“गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले दस अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की पाँच ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की आठ किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के दिसंबर,2008 अंक में प्रस्तुत हैं – यू एस ए में रह रहे हिंदी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की नौंवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…
यू.एस.ए से वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता-
कौन सी महफिलों में जाओगे
यू.एस.ए से वेद प्रकाश ‘वटुक’ की कविता-
कौन सी महफिलों में जाओगे
कौन सी महफिलों में जाओगे
दर्द अपना किसे सुनाओगे
मौन मानव के साथ धोखा है
सच कहोगे, तो मारे जाओगे
ज़हर सुकरात को पिलायेंगे
सूली ईसा को वे चढ़ायेंगे
कातिलों का भी फलसफा तो है
कत्ल करके मसीह बनायेंगे
बस मुखौटे ही चन्द बदले हैं
केंचुली के ही रंग बदले हैं
सांप, फन, ज़हर कुछ नहीं बदले
काटने के ही ढंग बदले हैं
वही सब ग़ज़नवी अन्दाज होगा
वतन के लूटने का काज होगा
शहीदों ने कभी सोचा नहीं था
उन्हीं के क़ातिलों का राज होगा
खुदी के सांप खुद को छल रहे हैं
घर अपने ही दियों से जल रहे हैं
बचाये आज किस को कौन किससे
यहां तो सांप घर-घर पल रहे हैं
हमारी ही वफा के पेचोखम हैं
हमारे ही किये खुद पर सितम हैं
हमीं ने दूध था इनको पिलाया कि
जिन सांपों के काटे आज हम हैं।
00
धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 9)
सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। चैदह ।।
गुरिंदर को इंग्लैंड आने की इतनी खुशी नहीं थी, क्योंकि उसका आधा हिस्सा तो बलदेव के पास ही रह गया था। अजमेर का स्वभाव यद्यपि कुछ रूखा था पर वह उसे बेहद प्यार करता था। सतनाम भी उनके साथ ही रहता था। सतनाम की आदत उसे बहुत पसंद थी, हर समय दिल लगाये रखता।
इंग्लैंड पहुँचकर सबसे बड़ी उसकी चिंता यह थी कि उसे मैंसिज नहीं हुई थी। तारीखें निकल चुकी थीं, तारीखों के हिसाब से तो उसे राह में ही बीमार हो जाना था। उसे भय सताने लगा कि अगर कोई गड़बड़ हो गई तो वह क्या करेगी। वह तो लुट ही जाएगी, कहीं की न रहेगी। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, उसका भय बढ़ता जा रहा था। अकेली बैठी सोच रही होती तो उसे कंपकंपी छूटने लगती। फिर, उसने साहस करके फैसला किया कि वह सब कुछ सच-सच अजमेर को बता देगी। जो होना है, हो जाए। वह वापस चली जाएगी। अगर उसे बलदेव भी नहीं रखेगा, न सही, वह फिर से अपनी पढ़ाई शुरू कर देगी। इस बच्चे के सहारे ज़िंदगी काट लेगी। फिर उसने सोचा कि कुछ दिनों की गड़बड़ तो वह कर ही सकती थी। इतनी छूट तो कुदरत ने औरत को दे ही रखी थी। उसने अजमेर से कहा-
“जी, मेरी तो डेट्स निकल चुकी हैं।”
