रविवार, 12 अप्रैल 2009

गवाक्ष – अप्रैल 2009


गवाक्ष” के माध्यम से हम हिन्दी ब्लॉग-प्रेमियों को हिन्दी/पंजाबी के उन प्रवासी लेखकों/कवियों की समकालीन रचनाओं से रू-ब-रू करवाने का प्रयास कर रहे हैं जो अपने वतन हिन्दुस्तान से कोसों दूर बैठकर अपने समय और समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहे हैं। “गवाक्ष” के पिछ्ले बारह अंकों में पंजाबी कवि विशाल (इटली) की कविताओं का हिन्दी अनुवाद, दिव्या माथुर (लंदन) की कहानी, अनिल जनविजय (मास्को) की कविताएं, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में रह रहीं देवी नागरानी की ग़ज़लें, लंदन निवासी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा, रचना श्रीवास्तव, दिव्या माथुर की कविताएं, दुबई निवासी पूर्णिमा वर्मन की कविताएं, यू एस ए में रह रहीं हिन्दी कथाकार-कवयित्री इला प्रसाद, डेनमार्क निवासी कवि भगत धवन की कविताएं, डेनमार्क निवासी चाँद शुक्ला की ग़ज़लें, यू एस ए निवासी कवि वेद प्रकाश ‘वटुक’ तथा कवयित्री रेखा मैत्र की कविताएं, कनाडा अवस्थित पंजाबी कवयित्री तनदीप तमन्ना की कविताएं, यू के अवस्थित हिन्दी कवि-ग़ज़लकार प्राण शर्मा की ग़ज़लें और पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के उपन्यास “सवारी” के हिंदी अनुवाद की बारह किस्तें आपने पढ़ीं। “गवाक्ष” के अप्रैल 2009 अंक में प्रस्तुत हैं – हिंदी कथाकार-कवि तेजेन्द्र शर्मा की बहुचर्चित कहानी “कब्र का मुनाफा” तथा पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार हरजीत अटवाल के धारावाहिक पंजाबी उपन्यास “सवारी” की तेरहवीं किस्त का हिंदी अनुवाद…


हिंदी कहानी

कब्र का मुनाफ़ा
तेजेन्द्र शर्मा

''यार कुछ न कुछ तो नया करना ही पड़ेगा। सारी ज़िंदगी नौकरी में गवां चुके हैं। अब और नहीं की जाएगी ये चाकरी'' ख़लील जैदी का चेहरा सिगरेट के धुएं के पीछे धुंधला-सा दिखाई दे रहा है।

