रविवार, 19 जून 2011

गवाक्ष – जून 2011



जनवरी 2008 “गवाक्ष” ब्लॉग के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को विदेशों में रह रहे हिन्दी/पंजाबी के उन लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास करते आ रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर रहकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” में अब तक विशाल (इटली), दिव्या माथुर (लंदन), अनिल जनविजय (मास्को), देवी नागरानी(यू.एस.ए.), तेजेन्द्र शर्मा(लंदन), रचना श्रीवास्तव(लंदन), पूर्णिमा वर्मन(दुबई), इला प्रसाद(यू एस ए), भगत धवन (डेनमार्क), चाँद शुक्ला (डेनमार्क), वेद प्रकाश ‘वटुक’(यू एस ए), रेखा मैत्र (यू एस ए), तनदीप तमन्ना (कनाडा), प्राण शर्मा (यू के), सुखिन्दर (कनाडा), सुरजीत(कनाडा), डॉ सुधा धींगरा(अमेरिका), मिन्नी ग्रेवाल(कनाडा), बलविंदर चहल (न्यूजीलैंड), बलबीर कौर संघेड़ा(कनाडा), शैल अग्रवाल (इंग्लैंड), श्रद्धा जैन (सिंगापुर), डा. सुखपाल(कनाडा), प्रेम मान(यू.एस.ए.), (स्व.) इकबाल अर्पण, सुश्री मीना चोपड़ा (कनाडा), डा. हरदीप कौर संधु(आस्ट्रेलिया), डा. भावना कुँअर(आस्ट्रेलिया), अनुपमा पाठक (स्वीडन), शिवचरण जग्गी कुस्सा(लंदन), जसबीर माहल(कनाडा) आदि की रचनाएं और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की सैंतीसवीं किस्त आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के जून 2011 अंक में प्रस्तुत हैं – अमेरिका से हिंदी कवयित्री मंजु मिश्रा की कविताएँ तथा हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की अड़तीसवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…

कैलिफोर्निया(यू.एस.ए.) से
मंजु मिश्रा की पाँच कविताएँ

परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं

ऊँचाइयों तक उड़ने के लिए
परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं
सपनों का आकाश,
और कल्पनाओं के पंख
कुछ कम तो नहीं
0

टुकड़ा-टुकड़ा सी धूप

ज़िन्दगी किन अजीब राहों से
जाने कब-कब कहाँ से गुजरी है
जैसे कच्चे मकान की छत से,
टुकड़ा-टुकड़ा सी धूप उतरी है
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खुद को पर्वत समझते हैं

कहने दो उन्हें - जो कुछ और कहते हैं,
तुम !
उनसे हज़ार गुना बेहतर हो,
जो, दूसरों के कन्धों को
सीढ़ी बनाकर,
ऊपर चढ़ते हैं,
और फिर
सीना तान कर
खुद को पर्वत समझते हैं।
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मैं

मै,
एक,
रास्ते का मील पत्थर !
जाने कितने,
युग आए, और चले गए
मैं आज भी,
जहाँ जैसा था वैसा ही हूँ स्थिर ।
इस स्थायीत्व की पीड़ा, कोई क्या जानेगा
अपने घर आप प्रवासी बनना कोई क्या जानेगा
हम यहीं खड़े कितना भटके,
बहती नदिया का पानी क्या जानेगा ।
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मै एक पत्ता
मै एक पत्ता ....
शाख पर रहूँ ,
या शाख से अलग
क्या फर्क पड़ता है !
टूटा तो भी सूखा
न टूटता तो भी सूखता
मुझे तो अपनी जड़ से उखाड़ना ही था !
हाँ, अगर किसी किताब के पन्ने मे, दबा होता
तो...
शायद कभी इतिहास की तरह
उल्टा-पुल्टा जाता
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मंजु मिश्रा
जन्म : 28 जून 1959, लखनऊ(उत्तर प्रदेश)।
शिक्षा : एम. ए.(हिन्दी)
सृजन : कविताएँ, हाइकु, क्षणिकाएँ, मुक्तक और ग़ज़ल।
सम्प्रति : व्यापार विकास प्रबंधक, कैलिफोर्निया (यू.एस.ए.)
ब्लॉग : http://manukavya.wordpress.com
ईमेल : manjushishra@gmail.com