“इतनी जल्दी, अभी तो दस दिन भी नहीं हुए तुझे आई को।”
“जी, मुझे नहीं पता, कुछ करो, मुझे अभी बच्चा नहीं चाहिए।”
कह कर वह रोने लगी। उसकी हालत देखकर अजमेर बोला-
“पर मुझे तो चाहिए, जो भी बेबी आता है, आने दे। यह तो कोई ज्यादा ही उतावला लगता है, इतने उतावले को नहीं रोका करते।”
गुरिंदर का तीर चल गया था, पर जब तक शैरन का जन्म नहीं हुआ, तब तक उसके मन में धुकधुकी लगी रही थी। उसके जन्म लेने तक वह भयमुक्त न हो सकी। इस भय से बाहर आने के बाद ही उसे शैरन की आँखें बलदेव जैसी लगने लगी थीं। बलदेव की भांति शैरन का मुँह भी हँसते समय थोड़ा टेढ़ा हो जाता था। उसे बलदेव की याद आने लगती। घर में बलदेव की बातें होती रहती थीं। पहले उसने उसकी किसी बात में हिस्सा नहीं लिया था, पर अब वह विशेषतौर पर कहती कि उसका भी कुछ करो, कहीं वह गाँव लायक भी न रहे।
जब तक सतनाम का विवाह नहीं हुआ था, वह उनके साथ ही फर्न पार्क वाले घर में रहा। मनजीत के आ जाने पर भी वह कुछ दिन रहा, फिर उसने अपना अलग घर ले लिया था। घर में अप्रत्यक्ष रूप से उसके और मनजीत के मध्य एक प्रतिस्पर्धा-सी बनी रहती, पर वह मनजीत से बहुत आगे थी। सुंदरता में भी, घर के काम में भी। लेकिन जब मनजीत काम पर जाने लग पड़ी तो उसे लगने लगा कि मानो वह अब उससे आगे निकल हो। वह भी नौकरी करना चाहती थी। अजमेर से वह अपनी इच्छा व्यक्त करती तो वह उसे झिड़क बिठा देता।
अजमेर का स्वभाव ऐसा था कि वह उसे प्यार भी करता था और इज्जत उतारने में भी एक मिनट नहीं लगाता था। कई बार बैठा-खड़ा भी न देखता। सतनाम कहा करता-
“जटिये ! प्रेम चोपड़ा की आदत डाल ले। इसे यह सोचने की आदत है कि मेरा नाम है प्रेम चोपड़ा... बस, इसकी बड़ाई करती रहा कर।”
वह बड़ाई भी करती, पर अजमेर फिर भी गुस्से में आकर कुछ न कुछ बोल जाता। गालियाँ तक बक जाता। उसका मन उदास होने लगता। उसे बलदेव की याद तड़फाने लगती। वह सोचती कि काश, वह यहाँ होता।
जब से सतनाम ने अपना घर लिया था, तब से भाइयों के बीच भातृत्व प्रेम कम होने लगा था। वे एक दूसरे के शरीक बनते जा रहे थे। बात बात में प्रतिस्पर्धा होने लगी। पहले तो पत्नियों में ही प्रतिस्पर्धा थी, फिर घर को लेकर होने लगी। सतनाम ने घर ज़रा बड़ा और मंहगी सड़क पर खरीदा तो अजमेर से सहा न गया। वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहा था। सतनाम अजमेर से इस बात से भी कुछ गुस्सा था कि सोहन सिंह की तनख्वाह वही संभालता था। सोहन सिंह बर्मिंघम में अपने किसी गांववाले के पास रहा करता था और फैक्टरी में काम करता था। सतनाम कई बार बातों बातों में सुना जाता। अजमेर बहुत चिढ़ता। उसने ही सोहन सिंह को निर्भर बनाकर बुलाया था। सतनाम को भी उसने ही इधर स्थायी करवाया था, पर उसे सतनाम अकृतज्ञ लगने लगा था।