नजम जमाल व्हिस्की का हल्का-सा घूंट भरते हुए किसी गहरी सोच में डूबा बैठा है। सवाल दोनों के दिमाग में एक ही है- अब आगे क्या करना है। कौन करे अब यह कुत्ता घसीटी।
ख़लील और नजम ने जीवन के तैंतीस साल अपनी कम्पनी की सेवा में होम कर दिए हैं। दोनों की यारी के किस्से बहुत पुराने हैं। ख़लील शराब नहीं पीता और नजम सिगरेट से परेशान हो जाता है। किन्तु दोनों की आदतें दोनों की दोस्ती के कभी आड़े नहीं आती हैं।
ख़लील जैदी एक युवा अफ़सर बन कर आया था इस कम्पनी में, किन्तु आज उसने अपनी मेहनत और अक्ल से इस कम्पनी को यूरोप की अग्रणी फाइनेन्शियल कम्पनियों की कतार में ला खड़ा किया है। लंदन के फाइनेन्शियल सेक्टर में ख़लील की ख़ासी इज्ज़त है।
''वैसे ख़लील भाई, क्या ज़रूरी है कि कुछ किया ही जाए। इतना कमा लिया, अब आराम क्यों न करें। बेटे, बहुएं और पोते-पोतियों के साथ बाकी दिन बिता दिए जाएँ तो क्या बुरा है।''
''मियाँ, दूसरे के लिए पूरी ज़िंदगी लगा दी, कम्पनी को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। लेकिन... कल को मर जाएँगे तो कोई याद भी नहीं करेगा। अगर इतनी मेहनत अपने लिए की होती तो पूरे फाइनेन्शियल सेक्टर में हमारे नाम की माला जपी जा रही होती।''
''ख़लील भाई, मरने पर याद आया, आपने कार्पेण्डर्स पार्क के कब्रिस्तान में अपनी और भाभीजान की कब्र बुक करा ली है या नहीं ? देखिए, उस कब्रिस्तान की लोकेशन, उसका लुक, और माहौल एकदम यूनीक है।... अब ज़िंदगी भर तो काम, काम और काम से फुर्सत नहीं मिली, कम से कम मर कर तो चैन की ज़िंदगी जिएँगे।''
''क्या बात कही है मियाँ, कम से कम मर कर तो चैन की ज़िंदगी जिएँगे। भाई वाह, वो किसी शायर ने भी क्या बात कही है कि, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे।... यार, मुझे तो कोई दिक्कत नहीं। तुम्हारी भाभीजान बहुत सोशलिस्ट किस्म की औरत है। पता लगते ही बिफर जाएगी। वैसे, तुमने आबिदा से बात कर ली है क्या ? ये हव्वा की औलादों ने भी हम जैसे लोगों का जीना मुश्किल कर रखा है। अब देखो ना...।''
नजम ने बीच में ही टोक दिया, ''ख़लील भाई, इनके बिना गुजारा भी तो नहीं। नेसेसरी ईविल हैं हमारे लिए, और फिर इस देश में तो स्टेटस के लिए भी इनकी ज़रूरत पड़ती है। इस मामले में जापान बढ़िया है। हर आदमी अपनी बीवी और बच्चे तो शहर के बाहर रखता है, सबर्ब में - और शहर वाले फ्लैट में अपनी वर्किंग पार्टनर। सोच कर कितना अच्छा लगता है।'' साफ पता चल रहा था कि व्हिस्की अपना रंग दिखा रही है।
''यार, ये साला कब्रिस्तान शिया लोगों के लिए एक्सक्लूसिव नहीं हो सकता क्या ?... वर्ना मरने के बाद पता नहीं चलेगा कि पड़ोस में शिया है या सुन्नी या फिर वो गुजराती टोपी वाला। यार, सोच कर ही झुरझुरी होती है। मेरा बस चले तो एक कब्रिस्तान बना कर उस पर बोर्ड लगा दूँ - शिया मुसलमानों के लिए रिजर्व्ड।''
''बात तो आपने पते की कही है ख़लील भाई। लेकिन ये अपना पाकिस्तान तो है नहीं। यहाँ तो शुक्र मनाइये कि गोरी सरकार ने हमारे लिए अलग से कब्रिस्तान बना रखा है। वर्ना हमें भी ईसाइयों के कब्रिस्तान में ही दफ़न होना पड़ता। आपने कार्पेण्डर्स पार्क वालों की नई स्कीम के बारे में सुना क्या ? वो खाली दस पाउण्ड महीने की प्रीमियम पर आपको शान से दफ़नाने की पूरी ज़िम्मेदारी अपने पर ले रहे हैं। उनका जो नया पैम्फ़लैट निकला है उसमें पूरी डिटेल्स दे रखी हैं। लाश को नहलाना, नये कपड़े पहनाना, कफ़न का इन्तज़ाम, रॉल्स रॉयस में लाश की सवारी और कब्र पर संगमरमर का प्लाक - ये सब इस बीमे में शामिल हैं।''
