थे। शेयरों की कीमत एकदम बढ़ गई थी और उन्हें पंद्रह-पंद्रह हज़ार पौंड मिल गए थे।

अगले दिन शौन उसे एस्टेट एजेंटों के पास ले गया। सम्प​त्तियाँ बहुत सस्ती थीं। लंदन के मुकाबले तो बहुत ही सस्ती। कई बार तो उसका जी ललचाने लगता। उन्होंने सौ एकड़ का एक फॉर्म देखा। उसमें पचास एकड़ का एक खेत बिलकुल समतल था, पंजाब के खेतों जैसा। उसे देखकर तो एक बार उसके अन्दर का किसान उछलकूद मचाने लग पड़ा था। फिर उसने सोचा कि नहीं, उसके रहने के लिए यहाँ कुछ भी नहीं था। और लंदन में बहुत कुछ था। वहाँ थेम्ज़ थी, वहाँ गुरां थी।

शौन एक दिन फिर बहाना बनाकर डबलिन में फादर जोह्नसन से मिलने चला गया। लम्बा चोगा पहने और सिर पर टोपी लगाए पादरी चर्च के बगीचे में घूम रहा था। शौन ने उसे पहचान लिया।
उसने उसकी तस्वीर देख रखी थी। उसने पादरी का हाथ थाम कर चूमा। पादरी उसे अन्दर अपने कमरे में ले गया। शौन ने कहा–
“फादर, मैं एक संकट में फंस गया हूँ। आपकी सलाह और मदद लेने आया हूँ।”
“हाँ, मैंने तेरी चिट्ठी में पढ़ा था। मुझे अफसोस है कि उस दिन हम नहीं मिल सके।”
“यह कोई बड़ी बात नहीं, पर अब मेरी मदद करो।”
“ज़रूर करूँगा। वैसे मैं तेरे दादा को जानता था। तेरे बाप को भी एक बार मिला था। तेरे दादा की बहुत धूम थी, बहुत ही समर्पित आदमी था, देश के लिए और मनुष्यता के लिए।”
“जी हाँ, पर मेरे जन्म से पहले ही इस दुनिया से चले गए।”
“आमीन ! यही तो चीज़ है, जिस पर किसी का वश नहीं है। हाँ, हम अपनी बात की ओर लौटते हैं। क्या मसला है तेरा ?”
“किसी विदेशी औरत ने मुझे विवाह में फंसा लिया।”
“तू कैसे कह सकता है कि उसने तुझे फंसा लिया ?”
“उसने विवाह के समय बहुत सारा झूठ बोला, वह क्रिश्चियन भी नहीं थी।”
“क्रिश्चियन न होना तो बड़ा गुनाह नहीं, गुनाह है क्रिश्चियन होकर सच्चे क्रिश्चियन का न होना।”
“ठीक है फादर, उसने विवाह सिर्फ़ पासपोर्ट लेने के लिए करवाया, इन देशों में टिकने के लिए। नहीं तो वह विवाह नहीं चाहती थी।”
“हाँ, यह बात तो सोचने वाली है।”
“फादर, अब बताओ कि मैं इस गलती को कैसे सुधार सकता हूँ।”
“पर यह गलती तेरी तो नहीं हुई, उसकी हुई।”
“पर फंस तो मैं गया न विवाह के बंधन में। मुझे इससे मुक्त करो।”
“विवाह किसने करवाया था ?”
“फादर जोय ने, क्रिकलवुड लंदन के मेन चर्च...।”
“फादर जोय से बात की थी ?”
“जी हाँ, वह कई बातों में स्पष्ट नहीं थे।”
“ठीक है... कितना समय हो गया विवाह हुए को ?”
“दो साल से ऊपर हो गए।”
“कोई बच्चा तो नहीं ?”
“जी, एक बच्ची है साल भर की।”
“यह बच्ची रजामंदी से थी ?”
शौन कोई जवाब न दे सका। फादर ने फिर पूछा–
“उसने कभी बच्ची से निजात पाने की कोशिश तो नहीं की ?”
शौन ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया। फादर जोह्नसन कुछ देर सोचता रहा और फिर कहने लगा–
“भाई शौन मरफी, यह बहुत गम्भीर मसला है। दोनों पक्षों की बात सुनकर ही फैसला हो सकता है। मेरी सलाह है कि तू वापस घर जा और सच्चे क्रिश्चियन की तरह अपने फर्ज़ निभा। मैं फादर जोय को चिट्ठी लिखूँगा और सारे हालात जानकर ही सलाह देने के काबिल होऊँगा। इस वक्त मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकता। फिर भी, अगर ज़रूरत पड़े तो हिचकिचाना नहीं, सीधा मेरे पास आ जाना…
(क्रमश: जारी…)

लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393
07782-265726(मोबाइल)
ई-मेल : harjeetatwal@yahoo.co.uk

अनुरोध

गवाक्ष” में उन सभी प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं का स्वागत है जो अपने वतन हिंदुस्तान की मिट्टी से कोसों दूर बैठ अपने समय और समाज के यथार्थ को हिंदी अथवा पंजाबी भाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से रेखांकित कर रहे हैं। रचनाएं ‘कृतिदेव’ अथवा ‘शुषा’ फोन्ट में हों या फिर यूनीकोड में। रचना के साथ अपना परिचय, फोटो, पूरा पता, टेलीफोन नंबर और ई-मेल आई डी भी भेजें। रचनाएं ई-मेल से भेजने के लिए हमारा ई-मेल आई डी है- gavaaksh@gmail.com

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सभी कुछ बहुत उम्दा---खास नजर:

प्रवासी का प्रश्न

-वाह!!! जबरदस्त!!

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

'जल सतह
होता है मन'

भाई सुभाष, इला जी की कविताओं ने अपनी सादगी और ताजगी के कारण अत्यधिक प्रभावित किया।
गवाक्ष की उपलब्धि और हिन्दी पाठकों को उपलब्ध करवाने के लिए तुम्हे धन्यवाद।

चन्देल

Mamta Swaroop Sharan ने कहा…

Very sweet and very simple... yet quite meaningful... enjoyed all the poems by Ila!

:-)