अजमेर इंडिया में रहते अपने भाइयों को पैसे भेजता। बहन के रस्म-रिवाज पूरे करता। किसी ग्रामीण के यहाँ कुछ होता तो पहुँचता। इस बात से उसे तसल्ली होती थी और इसी कारण उसकी अपने गांववालों में विशेष जगह बनी हुई थी। मिडलैंड में तो उसके गांव पंडोरी के बहुत से लोग रहते थे। उसका सभी के यहाँ आना-जाना था।
मिडलैंड में रह रहे उसके गांव के किसी व्यक्ति ने बलदेव के बारे में रिश्ते की बात की थी। अजमेर खुश था। वह सोचता कि सतनाम अब बदल गया था, उसके सारे अहसान वह भूल चुका था, पर बलदेव ऐसा नहीं लगता था। वह इंडिया जाता तो बलदेव उसे बड़े प्यार से मिलता, इज्ज़त भी पूरी करता। वह सतनाम से भिन्न था। भविष्य में यहाँ आकर बिजनेस में उसकी मदद कर सकता था। ऐसी ही बातें सोचते हुए वह इस रिश्ते के पीछे पड़ गया। लड़कीवाले ग्रेवजैंड में रहते थे। लड़की का बाप निर्मल सिंह अजमेर के गांव निवासी सरबण का खास दोस्त था। रिश्ता हो गया। बलदेव इंग्लैंड पहुँच रहा था।
जैसे बहती हुई नदी में मिट्टी का तोंदा गिर जाए तो उसकी गति में अन्तर आ जाता है, ऐसे ही गुरिंदर के साथ हुआ। उसकी ज़िंदगी की रफ़्तार में फर्क पड़ गया। बलदेव की प्रतीक्षा करती कभी वह बहुत उत्तेजित हो जाती तो कभी डरने भी लगती कि इस अच्छी-भली ज़िंदगी में कहीं कोई खलल ही न पैदा हो जाए। जिस दिन बलदेव ने पहुँचना था, वह घर की खिड़की में खड़ी होकर अजमेर की कार को जाते हुए देखती रही मानो वे अभी ही लौट आएंगे। सड़क के मोड़ पर उनका घर हुआ करता था जहाँ से पूरी की पूरी सड़क दिखाई देती थी। दूर से आती हुई कार दिखलाई दे जाती। वह घर के काम से फुर्सत पाकर खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बलदेव के पहुँचते ही अजमेर ने एअरपोर्ट से फोन कर दिया था। बहुत लम्बे इंतज़ार के बाद लाल रंग की कौरटीना आती दिखाई दी। उसका दिल धड़क उठा। उसने दिल पर हाथ रखकर उसे काबू में करने की कोशिश की। दरवाजा खुलने की आवाज सुनी, पर वह ज्यों की त्यों खड़ी रही। फिर तीनों भाई बातें करते हुए अन्दर आ गए। खिड़की से गुरिंदर ने बलदेव को देख लिया था। वह बदला-बदला-सा प्रतीत हो रहा था।
बलदेव ने गुरिंदर की ओर देखा और कुछ पल देखता रहा और फिर ‘सत्श्रीअकाल’ कहा। गुरिंदर ने सिर हिलाकर ही जवाब दिया। वे सैटी पर बैठने लगे। गुरिंदर ने पूछा-
“चाय रखूँ ?”
“जट्टिये ! चाय रहने दे, हमें पानी और गिलास ला दे।”
“नहीं गुरां, मुझे तो चाय ही बना दे।”
गुरिंदर की देह में एक लहर दौड़ गई। इतने साल हो गये उसे किसी ने गुरां नाम से नहीं बुलाया था। सतनाम कहने लगा-
“वहाँ तो तेरे ससुराल वाले थे, मैंने कुछ नहीं कहा, पर यहाँ चाय-वाय नहीं मिलेगी, सीधी तरह लाइन पर आ जा, चाहे थोड़ी ही पी।”
गुरिंदर कॉफी टेबुल पर गिलास रखती हुई बोली-
“अगर वह नहीं पीना चाहता तो रहने दो, पिलाना कोई ज़रूरी है !”