''यार, ये अच्छा है, कम से कम हमारे बच्चे हमें दफ़नाते वक्त अपनी जेबों की तरफ़ नहीं देखेंगे। मैं तो जब इरफ़ान की तरफ देखता हूँ तो बहुत मायूस हो जाता हूँ। देखो पैंतीस का हो गया है मगर मजाल है, ज़रा भी ज़िम्मेदारी का अहसास हो... कल कह रहा था- डैड, कराची में बिजनस करना चाहता हूँ, बस एक लाख पाउण्ड का इंतज़ाम करवा दीजिए। अबे, पाउण्ड क्या साले पेड़ों पर उगते हैं। नादिरा ने बिगाड़ रखा है। अपने आपको सोशलिस्ट कामों में लगा रखा है। जब बच्चों को माँ की परवरिश की ज़रूरत थी, ये मेमसाब कार्ल मार्क्स की समाधि पर फूल चढ़ा रही थीं। साला कार्ल मार्क्स मरा तो अंग्रेजों के घर में और कैपिटेलिज्म के ख़िलाफ किताबें वहाँ लिखता रहा। इसीलिए दुनिया जहान के मार्क्सवादी दोगले होते हैं। सालों ने हमारा तो घर तबाह कर दिया। मेरा तो बच्चों के साथ कोई कम्यूनिकेश नहीं बन पाया।'' ख़लील जैदी ने ठंडी साँस भरी।
थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया है। मौत का-सा सन्नाटा! हल्का-सा सिगरेट का कश, छत की तरफ़ उठता हुआ धुआँ, शराब का एक हल्का-सा घूंट गले में उतरता, दांतों से काजू काटने की थोड़ी आवाज़। नजम से रहा नहीं गया, ''ख़लील भाई, उनकी एक बात बहुत पसन्द आई है। उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेन्ट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और खूबसूरत दिखाई दे। अब लोग तो लाश की आख़री शक्ल ही याद रखेंगे न। नादिरा भाभी और आबिदा को यही आइडिया बेचते हैं, कि जब वो मरेंगी तो दुल्हन की तरह सजाई जाएँगी।''
''यार नजम, एक काम करते हैं, बुक करा देते हैं दो-दो कब्रें। हमें नादिरा या आबिदा को अभी बताने की ज़रूरत क्या है। जब ज़रूरत पड़ेगी तो बता देंगे।''
''क्या बात कही है भाईजान, मज़ा आ गया ! लेकिन, अगर उनको ज़रूरत पड़ गई तो बताएँगे कैसे ? बताने के लिए उनको दोबारा ज़िन्दा करवाना पड़ेगा। हा...हा... हा... हा...।''
''सुनो, उनकी कोई स्कीम नहीं है जैसे बाई वन गैट वन फ्री या बाई टू गैट वन फ्री ? अगर ऐसा हो तो हम अपने-अपने बेटों को भी स्कीम में शामिल कर सकते हैं। अल्लाह ने हम दोनों को एक-एक बेटा ही तो दिया है।''
''भाईजान, अगर नादिरा भाभी ने सुन लिया तो खट से कहेंगी, क्यों जी हमारी बेटियों ने क्या कुसूर किया है ?''
''यार तुम डरावनी बातें करने से बाज नहीं आओगे। मालूम है, वो तो समीरा की शादी सुन्नियों में करने को तैयार हो गई थी। कमाल की बात ये है कि उसे शिया, सुन्नी, आग़ाखानी, बोहरी सभी एक समान लगते हैं। कहती है, सभी मुसलमान हैं और अल्लाह के बंदे हैं। उसकी इंडिया की पढ़ाई अभी तक उसके दिमाग से निकली नहीं है।''
''भाईजान, अब इंडिया की पढ़ाई इतनी खराब भी नहीं होती। पढ़े तो मैं और आबिदा भी वहीं से हैं। दरअसल मैं तो गोआ में कुछ काम करने के बारे में भी सोच रहा हूँ। वहाँ अगर कोई टूरिस्ट रिजॉर्ट खोल लूँ तो मज़ा आ जाएगा ! भाई, सच कहूँ, मुझे अब भी अपना घर मेरठ ही लगता है। चालीस साल हो गए हिन्दुस्तान छोड़े, लेकिन लाहौर अभी तक अपना नहीं लगता। यह जो मुहाजिर का ठप्पा चेहरे पर लगा है, उससे लगता है कि लाहौर में ठीक वैसे ही हैं जैसे हिन्दुस्तान में अछूत।''
''मियाँ चढ़ गई है तुम्हें। पागलों की सी बातें करने लगे हो। याद रखो, हमारा वतन पाकिस्तान है। बस ! यह हिन्दु धर्म एक डीजेनेरेट, वल्गर और करप्ट कल्चर है। हिन्दुओं या हिन्दुस्तान की पढ़ाई पूरी तरह से एन्टी-इस्लामिक है। फिल्में देखी हैं इनकी, वल्गैरिटी परसोंनीफाईड। मेरा बस चले तो सारे हिन्दुओं को एक कतार में खड़ा करके गोली से उड़ा दूँ।''
नजम के खर्राटे बता रहे थे कि उसे ख़लील जैदी की बातों में कोई रुचि नहीं है। वो शायद सपनों के उड़नखटौले पर बैठ कर मेरठ पहुँच गया था। मेरठ से दिल्ली तक बस का सफ़र, रेलगाड़ी की यात्रा और आबिदा से पहली मुलाकात, पहली मुहब्बत, फिर शादी। पूरी ज़िंदगी जैसे किसी रेल की पटरी पर चलती हुई महसूस हो रही थी।