13 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

मंजु मिश्रा ने लघुकविताओं में अद्भुत कसावट और आसपास के विषय को बिल्कुल नए रूप में पेश किया है । अनुभव काताप हर रचना में दिखाई देता है ।

ओम निश्‍चल ने कहा…

मंजु मिश्रा की कविताऍ पढीं। अच्‍छी और स्‍वच्‍छ कल्‍पना से उपजी ये कविताऍ मन को छूतीहैं। अमेरिका से हिंदी मे रची रचनाओं से मंजू जी हिंदी के क्षितिज को व्‍यापक विस्‍तृत और समावेशी बना रही हैं,उन्‍हें साधुवाद। और भाई सुभाष जी आप बहुत अच्‍छा काम कर रहे हैं नेट पर स्‍तरीय रचनाऍं उपलब्‍ध करा कर। मेरी बधाई

डॉ.ओम निश्‍चल
फोन-09955774115 एवं 09386551951

ਸੁਰਜੀਤ ने कहा…

All the poems are very nice, Congratulations !

सुधाकल्प ने कहा…

प्रथम और तीसरी कविता का भाव बहुत अच्छा लगा।
जिसने न की हो कल्पना
न संजोये हों सपने
वह क्या जाने आनन्द उड़ान
फिर कर्म का उदगम भी तो
यही है ----यही है।
सुधा भार्गव

भारतेंदु मिश्र ने कहा…

सचमुच कुछ कविताएँ तो सुन्दर हैं।सबसे बडी बात तो यह है कि इन कविताओं मे समकालीन हिन्दी कविता का मुहाबरा साफ दिखता है।मंजु जी को बधाई।

सुनील गज्जाणी ने कहा…

प्रणाम !
सुभाष जी ,
मंजू जी !
मंजू जी कि पांचो कविताएँ एक अलग बिम्ब रखती है . छोटी कविताए मगर पूर्णतः संवाद करती करती है ! बधाई !
सादर !

रंजना ने कहा…

सभी रचनाएं मन को छूने वाली हैं...प्रवास की पीड़ा स्पष्ट दृष्टिगत हो रही है इनमे...

सुखद लगा पढ़ना ...

आभार.

उमेश महादोषी ने कहा…

मंजू जी अच्छे बिम्ब बनाती हैं। पहली तीन कविताएं अत्यंत सहज-सरल हैं, पहली बार पढ़ने में ही प्रभावित करती हैं।

डॅा. व्योम ने कहा…

आप हाइकु कविताएँ भी लिखती हैं यह जानकर खुशी हुई।
www.haikudarpan.blogspot.com
www.haikukosh.blogspot.com

ashok andrey ने कहा…

achchhi kvitaen hain apne aap men bahut kuchh keh jaati main yahi iski visheshta hai badhai.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

ऊँचाइयों तक उड़ने के लिए
परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं
सपनों का आकाश,
और कल्पनाओं के पंख
कुछ कम तो नहीं

अच्छी क्षणिकाएं हैं मंजू जी की ......
चाहें तो 'सरस्वती- सुमन' पत्रिका के लिए भी भेज सकती हैं ....
जो क्षणिका विशेषांक होगा .....

बेनामी ने कहा…

सभी रचनाएँ अच्छी लगी। मैं एक पत्ता... को मैंने कुछ इस तरह बयान किया है

बरगद

पुराने बरगद में भी,
इक नई चाह पैदा हुई,
तब नई पौध,
जड़ सहित नई जगह रोपी गई।

शाखाओं का रूप बदला,
चाल बदली, रंग बदला,
और फिर,
नस्ल ही बदल गई।

अफ़सोस,
अब न वे बरगद की संतान हैं।
न उनकी अपनी कोई
पहचान है।
वंदना मुकेश

बेनामी ने कहा…

सभी आदरणीय पाठकों का आभार.. उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए आप सबका धन्यवाद.

सादर
मंजु