“अगर यह पियेगा नहीं तो हमारा भाई कहाँ से लगेगा। अगर इसने न पी तो यह हमारा गांववाला भी नहीं लगेगा, भाई तो दूर की बात है।”
गिलासों में पैग बनाता वह बलदेव को बताने लगा-
“मिडलैंड में एक बात मशहूर है। कोई शराबी राह में गिरा पड़ा हो तो गुजरने वाला कह देता है कि पंडोरी का होगा।”
वे सभी हँसने लगे। अजमेर के पास करने के लिए अधिक बातें नहीं हुआ करती थीं, वह इस तरह सुनने का ही आनन्द लेता। सतनाम गुरिंदर को बताने लगा-
“जट्टिये ! मैंने तो तेरे देवर को पहचाना ही नहीं था। इतने बरस हो गए इसे देखे हुए को। जब मैं घर से चला था तो इसके अभी दाढ़ी भी नहीं फूटी थी। और अब जब यह चला आ रहा था, भाई ने ही इशारा किया कि वह आ गया। मैंने सोचा, यह तो गुलजार आ रहा है, वैसी ही ऐनक, हल्की-सी मूंछें और सफाचट दाढ़ी।”
गुरिंदर हँसने लगी। बलदेव का यह रूप उसे पराया-सा लगा था। उसने पूछा-
“ऐनक कब लग गई ? निगाह कमजोर हो गई ?”
“नहीं गुरां, निगाह ठीक है, सिर दुखता रहता था, डॉक्टर ने कहा कि लगाकर देख। जब से लगाई है, तब से ठीक है।”
फिर वे कितनी ही देर बैठकर गांव की, शिंदे की, उसकी पत्नी और बच्चों की बातें करते रहे। अजमेर उसके विवाह की तैयारी के बारे में बता रहा था कि वह अपने सभी गांववालों को बरात में ले कर जाएगा।
बलदेव की गुरिंदर से अधिक बात न हो सकी। उन्हें अकेले में बात करने का अवसर तीसरे दिन जाकर मिला, जब अजमेर काम पर चला गया। बच्चे अभी सोये हुए थे। बलदेव उसके सामने खड़े होकर बोला-
“हाँ, अब बता, क्या कहना चाहती है ?”
“तू बता, तू क्या कहना चाहता है ? हर समय चोरी-चोरी मेरी ओर झांकता रहता है।” कह कर वह मुस्कराई।
बलदेव कुछ पल के लिए चुप्पी लगा गया और फिर उसकी आँखों में गहरे झांकते हुए बोला-
“गुरां, मैं तुझे खुश देखकर बहुत खुश हूँ। मुझे तेरी बहुत फिक्र थी। मैं तेरे बारे में इतना सोचता रहता था कि मुझे बुरे-बुरे सपने आने लगते। मैं सोचा करता कि तू ठीक हो।”
“अगर मुझे कुछ हो गया होता तो तुझे पता लग ही जाता।”
“मुझे तेरी बाहरी खबर ही मिलती, तेरे अन्दर की खबर का क्या पता चलता।”
“हाँ, बलदेव, अन्दर बहुत कुछ घटित हुआ। मैं कई बार मर कर जिंदा हुई हूँ, कह ले कि पुनर्जन्म हुआ है। अगर बात इधर-उधर हो जाती तो मेरी लाश ही मिलती।”
“क्यों, क्या हुआ ?”
“मैंने तुझे तब बहुत रोका था, पर तू रुका ही नहीं और मुझे तूने मुसीबत में फंसा दिया।”
“क्या मतलब तेरा ?”
“गर्भ ठहर गया था।”
“रियली !”
“और नहीं तो क्या... मैं तो मर ही गई थी।”
“फिर ?”
“फिर क्या !... मैंने रब के आगे कितनी ही अरदासें कीं कि हे रब्बा, एकबार बख्श दे, दुबारा बलदेव का मुँह नहीं देखूँगी।”
कह कर गुरिंदर हँसी। बलदेव ने कहा-
“लगता है, रब ने सुन ली, नहीं तो ये हँसी नहीं निकलती।”
“हाँ, बलदेव, सच ही सुनी गई... शैरन का वेट ज्यादा होने के कारण कई दिन ऊपर जाकर इसका जन्म हुआ और इस तरह कवर हो गया।”
“तो शैरन...?”