महसूस आबिदा भी कर रही थी और नादिरा भी। दोनों महसूस करती थीं कि उनके पतियों के पास उनके लिए कोई समय नहीं है। उनके पति बस पैसा देते हैं घर का खर्चा चलाने के लिए, लेकिन उसका भी हिसाब-किताब ऐसे रखा जाता है जैसे कम्पनी के किसी क्लर्क से खर्चे का हिसाब पूछा जा रहा हो। दोनों को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि वे अपने-अपने घर की मालकिनें हैं। उन्हें समय-समय पर यह याद दिला दिया जाता था कि घर के मालिक के हुक्म के बिना वे एक कदम भी नहीं चल सकतीं। आबिदा तो अपनी नादिरा आपा के सामने अपना रोना रो लेती थी लेकिन नादिरा हर बात केवल अपने सीने में दबाये रखतीं।
नादिरा ने बहुत मेहनत से अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन पैदा किया था। उसने एक स्थाई हँसी का भाव अपने चेहरे पर चढ़ा लिया था। पति की डांट फटकार, गाली गलौंच, यहाँ तक कि कभी-कभार की मारपीट का भी उस पर कोई असर दिखाई नहीं देता था। कभी-कभी तो ख़लील जैदी उसकी मुस्कुराहट से परेशान हो जाते- 'आख़िर आप हर वक्त मुस्कुराती क्यों रहती हैं ? यह हर वक्त का दांत निकालना सीखा कहाँ से है आपने ? हमारी बात का कोई असर ही नहीं होता आप पर।'
नादिरा सोचती रह जाती है कि अगर वो गमगीन चेहरा बनाये रखे तो भी उसके पति को परेशानी हो जाती है। अगर वो मुस्कुराए तो उन्हें लगता है कि ज़रूर कहीं कोई गड़बड़ है, अन्यथा जो व्यवहार वे उसे दे रहे हैं, उसके बाद तो मुस्कुराहट जीवन से गायब ही हो जानी चाहिए।
नादिरा ने एक बार नौकरी करने की पेशकश भी की थी। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. पास है वह। लेकिन ख़लील जैदी को नादिरा की नौकरी का विचार इतना घटिया लगा कि बात, बहस में बदली और नादिरा के चेहरे पर उंगलियों के निशान बनाने के बाद ही रुकी। इसका नतीजा यह हुआ कि नादिरा ने पाकिस्तान से आई उन लड़कियों के लिए लड़ने का बीड़ा उठा लिया है जो अपने पतियों एवं सास-ससुर के व्यवहार से पीड़ित हैं।
ख़लील को इसमें भी शिकायत रहती है - ''आपका तो हर खेल ही निराला है। मैडम कभी कोई ऐसा काम भी किया कीजिए जिससे घर में कुछ आए। आपको भला क्या लेना कमाई धमाई से। आपको तो बस एक मज़दूर मिला हुआ है, वो करेगा मेहनत, कमाए और आप उड़ाइए मज़े।'' अब नादिरा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। जैसे ही ख़लील शुरू होता है, वो कमरा छोड़ कर बाहर निकल जाती है। वह समझ गई है कि ख़लील को बीमारी है। कंट्रोल करने की बीमारी। वह हर चीज़, हर स्थिति, हर व्यक्ति को कंट्रोल कर लेना चाहता है- कंट्रोल फ्रीक। यही दफ्तर में भी करता है और यही घर में।
अपने-अपने घरों में आबिदा और नादिरा बैठी हैं। आबिदा टी.वी. पर फ़िल्म देख रही है- लगान। वह आमिर खान की पक्की फैन है। उसकी हर फ़िल्म देखती है और घंटों उस पर बातचीत भी कर सकती है। पाकिस्तानी फ़िल्में उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। बहुत लाउड लगती हैं। लाउड तो उसे अपना पति भी मालूम होता है लेकिन इसका कोई इलाज नहीं है उसके पास। उसे विश्वास है कि नादिरा आपा कभी गलत हो ही नहीं सकती हैं। वह उनकी हर बात पत्थर की लकीर मानती है।
लकीर तो नादिरा ने भी लगा ली है अपने और ख़लील के बीच। अब वह ख़लील के किसी काम में दख़ल नहीं देती। लेकिन ख़लील की समस्या यह है कि नादिरा दिन प्रतिदिन खुदमुख्तार होती जा रही है। जब से ख़लील जैदी ने घर का सारा खर्चा अपने हाथ में लिया है, तब से वो घर का सौदा-सुल्फ़ भी नहीं लाती। ख़लील कुढ़ता रहता है लेकिन समझ नहीं पाता कि नादिरा के अहम् को कैसे तोड़े।
नादिरा ख़लील के एजेण्डे से पूरी तरह वाक़िफ़ है। जानती है कि ज़मींदार खून बरदाश्त नहीं कर सकता कि उसकी रियाया उसके सामने सिर उठा कर बात कर सके। परवेज़ अहमद के घर हुए बार-बे-क्यू में तो बदतमीज़ी की हद कर दी थी ख़लील ने। बात चल निकली थी प्रजातंत्र पर कि पाकिस्तान में तो छद्म डेमोक्रेसी है। परवेज़ स्वयं इसी विचारधारा के व्यक्ति हैं। उस पर नादिरा ने कहीं भारत को विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र कह दिया। ख़लील का पारा चढ़ गया, ''रहने दीजिए, भला आप क्या समझेंगी।'' बस यही कह कर एकदम चुप हो गया। नादिरा ने स्थिति को समझने में ग़लती कर दी और कहती गई, ''परवेज़ भाई, मैं क्या गलत कह रही हूँ ? भारत का प्रधानमंत्री सिक्ख, वहाँ का राष्ट्रपति मुसलमान और कांग्रेस की मुखिया ईसाई। क्या दुनिया में किसी भी और देश में ऐसा हो सकता है ?''