“हाँ...।”
तब तक तीनेक साल की शैरन उठ आई। बलदेव ने उसे उठाकर गले से लगा लिया।
(क्रमश: जारी…)
00
धारावाहिक पंजाबी उपन्यास(किस्त- 9)
सवारी
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। चैदह ।।
गुरिंदर को इंग्लैंड आने की इतनी खुशी नहीं थी, क्योंकि उसका आधा हिस्सा तो बलदेव के पास ही रह गया था। अजमेर का स्वभाव यद्यपि कुछ रूखा था पर वह उसे बेहद प्यार करता था। सतनाम भी उनके साथ ही रहता था। सतनाम की आदत उसे बहुत पसंद थी, हर समय दिल लगाये रखता।
इंग्लैंड पहुँचकर सबसे बड़ी उसकी चिंता यह थी कि उसे मैंसिज नहीं हुई थी। तारीखें निकल चुकी थीं, तारीखों के हिसाब से तो उसे राह में ही बीमार हो जाना था। उसे भय सताने लगा कि अगर कोई गड़बड़ हो गई तो वह क्या करेगी। वह तो लुट ही जाएगी, कहीं की न रहेगी। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, उसका भय बढ़ता जा रहा था। अकेली बैठी सोच रही होती तो उसे कंपकंपी छूटने लगती। फिर, उसने साहस करके फैसला किया कि वह सब कुछ सच-सच अजमेर को बता देगी। जो होना है, हो जाए। वह वापस चली जाएगी। अगर उसे बलदेव भी नहीं रखेगा, न सही, वह फिर से अपनी पढ़ाई शुरू कर देगी। इस बच्चे के सहारे ज़िंदगी काट लेगी। फिर उसने सोचा कि कुछ दिनों की गड़बड़ तो वह कर ही सकती थी। इतनी छूट तो कुदरत ने औरत को दे ही रखी थी। उसने अजमेर से कहा-
“जी, मेरी तो डेट्स निकल चुकी हैं।”
“इतनी जल्दी, अभी तो दस दिन भी नहीं हुए तुझे आई को।”
“जी, मुझे नहीं पता, कुछ करो, मुझे अभी बच्चा नहीं चाहिए।”
कह कर वह रोने लगी। उसकी हालत देखकर अजमेर बोला-
“पर मुझे तो चाहिए, जो भी बेबी आता है, आने दे। यह तो कोई ज्यादा ही उतावला लगता है, इतने उतावले को नहीं रोका करते।”
गुरिंदर का तीर चल गया था, पर जब तक शैरन का जन्म नहीं हुआ, तब तक उसके मन में धुकधुकी लगी रही थी। उसके जन्म लेने तक वह भयमुक्त न हो सकी। इस भय से बाहर आने के बाद ही उसे शैरन की आँखें बलदेव जैसी लगने लगी थीं। बलदेव की भांति शैरन का मुँह भी हँसते समय थोड़ा टेढ़ा हो जाता था। उसे बलदेव की याद आने लगती। घर में बलदेव की बातें होती रहती थीं। पहले उसने उसकी किसी बात में हिस्सा नहीं लिया था, पर अब वह विशेषतौर पर कहती कि उसका भी कुछ करो, कहीं वह गाँव लायक भी न रहे।
जब तक सतनाम का विवाह नहीं हुआ था, वह उनके साथ ही फर्न पार्क वाले घर में रहा। मनजीत के आ जाने पर भी वह कुछ दिन रहा, फिर उसने अपना अलग घर ले लिया था। घर में अप्रत्यक्ष रूप से उसके और मनजीत के मध्य एक प्रतिस्पर्धा-सी बनी रहती, पर वह मनजीत से बहुत आगे थी। सुंदरता में भी, घर के काम में भी। लेकिन जब मनजीत काम पर जाने लग पड़ी तो उसे लगने लगा कि मानो वह अब उससे आगे निकल हो। वह भी नौकरी करना चाहती थी। अजमेर से वह अपनी इच्छा व्यक्त करती तो वह उसे झिड़क बिठा देता।