फट पड़ा था ख़लील - ''आप तो बस हिन्दू हो गई हैं। आप सिंदूर लगा लीजिए, बिन्दी माथे पर चढ़ा लीजिए और आर्य समाज में जा कर शुद्धि करवा लीजिए।... लेकिन याद रखिएगा, हम आपको तलाक दे देंगे।'' सन्नाटा छा गया था पूरी महफिल में। नादिरा भी सन्न रह गई। उसने जिस निगाह से ख़लील को देखा, अपने इस जीवन में ख़लील उसकी परिभाषा के लिए शब्द नहीं खोज पाएगा। फिर नादिरा ने एक झटका दिया अपने सिर को और चिपका ली वही मुस्कुराहट अपने चेहरे पर। ख़लील तिलमिलाया, परेशान हुआ और अंतत: चकरा कर कुर्सी पर बैठ गया। महफिल की मुर्दनी ख़त्म नहीं हो पाई। परवेज़ शर्मिंदा-सा नादिरा भाभी को देख रहा था। उसे अफ़सोस था कि उसने बात शुरू ही क्यों की। महफिल में कब्रिस्तान की-सी चुप्पी छा गई थी।
घर में भी कब्रिस्तान पहुँच गया। नादिरा आम तौर पर ख़लील के पत्र नहीं खोलती। एक बार खोलने का ख़मियाजा भुगत चुकी है। लेकिन इस पत्र पर पता लिखा था - श्री एवं श्रीमती ख़लील जैदी। उसे लगा ज़रूर कोई निमंत्रण पत्र ही होगा। पत्र खोला तो हैरान रह गई। अपने घर से इतनी दूर किसी कब्रिस्तान में इतनी पहले अपने लिए कब्र आरक्षित करवाने का औचित्य समझ नहीं पाई। क्या उसका घर एक ज़िन्दा कब्रिस्तान नहीं ? इस घर में ख़लील क्या नर्क का जल्लाद नहीं। घबरा भी गई कि मरने के बाद भी ख़लील की बगल में ही रहना होगा। क्या मरने के बाद भी चैन नहीं मिलेगा ?
चैन तो उसे दिन भर भी नहीं मिला। पाकिस्तान से आई अनीसा ने आत्महत्या का प्रयास किया था। रॉयल जनरल हस्पताल में दाख़िल थी। उसे देखने जाना था, पुलिस से बातचीत करनी थी। अनीसा को कब्र में जाने से रोकना था। अनीसा को दिलासा देती, पुलिस से बातचीत करती, सब-वे से सैण्डविच लेकर चलती कार में खाती, वह घर वापस पहुँची।
घर की रसोई में खटपट की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। यानी कि अब्दुल खाना बनाने आ चुका था। रात का भोजन अब्दुल ही बनाता है। ख़लील के लिए आज खास तौर पर कबाब और मटन चॉप बन रही थीं। नादिरा ने जब से योग शुरू किया है, शाकाहारी हो गई है। ऊपर कमरे में जा कर कपड़े बदल कर नादिरा अब्दुल के पास रसोई में आ गई है। अब्दुल की ख़ासियत है कि जब तक उससे कुछ पूछा ना जाए, चुपचाप काम करता रहता है। बस, हल्की-सी मुस्कुराहट उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। आज भी काम किए जा रहा है। नादिरा ने पूछ ही लिया- ''अब्दुल, तुम्हारी बीवी की तबीयत अब कैसी है ? और बेटी ठीक है ना ?''
''अल्लाह का शुक्र है बाजी। माँ बेटी दोनों ठीक हैं।'' फिर चुप्पी। नादिरा को कई बार हैरानी भी होती है कि अब्दुल के पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं होता। अच्छा भी है। दो घरों का काम करता है। कभी इधर की बात उधर नहीं करता।
ख़लील घर आ गया है। अब शरीर थक जाता है। उसे इस बात का गर्व है कि उसने अपने परिवार को ज़माने भर की सुविधाएँ मुहैय्या करवाई हैं। नादिरा के लिए बी.एम.डब्ल्यू कार है तो बेटे इरफ़ान के लिए टोयोटा स्पोटर्स। हैम्पस्टेड जैसे पॉश इलाके में महलनुमा घर है। घर के बाहर दूर तक फैली हरियाली और पहाड़ी। बिल्कुल पिक्चर पोस्टकार्ड जैसा घर दिया है नादिरा को। वह चाहता है कि नादिरा इसके लिए उसकी कृतज्ञ रहे। नादिरा तो एक बेडरूम के फ्लैट में भी खुश रह सकती है। खुशी को रहने के लिए महलनुमा घर की ज़रूरत नहीं पड़ती। सात बेडरूम का घर अगर एक मकबरे का आभास दे तो खुशी तो घर के भीतर घुसने का साहस भी नहीं कर पाएगी। दरवाजे के बाहर ही खड़ी रह जाएगी।
''ख़लील, ये आपने अभी से कब्रें क्यों बुक करवा ली हैं ? और फिर घर से इतनी दूर क्यों ? कार्पेण्डर्स पार्क तक तो हमारी लाश को ले जाने में भी खासी मुश्किल होगी।''
''भई, एक बार लाश रॉल्स राईस में रखी गई तो हैम्पस्टैड क्या और कार्पेण्डर्स पार्क क्या। यह कब्रिस्तान ज़रा पॉश किस्म का है। फ़ाइनेन्शियल सेक्टर के हमारे ज्यादातर लोगों ने वहीं दफ़न होने का फैसला लिया है। कम से कम मरने के बाद अपने स्टेटस के लोगों के साथ रहेंगे।''
''ख़लील, आप ज़िंदगी भर तो इन्सान को पैसों से तौलते रहे। क्या मरने के बाद भी आप नहीं बदलेंगे। मरने के बाद तो शरीर मिट्टी ही है, फिर उस मिट्टी का नाम चाहे अब्दुल हो, नादिरा हो या ख़लील।''
''देखो नादिरा, अब शुरू मत हो जाना। तुम अपना समाजवाद अपने पास रखो। मैं उसमें दख़ल नहीं देता, तुम इसमें दख़ल मत दो। मैं इन्तज़ाम कर रहा हूँ कि हम दोनों के मरने के बाद हमारे बच्चों पर हमें दफ़नाने का कोई बोझ न पड़े। सब काम बाहर-बाहर से ही हो जाए।''
''आप बेशक करिये इन्तज़ाम लेकिन उसमें भी बुर्जुआ सोच क्यों ? हमारे इलाके में भी तो कब्रिस्तान है, हम हो जाएँगे वहाँ दफ़न। मरने के बाद क्या फ़र्क पड़ता है कि हम कहाँ है ?''
''देखो, मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद हम किसी खानसामा, मोची, या प्लंबर के साथ पड़े रहें। नजम ने भी वहीं कब्रें बुक करवाई हैं। दरअसल मुझे तो बताया ही उसी ने। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी ज़िंदगी में तो तुमको बेस्ट चीज़ें मुहैय्या करवाऊँ ही, मरने के बाद भी बेहतरीन ज़िंदगी दूँ। भई अपने जैसे लोगों के बीच दफ़न होने का सुख और ही है।''
''ख़लील अपने जैसे क्यों ? अपने क्यों नहीं ? आप पाकिस्तान में क्यों नहीं दफ़न होना चाहते ? वहाँ आप अपनों के करीब रहेंगे। क्या ज्यादा खुशी नहीं हासिल होगी ?''
''आप हमें यह उल्टा पाठ न पढ़ाएँ। इस तरह तो आप हमसे कहेंगी कि मैं पाकिस्तान में दफ़न हो जाऊँ अपने लोगों के पास और आप मरने के बाद पहुँच जाएँ भारत अपने लोगों के कब्रिस्तान में। यह चाल मेरे साथ नहीं चल सकती हैं आप। हम आपकी सोच से अच्छी तरह वाक़िफ़ है बेगम।''
''ख़लील, हम कहे देते हैं, हम किसी फाइव स्टार कब्रिस्तान में न तो खुद को दफ़न करवाएँगे और न ही आपको होने देंगे। आप इस तरह की सोच से बाहर निकलिए।''
''बेगम कुरान-ए-पाक भी इस तरह का कोई फ़तवा नहीं देती कि कब्रिस्तान किस तरह का हो। वहाँ भी सिर्फ़ दफ़न करने की बात है।''
''दिक्कत तो यही है ख़लील, यह जो तीनों आसमानी किताबों वाले मज़हब हैं वो पूरी ज़मीन को कब्रिस्तान बनाने पर आमादा हैं। एक दिन पूरी ज़मीन कम पड़ जाएगी हम तीनों मज़हबों के मरने वालों के लिए।''
''नादिरा जी, अब आप हिन्दुओं की तरह मुतासिब बातें करने लगी हैं। समझती तो आप कुछ हैं नहीं। आप तो यह भी कह देंगी कि हम मुसलमानों को भी हिन्दुओं की तरह चिता में जलाना चाहिए।'' ख़लील जब गुस्सा रोकने का प्रयास करता है तो नादिरा के नाम के साथ जी लगा देता है।
''हर्ज़ ही क्या है इसमें ? कितना साफ सुथरा सिस्टम है। ज़जीन भी बची रहती है, खाक मिट्टी में भी मिल जाती है।''
''देखिए, हमें भूख लगी है। बाकी बात कल कर लेंगे।''
कल कभी आता भी तो नहीं है। फिर आज हो जाता है। किन्तु नादिरा ने तय कर लिया है कि इस बात को कब्र में नहीं दफ़न होने देगी। आबिदा को फोन करती है- ''आबिदा कैसी हो ?''
''अरे, नादिरा आपा, कैसी हैं आप ? आपको पता है आमिर खान ने दूसरी शादी कर ली है। और सैफ़ अली खान ने भी अपनी पहली बीवी को तलाक दे दिया है। इन दिनों बॉलीवुड में मज़ेदार ख़बरें मिल रही हैं। आपने शाहरुख की नई फ़िल्म देखी क्या ? देवदास ? क्या फ़िल्म है !''
''आबिदा, तुम फ़िल्मों की दुनिया से बाहर आकर हक़ीकत को भी कभी देखा करो। तुम्हें पता है कि ख़लील और नजम कार्पेण्डर्स पार्क के कब्रिस्तान में कब्रें बुक करवा रहे हैं।''
''आपा हमें क्या फ़र्क पड़ता है ? एक के बदले चार-चार बुक करें और मरने के बाद चारों में रहें। आपा जब ज़िन्दा होते हुए इनको सात-सात बेडरूम के घर चाहिएँ तो मरने के बाद क्या खाली दो गज़ ज़मीन काफी होगी इनके लिए। मैं तो इनके मामलों में दख़ल ही नहीं देती। हमारा ध्यान रखें बस...। आप क्या समझती हैं कि मैं नहीं जानती कि नजम पिछले चार साल से बुशरा के साथ वक्त बिताते हैं। आप क्या समझती हैं कि बंद कमरे में दोनों कुरान शरीफ की आयतें पढ़ रहे होते हैं ? पिछले दो सालों से हम दोनों भाई बहन की तरह जी रहे हैं। अगर हिन्दू होती तो अब तक नजम को राखी बांध चुकी होती।''
धक्क सी रह गई नादिरा ! उसने तो कभी सोचा ही नहीं कि पिछले पाँच वर्षों से एक ही बिस्तर पर सोते हुए भी वह और ख़लील हम-बिस्तर नहीं हुए। दोनों के सपने भी अलग-अलग होते हैं और सपनों की ज़बान भी। एक ही बिस्तर पर दो अलग-अलग जहान होते हैं। तो क्या ख़लील भी कहीं...। वैसे उसे भी क्या फ़र्क पड़ता है।
''आबिदा, मैं जाती रिश्तों की बात नहीं कर रही। मैं समाज को ले कर परेशान हूँ। क्या यह ठीक है जो ये दोनों कर रहे हैं।''
''आपा मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मेरे लिए यह बातें बेकार सी हैं। जब मर ही गए तो क्या फ़र्क पड़ता है कि मिट्टी कहाँ दफ़न हुई। इस बात को लेकर मैं अपना आज क्यों खराब करूँ ? हाँ, अगर नजम मुझ से पहले मर गए तो मैं उनको दुनिया के सबसे गरीब कब्रिस्तान में ले जाकर दफ़न करूँगी और कब्र पर कोई कुतबा नहीं लगवाऊँगी। गुमनाम कब्र होगी उसकी। अगर मैं पहले मर गई तो फिर बचा ही क्या ?''