अजमेर का स्वभाव ऐसा था कि वह उसे प्यार भी करता था और इज्जत उतारने में भी एक मिनट नहीं लगाता था। कई बार बैठा-खड़ा भी न देखता। सतनाम कहा करता-
“जटिये ! प्रेम चोपड़ा की आदत डाल ले। इसे यह सोचने की आदत है कि मेरा नाम है प्रेम चोपड़ा... बस, इसकी बड़ाई करती रहा कर।”
वह बड़ाई भी करती, पर अजमेर फिर भी गुस्से में आकर कुछ न कुछ बोल जाता। गालियाँ तक बक जाता। उसका मन उदास होने लगता। उसे बलदेव की याद तड़फाने लगती। वह सोचती कि काश, वह यहाँ होता।
जब से सतनाम ने अपना घर लिया था, तब से भाइयों के बीच भातृत्व प्रेम कम होने लगा था। वे एक दूसरे के शरीक बनते जा रहे थे। बात बात में प्रतिस्पर्धा होने लगी। पहले तो पत्नियों में ही प्रतिस्पर्धा थी, फिर घर को लेकर होने लगी। सतनाम ने घर ज़रा बड़ा और मंहगी सड़क पर खरीदा तो अजमेर से सहा न गया। वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहा था। सतनाम अजमेर से इस बात से भी कुछ गुस्सा था कि सोहन सिंह की तनख्वाह वही संभालता था। सोहन सिंह बर्मिंघम में अपने किसी गांववाले के पास रहा करता था और फैक्टरी में काम करता था। सतनाम कई बार बातों बातों में सुना जाता। अजमेर बहुत चिढ़ता। उसने ही सोहन सिंह को निर्भर बनाकर बुलाया था। सतनाम को भी उसने ही इधर स्थायी करवाया था, पर उसे सतनाम अकृतज्ञ लगने लगा था।
अजमेर इंडिया में रहते अपने भाइयों को पैसे भेजता। बहन के रस्म-रिवाज पूरे करता। किसी ग्रामीण के यहाँ कुछ होता तो पहुँचता। इस बात से उसे तसल्ली होती थी और इसी कारण उसकी अपने गांववालों में विशेष जगह बनी हुई थी। मिडलैंड में तो उसके गांव पंडोरी के बहुत से लोग रहते थे। उसका सभी के यहाँ आना-जाना था।
मिडलैंड में रह रहे उसके गांव के किसी व्यक्ति ने बलदेव के बारे में रिश्ते की बात की थी। अजमेर खुश था। वह सोचता कि सतनाम अब बदल गया था, उसके सारे अहसान वह भूल चुका था, पर बलदेव ऐसा नहीं लगता था। वह इंडिया जाता तो बलदेव उसे बड़े प्यार से मिलता, इज्ज़त भी पूरी करता। वह सतनाम से भिन्न था। भविष्य में यहाँ आकर बिजनेस में उसकी मदद कर सकता था। ऐसी ही बातें सोचते हुए वह इस रिश्ते के पीछे पड़ गया। लड़कीवाले ग्रेवजैंड में रहते थे। लड़की का बाप निर्मल सिंह अजमेर के गांव निवासी सरबण का खास दोस्त था। रिश्ता हो गया। बलदेव इंग्लैंड पहुँच रहा था।