ठीक कहा आबिदा ने कि बचा ही क्या। आज ज़िन्दा हैं तो भी क्या बचा है। साल भर बीत जाने के बाद भी क्या कर पाई है नादिरा। आदमी दोनों ज़िन्दा हैं लेकिन कब्रें आरक्षित हैं दोनों के लिए। ख़लील और नजम आज भी इसी सोच में डूबे हैं कि नया धन्धा क्या शुरू किया जाए। कब्रें आरक्षित करने के बाद वो दोनों इस विषय को भूल भी गए हैं।
लेकिन कार्पेण्डर्स पार्क उनको नहीं भूला है। आज फिर एक चिट्ठी आई है। मुद्रा स्फीति के साथ-साथ मासिक किश्त में पैसे बढ़ाने की चिट्ठी ने नादिरा को खून फिर खौला दिया है। ख़लील और नजम आज ड्राइंग रूम में योजना बना रहे हैं। पूरे लन्दन में एक नजम ही है जो ख़लील के घर शराब पी सकता है। और एक ख़लील ही है जो नजम के घर सिगरेट पी सकता है। लेकिन दोनों अपना-अपना नशा खुद साथ लाते हैं- सिगरेट भी और शराब भी।
''ख़लील भाई, देखिए मैं पाकिस्तान में कोई धन्धा नहीं करूँगा। एक तो आबिदा वहाँ जाएगी नहीं, दूसरे अब तो बुशरा का भी सोचना पड़ता है, और तीसरा यह कि अपना तो साला पूरा मुल्क ही करप्शन का मारा हुआ है। इतनी रिश्वत देनी पड़ती है कि दिल करता है, सामने वाले को चार जूते लगा दूँ। ऊपर से नीचे तक सब करप्ट ! अगर हम दोनों को मिल कर कोई काम शरू करना है तो यही इंगलैण्ड में रह कर करना होगा। वर्ना आप कराची और हम गोआ। मैं तो आजकल सपनों में वहीं गोआ में रहता हूँ। क्या जगह है ख़लील भाई, क्या लोग हैं, कितना सेफ फील करता है आदमी वहाँ।''
''मियाँ, तुमको चढ़ बहुत जल्दी जाती है। अभी तय कुछ हुआ नहीं तुम्हारे अन्दर का हिन्दुस्तानी लगा चहकने। तुम साले हिन्दुस्तानी लोग कभी सुधर नहीं सकते। अन्दर से तुम सब के सब मुतासिब होते हो, चाहे मज़हब तुम्हारा कोई भी हो। तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।''
''तो फिर आप ही कुछ सोचिए ना। आप तो बहुत ब्रॉड-माइंडेड हैं।''
''वहीं तो कर रहा हूँ। देखो, एक बात सुनो।''
नदिरा भुनभुनाती हुई ड्राइंग रूम में दाख़िल होती है - ''ख़लील, मैंने आपसे कितनी बार कहा है कि यह कब्रें कैंसिल करवा दीजिए। आप मेरी इतनी छोटी-सी बात नहीं मान सकते ?''
''अरे भाभी, आपको ख़लील भाई ने बताया नहीं कि उनकी स्कीम की खास बात क्या है ? उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग में जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और खूबसूरत दिखाई दे। अब आप ही सोचिए, ऐसी कौन-सी ख़ातून है जो मरने के बाद खूबसूरत और जवान न दिखना चाहेगी ?''
''आप तो हमसे बात भी न करें नजम भाई। आपने ही यह कीड़ा इनके दिमाग़ में डाला है। हम आपको कभी माफ़ नहीं करेंगे... ख़लील, आप अभी फोन करते हैं या नहीं। वर्ना मैं खुद ही कब्रिस्तान को फोन करके कब्रें कैंसिल करवाती हूँ।''
''यार तुम समझती नहीं हो नादिरा, कैंसिलेशन चार्ज अलग से लगेंगे। क्यों नुकसान करवाती हो।''
''तो ठीक है, मैं खुद ही फोन करती हूँ और पता करती हूँ कि आपका कितना नुकसान होता है। उसकी भरपाई मैं खुद ही कर दूँगी।''
नादिरा गुस्से में नम्बर मिला रही है। सिगरेट का धुआँ कमरे में एक डरावना-सा माहौल पैदा कर रहा है। शराब की महक रही सही कसर भी पूरी कर रही है। फोन लग गया है। नादिरा अपना रेफरेन्स नम्बर दे कर बात कर रही है। ख़लील और नजम परेशान और बेबस से लग रहे हैं।
नदिरा 'थैंक्स' कह कर फोन रख देती है।
''लीजिए ख़लील, हमने पता भी कर दिया है और कैन्सिलेशन का आर्डर भी दे दिया है। पता है उन्होंने क्या कहा ? उनका कहना है कि आपने साढ़े तीन सौ पाउण्ड एक कब्र के लिए ज़मा करवाए हैं। यानी कि दो कब्रों के लिए सात सौ पाउण्ड। और अब इन्फ़लेशन की वजह से उन कब्रों की कीमत हो गई है ग्यारह सौ पाउण्ड यानी कि आपको कुल चार सौ पाउण्उ का लाभ।''
ख़लील ने कहा- ''क्या ! चार सौ पाउण्ड का फ़ायदा, बस साल भर में !'' उसने नजम की तरफ़ देखा। नजम की आँखों में भी वही चमक थी।
नया धन्धा मिल गया था।
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तेजेन्द्र शर्मा
जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांव
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)
कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरू‏आत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।
74-A, Palmerston Road
Harrow & Wealdstone
Middlesex UK
Telephone: 020-8930-7778 / 020-8861-0923.
E-mail:
kahanikar@gmail.com , tejendra.sharma@gmail.com
Website:
http://www.kathauk.connect.to/