जैसे बहती हुई नदी में मिट्टी का तोंदा गिर जाए तो उसकी गति में अन्तर आ जाता है, ऐसे ही गुरिंदर के साथ हुआ। उसकी ज़िंदगी की रफ़्तार में फर्क पड़ गया। बलदेव की प्रतीक्षा करती कभी वह बहुत उत्तेजित हो जाती तो कभी डरने भी लगती कि इस अच्छी-भली ज़िंदगी में कहीं कोई खलल ही न पैदा हो जाए। जिस दिन बलदेव ने पहुँचना था, वह घर की खिड़की में खड़ी होकर अजमेर की कार को जाते हुए देखती रही मानो वे अभी ही लौट आएंगे। सड़क के मोड़ पर उनका घर हुआ करता था जहाँ से पूरी की पूरी सड़क दिखाई देती थी। दूर से आती हुई कार दिखलाई दे जाती। वह घर के काम से फुर्सत पाकर खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बलदेव के पहुँचते ही अजमेर ने एअरपोर्ट से फोन कर दिया था। बहुत लम्बे इंतज़ार के बाद लाल रंग की कौरटीना आती दिखाई दी। उसका दिल धड़क उठा। उसने दिल पर हाथ रखकर उसे काबू में करने की कोशिश की। दरवाजा खुलने की आवाज सुनी, पर वह ज्यों की त्यों खड़ी रही। फिर तीनों भाई बातें करते हुए अन्दर आ गए। खिड़की से गुरिंदर ने बलदेव को देख लिया था। वह बदला-बदला-सा प्रतीत हो रहा था।
बलदेव ने गुरिंदर की ओर देखा और कुछ पल देखता रहा और फिर ‘सत्श्रीअकाल’ कहा। गुरिंदर ने सिर हिलाकर ही जवाब दिया। वे सैटी पर बैठने लगे। गुरिंदर ने पूछा-
“चाय रखूँ ?”
“जट्टिये ! चाय रहने दे, हमें पानी और गिलास ला दे।”
“नहीं गुरां, मुझे तो चाय ही बना दे।”
गुरिंदर की देह में एक लहर दौड़ गई। इतने साल हो गये उसे किसी ने गुरां नाम से नहीं बुलाया था। सतनाम कहने लगा-
“वहाँ तो तेरे ससुराल वाले थे, मैंने कुछ नहीं कहा, पर यहाँ चाय-वाय नहीं मिलेगी, सीधी तरह लाइन पर आ जा, चाहे थोड़ी ही पी।”
गुरिंदर कॉफी टेबुल पर गिलास रखती हुई बोली-
“अगर वह नहीं पीना चाहता तो रहने दो, पिलाना कोई ज़रूरी है !”
“अगर यह पियेगा नहीं तो हमारा भाई कहाँ से लगेगा। अगर इसने न पी तो यह हमारा गांववाला भी नहीं लगेगा, भाई तो दूर की बात है।”
गिलासों में पैग बनाता वह बलदेव को बताने लगा-
“मिडलैंड में एक बात मशहूर है। कोई शराबी राह में गिरा पड़ा हो तो गुजरने वाला कह देता है कि पंडोरी का होगा।”
वे सभी हँसने लगे। अजमेर के पास करने के लिए अधिक बातें नहीं हुआ करती थीं, वह इस तरह सुनने का ही आनन्द लेता। सतनाम गुरिंदर को बताने लगा-
“जट्टिये ! मैंने तो तेरे देवर को पहचाना ही नहीं था। इतने बरस हो गए इसे देखे हुए को। जब मैं घर से चला था तो इसके अभी दाढ़ी भी नहीं फूटी थी। और अब जब यह चला आ रहा था, भाई ने ही इशारा किया कि वह आ गया। मैंने सोचा, यह तो गुलजार आ रहा है, वैसी ही ऐनक, हल्की-सी मूंछें और सफाचट दाढ़ी।”
गुरिंदर हँसने लगी। बलदेव का यह रूप उसे पराया-सा लगा था। उसने पूछा-
“ऐनक कब लग गई ? निगाह कमजोर हो गई ?”
“नहीं गुरां, निगाह ठीक है, सिर दुखता रहता था, डॉक्टर ने कहा कि लगाकर देख। जब से लगाई है, तब से ठीक है।”
फिर वे कितनी ही देर बैठकर गांव की, शिंदे की, उसकी पत्नी और बच्चों की बातें करते रहे। अजमेर उसके विवाह की तैयारी के बारे में बता रहा था कि वह अपने सभी गांववालों को बरात में ले कर जाएगा।
बलदेव की गुरिंदर से अधिक बात न हो सकी। उन्हें अकेले में बात करने का अवसर तीसरे दिन जाकर मिला, जब अजमेर काम पर चला गया। बच्चे अभी सोये हुए थे। बलदेव उसके सामने खड़े होकर बोला-
“हाँ, अब बता, क्या कहना चाहती है ?”
“तू बता, तू क्या कहना चाहता है ? हर समय चोरी-चोरी मेरी ओर झांकता रहता है।” कह कर वह मुस्कराई।
बलदेव कुछ पल के लिए चुप्पी लगा गया और फिर उसकी आँखों में गहरे झांकते हुए बोला-
“गुरां, मैं तुझे खुश देखकर बहुत खुश हूँ। मुझे तेरी बहुत फिक्र थी। मैं तेरे बारे में इतना सोचता रहता था कि मुझे बुरे-बुरे सपने आने लगते। मैं सोचा करता कि तू ठीक हो।”
“अगर मुझे कुछ हो गया होता तो तुझे पता लग ही जाता।”
“मुझे तेरी बाहरी खबर ही मिलती, तेरे अन्दर की खबर का क्या पता चलता।”
“हाँ, बलदेव, अन्दर बहुत कुछ घटित हुआ। मैं कई बार मर कर जिंदा हुई हूँ, कह ले कि पुनर्जन्म हुआ है। अगर बात इधर-उधर हो जाती तो मेरी लाश ही मिलती।”
“क्यों, क्या हुआ ?”
“मैंने तुझे तब बहुत रोका था, पर तू रुका ही नहीं और मुझे तूने मुसीबत में फंसा दिया।”
“क्या मतलब तेरा ?”
“गर्भ ठहर गया था।”
“रियली !”
“और नहीं तो क्या... मैं तो मर ही गई थी।”
“फिर ?”
“फिर क्या !... मैंने रब के आगे कितनी ही अरदासें कीं कि हे रब्बा, एकबार बख्श दे, दुबारा बलदेव का मुँह नहीं देखूँगी।”
कह कर गुरिंदर हँसी। बलदेव ने कहा-
“लगता है, रब ने सुन ली, नहीं तो ये हँसी नहीं निकलती।”
“हाँ, बलदेव, सच ही सुनी गई... शैरन का वेट ज्यादा होने के कारण कई दिन ऊपर जाकर इसका जन्म हुआ और इस तरह कवर हो गया।”
“तो शैरन...?”
“हाँ...।”
तब तक तीनेक साल की शैरन उठ आई। बलदेव ने उसे उठाकर गले से लगा लिया।
(क्रमश: जारी…)
लेखक संपर्क :
67, हिल साइड रोड,
साउथहाल, मिडिलसेक्स
इंग्लैंड
दूरभाष : 020-85780393
07782-265726(मोबाइल)
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अनुरोध
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3 टिप्पणियां:
वही सब ग़ज़नवी अन्दाज होगा
वतन के लूटने का काज होगा
शहीदों ने कभी सोचा नहीं था
उन्हीं के क़ातिलों का राज होगा
बहुत बहुत सुंदर और सम्कीलीन यथार्थ का सटीक चित्रण करती कविता मन मुग्ध करती है.
अभी तो जल्दबाजी में समस्त रचनाएँ नही पढ़ पाई हूँ,पर सहेजकर अपने पास रख लिया है.
इतना कहना चाहूंगी की आपका प्रयास सराहनीय है.इसके लिए हम आपके आभारी हैं.
आपका प्रयास सराहनीय है.
भाई सुभाष,
अटवाल का उपन्यास लगातार पढ़ रहा हूं. वटुक की कविता अच्छी लगी.
तुम बहुत काम करते हो . ईर्ष्या होती है.
बधाई.
चन्देल
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