5 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर और रोचक कहानी प्रेषित की है।आभार। आप का प्रयास बहुत सराहनीय है।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष,

यद्यपि तेजेन्द्र की यह कहानी बहुचर्चित है, लेकिन जितनी बार इसका पाठ किया जाये उतनी बार नये अर्थ देने में सक्षम है. इसे विश्व पाठक समुदाय के बीच लाकर तुमने एक श्लाघनीय कार्य किया है.

शुभकामनाएं.

चन्देल

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष,

यद्यपि तेजेन्द्र की यह कहानी बहुचर्चित है, लेकिन जितनी बार इसका पाठ किया जाये उतनी बार नये अर्थ देने में सक्षम है. इसे विश्व पाठक समुदाय के बीच लाकर तुमने एक श्लाघनीय कार्य किया है.

शुभकामनाएं.

चन्देल

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

मैं रूप जी से सहमत हूँ इसे जितनी बार भी पढ़ो नए अर्थ निकलतें हैं--
सुभाष जी ने फिर पढ़वाया आभारी हूँ ---

ashok andrey ने कहा…

ek achhi kahani padne ko milii subhash jee aapko dhanyavad deta hoon or tejendra jee ko badhai aaj vakei log jindagii ki sachai se to mooh churate hain magar mout ke bad ke sukh ki kalpana matr se hi paphullit hote rehte hain jiska pata kisi ke paas nahin hai us par turra yeh ki usme bhii naphe ki baat sunte hii kahani ke mukhya patr mout ki bat bhool jate hain ki ab kahan daphan honge lekhak ne bahut hii sundar v saral dhang se kahani ko prastut kiya hai yahi iski saphalta hai


ashok andrey